फ़ारूख़ शेख, जिन्हें अपनी पहली फ़िल्म के पूरे पैसे 20 साल बाद मिले

11:38 AM Mar 25, 2022 |
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हादसे तो ज़िंदगी के साथ लगे ही रहते हैं. ये न हों तो ज़िंदगी, ज़िंदगी न रहे.

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-फ़ारूख़ शेख़

हादसे ज़िंदगी के कैटलिस्ट हैं. यह उसे ज़िंदादिल बनाने के लिए पुश करते हैं. हादसे तो सबके जीवन में होते हैं. पर हर कोई ज़िंदादिल नहीं होता. इसके लिए फ़ारूख़ शेख होना पड़ता है.

फ़ारूख़ शेख़. पैरलल और कमर्शियल सिनेमा दोनों में समान दख़ल रखने वाले अभिनेता. ऐक्टिंग का रेंज ऐसा कि रोमैन्स हो, कॉमेडी हो या कोई संजीदा किरदार. फ़ारूख़ इसे ख़ुद में उतार लेते.

जैसा कि वो दीप्ति नवल के बारे में कहते हैं:


मेरी अपनी राय यह है कि दीप्ति जी एक ग़ैर मामूली फ़नकारा हैं. ऐक्टिंग में कुछ करके दिखाना इतना मुश्किल नहीं है जितना कि ऐसा नज़र आना कि कुछ कर ही न रहे हों.

उन्होंने ख़ुद भी ऐसा ही करके दिखाया. चाहे 'कथा' का बदमाश बासू, 'चश्मेबद्दूर' का सीधा सिद्धार्थ, 'उमराव जान' का नवाब सुल्तान, 'शतरंज़ के खिलाड़ी' का चपल शकील या फिर 'नूरी' का रोमैंटिक यूसुफ़. सब एक-दूसरे से अलहदा किरदार और कोई किसी से कम नहीं. सब में शानदार अभिनय.

ऐक्टर से इतर उनकी और भी कई आइडेन्टिटीज़ हैं. बेहतरीन टीवी प्रस्तोता. थिएटर के मंझे हुए कलाकार. कमाल की शख्सियत. सरल, सहस और सुमधुर.

कुछ कहा जाए और उसका प्रमाण न दिया जाए वैसा कहना किस काम का. तो हमने जो इतना समां बांधा है, उसको साबित करने लिए सुनाते हैं फ़ारूख़ शेख़ की ज़िंदगी के कुछ चुनिंदा किस्से.


एक हसीं हादसा


गर्म हवा में ए.के. हंगल, बलराज साहनी, बेगम बदर और फ़ारूक़ शेख़ (बाएं से दाएं)

शुरुआत में हमने बात की हादसों की. एक हसीं हादसा फ़ारूख़ के साथ भी हुआ. जिससे उनकी ज़िंदगी 180 डिग्री घूम गयी. ख़ानदानी ज़मींदार और वकील का बेटा मुंबई में वकालत कर रहा था. साथ ही थोड़ा बहुत थिएटर भी. एमएस सथ्यू इस्मत चुगताई की कहानी पर एक फ़िल्म बना रहे थे. 'गर्म हवा'. पैसे उनके पास थे नहीं. सो जान पहचान के लोगों को ही रोल दे रहे थे. जो पैसे भी न लें और समय भी ख़ूब दें. इसी जान पहचान में सथ्यू साहब ने फ़ारूख़ शेख़ से सम्पर्क किया और उन्हें फ़िल्म के लीड बलराज साहनी का छोटा बेटा बनने की पेशकश की. नेकी वो भी पूछ-पूछ. फ़ारूख़ साहब ने ऑफ़र एक्सेप्ट कर लिया. उनका एमएस सथ्यू के साथ एक कॉन्ट्रैक्ट हुआ 750 रुपए का. जो सथ्यू साहब ने उन्हें 20 सालों में चुकाए.वो मज़ाकिया लहज़े में कहते हैं:


बजट के अभाव में बेचारे सथ्यू साहब दोस्तों से ही पूछ रहे थे. यह रोल कर लो. वो रोल कर लो. तो 750 रुपये के लालच में मैंने भी एक रोल कर लिया.

सत्यजीत रे रोज़ गुड मॉर्निंग विश करते थे


शतरंज के खिलाड़ी में फ़ारूक शेख़ और फ़रीदा जलाल

सिनेमाई जीनियस सत्यजीत रे ने 'गर्म हवा' देखी. और फ़ारूख साहब को अपनी फ़िल्म शतरंज के खिलाड़ी में कास्ट कर लिया. उन्हें फ़ारूख़ का काम इतना पसंद आया कि रे साहब ने उनके कनाडा से लौटने का एक महीने तक इंतज़ार किया.पर कास्ट उन्हीं को किया. फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई. फ़िल्म में सईद जाफ़री, संजीव कपूर और फरीदा जलाल जैसे सीनियर कलाकार. सत्यजीत रे रोज़ सुबह आते और मेकअप रूम में एक-एक ऐक्टर के पास जाकर गुड मॉर्निंग बोलते. अब फ़ारूख़ साहब को लगता, क्या कमाल और डाउन टू अर्थ आदमी है कि इतने सीनियर कलाकारों के बीच में मुझ जैसे नौसिखिये को गुड मॉर्निंग विश कर रहा है. मेरा हालचाल पूछ रहा है. शूटिंग ख़त्म हो गयी. बाद में फ़ारूख़ शेख़ के सामने यह भेद खुला कि आख़िर रे साहब डॉट 9:30 बजे आकर सबसे गुड मॉर्निंग बोलते क्यों थे! दरअसल वो थे अंग्रेजी तरबियत के बंगाली आदमी. दुनिया इधर की उधर हो जाए, पर वक्त ग़लत नहीं होना चाहिए. तोरे साहब सिर्फ़ इसलिए सबको गुड मॉर्निंग बोलने जाते थे कि वो चेक कर सकें कि कौन लेट है, कौन टाइम पर.और फ़ारूख़ शेख़ समझते कि क्या मस्त इंसान है इतना बिज़ी होकर भी वक़्त निकालकर मिलने आता है.


फ़ारूख़ सुबह 5 बजे उठते और फिर सो जाते


गमन मूवी में फ़ारूक़ शेख़

उन्होंने 'उमराव जान' के डायरेक्टर मुज़फ्फर अली के साथ एक फ़िल्म की 'गमन'. आपने फ़िल्म भले ही न देखी हो पर रूपा गांगुली की आवाज़ में 'आपकी याद आती रही रात भर' सुनकर किसी की याद में ज़रूर डूबे होंगे. तो रे साहब की तरह ही मुज़फ्फर अली ने भी, जो अपनी पहली फ़िल्म बना रहे थे, 'गर्म हवा' देखी और फ़ारूख़ साहब को मिलने बुलाया. मुलाक़ात सफल रही. उन्हें 'गमन' में रोल मिल गया. जो अर्बन माइग्रेशन की समस्या पर बात करती है. शूट शुरू हुआ. इसका एक शिड्यूल लखनऊ के कोटवारा में भी सेट था. इस शूट पर फ़ारूख़ साहब सुबह 5 बजे ही उठ जाते. आप सोच रहे होंगे सुबह का शूट रहता होगा. लेकिन नहीं. वो इतनी जल्दी उठते थे, सुबह की नमाज़ पढ़ने. अब आप कहेंगे. यह तो अच्छी बात है. इसमें बताने जैसा क्या है. तो होता यह था कि वो 5 बजे सुबह उठते. नमाज़ पढ़ते और फिर सो जाते. उसके बाद उठते कहीं 11 बजे के आसपास.मुज्जफर अली ने तंज़िया लहज़े में एक बार फ़ारूख़ साहब से कहा था:


मुझे पता चला, आप लखनऊ आते हैं और चले जाते हैं. अब लगता है आपको कोटवारे ही बुलाना पड़ेगा. वहां लोग आपको याद करते हैं. वो आपकी यूनिट में एक शख़्स था, जो 5 बजे उठकर नमाज़ पढ़ता था और फिर सो जाता था.

एक ही नाटक 20 साल तक चला


तुम्हारी अमृता नाटक में शबाना आज़मी और फ़ारूख शेख़

फिरोज़ खान ने एक अंग्रेजी प्ले पढ़ा लव लेटर्स. उन्हें अंग्रेजी में जमा नहीं. उन्होंने जावेद सिद्दीकी को बुलाया. इस प्ले को उन्होंने उर्दू में अडॉप्ट किया और नाम रखा 'तुम्हारी अमृता'. प्ले का डिज़ाइन कुछ ऐसा है कि इसमें सिर्फ़ दो लोग बैठकर ख़त पढ़ते हैं. तो इन लोगों को लगा बहुत चलेगा नहीं. अब लिख गया है तो कर लेते हैं. प्ले के दो चार शो किये गए. उसके बाद यह प्ले ऐसा चला, ऐसा चला कि इसे शबाना आज़मी और फ़ारूख़ शेख़ 20 साल तक करते रहे. चूंकि शबाना आज़मी को फ़ारूख़ कॉलेज के दिनों से जानते थे, एक बार उन्होंने शबाना से कहा:


आप जानती हैं हम दोनों एक-दूसरे को लगभग 40 साल से जानते हैं.

इस पर शबाना ने मज़ाक करते हुए जवाब दिया :


प्लीज मुझे याद मत दिलाओ. मैं बेहोश हो जाऊंगी.

एक समय पर 40 फ़िल्मों के प्रस्ताव


नूरी में पूनम ढिल्लो और फ़ारूक़ शेख़

फ़ारूख़ साहब ने टीवी किया. रेडियो किया. थिएटर किया. फ़िल्में भी कीं. लेकिन कुछ भी सिर्फ़ पैसे के लिए नहीं किया. वो कहते हैं:


बहुत ज़्यादा काम मिस्टर फ़ारूख शेख के लिए स्वास्थ्यकर नहीं है. मैं पैसे के लिए काम नहीं करता. पैसा मेरे लिए काम करता है.

जिस ज़माने में उनके समकालीन एक दर्ज़न फ़िल्में साइन करके बैठे थे. उस ज़माने में वो फिल्में रिजेक्ट कर रहे थे. उनके पास भी मौके आये. 'नूरी' फ़िल्म की सफलता के बाद एक समय आया. जब उनके पास एक के बाद एक लाइन से 40 फ़िल्मों के प्रपोजल थे. उन्होंने सब ठुकरा दिए. क्योंकि वो सारे 'नूरी' सरीखे ही रोल थे.

पैसा उनके लिए सिर्फ़ जीविकोपार्जन का साधन रहा. जीवनोपार्जन के लिए उन्होंने बेहतरीन काम किया.अपने करियर को वर्सेटाइल बनाने की भरपूर कोशिश की और इसमें सफल भी रहे.

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