गोविंदा के 48 गाने: ख़ून में घुलकर बहने वाली ऐसी भरपूर ख़ुशी दूजी नहीं
05:10 AM May 26, 2021 |
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नब्बे के दशक के, और उससे पहले के भी, फिल्मी गानों ने बुनियादी जीवनयापन करने वाले दर्शकों को इतना सुख दिया कि कोई हिसाब नहीं.स्पष्ट करना मुश्किल है कि हमें इन गानों में कुछ भी लॉजिकल लगता है क्या? हमें इन्हें देखते हुए क्या समझ आता है? इन लव की बात करने वाले गानों, इनके नाच, इनके भरपूर रंगों, हीरो-हीरोइन की अदायगी को हम अपने वास्तविक जीवन में उसी स्वरूप में कभी यूज़ नहीं कर पाते. हम ऐसी लोकेशंस पर जाकर अपने प्रेमी-प्रेमिका के साथ नहीं नाचते. हमारे कपड़े इतने नए, इस्त्री किए हुए और परफेक्ट फैशन वाले कभी नहीं होते. हमारी हेयरस्टाइल बिखरी रहती है. घर के काम करने वाली स्कूली लड़कियां हों या शादीशुदा औरतें उनका मेकअप इतना सटीक, कपड़े इतने अद्भुत और चेहरा व मन बिना तनाव नहीं होता. वे पसीने से भीगी होती हैं. उनके माता-पिता के घर या ससुराल में कई जटिलताएं हरदम होती हैं. पारिवारिक शादियों में औपचारिकता में नाच लेने के अलावा कहां बगीचों में जाकर नाच पाती हैं? गाने हमें लिखने नहीं आते. फिर म्यूजिक भी नहीं दे सकते. नए डांस स्टेप्स भी नहीं बनाने आते. फिल्ममेकिंग में कई कलाएं लगती हैं, हर कला में पारंगत होने में हर विभाग वाले को बरसों लग जाते हैं. तो आम इंसान असल में इन चीजों को कभी नहीं कर सकता.
ब्रॉडवे हों या 'ल मिज़राब्ल' (2012) जैसी हॉलीवुड की फिल्में भीं या 'सिंगिंग इन द रेन' (1952) जैसी म्यूजिकल्स, हिंदुस्तानी दर्शकों को हमेशा उनका नाच गाना अजीब लगता है. लेकिन जब बात हमारी फिल्मों की आती है तो न जाने किस लॉजिक से वे हमें अच्छी लगती हैं!
ज्यादातर ऐसे गाने और फिल्में हमें बचपन से लेकर किशोर होने तक की उम्र में सबसे ज्यादा बांधते हैं. इस उम्र में हमने जो गाने देखे होते हैं वे हमारी सबसे पहली फैंटेसीज़ बनाते हैं. फिल्मों की कहानियों के हिस्सों और उनमें प्रेमियों, क्लाइमैक्स, गीतों को देख बच्चों को लगता है कि आने वाले जीवन में शायद कुछ ऐसा ही होगा. जैसे जब तक विवाह न हुआ हो या जब तक मैथुन क्रिया न की हो तब तक युवाओं का एक-दूसरे के प्रति आकर्षण बहुत सारे रहस्यों की वजह से होता है. तब हम इन गानों को अलग ही नजर से देख रहे होते हैं. लेकिन जब वो रहस्य अनुभव कर लिए जाते हैं, शरीर एक्सप्लोर कर लिए जाते हैं तो फिर इन गानों का कुछ सम्मोहन टूट जाता है.
जब आप नौकरी करने लगते हैं और घर चलता रहे इस तनाव में रस्सी पर चल रहे होते हैं; जब आप पारिवारिक जिम्मेदारियों की ठोस जमीन पर गिर रहे होते हैं और दर्द खा रहे होते हैं; जब टीनएज वाले फिल्मी प्रेम, गानों को वैसे ही भोग पाने का कोई तरीका 30-35 की उम्र के बाद भी नहीं मिलता; जब समझ आ जाता है कि फिल्में कैसे बनती हैं और अभिनेता-अभिनेत्री स्माइल कर रहे हैं, गा रहे हैं, गले लग रहे हैं, kiss कर रहे हैं तो सिर्फ दिखा रहे हैं असल में तो नहीं कर रहे; वो जो दिख रहा है वो सिर्फ सतही चित्र है, भीतर से खाली - जब हम इन विचारों से गुजर जाते हैं तो बाद में देखी फिल्में या गाने फैंटेसी लगना बंद हो जाते हैं.
गरीब आदमी हो तो साल में शायद एक बार परिवार को फिल्म दिखा लाता है औपचारिकता के लिए या किसी अचीवमेंट जैसा महसूस करने के लिए या किसी त्योहार की वजह से. अगले दिन सच्ची ठोस जमीन पर वो काम करने फिर निकल जाता है. मध्यमवर्गीय और उच्च मध्यमवर्गीय इंसान हों तो वीकेंड में पॉपकॉर्न-बर्गर लेकर मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने जाते हैं तो वहां देखते हुए वो मासूमियत नहीं रहती. वहां इरादा पत्नी या बच्चों के प्रति फॉर्मैलिटी पूरा करना या चिल करना या पैसे देकर फिल्म उत्पाद को कंज्यूम कर लेना होता है. व्यापारी जैसे तोल-मोल करते हुए. मासूमियत नहीं रहती. ऐसे लोगों के लिए ज्यादा से ज्यादा बस इन्हीं स्तरों पर ये नई फिल्में असर करती हैं. बचपने-शुरुआती जवानी में देखी फिल्मों की तरह भाव विह्ल नहीं करतीं.
गोविंदा के आगे शेयर किए गानों में तकरीबन सभी नब्बे के दशक के हैं. जो भी पाठक तब बच्चे या टीनएजर या जवान रहे होंगे वे जीवन में कहीं भी जाएं, कितने ही शिक्षित हो जाएं, एलीट हो गए हों इन गानों में कुछ ऐसा है जो उन्हें पूरी जिंदगी इनसे अलग नहीं होने देगा. क्योंकि इन गानों ने हमें तब पकड़ा था जब हम कोरे थे. वो छपाई, वो तिलिस्म नहीं जाएगा. आज हम दिक्कत में हो सकते हैं लेकिन जब ये आए थे और हमने इन्हें देखा था तब हम निश्चिंत, फ्री थे.
हमारे दौर के इन गानों में किसी में भी शोर नहीं है. सब में एक लय है. सब मीठे-मीठे, खुशी सी देने वाले हैं. मन और कलेजा भर-भर जाता है.
आज के रैपर्स या कंपोजर्स या लिस्नर्स की तरह परम आनंद में जाने के लिए हमें ड्रग्स नहीं लेनी पड़ी. या दिमाग की नसें सुन्न करने जितनी लाऊड वॉल्यूम नहीं करनी पड़ी. गोविंदा ही क्यों उनके समकालीन एक्टर्स के गानों में भी वो बात थी कि तब या आज भी सुनने के बाद कोई नशा करने की जरूरत महसूस नहीं होती. इन्हें देखते-सुनते हुए नसों में ख़ून के साथ एक सुख मिल रहा होता है जो होश में रखता है पर बहुत आनंद देता है. ये गाने मोहल्ले में किसी परिवार की डेक में बजते रहते थे और सारा मुहल्ला सुनकर आनंदित होता रहता था.
नब्बे के इस एंटरटेनमेंट का मजा लेने वाले लोगों या वैसी आर्थिक पृष्ठभूमि में रहने वाले लोगों को ये गाने आज 2016 में भी उतने ही पसंद होंगे. बहुत. एक ट्रक ड्राइवर को गोविंदा के ये 48 गाने दे दिए जाएं तो वो पूरी रात आनंद के साथ ड्राइविंग करते हुए गुजार सकता है. बस ड्राइवर दिन भर इन गानों को सुनते हुए सीट पर बैठा रह सकता है. थकान से दूर. किसी कारीगर, मजदूर, मकान की नींव खोदने वाले आदमी के पास रेडियो में ये गाने बज रहे हैं तो वो पूरे दिन की दिहाड़ी आराम से कर सकता है. उसे बहुत सुविधा होगी. टैंपो वाले पूरे-पूरे दिन बिना शारीरिक थकान या जीवन को कोसने के वाहन चला सकते हैं. शादी करके लौट रहे हैं और गाड़ी में ये गाने बज रहे होंगे तो फ्रैश पति-पत्नी दोनों इतने रोमांचित होंगे कि बयान नहीं कर सकते. वो वापसी की ड्राइव कभी भी नहीं भूलेंगे और कुछ गाने तो सुख के उसी पल में लौटा ले जाएंगे.
कहने का मतलब ये है कि इन गानों का कोई लॉजिक नहीं है. वही लव वाली रामायण. वही नाच-गाना. और ये तो असली में भी नहीं हो रहा होता है, सिर्फ एक भ्रम होता है जो आंखों को दिख रहा होता है लेकिन फिर भी इनका जादू ऐसा है कि आप सबसे ज्यादा शारीरिक श्रम वाला काम कर रहे हों और ये गाने आपकी पूरी थकान बांट लेते हैं. आपका टाइम कटवा देते हैं. आपको निराशा के पलों में रिलैक्स कर देते हैं. हमें हमारे अतीत की मुस्कानें लौटा देते हैं. न जाने क्या जादू हैं ये.
गोविंदा 21 दिसंबर को 1963 में जन्मे थे. उनको याद करने का उनके गानों से सही कोई तरीका नहीं है. नाच और गाने के सबसे जादुई पैकेज वाले वे शायद हिंदी सिनेमा के आखिरी सुपरस्टार हैं. अब उनके जैसी लैगेसी किसी की नहीं होनी. ऋतिक रोशन हों या टाइगर श्रॉफ या वरुण धवन, जो गीत गोविंदा के हिस्से आए और उन्होंने जैसे निभाए वैसा तो अब कोई नहीं कर सकेगा. अब तो वैसे भी गीतों वाला सिनेमा जा रहा है. अब कहानी की प्रधानता है. म्यूजिक है लेकिन बैकग्राउंड में या एक-दो मार्केटिंग सॉन्ग्स में. गोविंदा शायद ऐसे अकेले एक्टर हैं जिनकी डांस टाइमिंग और डांस में अदायगी को फिल्मी लोगों ने भी बहुत एंजॉय किया. अभिषेक बच्चन, फरहान अख्तर, ऋतिक रोशन बच्चे थे तो गोविंदा के दीवाने थे. उन पर नाचते थे. बड़े हुए तो भी उनके फैन हैं. वरुण धवन और सिद्धार्थ मल्होत्रा की पीढ़ी भी.
अपनी पब्लिक इमेज गोविंदा चतुराई से बनाते तो शायद आइकॉनिक हो जाते. लैजेंड होते. लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया. फिल्मों से इतर चाहे आपको गोविंदा बिलकुल न सुहाएं लेकिन फिल्मों में और इन 48 गानों में उन्हें देखकर फैन हुए बिना नहीं रहा जाता. यहां तो वे लैजेंड ही हैं. इन गानों में वे कुछ तो ऐसा कर रहे थे जो आलस, टाइमपास या यूं ही हो जाने वाला तो बिलकुल नहीं था. ये कुछ ऐसा था जो सिर्फ और सिर्फ उन्होंने ही किया. चाहे वे माइकल जैक्सन या पश्चिम के डिस्को डांसर्स से प्रेरित होकर डांसर बने हों. चाहे उन्होंने उनकी नकल की हो लेकिन आखिर में गोविंदा सिर्फ गोविंदा ही थे. उन जैसा कोई नहीं है.
ये गाने स्टूपिड हैं या अतार्किक हैं या गलतियों भरे हैं कि क्या हैं लेकिन जी भर के आनंद और मज़ा देने वाले हैं. इस आनंद को परिभाषित करना कठिन है. लेकिन उन्हें सुनते रहेंगे. इन 48 गानों की कोई रैंकिंग नहीं है. मेरी आपके लिए प्लेलिस्ट ये है. आप अपनी पसंद वाले गाने कमेंट्स में शेयर कीजिए. अगर गोविंदा आपके दौर के रहे हैं तो ये भी शेयर कर सकते हैं कि उनकी फिल्मों और गानों का आपकी जिंदगी में फैंटेसी या अन्य स्तरों पर क्या असर पड़ रहा था. या फिर ये बता सकते हैं कि इन गानों को सुनकर अंदर क्या होता है. हम खुश क्यों होते हैं?
शुरू करें.
- कुली नंबर 1 (1995)
https://www.youtube.com/watch?v=rzjOLgb2U1U
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