आज सुबह-सुबह एक ऐसी खबर आई जिसने मेरा दिन बना दिया. ट्विटर के सीईओ पराग अगरवाल, वही पराग अगरवाल जिनके सीईओ बनने पर कुछ समय पहले बड़ा हल्ला कटा था. उन्होंने बताया कि वो पैटर्निटी लीव पर जा रहे हैं. ट्विटर 20 हफ्ते यानी लगभग 5 महीने की पैटर्निटी लीव अपने इम्प्लॉईज को देता है. और पराग अगरवाल उसे अवेल करने वाले हैं. हो सकता है वो पूरे 20 हफ़्तों की लीव न लें, लेकिन ये जानना महत्वपूर्ण है कि वो लीव पर जा रहे हैं. क्यों महत्वपूर्ण है, इसी पर आज बात करेंगे.
क्या मैटरनिटी लीव में होना इतना सहज है ?
बच्चे पैदा करने पर मांओं का छुट्टी पर जाना आम है. हालांकि ये बात और है कि हर मां, स्पेशली इंडिया के कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करने वाली महिला जब प्रेगनेंट होती है तो उसकी प्रेग्नेंसी की ख़ुशी में खलल डालने के लिए एक डर बैठा होता है. 6-7 महीने काम से दूर रहूंगी तो मेरे करियर का क्या होगा. इस साल तो अप्रेजल मिलने से रहा. इस बीच बॉस या टीम के दूसरे सदस्य बदल गए तो वापस जाकर उनसे सामंजस्य कैसे बैठा पाऊंगी.ये डर तो बड़ी कंपनियों में काम करने वाली महिलाओं के हैं. छोटी कंपनियों में तो औरतों पर सबसे बड़ी चुनौती आती है अपनी नौकरी को बचाने की. इस बारे में हम पहले भी ऑडनारी में बात कर चुके हैं कि किस तरह कुछ संस्थान महिला की प्रेगनेंसी की खबर सुनते ही उसे बाहर निकालने के बहाने बनाने लगते हैं, जैसे ये ठीक से परफॉर्म नहीं कर रही, वगैरह-वगैरह.
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एक औरत जैसे ही मैटरनिटी लीव पर जाति है लोग कहने लगते हैं कि अब तो ये घर बैठे सैलरी उठाएगी. (सांकेतिक तस्वीर)
महिलाओं के लंबी छुट्टी पर जाने को लेकर एक डर और एक ईर्ष्या पसरी हुई है. कि अब तो ये घर बैठे सैलरी उठाएगी. जबकि मां बनने वाली औरत के लिए अगर आप कुछ मिनिमम कर सकते हैं, तो वो है उसे छुट्टी देना. लेकिन इससे भी बेहतर एक आईडिया है. वो है मां के साथ पिता बनने वाले पुरुष को भी छुट्टी मिलना.
इंडिया ही नहीं, दुनियाभर में महिलाओं के लिए मैटरनिटी लीव तो है. लेकिन पैटर्निटी लीव, या यूं कहें कि पैरेंटल लीव, बहुत कम संस्थानों में है. मैटरनिटी लीव बेशक एक बहुत अच्छी पहल है. लेकिन पैटर्निटी लीव की कमी दुनियाभर के संस्थानों का, चाहे वो सरकारी हों या प्राइवेट, एक डार्क साइड है. बच्चे पैदा होने पर केवल महिलाओं को छुट्टी मिलना ये दिखाता है कि आज भी हम यह मानते हैं कि बच्चा पालना महिला का काम है. जिन संस्थानों में आज पैटर्निटी लीव मिलती भी है, वो चार से सात दिन की होती है. क्या हम मानते हैं कि 4 दिन एक बच्चे को पालने के लिए काफी हैं? सोचिएगा इस बारे में आप.
एक समय था जब माना जाता था बच्चे बस हो जाएं, पल तो वो कैसे भी जाएंगे. बड़े परिवारों में महिला अगर घर के कामों में लगी है तो परिवार की दूसरी महिलाएं बच्चों को देख लेती थीं. लेकिन आज की शहरी दुनिया बहुत अलग है. जैसे हम बड़े हुए वैसे ही हमारी अगली पीढ़ी नहीं पल सकती. हममें से बहुत से लोगों की मांओं ने इसलिए नौकरी ही नहीं की कि उन्हें एक, दो या तीन बच्चे पालने हैं. लेकिन आज लड़कियां जॉब छोड़ने या करियर से दो-तीन साल का ब्रेक ले लें, ये उनके लिए संभव नहीं है. और वो नौकरी छोड़ें भी क्यों? क्या बच्चा करना प्रोफेशनल स्तर पर उनके लिए सज़ा बनकर आना चाहिए?
शहरी और छोटे परिवारों में पिताओं का बच्चे पालने में हाथ बंटाना उनका फ़र्ज़ तो है ही, वक़्त की ज़रुरत भी है. आजकल के यंग फादर्स पिछली पीढ़ी के पिताओं से अलग हैं. वो ये समझते हैं कि उनकी पत्नी का करियर ज़रूरी है. वो ये भी समझते हैं कि उनकी पत्नी की मानसिक सेहत और नींद भी ज़रूरी है. मगर जिस तरह पिता अपनी जिम्मेदारियां समझने को तैयार हैं, उस तरह उनकी कंपनियां नहीं हैं.
पेरेंटशिप और करियर के बीच का स्ट्रगल
कई बार पेरेंटशिप में बच्चे को पालने के लिए मां या पिता दोनों में से किसी को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ती है (सांकेतिक तस्वीर)
एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले मेरे एक दोस्त हाल ही में पिता बने. मैंने उनसे पूछा कि किस तरह उनकी जिम्मेदारियां बदलीं. वो बताते हैं कि किस तरह वर्क फ्रॉम होम उनका आखिरी सहारा बना. क्योंकि उनकी छुट्टियां ख़त्म हो गई थीं और कोविड के दौर में कोई मदद करने वाला न था. उनकी पत्नी एक ऐसे प्रोफेशन में हैं जिसमें फ्लेक्सिबल रहा जा सकता है. नतीजतन पत्नी को ही ज्यादा जिम्मेदारियां उठानी पड़ीं. दिनभर काम करने और रातभर जागने के बीच खुद को महीनों सोने का वक़्त ही नहीं मिला.
इस बीच एक ऐसे पिता से भी मेरी बात हुई जिन्होंने पैरेंटल लीव न मिलने पर जॉब छोड़ दी. संतोष एक कंपनी में डिजिटल मार्केटिंग देखते थे. फिर पिता बने और ये फैसला लिया. वहीं उनकी पत्नी, यानी बच्चे की मां ने अपनी जॉब कंटिन्यू रखी. मैंने उनसे पूछा कि ये फैसला लेते समय उनके दिमाग में क्या कुछ चल रहा था. इसपर उनका जवाब था,
"हमने शुरू से ऐसा डिसाइड नहीं किया था कि कौन कि कौन नौकरी करेगा और कौन बच्चे को देखेगा. मेरी वाइफ की प्रेग्नेंसी तक मैं भी जॉब करता था. लेकिन कोविड सिचुएशन में दिक्कतें आने लगीं. मसलन परिवार से कोई मदद के लिए आ नहीं सकता था. मैं जॉब कर रहा था तो मेरी सैलरी उतनी नहीं थी घर के लिए पूरी पड़े. जबकि मेरी वाइफ की सैलरी मुझसे बेहतर थी. तो दोनों ने डिसाइड किया कि वो जॉब करेगी और मैं बच्चे का ख्याल रख लूं. ये मुश्किल था लेकिन मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला."मैंने उनसे ये भी पूछा कि इस कदम को उठाने पर उन्हें किस तरह का रिएक्शन मिला? इसपर संतोष ने कहा,
"सोसाइटी की तरफ़ से रिस्पॉन्स पॉजिटिव कम नेगेटिव ज़्यादा थे. लोग कहते थे कि तुम तो जोरू के गुलाम हो. सब समझते हैं कि ये लड़कियां ही कर सकती हैं लड़के नहीं. अपने घर पर खाना मैं ही बनाता हूं मेरी पत्नी नहीं. इसमें किसी के छोटा या बड़ा होने की कोई बात नहीं है."
मैटरनिटी लीव और मदरहुड का दबाव
बच्चा मां की ज़िम्मेदारी है. जब हम ऐसा मानते हैं तो हम मां का बर्डन डबल कर देते हैं. यूं ही उसका शरीर बच्चे के बाद तमाम बदलावों से गुज़र रहा है. बच्चे की फीडिंग यानी दूध पिलाने का काम वही कर सकती है. लेकिन बच्चे की मालिश, नहलाना-धुलाना, उसके डायपर बदलना, उसे रात पर जागकर चुप कराना, सुलाना ये वो काम हैं जो कुदरत नहीं, हमने बांटें हैं. और माता और पिता की भूमिका के बीच हम एक और गहरी खाई खोद देते हैं जब हम महिला को घर पर बैठाकर पुरुष को दफ्तर भेजते हैं. कई बार महिलाएं अपनी नौकरी छोड़ देती हैं और इससे पति पर फाइनेंशियल बर्डन और बढ़ता है.कई बार मदरहुड को संभालना को संभालना मुश्किल हो जाता है क्योंकि मां को बच्चे के साथ काम भी संभालना होता है (सांकेतिक तस्वीर)
सिर्फ फिजिकल और फाइनेंशियल ही नहीं, बच्चा पैदा होना पिता के लिए कई इमोशनल बदलाव लेकर आता है. ये बदलाव समझने के लिए मैंने बात की साइकॉलजिस्ट डॉक्टर अरीबा अब्बासी से. मैंने पूछा कि जब मां के ऊपर अधिक ज़िम्मेदारी हो और पिता को ज्यादा समय ऑफिस में देना पड़े, तो मां और पिता, दोनों किस तरह अफेक्ट होते हैं. डॉक्टर ने बताया ,
"पिताओं का भी एक बहुत बड़ा रोल परवरिश में होता है. कहीं न कहीं यह रोल पीछे रह जाता है. क्योंकि पिता अपने काम में इतना बिज़ी हो जाते हैं और वो फाइनेंशियल रिस्पॉन्सबिलिटी इतनी के लेते हैं कि इमोशनल रिस्पॉन्सबिलिटी कहीं न कहीं पीछे रह जाती है. और बच्चे का जो रिश्ता पिता के साथ बनना चाहिए वो नहीं बन पाता है. बच्चा अपने शुरुआती साल मां के साथ ज़्यादा बिताता है इसलिए वो पिता की तुलना में मां के ज़्यादा करीब रहता है. इसलिए हमें पेटरनिटी लीव का कॉन्सेप्ट हमें अपनाना चाहिए."आगे उन्होंने बताया,
"बच्चे के पैदा होने के बाद कपल्स में जो दूरियां बन जाती हैं दूरियां भी कम होंगी. जब पिता भी मां के साथ बच्चे की परवरिश करेंगे. जब एक मां बच्चे की पूरी ज़िम्मेदारी लेती है तो अक्सर उसे शिकायत होती है कि वो फिजिकल, इमोशनल हर तरह की दिक्कत से अकेले ही जूझ रही है.अगर वहां पिता उस वक्त मौजूद हों तो उनके बीच की दूरी भी कम होगी."पराग अगरवाल से हमने बात शुरू की थी. उनके अलावा मार्क ज़कर्बर्ग भी दो महीने की पैटर्निटी लीव पर जा चुके हैं. वहीं रेडिट के को-फाउंडर अलेक्सिस ओहानियन 2017 में 4 महीने की पैटर्निटी लीव पर गए थे. जिसके बाद उन्होंने मीडिया से बात करते हुए कहा था- "मैंने पूरे 16 हफ्ते की छुट्टी ली और ये मुझे अपने करियर को लेकर लापरवाह नहीं बनाता. मैं छुट्टी लेने के बावजूद एम्बिशस हूं. आपके बॉस अगर आपको पैटर्निटी लीव के लिए मना करें तो उन्हें मेरे बारे में बता दीजिएगा."
रेडिट, नेटफ्लिक्स, गूगल, ज़ोमैटो, नोवार्तिस जैसी कई कंपनियां हैं जो पैरेंटल लीव देने में जेंडर का भेद नहीं करतीं. उम्मीद है कि भविष्य में ज्यादा से ज्यादा कंपनियां ऐसा करेंगी. आपकी क्या राय है? कमेंट सेक्शन में बताएं.
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