https://youtu.be/gvT4SYmcr28'उड़ता पंजाब'के लेखक सुदीप शर्मा से बातचीत का पहला हिस्सा
आप 'दी लल्लनटॉप' पर पढ़ चुके हैं. पहला हिस्सा जैसे आग पर खड़ी फिल्म के बारे में था, साक्षात्कार का यह दूसरा हिस्सा ज़रा तसल्ली भरा है. इस मुलाकात में हमने एक लेखक की अंदरूनी दुनिया भी देखी. जहां एक कहानी लेखक स्क्रिप्ट के लिए किसी नए विषय की तलाश में निपट अकेला निकलता है. खाली कैनवास पर हाथ घुमाकर जादूभरी कहानी निकालता है. दक्षिण दिल्ली की एक पॉश कॉलोनी में जब मैं अौर रजत (हमारे प्रॉड्यूसर) सुदीप से मिले, सुदीप के हाथ में पुरानी-मोटी, खस्ताहाल जिल्द बंधी किताब थी. पता चला कि इसी की वजह से वे यहां आए हैं. चम्बल के मिथकीय प्रसिद्धि वाले डाकू पर लिखी इस किताब की एक ही कॉपी अब लेखक के पास बची है, अौर उसे तलाशते वे बम्बई से दिल्ली आ गए. उन्होंने बताया कि इसके आगे वे बुन्देलखंड की यात्रा पर जा रहे हैं. यह सब उनकी नई फिल्म की रिसर्च का हिस्सा है.Advertisementसुदीप शर्मा राजस्थान के मारवाड़ी परिवार से हैं, जिनका बचपन सुदूर पूर्व शहर गुवाहाटी में बीता. दिल्ली के हिन्दू कॉलेज से पढ़ाई अौर फिर IIM अहमदाबाद से एमबीए. फिर एक दिन अपने उजले कॉर्पोरेट करियर को छोड़कर वे सिनेमा की दुनिया में आ गए. एक छोटी सी प्यारी फिल्म लिखी'सेमशूक'. अौर फिर आई'एनएच 10'. नवदीप सिंह निर्देशित इस हार्ड हिटिंग फिल्म ने सुदीप को बतौर लेखक स्थापित कर दिया. 'एन एच 10'उन फिल्मों की अगली कड़ी थी, जो समाज में बहस खड़ी करती हैं, अौर इस बहस से संवाद शुरु होता है. सुदीप की लिखी फिल्मों में माहौल की जो प्रामाणिकता मिलती है, उसमें भाषा भी एक बड़ा कारक है. यहां स्क्रिप्ट राइटिंग पर विस्तार से चर्चाके साथ सिनेमा में संवाद लेखन का बदलता चरित्रभी दिलचस्प बातचीत के घेरे में है. तो सुनें, गुनें..
मिहिर: आपकी लिखी 'एनएच-10' में ऐसा लगता है ये 'अच्छे' अौर 'बुरे' पात्रों के बीच की लड़ाई है. लेकिन गौर से देखेंगे तो ऐसा है नहीं...
सुदीप: ऐसा है नहीं. लेकिन अॉडियंस ने जिस तरह से मीरा (अनुष्का शर्मा) के किरदार के लिए रूट किया, मैं खुद उससे थोड़ा आश्चर्यचकित था. मुझे नहीं पता था कि इस तरह का रिएक्शन आएगा. हमें लगा था कि हम एक कहानी कह रहे हैं जहां ये थोड़े लाइट ग्रे शेड वाले कैरेक्टर हैं अौर ये थोड़े डार्क ग्रे शेड्स वाले कैरेक्टर हैं. अौर ये किसी सुनसान सड़क पे आपस में मिल जाते हैं अौर कुछ 'हादसा' हो जाता है. मुझे नहीं लगा था कि इन्हें 'वाइट' अौर 'ब्लैक' देख लिया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ. जिस तरह के रिएक्शंस आए…कि मार दो. हम थिएटर में गए थे जहां पे क्लाइमैक्स सीन में मीरा जब मार रही थी तो बाकायदे दर्शक चिल्ला रहे थे 'kill them, bastards!'. इस तरह का रिएक्शन मुझे पर्सनली काफ़ी शॉकिंग लगा.
मिहिर: क्यों शॉकिंग लगा?
सुदीप: क्योंकि मैंने उसकी उम्मीद नहीं की थी, कि लोग इतना ज्यादा जुड़ेंगे मीरा अौर अर्जुन के किरदार से. ये 'हम जैसे लोग' वाला मामला था. PLU's जिनको कहते हैं मार्केटिंग में. वो पीएलयू सिंड्रोम था वो काम कर गया. लोगों ने उन पात्रों से जोड़ा कि 'ये तो मैं हूं'. कि ये शायद मेरे साथ हो सकता था या शायद मेरे दोस्त के साथ हो सकता था. लेकिन हमारे दिमाग में हमेशा से ये भी ग्रे कैरेक्टर्स थे. आप देखो, ढाबे पे पहली बार जब वो लड़की मीरा के पास आती है मदद मांगने, वो उसको बिल्कुल अलग कर देती है. बोलती है, 'आप हटो'. अौर हम अक्सर ऐसा करते हैं. हमारे पास लोग आते हैं अौर कुछ पूछते हैं या मदद मांगते हैं, अौर अगर वो 'हमारे जैसे' नहीं हैं, हम यही करते हैं. अगर कोई आकर अंग्रेज़ी में पूछता है कि look, I just dropped my wallet, can you help me out? हम 500 रुपए निकालकर उसे दे देंगे. हम नहीं पूछेंगे कि क्या हुआ, कैसे हुआ आदि.. sure sure, don't worry. return it when you can. अौर कोई एक जो हमारे वर्ग का नहीं है, 'people like us' नहीं है, वो अगर हमसे आकर पचास रुपए भी मांगता है.. कि मेरी बस छूट गई है मुझे गांव जाना है, मेरे साथ मेरा बच्चा है.. ये एक तरह का घोटाला भी है अौर लोग उस वजह से भी पीछे हटते हैं. लेकिन कहीं न कहीं हम एक अलग तरीके से रिएक्ट करते हैं. हमारी ह्यूमन कंडीशनिंग थोड़ी सी कम हो जाती है.
एनएच-10 में मीरा के केस में भी यही था. वो मार्केटिंग में काम करती है. रूरल सेग्मेंट को एक 'मार्केट' समझती है. उसके लिए ये एक संभावित बाज़ार है जिसे टैप नहीं किया गया है अभी तक. लेकिन जब मीरा असल में उस मार्केट के बीच है अौर उनमें से किसी व्यक्ति से मिलती है तो उसकी मदद नहीं कर रही है. इस तरह मीरा के किरदार में भी विरोधाभास है. बड़ा सवाल फिल्म में 'अॉनर' का है. सतबीर, लड़की का भाई, वो अपना 'अॉनर' बचाने की लड़ाई लड़ रहा है. जो भी उसके अपने अॉनर का आइडिया है. अर्जुन को जब थप्पड़ पड़ता है अपनी बीवी के सामने अौर पूरे ढाबे के सामने, कहीं उसका'अॉनर' हर्ट हुआ है. उसका ईगो हर्ट हुआ है. अब वो उसको बचाने की कोशिश कर रहा है. He is just trying to win his honour back. उसके चक्कर में वो कुछ ऐसे कदम उठा लेता है जो उसे नहीं उठाने चाहिए थे. ऐसे देखें तो सारे ही ग्रे कैरेक्टर्स थे.
Anushka Sharma in NH 10
मिहिर: मुझे हमेशा लगता है कि 'एनएच-10' जैसी फिल्म का दिल्ली की 16 दिसंबर वाली घटना अौर उसके समाज पर परवर्ती प्रभाव से पहले होना संभव नहीं था. क्या फिल्में भी खास समयकाल से बंधी होती हैं?
सुदीप:लेखक-फिल्मकार के तौर पर हम जो घट रहा है उससे प्रभावित होते हैं. 16 दिसंबर वाली घटना ने महिला सुरक्षा वाले मुद्दे को नेशनल डिबेट पर लाकर रख दिया. लेकिन ये अकेली घटना नहीं थी. पिछले कुछ सालों में ये घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं. दिल्ली में अौर पूरे उत्तर भारत में, पूरे हिन्दुस्तान मेंलोग ये बात करने लगे थे कि कुछ गलत हो रहा है. ये जो भी हो रहा था, विचलित करने वाला था. हमारे मन में लिखते हुए ये भी था कि इस बारे में कुछ कहना चाहिए. मकसद ये नहीं था कि इस मुद्दे पर कुछ कहें.
कोशिश कहानी कहने की ही थी, लेकिन कहानी का बैकड्रॉप रियल घटनाअों से प्रेरित था. जो आप-पास हो रहा था वो हमें भी प्रभावित कर रहा था. 'उड़ता पंजाब' में भी ऐसे ही हुआ. एक खबर थी, चर्चा थी जिसकी सुगबुगाहट थी लेकिन नेशनल लेवल पर नहीं आई थी.
मिहिर: लेकिन 'एनएच-10' कमर्शियल फिल्म थी. इसका मतलब क्या ये है कि हिन्दी के 'कमर्शियल सिनेमा' का ढांचा भी बदल रहा है?
सुदीप:बिल्कुल बदल रहा है.. अौर इसका सारा श्रेय हमसे एक पीढ़ी पहले की जेनरेशन के लोगों को जाता है.
मिहिर: आप अपनी जेनरेशन किन्हें बोल रहे हैं अौर अपने से पहले की पीढ़ी किन्हें?
सुदीप :ये तो आपने टेढ़ा सवाल पूछ लिया! इसकी शुरुआत 'बैंडिट क्वीन' से हुई है. 'सत्या' से हुई. रामगोपाल वर्मा अौर उनके साथ जुड़े लेखकों का दौर, ये उस दौर की बात है. उसके बाद 'मक़बूल' ने अौर विशाल (भारद्वाज) सर के काम ने इसको आगे बढ़ाया है. फिर अनुराग (कश्यप) आए. अनुराग के काम ने हम जैसे लोगों को बहुत प्रेरित किया है. देखिए, प्रोड्यूसर्स को एक रेफरेंस पॉइंट न मिले तो वो घबरा जाते हैं. तो जो पहली कुछ फिल्में रही होंगी..…
मिहिर: रेफरेंस पॉइंट याने?
सुदीप:नमूना देकर बताना कि 'सर, हम ऐसा कुछ बना रहे हैं'. अगर आप अपनी पिच मीटिंग में ये बात नहीं बोल पाते हैं तब प्रोड्यूसर्स घबरा जाते हैं. ये आपकी कमी भी हो सकती है कि आप कहानी को स्क्रिप्ट में उतनी अच्छी तरह से लिख नहीं पाए हैं कि वो देख पाएं. अौर फिर स्क्रिप्ट को इंटरप्रेट करना भी अपने आप में एक हुनर है. ज़रूरी नहीं कि ये हुनर हर किसी के पास हो. इसीलिए तो हमें फिल्म चाहिए, क्योंकि फिल्म देखने के बाद ज़्यादातर लोगों को समझ आ जाता है कि अच्छी फिल्म है या बुरी फिल्म है. स्क्रिप्ट एक टेक्निकल सा डॉक्यूमेंट होती है, वो एक ब्लूप्रिंट है. अब आप आर्किटेक्ट का बनाया ब्लूप्रिंट किसी आम इंसान को दिखाअोगे अौर कहोगे कि ये इमारत मैं बना रहा हूं तो उसको समझ नहीं आएगा. इमारत देखने के बाद फौरन समझ आ जाता है कि कितनी आलीशान अौर शानदार है.
हमारे से एक जेनरेशन पहले, 90 के दशक में जो फिल्में बननी शुरू हुई थीं, उनको कितनी मुश्किल आई होगी ये मैं सोच भी नहीं सकता. 'बैंडिट क्वीन' का कोई रेफरेंस पॉइंट नहीं था. 'बैंडिट क्वीन' जब आई थी तो बहुत ही शॉकिंग सी, in your face फिल्म थी. वो कैसे बनी वो अपने आप में एक चमत्कार है. 'सत्या' के बारे में भी ऐसा ही कुछ है. बिल्कुल ही अलग तरीके की फिल्म, बिल्कुल ही अलग नैरेटिव की फिल्म.
Bandit Queen : courtesy Movie Film Posters
आज परिस्थितियां बहुत बेहतर हैं. निर्माताअों को कुछ उदाहरण मिल गए हैं. उन्हें लगता है कि हां, अगर आप कुछ आढ़ा-टेढ़ा करने की कोशिश भी कर रहे हो तो शायद वो चल जाए. शायद वो इतना खराब रिस्क नहीं है, इतना बुरा रिस्क नहीं है. क्योंकि कुछ रिस्क अच्छे नतीजों में बदले हैं. अॉडियंस का भी इसमें बहुत बड़ा हाथ है. जैसे खाने का नया टेस्ट बनता है धीरे-धीरे, वैसे सिनेमा का भी एक स्वाद होता है जो समय के साथ बना है हमारी अॉडियंस का. पिछले बीस सालों में हमारी अॉडियंस इवॉल्व हुई है. प्रयोगशील हुई है. वो चाहते हैं कि कुछ नया देखें. कहीं इसमें उदारीकरण का भी हाथ है. उसके पहले दो तरीके के स्कूटर आते थे, दो तरह की गाड़ियां आती थी. हर घर एक जैसा लगता था. हर नौकरी एक जैसी थी. पिछले 20-25 सालों में वो भी बदला है. हमारी संस्कृति में एक प्रयोगशीलता आई है.
मिहिर: सिनेमा इवॉल्व हो रहा है. क्या स्क्रिप्ट राइटिंग भी इवॉल्व हो रही है? अौर ये आर्ट वर्सेस क्राफ्ट की डिबेट क्या है? एक जगह आपने खुद को 'राहुल द्रविड़ स्कूल' का स्क्रिप्ट राइटर कहा था, जो क्राफ्ट का खिलाड़ी है..
सुदीप:अगर हम 70 के दशक का सलीम-जावेद वाला गोल्डन एरा निकाल दें, तो स्क्रिप्ट राइटिंग हमारे सिनेमा में पिछले 30-40 सालों में केन्द्र में नहीं रही. एक क्राफ्ट की तरह उस पर काम नहीं हुआ है. 60 के दशक में बहुत अच्छा काम हो रहा था. 70 में ब्लॉकबस्टर काम हुआ, लेकिन उसके बाद एक ठहराव सा आ गया. संवाद लेखन की अहमियत हमेशा से ज़्यादा रही है हिन्दी फिल्मों में. आप देखो पुरानी फिल्मों में, स्क्रिप्ट अौर स्क्रीनप्ले कौन लिखता था फिल्म में ये शायद लोगों को नहीं पता होता था, लेकिन डायलॉग कादर खान के हैं ये सबको पता होता था. संवादों पर काफ़ी जोर था. वहां जो संतुलन गड़बड़ाया उसे काफी वक्त लगा सुधरने में. क्योंकि डायलॉग अगर स्टैंडआउट कर रहा है फिल्म में तो मुझे ऐसा लगता है कि वो गड़बड़ है. संवाद अलग से नहीं दिखना चाहिए. जो किरदार हैं उन्हीं का वो संवाद होना चाहिए. किरदार फ्लैमबॉयंट (चटकीला) है तो डायलॉग भी होगा. डायलॉग राइटिंग अपने आप में एक प्रदर्शनकारी कला बन गई अौर उसने स्क्रीनप्ले राइटिंग हो बहुत नुकसान पहुंचाया 80 अौर 90 के दौर में. पिछले 10-15 सालों में वो स्क्रीनप्ले के ऊपर फोकस वापस आया है जो बहुत अच्छा है.
बाक़ी आर्ट वर्सेस क्राफ्ट वाली डिबेट तो अनन्तकाल से चली आ रही है. आप खुद को कैसे लेखक के तौर पर देखते हो, वही उसका जवाब है. अगर आप 'ग्रेट ब्यूटी' जैसी फिल्म बना रहे हो तो आप अर्टिस्ट हो. जैसे मैं काम कर रहा हूं मुझे लग रहा है वो क्राफ्ट है. आर्ट का कुछ प्रतिशत तो हो सकता है,लेकिन बस उतना ही. अभी तो मेरी क्राफ्ट को ही साधने की कोशिश चल रही है. हो सकता है कि कभी आगे चलकर होपफुली आप तेंदुलकर की तरह आंख बन्द करके भी शॉट खेल सको! अभी तो नहीं लगता कि उतना आत्मविश्वास मेरे भीतर है.
मिहिर: ये डायलॉग वाली डिबेट पर थोड़ा अौर बताइये. ये बड़ी दिलचस्प बात है, क्योंकि ऐसे संवादों का एक नॉस्टैल्जिया है. बहुत से चाहनेवाले उस तरह के संवादों के चले जाने से दुखी भी हैं.
सुदीप :गुलज़ार साब का एक इंटरव्यू पढ़ रहा था मैं कुछ समय पहले, जिसमें उन्होंने एक बहुत अच्छी लाइन कही थी, 'नॉस्टेल्जिया इज़ ए डिस्ट्रैक्शन'.. खासकर लेखकों के लिए. मैं कोशिश करता हूं कि उससे बचूं. असल में इस डायलॉगबाज़ी के केन्द्र में आने के ऐतिहासिक कारण हैं. हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री कलकत्ता में बेस्ड थी लम्बे समय तक. उस वजह से काफी सारे बांग्ला लेखक सिनेमा के लिए कहानी अौर स्क्रीनप्ले लिखने में जुड़े थे. लेकिन वे हिंदी में संवाद नहीं लिख पाते थे. ऐसे में लेखक रखे जाते थे सिर्फ़ संवाद लिखने के लिए. ये सिर्फ़ हिन्दुस्तान में होता है कि स्क्रीनप्ले कोई अौर लिखता है अौर संवाद कोई अौर. दुनिया की किसी भी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसा नहीं होता है कि स्क्रीनप्ले कोई अौर लिख रहा है अौर डायलॉग कोई अौर.
मुझे लगता है कि संवाद सच्चा लगना चाहिए किरदार के मुंह से. कि मेरा किरदार इस परिस्थिति में ये संवाद बोलेगा.. वो 'एसिड टेस्ट' हर लाइन के साथ करना चाहिए. एसिड टेस्ट कि जिस दुनिया में ये किरदार है, क्या वो ये बात बोलेगा. हर फिल्म का युनिवर्स अलग होता है. 'एनएच 10' का अपना ब्रह्मांड है. 'उड़ता पंजाब' और 'पीकू' का अपना है. लेखक की आवाज किसी किरदार के संवाद में सुनाई दे जाए तो मुझे थोड़ी दिक्कत होती है. लगता है मैं फेल हो गया हूं. क्योंकि ये किरदार मेरे जैसे ही बोलने लगता है. जबकि इसे सतबीर की तरह बोलना था. या मीरा, अर्जुन, टॉमी सिंह की तरह बोलना था.मुझे बुरा लगता है अगर सब किरदार एक जैसा साउंड करने लगें. Dialogue should be in the background and screenplay the driver. डायलॉग उसकी सिर्फ़ मदद करता है. कुछ चीज़ें अंडरलाइन करने में, असरदार बनाने में.
मिहिर : आपने कभी सिर्फ संवाद लिखे हैं?
सुदीप :नहीं, अौर मैं शायद वो कभी कर भी न पाऊं. अगर वो किरदार मुझसे नहीं निकले हैं तो मुझे नहीं पता कि मैं उनको कैसे ज़बान दूं.
मिहिर : लेकिन हिन्दी सिनेमा में यह बहुत प्रचलित तरीका है..
सुदीप :हां. अौर शायद मुझे करना चाहिए क्योंकि लोग ऐसा बोलते हैं कि डायलॉग के लिए पैसे ज़्यादा मिलते हैं.. तो शायद करना चाहिए!
मिहिर : वो कौनसी फिल्में थीं जिन्हें देखकर लगा कि मुझे भी ये काम करना है. इस सिनेमा की दुनिया में जाना है.
सुदीप : 'सत्या' वो पहली फिल्म थी जिसने मुझे बहुत ज़्यादा प्रभावित किया था. अौर मेरी जेनेरेशन के हर राइटर-डाइरेक्टर के लिए शायद 'सत्या' वो फिल्म होगी. उसके बाद 'मक़बूल' आई. 'मक़बूल' ने बहुत ज़्यादा प्रभावित किया. 'मक़बूल' देखकर लगा कि ये तो बहुत मज़ेदार काम है. अपनी जिन्दगी में एक भी चीज़ अगर ऐसी बना सकते हो मजे आ जायेंगे. कोशिश तो करनी ही चाहिए. 'मकबूल' देखने के ठीक बाद मैंने डिसाइड कर लिया था कि हां, अब मैं यही काम करूंगा अौर छोडूंगा नौकरी. सोचा था कि अगले दो साल कुछ पैसे बचा लेता हूं अौर प्लान ये था कि कुछ सेविंग्स कर छोड़नी है नौकरी. अौर ऐसा कुछ करना है. अभी तक तो हो नहीं पाया है वैसा अच्छा काम, पर भविष्य में शायद..
मिहिर : 'सत्या' का आपने नाम लिया. वैसे तो हम सबने अपनी वजहें खोजी हैं. फिर भी पूछना चाहिए, क्या खास लगा था आपको 'सत्या' में?
सुदीप : 'सत्या' पहली फिल्म थी जो गैंगस्टर्स को, गुंडो को नॉन-जजमेंटल होकर देख रही थी. हमारे सिनेमा में एक हाई मोरल ग्राउंड हमेशा से होता था. सही अौर गलत के खांचे बंटे हुए होते थे. हीरो हमेशा सही होता था. वो ग्रे भी नहीं होता था. अगर वो कभी गलती से ग्रे हो जाता था तो वो अपने को सुधार लेता था. अौर आखिर में अगर वो नहीं सुधरता था तो मर जाता था. 'सत्या' पहली ऐसी फिल्म थी जो अन-अपोलोजेटिक थी. उसने आपको अपनी दुनिया से उठाकर उस दुनिया में रख दिया था. 'सत्या' जब आई थी तब तक मैं कभी बॉम्बे नहीं आया था. मुझे बॉम्बे के बारे में ज़्यादा कुछ पता भी नहीं था. जो कुछ पता था वो फिल्मों से पता था. उन दो चार फिल्मों से जिनमें बॉम्बे को बॉम्बे की तरह दिखाया गया था. जब आप 'छोटी सी बात' देखते हो तो आपको एक तरीके का बॉम्बे देखने को मिलता है. 'रंगीला' देखते हो तो एक तरीके का बॉम्बे देखने को मिलता है. 'सत्या' में पहली बार एक बॉम्बे देखा, जो काफी क्रूर था. जो काफी खुरदुरा था. पर काफी मज़ेदार भी था. एक बहुत ही दिलचस्प बॉम्बे देखने को मिला. उस समय का बॉम्बे शायद वैसा ही था. जो उस समय बॉम्बे में घटित हो रहा था, 'सत्या' ने उस बारे में अौर जानने को उत्सुक किया. मैंने उसके बाद बॉम्बे के बारे में पढ़ना शुरु किया. जब टाइम्स अॉफ इंडिया में कोई न्यूज आती थी कि बॉम्बे में गैंगस्टर्स ने दो लोगों को मार दिया, सडनली आप उसे अलग नज़रिए से देखते थे. 'सत्या' ने एक खिड़की खोल दी थी, कि देखो ऐसी भी दुनिया है अौर ऐसी भी दुनिया दिखाई जा सकती है. अौर इसे कोई निर्णय सुनाए बिना देखना संभव है. आप अपने किरदारों को ये लाइसेंस दे सकते हो कि वो कुछ गलत काम कर सके. वो मेरा ख्याल है कि बहुत बड़ी बात थी.
Satya film poster
मिहिर : 'सत्या' शहर को जिस तरह दिखाती है वो खास है. 'एन एच 10' भी जैसे दिल्ली की फिल्म ना होते हुए भी दिल्ली की फिल्म है. शहर को एक किरदार की तरह दिखाने का यह रास्ता 'सत्या' ने ही खोला था.
सुदीप : बिल्कुल. क्योंकि हम तब तक एलसीएम फिल्में बनाते थे..
मिहिर : एलसीएम क्या होता है?
सुदीप : 'लोएस्ट कॉमन डिनॉमिनेटर' वाली फिल्में बनाते थे. कास्ट रेफरेंस निकाल दिया जाता था. सरनेम भी नहीं होता था. कुमार जैसा कोई जैनेरिक सा सरनेम होता था.. अतुल कुमार हमारे हीरो, या रवि कुमार.. कि गलती से भी किसी को पता ना चल जाए की ये कहां से है. शहर भी जैनेरिक सा होता था. गांव भी बस गांव होता था. वो यूपी का गांव है, एमपी का गांव है या राजस्थान का गांव है ये बिल्कुल पता नहीं चलता था. शायद यह उस समय की ज़रूरत भी रही हो. इतनी विविधता है हमारे देश में, ऐसे में एक लोएस्ट कॉमन डिनॉमिनेटर देने की ज़रूरत थी. एक समय के बाद फिल्ममेकर्स में आत्मविश्वास आया है, कि यार हम छोटी फिल्में बना सकते हैं जो एक खास वर्ग के लोग पसन्द करेंगे. अौर ये विश्वास भी आया है कि अगर आप एक लोकल फिल्म बनाते हो, लोकल से यहां मेरा मतलब है ऐसी फिल्म जो अपनी ज़मीन से पूरी तरह जुड़ी हुई है, तो उसके जो आधारभूत मूल्य हैं वो खुद ब खुद आगे जायेंगे.
आज हम यहां हिन्दुस्तान में बैठकर ईरानियन फिल्में देखते हैं.. मेरा ईरान से कोई लेना-देना नहीं है, मैं कभी ईरान नहीं गया, बहुत ज़्यादा ईरान के बारे में पढ़ा भी नहीं है. पर जब आप असगर फरहदी की फिल्म देखते हो, या ज़फर पनाही की फिल्म देखते हो तो ऐसा नहीं लगता कि कुछ समझ नहीं आया. वो अपने आप में इतनी रूटेड फिल्में हैं.. अौर अपनी ज़मीन से इसी गहरे जुड़ाव के चलते वो युनिवर्सल हो जाती हैं. क्योंकि हर कहानी के मूल में कुछ सार्वभौमिक मूल्य हैं. वो अब हमारी फिल्मों में भी आने लगा है. 'गैंग्स अॉफ वासेपुर' झारखंड की कहानी है, जिसे आप बाकायदा देखते हो अौर इंजॉय करते हो. शहरों में भी लोग इन्हें देख रहे हैं. अौर कहानी का मज़ा तभी आता है जब वो किसी खास समय अौर जगह में स्थित हो. in a perticular time and place. अगर मैं इस कहानी को किसी अौर शहर में बेस कर सकता हूं तो यार ये कहानी शायद ढीली है, या ये कहानी शायद कहनी ही नहीं चाहिए. 'मसान' सिर्फ़ बनारस में बन सकती है. अगर 'मसान' को आप उठाकर कहीं अौर रख दो तो फिर मसान 'मसान नहीं रहेगी. 'एन एच 10' भी दिल्ली अौर आस-पास की कहानी है. उसको उठाकर अगर आप बॉम्बे टू गोवा डालो तो वो कुछ अौर फिल्म बन जाएगी, लेकिन ये फिल्म नहीं रहेगी. तो अब हमारी फिल्मों में शहर एक किरदार के तौर पर आया है अौर ये बहुत ही दिलचस्प किस्म का फेज़ बन गया है. मैं शहर कह रहा हूं, दरअसल जगह के तौर पर आया है.. जैसे 'उड़ता पंजाब' पंजाब की कहानी है.
मिहिर : हां ये बहुत दिलचस्प है. अब आप आनंद एल राय की फिल्में देखिए, हिमांशु शर्मा की लिखी.. कितनी बार तो वो जगह भी नहीं लेकर आते. वो किरदार लेकर आते हैं अौर किरदार जगह ले आते हैं. मुझे लगता है वो एक अौर एक्सट्रीम है.. कि कानपुर के लिए एक कानपुर का किरदार आ जाएगा, लखनऊ के लिए एक लखनऊ का. अौर वो अपने हर किरदार के साथ वहां की संस्कृति लेकर आते हैं. अौर उन्होंने इसी को अपनी यूएसपी बना लिया है, वो इसी को बेच रहे हैं. कभी ये भी डर लगता है कि कहीं इसकी भी अति ना हो जाए, क्योंकि टीवी में यह क्षेत्रवाद का तड़का अब तकरीबन अति के स्तर पर चला गया है..
सुदीप :हां टीवी में मैंने सुना है कि बहुत ज़्यादा हो गया है..
मिहिर : हां मैं भी कभी कभी गलती से जब देख लेता हूं इसलिए, सिनेमा में हालांकि अभी वो बस शुरु ही हुआ है अौर गुंजाइश है बहुत सारी नई चीज़ों की. लेकिन कहीं ये बदलते समय का परिचायक भी तो नहीं. हिन्दुस्तान में हम जब पूरे देश के लिए एक फिल्म बनाते थे ये वो समय था जब देश में एक ही प्रमुख पार्टी होती थी, एक ही जगह से सत्ता चलती थी. अब तो एक राज्य से दूसरे राज्य में राजनीति ही एकदम बदल जाती है. अब तो हर इलाका अपनी किस्मत खुद लिख रहा है. उनके अपने नेता हैं, उनकी अपनी पहचान है. ये पोस्ट-नाइंटीज़ का समय है जिसका हमारा सिनेमा प्रतिनिधित्व कर रहा है, आपको ऐसा नहीं लगता?
सुदीप :ये पोस्ट-नाइंटीज, बल्कि कहें तो पोस्ट-लिबरलाइज़ेशन समय का प्रतिनिधित्व कर रहा है हमारा सिनेमा. लोगों में मूवमेंट बहुत ज़यादा हुआ है. बहुत सारे लोग छोटे शहरों से विस्थापित होकर बड़े शहरों में आ गए हैं. छोटे शहरों में एक अलग तरह का विकास हुआ है. बहुत सारे लोग अब बड़े शहरों से छोटे शहरों में जाकर काम करते हैं. टीयर टू शहरों में.. इंदौर में आपकी पोस्टिंग हुई है जबकि आप दिल्ली में पढ़ते थे. इससे हुआ ये है कि सांस्कृतिक आदान प्रदान बढ़ने लगा है. उसका असर सिनेमा पर भी पड़ा ही है. लेखक भी अपने साथ अपनी पृष्ठभूमि लेकर आए हैं. हिमांशु यूपी का ही है अौर उस बोली को, उस ज़मीन को बहुत अच्छी तरह समझता है. अौर उसको बहुत खूबसूरती से वो इस्तेमाल करता है अपनी फिल्मों में. लेखकों में एक आत्मविश्वास भी आया है, जैसा हमने पहले कहा कि हमारे पुरखों ने बहुत अच्छे काम किए हैं पिछले बीस सालों में, तो उस वजह से लेखकों में यह विश्वास आया है कि हां मैं अपने शहर की कहानी बोल सकता हूं.. अौर लोगों को पसन्द आएगी वो, समझ आएगी. ऐसा नहीं होगा कि लोग पूछेंगे 'ये क्या है?' बल्कि अभी तो जैनेरिक कहानी बेचना ज़्यादा मुश्किल होगा.
मिहिर : जब तक आपके पास सलमान खान ना हों..
सुदीप :हां, जब तक आपके पास कोई बहुत बड़ा स्टार नहीं है तब तक जैनेरिक कहानी बेचना बहुत मुश्किल होगा. जैनेरिक कहानी लिखना भी बहुत मुश्किल होता है. जो लोग लिख पाते हैं वो बहुत बड़ा टैलेंट है उनका. जैनेरिक सी जगह में अगर कहानी बेस्ड है तो आपका किरदार क्या अौर कैसे बात कर रहा है, आप क्या लिखोगे. लोकेशन का आपके पास कोई रेफरेंस नहीं है. स्क्रिप्ट लिखते समय आप क्या कल्पना करोगे, कि एक जैनेरिक शहर की जैनेरिक मॉल है, एक जैनेरिक सड़क है.. नामुमकिन लगता है मुझे तो. जो जगह मैने देखी नहीं है या जिस जगह की मुझे समझ नहीं है उसे मैं कैसे लिख सकता हूं. बहुत मुश्किल काम है वो.
मिहिर : आपने सांस्कृतिक आदान-प्रदान की बात की. लेकिन इसके भी दो चेहरे हैं. शायद आपकी दोनों ही फिल्में, 'एन एच 10' तो मैंने देखी है तो उसके आधार पर कह सकता हूं, उसका वो चेहरा दिखाती हैं जो खतरा हो सकता है. जब ये आदान-प्रदान होगा तो चीज़ें टकराएंगी अौर चीजें गड़बड़ भी होंगी. उसका चेहरा है आपकी फिल्मों में. अौर उसके साथ ही दूसरे किस्म की फिल्में हैं जिन्हें मैं साथ में रखकर देख रहा हूं, जैसे 'पीकू' जैसी फिल्म है, 'विक्की डोनर' जैसी फिल्म है. ये उस आदान-प्रदान का दूसरा सकारात्मक चेहरा है. बंगाल अौर पंजाब संयोग से साथ में आ गए हैं क्योंकि काम, जगह, रहन-सहन टकरा जाता है कहीं.. अौर एक सुंदर प्रेम कहानी निकल आती है. ये दोनों चीजें हमारे शहरों में हो रही हैं अौर 'विक्की डोनर' अौर 'एन एच 10' मिलकर हमारी वर्तमान सोसाइटी का एक चेहरा बना रही है. अपराध भी बढ़ रहे हैं अौर उन अपराधों के पीछे ऐसी वजहें सामने आ रही हैं जो इसी कल्चरल क्लैश की वजह से हैं. उसमें तीनों चीजें हैं, उसमें क्लास का क्लैश भी है, उसमें कास्ट का क्लैश भी है अौर उसमें जेंडर का भी क्लैश है. लेकिन चेंज भी इसी से हो रहा है. क्योंकि चीजें टकरायेंगी तभी चीजें बदलेंगी.
सुदीप :ये एक मंथन है जो हो रहा है हमारे इस समय में. उसमें अमृत भी निकलेगा, विष भी निकलेगा. दोनों चीजें निकलेंगी. इसमें लेखक का दुनिया को देखने का नज़रिया कैसा है, कहानी कैसी होगी वो उससे तय होगा. वो उसी तरह की कहानी लिखेगा. अगर आप एक पेसिमिस्ट से आदमी हो, नेगेटिव सा नज़रिया है.. जैसा कि मैं हूं.. तो 'एन एच 10' तरह की फिल्म निकलेगी. वो दुनिया को देखने का अलग तरह का नज़रिया है जिससे 'पीकू' जैसी फिल्म निकलती है. हिमांशु जो कर रहा है वो अलग किस्म का नज़रिया है. अौर वहीं एक दिलचस्प नैरेटिव मिल रहा है हमारी कहानियों को क्योंकि बहुत अलग-अलग तरह के लोग बहुत अलग-अलग तरह की चीजें कर रहे हैं.
सुदीप शर्मा के इंटरव्यू का पहला हिस्सा, 'उड़ता पंजाब' पर केन्द्रित बातचीत, आप 'दी लल्लनटॉप' पर यहां पढ़ सकते हैं.