जो जीता वो सिकंदर - भाजपा
ये असम के इतिहास में पहली बार हुआ है कि कांग्रेस से इतर कोई पार्टी दोबारा सत्ता में आई हो. सर्बानंद सोनोवाल सरकार के सामने ढेर सारी चुनौतियां थीं. 2019 में नागरिकता संशोधन कानून CAA के पास होने के बाद असम CAA के खिलाफ प्रदर्शनों का केंद्र बन गया था. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह तक को अपना असम दौरा रद्द करना पड़ा था. CAA को अगर अमल में लाया जाए, तो असम में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर NRC के खिलाफ खड़ा नज़र आएगा. चूंकि ये फैसला केंद्र की भाजपा सरकार ने लिया था, इसलिए असम में सोनोवाल सरकार प्रदर्शनकारियों के निशाने पर आ गई. फिर 2020 में कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन लगाना पड़ा.1. हिमंत बिस्व सरमा
जी हां. बिस्व सरमा निर्विवाद रूप से भाजपा की जीत के कारणों में से सबसे प्रमुख हैं. वो अब तक सोनोवाल कैबिनेट में वित्त और स्वास्थ्य मंत्री थे. लेकिन सोनोवाल सरकार के तमाम फैसलों में बिस्व सरमा का दखल रहता था. वो असम में भाजपा और भाजपा सरकार - दोनों का चेहरा थे. कोरोना महामारी के दौरान हिमंत बिस्व सरमा के काम की खूब तारीफ हुई. चुनाव से पहले टिकट वितरण में भी हिमंत बिस्व सरमा की ही चली. प्रचार की थीम भी हिमंत बिस्व सरमा के चेहरे के इर्द गिर्द ज़्यादा रखी गई.2. गठबंधन
भारतीय जनता पार्टी ने सत्ताधारी होने के बावजूद अपनी महत्वाकांक्षा को काबू में रखा और गठबंधन के लिए साझेदार चुने. असम गण परिषद अब वो पार्टी नहीं रही जो असम आंदोलन से एक वक्त उपजी थी. बावजूद इसके भाजपा ने उसे 26 सीटें दे दीं. गण परिषद को साथ रखकर भाजपा ने ऊपरी असम के इलाके में जनजातीय समाज के साथ-साथ असमिया अस्मिता को लेकर भावुक वोटर को संदेश दिया - मिसाल के लिए अहोम वोटर.3. सांस्कृतिक और धार्मिक ध्रुवीकरण
बंगाल की तरह ही असम में भी चुनाव से पहले हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण चरम पर था. भारतीय जनता पार्टी ने अपने प्रचार में AIUDF अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल को खूब निशाने पर लिया. कहा कि अगर महाजोठ जीता तो अजमल मुख्यमंत्री बन जाएंगे. इसने खास तौर पर असमिया अस्मिता में मानने वाले लोगों को भाजपा के पक्ष में लामबंद किया. भाजपा नेताओं ने जिस तरह 'मियां', 'घुसपैठिया' और प्रतीक महत्व के दूसरे मुद्दों की बात की, उसने साफ कर दिया कि भाजपा अपने लिए वोट कहां खोज रही है - असम का हिंदू समुदाय और जनजातिय समाज.4. प्रशासन और हितग्राही
असम में भारतीय जनता के धुर विरोधी भी इस बात को मानते हैं कि सोनोवाल-बिस्व सरमा सरकार के कार्यकाल में सड़कों पर खूब काम हुआ. असम ने आदत डाल ली थी घटिया सड़कों की. लेकिन अब ज़्यादातर राष्ट्रीय राजमार्ग या तो बेहतर स्थिति में नज़र आते हैं या फिर उनपर काम चलता मिलता है. अंदरूनी सड़कों पर भी काम हुआ है. Advertisement
गौरव गोगोई बाद में पत्रकारों से बातचीत में ये कहते रहे कि महाजोठ जीता तो सीएम कांग्रेस से होगा. लेकिन तब तक भाजपा इस 'डर' का प्रचार कर चुकी थी कि कांग्रेस अजमल को सीएम बना देगी.
2. मुद्दों का चुनाव
कांग्रेस की कैंपेन स्ट्रैटेजी NRC-CAA को एक बड़ा मुद्दा मानकर तैयार की गई थी. ये बात सही है कि असम में CAA का भारी विरोध हुआ और आज भी है. लेकिन कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते औसत वोटर की स्मृति में इन प्रदर्शनों की याद कुछ धुंधली पड़ गई. फिर भाजपा ने अपने प्रचार के दौरान CAA पर कमोबेश चुप्पी ही रखी. CAA-NRC असम में एक भावुक मुद्दा ज़रूर है. लेकिन असम के वोटर ने इसे एक चुनावी मुद्दा मानकर अपना वोट दिया हो, ऐसा लगता नहीं.
3. प्रथम चरण में हल्के पड़ गए
असम विधानसभा चुनाव में ऊपरी असम की 47 सीटों पर पहले चरण में वोटिंग हुई. यहां की सीटों पर चाय बागान मज़दूरों का प्रभाव रहता है. कांग्रेस ने वादा किया कि इनका मेहताना 365 रुपए कर दिया जाएगा. लेकिन इस ऐलान ने चाय मज़दूरों तक पहुंचने में काफी देर कर दी. महाजोठ की सरकार तभी बन सकती थी, जब ऊपरी असम में महाजोठ 20 से 25 सीटें हासिल करता. ये नहीं हो पाया. कांग्रेस अध्यक्ष रिपुन बोरा खुद गोहपुर सीट से हार गए. ऊपरी असम में भाजपा-असम गण परिषद ने भारी जीत हासिल की.
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