"इससे पहले कि तुम मेरे शरीर को डॉक्टरों के हवाले करो, मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि अब से संगठन को चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी तुम्हारी होगी."अगले रोज यानी 21 जून को डॉक्टर की मौत हो गई. ये डॉक्टर थे केशवराम बलिराम हेडगेवार. आज (1 अप्रैल) उनका जन्मदिन है. हेडगेवार के बाद उनके संगठन यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख बने माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर. संघ की भाषा में कहें तो सरसंघचालक. संघ के लोग गोलवलकर को 'गुरुजी' भी कहते हैं.
गोलवलकर को सरसंघचालक बनाने से पहले RSS का उत्तराधिकारी चुनना हेडगेवार के लिए आसान नहीं रहा. ये सिलसिला इस घटना से तीन दशक पहले शुरू होता है. तब महाराष्ट्र के केशव बंगाल में डॉक्टरी पढ़ रहे थे. वहां अरबिंद घोष के क्रांतिकारी विचारों के तले पलने वाली अनुशीलन समिति के सदस्य बने. फिर डॉक्टर बनकर नागपुर लौटे. यहां कांग्रेस में सक्रिय हो गए. 1920 के नागपुर अधिवेशन के दौरान उन्हें संगठन बनाने का पहला सम्यक अनुभव हुआ. वॉलंटियर्स के इस संगठन का नाम था 'भारत स्वयंसेवक मंडल'.
तीन बरस बाद 1923 में नागपुर में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए. मस्जिद के सामने से कीर्तन यात्रा निकालने को लेकर. इसके बाद हेडगेवार की सोच और स्पष्ट हो गई. अब तक उन्हें खिलाफत आंदोलन समेत कई मोर्चों पर कांग्रेस की गांधीवादी नीतियों में खामियां दिखने लगी थीं. गांधी के दौर में ही कांग्रेस का उग्र हिंदू धड़ा किनारे होने लगा था.
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हेडगेवार निवास. (सोर्स-आरएसएस)विजयादशमी के दिन संघ की स्थापना
इन सबके बीच डॉ. हेडगेवार समेत कुल पांच लोगों ने 1925 की विजयादशमी के दिन संघ की स्थापना की. नागपुर में. संघ क्या था. अध्येता इसके विचार पर कई विचारों की छाप मानते हैं. मसलन, बंगाल के अखाड़ों और यूथ क्लबों में पनपे गर्म दल वाले अनुशीलन समिति से संगठन, राष्ट्र की अवधारणा पर खूब ध्यान, सावरकर की हिंदुत्व की अवधारणा आदि का RSS की विचारधारा पर भरपूर असर रहा.इन सबके साथ हेडगेवार का कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे आंदोलनों के साथ सहमति-असहमति का संवाद चलता रहा. मसलन, गांधी जी के नेतृत्व में शुरू हुए दांडी मार्च, यानी सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने हिस्सा लिया, मगर व्यक्तिगत रूप से संघ को इससे दूर रखा.
संघ के संगठन का लगभग डेढ़ दशक तक विस्तार चलता रहा. इसमें डॉ. हेडगेवार का सक्रिय सहयोग किया कांग्रेस के साथी नेता अप्पाजी जोशी ने.
संघ के शुरुआती दौर में इससे किशोर जुड़े थे. विदर्भ के इलाके के. फिर यही किशोर जब उच्च शिक्षा के लिए देश के दूसरे शहरों और विश्वविद्यालयों में गए, तो संघ का विस्तार शुरू हुआ. ऐसे ही एक किशोर स्वयंसेवक थे प्रभाकर दानी, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने गए. यहां शाखा में प्रभाकर ने आमंत्रित किया अपने जूलॉजी के लेक्चरर को. ये लेक्चरर विषय के अलावा दर्शन और इतिहास पर भी चर्चा किया करते थे और 'गुरुजी' के नाम से मशहूर थे. यानी माधवराव गोलवलकर.
डॉ. हेडगेवार का गोलवलकर से बनारस प्रवास के दौरान संवाद हुआ. फिर उन्हें नागपुर न्योता गया और एक बरस बाद गोलवलकर खुद ही परिवार के दबाव में लेक्चरारी छोड़ नागपुर आ गए. तभी संघ से उनका भरपूर जुड़ाव हुआ. उन्हें लगातार अहम दायित्व देकर हेडगेवार भविष्य के लिए तैयार करते रहे.
लेकिन हेडगेवार के प्रयासों को 1936 में झटका लगा. इस साल तक गोलवलकर लॉ की डिग्री हासिल कर चुके थे. मगर उनकी संघ से ज्यादा अध्यात्म में रुचि जागी थी. ऐसे में वो परिवार और संगठन को छोड़कर योग-ध्यान के लिए बंगाल चले गए. स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई स्वामी अखंडानंद के सानिध्य में. अगले बरस स्वामी का देहांत हुआ, तो गोलवलकर लौट आए. दाढ़ी वाला ताना-बाना तब से ही कायम रहा. हेडगेवार ने एक बार फिर अपने संभावित वारिस को दायित्व देकर भविष्य के लिए तैयार करना शुरू किया.
और फिर आया वो संवाद वाला प्रसंग, जो आपने शुरू में सुना. अब इस चिट्ठी प्रकरण के 14 दिन बाद का वाकया सुनिए.
जब सबकी उम्मीदों को झटका लगा
डॉक्टर हेडगेवार की मृत्यु के शोक के 13 दिनों बाद 3 जुलाई, 1940 को RSS के केंद्रीय प्रांत के पांच संघचालकों की नागपुर में बैठक हुई. इसमें संघ प्रमुख की चिट्ठी में जाहिर की गई इच्छा को सार्वजनिक रूप से घोषित किया गया. गोलवलकर के चुनाव से कई लोग चौंके थे. RSS पर बहुत प्रामाणिक किताब लिखने वाले वॉल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले अपनी किताब 'द ब्रदरहुड इन सैफ़रन' में लिखते हैं,"RSS के नेता उम्मीद कर रहे थे कि हेडगेवार अपने उत्तराधिकारी के तौर पर एक अनुभवी और वरिष्ठ शख़्स को चुनेंगे."ज्यादातर लोगों को लगता था कि ये शख्स अप्पाजी जोशी होंगे. मगर डॉक्टर को ऐसा नहीं लगा. क्या वजह हो सकती है. एक सूत्र हमें मिलता है किताबों में.
मसलन, डॉ. दामले ने RSS पर अपनी एक और किताब में बालासाहेब देवरस से हुई बातचीत का जिक्र किया है. उन्हें गोलवलकर के बाद संघ प्रमुख बनाया गया था. बालासाहब देवरस ने उस बातचीत में कहा था,
"उस समय हम में से कई लोगों ने सोचा कि गुरुजी संघ के लिए नए हैं. ऐसे में कई लोगों को संदेह था कि वह सरसंघचालक के तौर पर अपना दायित्व कैसे निभाएंगे. संघ से सहानुभूति रखने वाले लोगों में भी ये आशंका व्याप्त थी कि डॉक्टर जी के बाद संघ कैसे चलेगा?"गोलवलकर पर सवाल उठाने वालों की धुरी दो-तीन चीजों पर टिकी थी. पहला, वह एक समृद्ध मराठी परिवार से आते थे. दूसरा, जीवन के शुरुआती दौर में उनकी राजनीति या संघ के प्रति रुचि खोजनी मुश्किल थी. तीसरा, गोलवलकर अपनी संन्यासी प्रवृत्ति और रुक्ष स्वभाव के लिए जाने जाते थे. लेकिन डॉ. हेडगेवार को लगता था कि वही सर्वश्रेष्ठ विकल्प हैं संघ कार्य के लिए. इसकी वजह बताई RSS से संबंधित विषयों पर लिखने वाले विनय शारदा ने. उनके मुताबिक-
"डॉ. हेडगेवार अपने उत्तराधिकारी के रूप में एक ऐसे व्यक्ति को चाहते थे, जो लंबे समय तक संघ के क्रियाकलापों का मार्गदर्शन कर सके. गोलवलकर इस पैरामीटर पर खरे उतरते थे, क्योंकि वह युवा थे, और प्रोफेसरी के अनुभव के कारण उन्हें युवाओं को आकर्षित करने वाला संवाद भी आता था. उनके ऊपर कांग्रेस का हैंगओवर भी नहीं था. यही तर्क अप्पाजी जोशी के खिलाफ जाता था. हालांकि अप्पाजी को न चुने जाने की एक वजह उनकी उम्र भी थी. वह लंबे समय तक सरसंघचालक का दायित्व निभा भी नहीं सकते थे."हेडगेवार ने जिस तरह गोलवलकर को संघ प्रमुख चुना था, उसे उन्होंने भी आगे बढ़ाया. यानी चिट्ठी के जरिये उत्तराधिकारी नामित करना. 1973 में गोलवलकर की मृत्यु के बाद भी स्वयंसेवकों के नाम तीन चिट्ठियां खोली गईं. इनमें से एक में अगले सरसंघचालक के रूप में बाला साहब देवरस का नाम था.
इस पूरी चर्चा में एक दिलचस्प एंगल जोड़ा वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने. उनके मुताबिक-
"बहुत से लोगों के लिए हेडगेवार द्वारा गुरुजी का सिलेक्शन आज भी वैसे ही पहेली है, जैसे महात्मा गांधी द्वारा अपने उत्तराधिकारी के तौर पर नेहरू का सिलेक्शन. गांधी ये भली-भांति जानते थे कि नेहरू उनकी कार्यपद्धति पर आगे बढ़ने वाले व्यक्ति नहीं हैं, फिर भी उन्होंने उनका चुनाव किया. मेरे खयाल से गोलवलकर का चुनाव उनकी उम्र और वैचारिक स्पष्टता- दोनों को देखते हुए किया गया था. उनके 33 वर्ष के लंबे कार्यकाल में संघ की गतिविधियों का काफी विकास हुआ. "ये आखिरी वाक्य आगे की कुंजी है. गोलवलकर के दौरान ही संघ पसरा. गांधी हत्या के इल्जाम में इस पर प्रतिबंध लगा. फिर बरी हुआ. पटेल के कहने पर संघ का लिखित संविधान बना. गोलवलकर के दौर में ही भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विश्व हिंदू परिषद का गठन हुआ. और सबसे अहम चीज, श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पार्टी को आत्मसात किया गया. इसके नाम निर्धारण, भारतीय जनसंघ से लेकर भविष्य की रणनीति और स्वरूप तक.
गोलवलकर गए, तो देवरस आए. जनसंघ और जनता पार्टी से होती हुई भारतीय जनता पार्टी बनी, जो देवरस के दौर में ही राम मंदिर आंदोलन पर सवार हो सत्ता हासिल करने में कामयाब रही. और रही संघ की बात, तो विपक्षियों की नजर में ये 'उग्र राष्ट्रवाद को बढ़ावा देता फासीवादी संगठन' रहा और समर्थकों की नजर में 'राष्ट्र निर्माण में लगा स्वयंसेवी संगठन'. चिट्ठी के जरिये संगठन प्रमुख का चुनाव गोलवलकर के बाद ही बंद हो गया. उनके बाद के सभी संघ प्रमुखों ने जीते जी ही उत्तराधिकारी नामित किया और पद हस्तांतरण भी.
संकलन : अभिषेक कुमार, विनय सुल्तान
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