शहर-ब-शहर कर सफ़र, ज़ाद-ए-सफ़र लिए बग़ैर कोई असर किए बग़ैर, कोई असर लिए बग़ैर
आसान भाषा में समझिए, तो कवि का पैग़ाम है कि किसी हासिल के चक्कर में नहीं, बस यूं ही, बेमक़सद की यात्राएं करो. जौन एलिया तो फक्कड़ शायर थे. सो बेमक़सद यात्राओं का सौंदर्य समझते थे. मगर दुनियावी मामलों में यात्राओं की अपनी नीयत होती है. उनमें किसी के कुछ हासिल करने के अरमान होते हैं.
हम भी आपको ऐसी ही एक यात्रा का क़िस्सा सुनाएंगे. ये यात्रा है, एक देश की. एक राजधानी की. इस सफ़र में तीन पड़ाव हैं. तीनों अलग-अलग युग के प्रतीक. एक युग बर्बरता का. एक युग बर्बर से नम्र होने के ट्रांसफॉर्मेशन का. और एक युग, आधुनिकता का. ये कहानी है जापान की. ये कहानी है, तोक्यो ओलिंपिक्स की.
नॉर्थ पसिफ़िक ओशन में टिनिआन नाम का एक छोटा सा द्वीप है. 6 अगस्त, 1945 की तड़के सुबह एक B-29 बॉम्बर जहाज़ ने यहां से उड़ान भरी. इस जहाज़ का नाम था, इनोला गे. इसकी मंज़िल थी, करीब ढाई हज़ार किलोमीटर दूर बसा एक शहर हिरोशिमा. सुबह के सवा आठ बजे थे. इनोला गे उस वक़्त आसमान में करीब 31 हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर था. वहीं से उसने हिरोशिमा शहर के ऊपर एक पार्सल एयरड्रॉप किया. करीब 4,400 किलो वज़नी इस पार्सल का नाम था- लिटिल बॉय. एयरड्रॉप किए जाने के ठीक 43 सेकेंड बाद ये पार्सल हिरोशिमा की सतह से लगभग 1,900 फीट ऊपर फ़ट गया. ये धमाका दुनिया का पहला ऐटमी हमला था.
कोई नहीं जानता कि हिरोशिमा हमले में ठीक-ठीक कितने लोग मारे गए. अनुमान है कि शुरुआती धमाके, उससे निकली ऊष्मा और रेडिएशन के चलते करीब 70 हज़ार लोगों की मौत हुई. रेडिएशन का असर आगे भी बना रहा. लोग मरते रहे. रेडिएशन के चलते हुई बीमारियों का शिकार होते रहे. हमले के पांच साल के भीतर मृतकों की अनुमानित संख्या दो लाख पार कर गई.
ये कहानी का पहला दृश्य था. अब आते हैं इसके भाग दो पर. तारीख़ थी- 10 अक्टूबर, 1964. वेन्यू, तोक्यो स्थित नैशनल स्टेडियम. आप सोच रहे होंगे कि हम तोक्यो क्यों लिख रहे हैं, तो स्पष्ट कर दें कि असली नाम तोक्यो ही है. स्पेलिंग में T देखकर हम लोग टोक्यो बोल देते हैं.
अब बात 10 अक्टूबर, 1964 पर. उस रोज़ सफ़ेद बनियान और शॉर्ट्स पहने एक 19 साल का लड़का स्टेडियम की सीढ़ियां चढ़ रहा था. उसके हाथ में थी एक जलती मशाल. कुल 163 सीढ़ियां चढ़ने के बाद वो पहुंचा ऊपर एक प्लेटफॉर्म पर. यहां धातु का एक विशाल कॉलड्रन रखा था. लड़के ने हाथ में थामी मशाल से कॉलड्रन में पवित्र अग्नि सुलगाई. और इसके साथ ही शुरुआत हुई 1964 के तोक्यो ओलिंपिक्स की.
ये ऐतिहासिक क्षण था. एक साम्राज्यवादी, युद्ध-पिपासु, क्रूर जापान के अमन और तरक्की-पसंद मुल्क में तब्दील होने की यात्रा थी ये. इस तब्दीली का द्योतक था वो 19 साल का लड़का. जिसने कॉलड्रन की पवित्र अग्नि सुलगाई थी. उसका नाम था, योशिनोरी सकाई. योशिनोरी को एक ख़ास वजह से इस भूमिका के लिए चुना गया था. ये वजह थी, उसकी पैदाइश की तारीख़. वो 6 अगस्त, 1945 को पैदा हुआ था. वही दिन, जब हिरोशिमा पर हुए ऐटमी हमले ने साम्राज्यवादी जापान के अवसान की पटकथा लिखी थी.
योशिनोरी उस बम हमले के दो घंटे बाद पैदा हुआ था. वो जिस घर में पैदा हुआ, वो बम गिरने वाली जगह नज़दीक ही थी. इसीलिए योशिनोरी के स्वस्थ अस्तित्व को युद्ध के बाद हुए जापान के पुनर्निर्माण का प्रतिबिंब माना गया.
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1964 ओलंपिक की एक तस्वीर. फोटो ओलंपिक की आधिकारिक वेबसाइट से साभारइस क्षण की ऐतिहासिकता को समझने के लिए आपको 1964 से पहले की जापानी यात्रा का सार समझना होगा. जापान एशिया में पड़ता है. मगर वो सहभागी था, 15वीं सदी के बाद शुरू हुए यूरोपियन साम्राज्यवाद का. ब्रिटेन, स्पेन, फ्रांस, पुर्तगाल जैसी यूरोपीय शक्तियां नए-नए देश खोजकर उन्हें ग़ुलाम बना रही थीं. औद्योगिक क्रांति के बाद कच्चे माल, बाज़ार और ग़ुलामों की तलाश के चलते इम्पीरियलिज़म की प्रवृत्ति और तेज़ हुई. साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ थी. इसी होड़ का एक परिणाम था, पहला विश्व युद्ध. इस भीषण युद्ध के बाद लगा कि शायद ये होड़ कम हो. मगर ऐसा नहीं हुआ. जर्मनी, इटली और जापान जैसे अपेक्षाकृत न्यूकमर्स भी इस होड़ में शामिल हो गए.
जापान ने 1910 में कोरिया को जीता था. अब जापान को और नए इलाकों की तलाश थी. पहले वर्ल्ड वॉर के समय से जापान में उत्पादन और व्यापार में काफ़ी तरक्की आई थी. आर्थिक तरक्की होने के साथ-साथ उसकी आबादी भी बढ़ रही थी. सन् 1900 में जहां उसकी जनसंख्या साढ़े चार करोड़ थी. वहीं 1925 तक आते-आते ये बढ़कर करीब छह करोड़ तक पहुंच गई.
आबादी में हुए इस विस्तार के चलते जापान में प्राकृतिक संसाधनों और खाद्य आपूर्ति की मांग भी बढ़ी. अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए जापान को सबसे मुफ़ीद टारगेट लगा, चीन. 1928 में जापान ने यहां चढ़ाई कर दी. 1931 आते-आते जापान ने पूरे मंचूरिया पर कब्ज़ा कर लिया.
जापान को बस क्षेत्र विस्तार से मतलब नहीं था. ना ही वो केवल लाभ की मंशा से काम करते थे. जापानी साम्राज्यवाद का एक मूलभूत अवयव ये भी था कि उन्हें अपनी नस्लीय श्रेष्ठता में यकीन था. उसे लगता था कि वो एशियाई भूभागों को पश्चिमी साम्राज्यवाद से मुक्ति दे रहा है. जापान का मानना था कि उसने जिस तेज़ी से अपना विकास किया है. ये चीज उसे अपने एशियाई पड़ोसियों के मुकाबले श्रेष्ठ बनाती है. एशिया पर हुकूमत करने का न्यायोचित अधिकार देती है.
अपने इसी दावे को ग्रैंड स्तर पर दुनिया के आगे पेश करने के लिए जापान ने एक दांव लगाया. इस दांव का कैरियर बना, ओलिंपिक्स. इसकी शुरुआत हुई 1930 में. तब तोक्यो के तत्कालीन मेयर थे, ज़ेनजिरो होरिकिरी. 1930 के साल होरिकिरी ने तोक्यो में ओलिंपिक्स के आयोजन को लेकर लॉबिइंग शुरू की.
इस लॉबिइंग के बैकग्राउंड में था, 1923 में आया दी ग्रेट कांतो भूकंप. इस भूकंप के चलते तीन दिन के भीतर तोक्यो नरक बन गया. पूरा शहर किसी विशाल मलबे में तब्दील हो गया. इस भूकंप की चपेट में आकर करीब सवा लाख लोग मारे गए. 20 लाख से ज़ियादा लोग बेघर हुए. नुकसान गई संपत्ति की कुल लागत 1923 के जापानी नैशनल बजट से करीब चार गुना ज़ियादा थी. मगर 1923 से 1930 के बीच करीब सात सालों में ही तोक्यो शहर फिर से बनकर तैयार हो गया. पहले से ज़ियादा भव्य, पहले से ज़्यादा आधुनिक.
तोक्यो के मेयर होरिकिरी इसी उपलब्धि को दुनिया के आगे रखना चाहते थे. ताकि जापान की कथित सुपीरियॉरिटी का प्रदर्शन किया जा सके. जापान ने इसके लिए IOC, यानी इंटरनैशनल ओलिंपिक्स कमिटी में लॉबी बनानी शुरू की. उसने कहा, हमको 1940 के समर ओलिंपिक्स की मेजबानी दे दो. रोम भी इस मेज़बानी के लिए कोशिश कर रहा था. मेज़बानी जीतने के लिए जापान ने इटली के साथ एक समझौता किया. उसने इटली से कहा कि हम 1944 के गेम्स के लिए तुम्हारी दावेदारी को सपोर्ट करेंगे. बदले में तुम 1940 के गेम्स की होस्टिंग के लिए हमें सपोर्ट करो. करीब छह साल तक चली लॉबिइंग के बाद 1936 में IOC ने 1940 के ओलिंपिक गेम्स की मेज़बानी जापान को दे दी.
जापान को होस्टिंग तो मिल गई. अब ज़रूरत थी कि वो फ़ुर्ती से तैयारियां करे. बड़े होटेल्स और स्टेडियम्स जैसा इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करे. मगर इसी दौर में एक बड़ा डिवेलपमेंट हुआ. 1937 में चीन और जापान के बीच दूसरा युद्ध शुरू हो गया. इस युद्ध में जापान ने भीषण अमानवीयता की. सैकड़ों लोगों का नरसंहार किया. मगर चाइनीज़ प्रतिरोध के चलते लाख क्रूरताएं करके भी ये युद्ध जापान को महंगा पड़ रहा था. उसका खजाना खाली हो रहा था.
इस कड़की के चलते गेम्स के आयोजन की तैयारी में लग रहा पैसा जापानियों को खलने लगा. जापान में घरेलू दबाव बनने लगा कि वो खेल की मेज़बानी से हाथ खींच ले. 1938 में काफ़ी हां-ना के बाद जापान ने IOC के आगे हाथ खड़े कर दिए. कहा, हमारा चीन के साथ युद्ध चल रहा है. इस युद्ध के लिए हमें आध्यात्मिक और भौतिक मोबलाइज़ेशन की ज़रूरत है. सो हम मेज़बानी नहीं कर सकते. आप किसी और को होस्ट बना लीजिए. जापान के इनकार के बाद 1940 के समर ओलिंपिक्स की मेज़बानी सौंपी गई हेलसिंकी को. ये फ़िनलैंड की राजधानी है.
मगर हेलिसिंकी ओलिंपिक्स शुरू होने से पहले ही सितंबर 1939 में नात्ज़ी जर्मनी ने पोलैंड पर हमला कर दिया. इसके साथ ही दूसरे विश्व युद्ध की भी शुरुआत हो गई. वर्ल्ड वॉर के चलते ओलिंपिक्स रद्द हो गया. इसीलिए 1940 के उस रद्द हुए ओलिंपिक्स के लिए टर्म चलता है- मिसिंग ओलिंपिक्स.
आप जानते हैं कि पहले वर्ल्ड वॉर में जापान 'आंटांट पावर्स' के साथ था. इस ग्रुप को अलाइज़ पावर्स कहते हैं. इस ग्रुप के लीडर्स थे ब्रिटेन, फ्रांस और रशिया. दूसरे वर्ल्ड वॉर में जापान ने इन्हीं देशों के खिलाफ़ युद्ध लड़ा. उसने जर्मनी और इटली के साथ संधि की और मित्र देशों के खिलाफ़ हमले किए. मगर जापान की सबसे भीषण लड़ाई हुई, अमेरिका के साथ. US की पसिफ़िक फ़्लीट की चुनौती को मिटाने के लिए जापान ने पर्ल हार्बर में अमेरिकी बेड़े पर अटैक किया. इसके बाद अमेरिका सक्रिय रूप से इस युद्ध में शामिल हो गया. इसी अमेरिकी भागीदारी की परिणिति थी, हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर हुए ऐटमी हमले.
9 अगस्त, 1945 को नागासाकी पर गिराए गए बम के एक हफ़्ते बाद जापान ने सरेंडर कर दिया. ये सरेंडर करवाया था अमेरिका ने. सरेंडर के सात साल बाद तक अमेरिका ने जापान को अपने कंट्रोल में रखा. इसी समय से जापानी ट्रांसफॉर्मेशन की शुरुआत हो गई. इस तब्दीली का पहला पड़ा माइलस्टोन था- 3 मई, 1947. इसी रोज़ जापान में एक नया संविधान लागू हुआ. इस संविधान ने जापान को लोकतंत्र बनाया. एम्पेरर हिरोहितो देश के सांकेतिक राष्ट्राध्यक्ष रखे गए. इस संविधान का सबसे ख़ास पहलू था, आर्टिकल 9. इसमें लिखा था-
जापान के लोग युद्ध को हमेशा के लिए तजते हैं. देश के संप्रभु अधिकार के तौर पर युद्ध का त्याग करते हैं. साथ ही, अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए धमकी देने और बलप्रयोग करने जैसे तरीकों का भी त्याग किया जाता है. इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए जापान कभी भी स्थल, जल और वायु सेना, या किसी भी और तरह की युद्ध लड़ने वाली सेना को मेंटेन नहीं करेगा.
इस आर्टिकल के मार्फ़त जापान ने अपने सैन्य भविष्य को हमेशा के लिए ना कह दिया था. एक साम्राज्यवादी देश का ये रूपांतरण कितना अभूतपूर्व है! ख़ैर, सेंकेड वर्ल्ड वॉर के बाद जापान 1952 में अमेरिकी कब्ज़े से आज़ाद हुआ. इससे एक साल पहले 1951 में दोनों देशों के बीच एक संधि हुई. ये सुरक्षा संधि कहलाती है- पीस ऑफ़ रेकंसीलिएशन. इस संधि के तहत जापान ने अमेरिका को अपने यहां सैन्य बेस बनाए रखने की इजाज़त दी. 1960 में इस संधि को रिवाइज़ करते हुए अमेरिका ने वादा किया कि अगर जापान पर हमला होता है, तो अमेरिका उसकी रक्षा करेगा.
सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद जापान का नैशनल करेक्टर बदल गया. अब उसका फ़ोकस विकास और पुनर्निर्माण पर था. इस दौर में ना केवल औद्योगिक विकास ने रफ़्तार पकड़ी. बल्कि शहरी ढांचे पर भी बहुत काम हुआ. ये रीडिवेलपमेंट सबसे ज़्यादा महसूस होती थी, राजधानी तोक्यो में. वर्ल्ड वॉर के समय की बमबारियों में मलबा हो चुके तोक्यो की चमक अब किसी वर्ल्ड पावर की राजधानियों से कम नहीं थी.
अपने इसी नए रूप को दुनिया के आगे रखने के लिए जापान ने 1964 के समर ओलिंपिक्स की मेज़बानी का दावा पेश किया. ये दावा रखने वाले देश सारी चीज़ें फ़्यूचर टेंस पर नहीं छोड़ सकते. ये नहीं कह सकते कि हमको होस्ट बना दो, तो इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित कर लेंगे. दावेदारी पक्की करते समय IOC आकलन करता है कि वो देश ओलिंपिक्स होस्ट करने के लायक भी है कि नहीं. जापान की ओलिंपिक्स दावेदारी पर मुहर लगी 1959 में. यानी, युद्ध ख़त्म होने के मात्र 14 बरस बाद. सोचिए, उसने कितनी तेज़ी से ख़ुद को ट्रांसफॉर्म किया होगा.
मेज़बानी मिलने के बाद भी बहुत सारा काम बचा था. जापान के पास तैयारियों के लिए पांच साल थे. इन पांच सालों में तोक्यो के भीतर इतने बड़े स्तर पर निर्माण कार्य हुआ, जिसे इतिहास का ग्रेटेस्ट अरबन ट्रांसफॉर्मोशन कहा जाता है. तकरीबन 10 हज़ार नई इमारतें बनीं. दर्जनों फाइव-स्टार होटेल्स बने. आठ बड़े फ्लाइओवर्स बने. सब-वे ट्रेन्स की दो नई लाइनें बनीं. लोकल ट्रांसपोर्टेशन के लिए मोनोरेल परियोजना पूरी हुई. पानी, हवा की गुणवत्ता वर्ल्ड क्लास बनाई गई.
दर्जनों पार्क्स बने. लकड़ी के पुराने घरों को हटाकर उनकी जगह बहुमंजिला इमारतें बनाई गईं. यहां तक कि तोक्यो ने अपने पारंपरिक शैली वाले टॉइलेट्स को भी बदल दिया. उनकी जगह फ़्लश वाले वेस्टर्न टॉइलेट्स लगाए गए. ओलिंपिक्स के उद्घाटन के नौ दिन पहले, यानी 1 अक्टूबर, 1964 को सम्राट हिरोहितो ने जापान की पहली बुलेट ट्रेन का उद्घाटन किया. ये ट्रेन उस जमाने में इतनी हाई-स्पीड थी कि 400 किलोमीटर से ज़्यादा की दूरी केवल तीन घंटे में पूरी कर लेती थी.
और सालों तक चली इन तैयारियों का रिज़ल्ट डे आया- 10 अक्टूबर, 1964. इस रोज़ जब सम्राट हिरोहितो स्टेडियम में भाषण देने के लिए खड़े हुए, तो वो एक पुनर्जीवित हुए राष्ट्र को संबोधित करने उठे थे. सोचिए, कितना कॉन्ट्रास्ट था. जापानी जनता ने 19 साल पहले सम्राट हिरोहितो की आवाज़ पहली बार सुनी थी. तब, जब वो रेडियो पर मुल्क के सरेंडर होने का ऐलान कर रहे थे.
ओलिंपिक्स का आयोजन एक बहुत बड़ा लॉजिस्टिक चैलेंज है. 1964 के तोक्यो ओलिंपिक्स का आयोजन बहुत सफल रहा. इस उपलब्धि ने जापान का खोया आत्मविश्वास लौटाया. ये वो पॉइंट था, जहां जापान की जनता को अपने देश के भविष्य का यक़ीन हुआ. यहीं से जापान की अंतरराष्ट्रीय भूमिका का विस्तार होना शुरू हुआ. यहीं से उसके समृद्ध होने की यात्रा शुरू हुई. जापानियों के लिए उस ओलिंपिक्स की यादें आज भी एक भावुक मसला हैं. इसीलिए आज भी वहां 10 अक्टूबर को राष्ट्रीय अवकाश रहता है.
इसीलिए जानकार 1964 को जापानी इतिहास का महानतम साल कहते हैं. और उस बरस तोक्यो में हुए ओलिंपिक्स को 'बेस्ट ओलिंपिक्स ऑफ़ ऑल टाइम्स' कहा जाता है. आपको पता होगा कि दो तरह के ओलिंपिक्स होते हैं- समर और विंटर. 1964 में हुआ तोक्यो ओलिंपिक्स समर वर्ज़न था. लेकिन इसके केवल नाम में ही समर था. असल में इसका आयोजन हुआ था, शिशिर ऋृतु में. इसलिए कि तोक्यो की गर्मियां बहुत ज़ालिम होती हैं. आयोजकों ने कहा, गर्मियों में यहां टूर्नामेंट रखवाना मूर्खता होगी. हालांकि ये समझदारी 2021 को ओलिंपिक्स में नहीं दिखाई गई.
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