यानी ‘धीरे-धीरे और फिर अचानक’
1926 में लिखी गई इन लाइनों को चाइनीज कंपनी एवरग्रैंड के मालिक ‘सू ज़ियाएन’ बार-बार पढ़ रहे होंगे.
चाइना की ये रियल एस्टेट कंपनी खबरों में क्यों है?
एवरग्रैंड (Evergrande) चाइना की दूसरी सबसे बड़ी रियल एस्टेट कंपनी है. खबर है कि कंपनी जल्द ही दिवालिया हो सकती है. सोशल मीडिया में घूमते ऐसे वीडियो आपने देखे होंगे, जिसमें एक के बाद एक टाइल लगी होती हैं, और एक टाइल को हिला भर देने से टाइलों की पूरी शृंखला ढहती जाती है. इन टाइल्स को डॉमिनो कहा जाता है. और इनके वीडियो भी बहुत रोचक होते हैं. लेकिन आर्थिक जगत में ये डॉमिनो खेल नहीं बल्कि संकट की सूचना लाते हैं. आर्थिक जगत में इतनी पेचीदगियां हैं, तार यहां से वहां ऐसे गुथे हैं, जैसे भारत में रोड के ऊपर से गुजरने वाली बिजली की लाइनें. कनेक्शन ऐसा कि चांदनी चौक में एक तार कटा तो छतरपुर की बिजली गुल. Advertisement
एवरग्रैंड (Evergrande) चाइना की दूसरी सबसे बड़ी रियल एस्टेट कंपनी है. खबर है कि कंपनी जल्द ही दिवालिया हो सकती है.ऐसे ही आर्थिक जगत में किसी एक कंपनी के डूबने से पूरी दुनिया में इस हलचल की लहरें फैल जाती हैं. 2008 में अमेरिकी मंदी तो याद ही होगी आपको. अमेरिका का एक बड़ा बैंक ‘लेमन ब्रदर्स के दिवालिया होने से शुरुआत हुई और पूरी दुनिया में आर्थिक मंदी आ गई. ऐसी ही कुछ आहटें चीन से आ रही हैं. एवरग्रैंड के वित्तीय संकट का असर है कि कल सोमवार 20 सितंबर को दुनियाभर के बाज़ारों में गिरावट देखने को मिली. निफ़्टी 50 में जुलाई के बाद सबसे बड़ी गिरावट देखने को मिली. यूरोपियन स्टॉक इंडेक्स STOXX Europe 600 भी 2 % लुढ़क गया. डाउ जोन्स इंडस्ट्रियल एवरेज फ्यूचर्स 500 अंक से अधिक घट गया. हांगकांग के स्टॉक मार्केट हांग सेंग में भी प्रॉपर्टी स्टॉक्स की जमकर बिकवाली हुई.
इस गिरावट को अभी सिर्फ़ ट्रेलर माना जा रहा है. आने वाले दिनों में मार्केट में और भी गिरावट हो सकती है. एवरग्रैंड की इस हालत तक पहुंचने के क्या कारण हैं. और इसका बाकी दुनिया पर क्या असर होगा? आइए जानते हैं.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कोल्ड वॉर की बड़ी वजह परमाणु शक्ति को माना गया. लेकिन इसकी तह में दो आर्थिक विचारधाराओं की लड़ाई थी. कम्युनिज्म vs कैपिटलिज्म. इनके झंडाबरदार थे अमेरिका और सोवियत संघ. 1991 में सोवियत संघ टूट गया और इस लड़ाई में जीत अमेरिका की हुई. परोक्ष रूप से ये जीत थी कैपिटलिज्म की. जैसा की हम जानते हैं, कैपिटलिज्म की ढेर सारी दिक़्क़तों के बावजूद दुनिया की अधिकतर अर्थव्यवस्थाएं आज कैपिटलिज्म पर ही आधारित हैं. आम तौर पर राजनीतिक धारा में बाएं बाजू यानी लेफ़्ट की पॉलिटिक्स का अर्थ है कैपिटलिज्म और अथॉरिटेरियन सरकारों का विरोध. पिछली सदी में ये दो शब्द म्यूचिवली इक्स्क्लूसिव थे. अधिकतर कैपिटलिस्ट देश डेमोक्रैटिक थे और चीन और रूस जैसे देश कम्युनिस्ट लेकिन अथॉरिटेरियन .
चीन का 1980 का आर्थिक सिस्टम
1980 में चीन ने एक आर्थिक सिस्टम का नया फ़ॉर्म्युला निकाला. उसने कैपिटलिज़्म और ऑथॉरिटेरियनिज़्म का एक मिश्रण तैयार किया और आर्थिक सफलता की ऐसी कहानी लिखी जो मानव इतिहास में ना सुनी ना देखी गई. चाइना, जिसको चलानी वाले पार्टी का नाम ही चायनीज़ कॉम्युनिस्ट पार्टी है. उसका आर्थिक मंत्र कैपिटलिज़्म और फ़्री मार्केट ही है. हालांकि चाइनीज़ माल की तरह ये भी पूरी तरह शुद्ध फ़्री मार्केट इकॉनमी नहीं है. समय-समय पर चीनी सरकार अपने नियम बाज़ार पर थोपती रहती है. जिसको कोई ग़लत मानता है तो कोई सही.चीन की आर्थिक समृद्धि का एक बड़ा फ़ैक्टर है, रियल एस्टेट. 1980 के बाद चीन ने अपना बाज़ार खोला और इंडस्ट्राइलाइजेशन की शुरुआत हो गई. इसके नतीजे में कृषि छोड़कर लाखों लोग शहरों की तरफ़ आए. साथ ही वन चाइल्ड पॉलिसी का नतीजा हुआ कि परिवार सिमटने लगे. नाते-रिश्तेदारों के ना होने से न्यूक्लियर फैमिली यानी ‘हम दो हमारा एक’ वाली स्थिति हो गई.
आर्थिक बूम के आने से आबोदाना की व्यवस्था तो हो गई लेकिन दो दीवानों को अभी भी आशियाने की तलाश थी. इकॉनमी का साधारण सिद्धांत लागू हुआ, मांग में वृद्धि तो दाम में वृद्धि (ये नियम केवल तब लागू होता है जब कमोडिटी यानी विक्रय वाली वस्तु सीमित मात्रा में उपलब्ध हो). मार्स पर जब तक जगह ना मिल जाए. धरती पर भी ज़मीन सीमित है. सो मिट्टी सोना हो गई. चीन में ज़मीन और घरों के दाम दिन दूनी और रात चौगुनी गति से बढ़ने लगे.
ऐसा सारी दुनिया में हुआ. चीन इकलौता नहीं था. लेकिन आर्थिक वृद्धि की सनक ने चीन में रियल स्टेट व्यापार में बहुत से अनियमितताएं पैदा कर दी. मसलन अधिक ब्याज पर बाज़ार से पैसा उठाना. इसके ऊपर लोन शार्क, बिल्डिंग स्टैंडर्ड का पालन ना होना, जैसे कई कारण थे, जिससे कई तरह के अवैध धंधे रियल स्टेट से जुड़ते गए.
घोस्ट टाउन की बाढ़ आई!
कंपनियों ने भी इन नियमों का जमकर फ़ायदा उठाया. घर अभी बन ही रहे होते थे कि पुराने प्रोजेक्ट के पैसे से नया प्रोजेक्ट शुरू कर दिया जाता. नतीजा हुआ कि ज़मीन और घरों के दामों में अथाह वृद्धि हुई. शंघाई और बीजिंग की गगनचुंबी इमारत इस बात का सबूत है.इसका फ़ायदा उठाने वालों में ‘सू ज़ियाएन’ भी थे. 1996 में उन्होंने चीन के ग्वांझगू शहर में अपनी कंपनी खड़ी की. अपने पहले प्रोजेक्ट के दौरान उन्होंने 323 अपार्टमेंट बनाए जो आधे दिन से भी कम समय में बिक गए. धीरे-धीरे एवरग्रैंड चाइना की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक बन गई. 2010 में ‘सू ज़ियाएन’ ने ग्वांझगू की फ़ुट्बॉल टीम को ख़रीदा और उसका नाम भी कंपनी के नाम पर रख दिया. 2010 के बाद एवरग्रैंड ने इलेक्ट्रिक व्हीकल, टूरिज़म, बोतल बंद पानी जैसे क्षेत्रों में भी निवेश किया. 2015 में सू ज़ियाएन एलन मस्क को टक्कर देने का दावा कर रहे थे. CCP से नज़दीकी का फ़ायदा भी उन्हें मिला और 2017 में वो एशिया के सबसे अमीर आदमी बन गए. तब उनकी सम्पत्ति $45.3 बिलियन डॉलर थी.
रियल स्टेट के दाम बढ़ने का एक बड़ा कारण था, मार्केट स्पेक्युलेशन यानी सट्टा बाज़ार . चाइना में प्रॉपर्टी इंवेस्टेमेंट का सबसे आम ज़रिया है. इसलिए लोग प्रॉपर्टी ख़रीदकर कुछ साल बाद इसे बेच देते. इसका नतीजा हुआ कि शहर के शहर खड़े हो गए, जिनकी बिल्डिंग में कोई रहता नहीं था. इसके लिए एक नया टर्म इज़ाद हुआ, ‘घोस्ट टाउन’ यानी भूतिया शहर. बिना एक प्रोजेक्ट पूरा किए दूसरा प्रोजेक्ट शुरू कर देने से कई प्रोजेक्ट अधूरे भी रह गए.
मिसाल के लिए 1997 में एवरग्रैंड ने ग्वांझगू में एक लक्ज़री अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स बनाया. नाम था, Australia Villas. इस प्रोजेक्ट में 292 बिल्डिंग थी. जिनमें जिम, स्पा, सिनेमा, प्राइवेट स्कूल, बूटिक और रेस्तरां भी शामिल थे. इसके एक अपार्टमेंट की क़ीमत 21 हज़ार अमेरिकी डॉलर के बराबर थी. कल्पना कीजिए आज से बीस साल पहले तब, जब एक सामान्य चायनीज़ परिवार की आमदमी 800 डॉलर के लगभग हुआ करती थी.
लेकिन 2001 में इन्हें अधूरा छोड़ दिया गया. जो लोग घाटा सह सकते थे, उन्होंने दूसरे घर ढूंढ लिए. लेकिन ऐसे भी लोग थे जिन्हें इन आधे-अधूरे बने घरों में बिना बिजली और गैस के कनेक्शन के रहना पड़ा. आज भी पूरे चीन में ऐसी बिल्डिंगों की भरमार है. जिस हरे-भरे लोन में कुत्ता घुमाते लोगों के विज्ञापन देखकर लोग घर ख़रीदने पहुंचे थे. आज वहां उन्हें मुर्गी पालन का काम करना पड़ रहा है.
एवरग्रैंड के सबसे बड़े प्रोजेक्ट में से एक का नाम है ‘ocean flower island'. आपने दुबई के ‘पाम आयलंड’ का नाम सुना होगा. उसी ही तर्ज़ पर एवरग्रैंड, हाइनान प्रोविंस में पानी के ऊपर 900 एकड़ का एक आइलैंड बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स बनाना चाहता था. लेकिन अब ये भी अधर में लटका हुआ है. चेंगदू शहर में उसका एक और बड़ा प्रोजेक्ट है, एवर्ग्लेड प्लाज़ा. इसके अलावा चीन के 280 शहरों में एवरग्रैंड के लगभग 810 प्रोजेक्ट हैं. जिनमें से कई अधूरे पड़े हैं.
2017 में आए कानून ने सब बदल दिया
साल 2020 में जब पूरी दुनिया कोरोना की आर्थिक मार सह रही थी. चीन के रियल स्टेट मार्केट में 1.4 ट्रिलियन डॉलर का निवेश हुआ. रियल स्टेट मार्केट चीन की GDP का 29 % हिस्सा है. 2017 में चाइना रियल स्टेट मार्केट के फूलते ग़ुब्बारे पर चाइना के राष्ट्रपति शी जिंगपिंग ने सुई चुभ दी. 2017 में एक पार्टी मीटिंग के दौरान उन्होंने कहा,houses are for living in, not for speculation” यानी “घर रहने के लिए हैं, ना कि सट्टा लगाने के लिए”
इसके बाद सरकार ने रियल स्टेट पर पाबंदियां लगाना शुरू की. रियल स्टेट कंपनियों के लिए सरकार एक नई पॉलिसी लाई. जिसका नाम है 3 रेड पॉलिसी. यानी 3 ऐसी लाल रेखाएं जिनको पार किया तो फ़ंडिंग या क़र्ज़ मिलना बन्द. क्या थी ये तीन लाल रेखाएं,
1.Liability-to-asset ratio of less than 70% यानी जितना आप पर देनदारी है वो आपकी संपत्ति के 70% प्रतिशत से ज्यादा ना हो. 2.Net gearing ratio of less than 100%. यानी गियरिंग रेशियो यानी कंपनी के कुल क़र्ज़ और शेयरधारों की कुल एक्वटी का रेशियो. ऐसे समझ लिजिए कि ये रेशीयो बताता है कि कंपनी की आर्थिक हालत कैसी है. 3. Cash-to-short-term debt ratio of more than 1x यानी कंपनी पर जितना शॉर्ट टर्म क़र्ज़ है, उसके पास उतना या उससे ज़्यादा कैश होना चाहिए.
नए नियमों के अनुसार कोई कंपनी अगर इन तीनों में से एक भी रेड लाइन पार नहीं करती तो वो 15% की दर से अपना वार्षिक कर्ज बड़ा सकती है. एक रेड लाइन पार लांघने पर 10 % की दर से और 2 रेड लाइन लांघने पर 5 % की दर से. कोई कंपनी अगर तीनों लाल रेखाएं पार कर जाए तो उसको आगे कोई कर्ज नहीं मिलेगा.
नए नियम से बढ़ी एवरग्रैंड की मुश्किलें
इन नए नियमों का सबसे बड़ा असर हुआ एवरग्रैंड कंपनी पर. खबर है कि कंपनी पर 300 अरब डॉलर का क़र्ज़ है. भारतीय रुपयों में यह रकम करीब 22 लाख करोड़ रुपये के आसपास आएगी. तुलना के लिए देखें तो ये हांग कांग के GDP से भी बड़ी रक़म है. क़र्ज़ की 83.5 मिलियन डॉलर की रक़म चुकाने की आख़िरी तारीख़ 23 सितंबर है. और कंपनी कह चुकी है कि उसके पास क़र्ज़ चुकाने के लिए पैसा नहीं है. डिफ़ॉल्ट करने की स्थिति में कंपनी को अपने ऐसेट बेचने होंगे. मार्केट का एक और सिद्धांत यहां लागू होता है. जैसे-जैसे कंपनी ऐसेट बेचती जाएगी. ऐसट के दाम और गिरते जाएंगे.इसी साल कंपनी से अपने ही कर्मचारियों से कहा था कि वो कंपनी में निवेश करें. वरना उन्हें बोनस नहीं मिलेगा. कंपनी के पास कर्मचारियों को तनख़्वाह देने तक के पैसे नहीं हैं. हज़ारों लोग ऐसे है जिन्होंने फ़्लैट के लिए रक़म जमा की थी. वो भी फ़ंस गई है. क्योंकि 3 रेड पॉलिसी के कारण कंपनी को नया क़र्ज़ नहीं मिल पा रहा है.
साल 2021 के अंत तक कंपनी को कम से कम 669 मिलियन डॉलर चुकाने हैं. क़र्ज़ लेने के लिए कंपनी ने मार्केट में जो जंक बांड इश्यू किए थे, मार्केट में उन पर प्रति डॉलर सिर्फ़ 30 सेंट मिल रहे हैं. जंक बांड यानी ऐसे हाई रिस्क बांड जिन पर सामान्य दर से ज़्यादा ब्याज मिलता है.
शेनजेन शहर में कंपनी का ऑफ़िस है. जिसके आगे लेनदारों की भीड़ लगी हुई है. चाइना जहां प्रोटेस्ट की खबर कभी नहीं सुनाई देती, वहां बड़ी मात्रा में लोग विरोध प्रदर्शन में शामिल हैं. क्रेडिट रेटिंग संस्था, फ़िंच ने कंपनी की रेटिंग B से CCC+ कर दी है. जिसका मतलब है कि इस बात की पूरी संभावना है कि कंपनी अपनी क़र्ज़ की किश्त नहीं चुका पाएगी.
एवरग्रैंड का दिवालिया होना तय!
एवरग्रैंड का दिवालिया होना लगभग तय है. ऐसे में सिर्फ़ सरकार का सहारा है. चीन में सरकार पहले भी कई दिवालिया कंपनियों को अधिकृत कर चुकी है. ऐसे में कंपनी की आख़िरी उम्मीद सरकार का बेल आउट पैकज है. लेकिन इसकी संभावना भी कम ही दिखती है. शी जिंगपिंग तय कर चुके हैं कि चीन में अमीर-गरीब के बीच की खाई को पाटना ज़रूरी है. ऐसे में एवरग्रैंड को मदद से बाज़ार में संदेश जाएगा कि सरकार ग़लत बिज़नेस प्रैक्टिस को बढ़ावा दे रही है.अब तक चीन की सरकार ने इसको लेकर ना कोई बयान जारी किया ना कोई आश्वासन दिया है. ऐसे में लगता है सरकार एवरग्रैंड के दिवालिया होने को लेकर बेफ़िक्र है. लेकिन मार्केट में एवरग्रैंड का वैसा ही असर दिखना शुरू हो गया है जैसा 2008 में अमेरिका में दिखा था. कंपनी के शेयर तेज़ी से गिरे हैं और बाकी रियल स्टेट कंपनियों के शेयर्स को भी अपने साथ डूबा रहे हैं. प्रॉपर्टी के गिरते रेट से इंवेस्टर्स को तगड़ा झटका तो लगा ही है. साथ ही साथ रियल स्टेट, जो चाइना में रोज़गार का एक मुख्य स्त्रोत है, उस पर बट्टा लगने से बेरोज़गारी में बढ़त होगी. कोरोना की मार से उभर रही दुनिया की अर्थव्यवस्था को आने वाले दिनों में ज़ोर का झटका और ज़ोर से लगने की सम्भावना है
असर सिर्फ़ चीन तक सीमित नहीं
असर सिर्फ़ चीन तक सीमित नहीं है. जैसा कि हमने आपको पहले बताया था, दुनिया भर के बाज़ारों में इसका असर देखने को मिला है. चीन और हांगकांग की दूसरी रियल एस्टेट कंपनियां अब भारी दबाव में दिख रही है. साथ ही साथ चीन के साथ व्यापार करने वाले देश, ऑस्ट्रेलिया और भारत में भी इसका असर देखने को मिलेगा. ऑस्ट्रेलिया चीन को रॉ मटेरियल की सप्लाई करता है. ऐसे में वहां भी चीन को लेकर चिंता की स्थिति है.अफ़ग़ानिस्तान से क्या खबर है?
मशहूर ब्रिटिश पत्रिका ‘द स्पेक्टेटर’ ने 20 सितंबर को एक रिपोर्ट पब्लिश की है. इसमें सूत्रों और ऑब्जर्वर्स के हवाले से दावा किया गया है कि तालिबान के सुप्रीम लीडर हिबतुल्लाह अख़ुज़ादा की मौत हो गई है, जबकि डिप्टी पीएम मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर को बंधक बनाकर रखा गया है. इस दावे की आधिकारिक पुष्टि नहीं हो पाई है. और, न ही तालिबान ने इसको लेकर कोई बयान ही नहीं दिया है.भले ही इन दावों की पुष्टि न हो पाई हो, लेकिन इतना तो तय है कि तालिबान लीडरशिप में सब ठीक नहीं चल रहा है. सु्प्रीम लीडर हिबतुल्लाह अख़ुज़ादा को लंबे समय से पब्लिक स्पेस में नहीं देखा गया है. उसकी जगह प्रवक्ता के बयान आते हैं. मसलन, सुप्रीम लीडर पूरी तरह ठीक हैं. सुप्रीम लीडर ने हाईकमान की मीटिंग में हिस्सा लिया. सुप्रीम लीडर के आदेश से ही सब काम हो रहे हैं. लेकिन असल में, सुप्रीम लीडर का कोई अता-पता ही नहीं है.
तालिबान की पिछली सरकार में मुल्ला मोहम्मद ओमर सुप्रीम लीडर की भूमिका में था. वो कभी काबुल नहीं आता था, लेकिन उसकी बात को दरकिनार करने की हिम्मत किसी में नहीं थी. मु्ल्ला ओमर के शब्द ‘कानून’ थे. इस बार वैसा कुछ भी नहीं है. प्रेसिडेंशियल पैलेस में तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क के बीच झगड़े की ख़बर आती है. पता चलता है कि दोनों गुटों के समर्थकों के बीच मुठभेड़ होती है. और, अचानक से डिप्टी पीएम गुमशुदा हो जाते हैं. क़तर के विदेश मंत्री के दौरे पर भी डिप्टी पीएम को नहीं देखा जाता है.
तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क के नेताओं के बीच लड़ाई की रिपोर्ट्स के कई दिनों के बाद बाद मुल्ला बरादर नेशनल टीवी पर आया. वहां उसने बयान दिया कि कहीं कोई दिक़्क़त नहीं है. तालिबान लीडरशिप में सब परिवार की तरह रह रहे हैं. उसने अपने घायल होने की ख़बर का भी खंडन किया. हालांकि, ऑब्जर्वर्स का कहना है कि इंटरव्यू देखकर ऐसा लगा कि मुल्ला बरादर से ये बयान ज़बरदस्ती दिलवाया गया. उसे बंदूक की नोंक पर ये सब कहने के लिए मजबूर किया गया.
कुर्सी की बंदरबांट नए गुल खिला रही है!
जब से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान ने क़ब्ज़ा किया है, तभी से ये लग रहा था कि कुर्सी की बंदरबांट नए गुल खिलाने वाली है. एक तरफ़, मुल्ला बरादर को मॉडरेट छवि का माना जाता है. दोहा में तालिबान के पॉलिटिकल ऑफ़िस के मुखिया के तौर पर उसने तालिबान की इमेज बदलने की पूरी कोशिश की. कथित तौर पर जिस बदले हुए तालिबान का ज़िक़्र इन दिनों हो रहा है, उसका क्रेडिट मुल्ला बरादर को ही जाता है.वहीं दूसरी तरफ़, हक़्क़ानी नेटवर्क अपने रुख पर कायम है. नेटवर्क के मुखिया सिराज़ुद्दीन हक़्क़ानी ने सत्ता हासिल करने के बाद आत्मघाती हमलावरों की शान में कसीदे गढ़े. सिराजुद्दीन हक़्क़ानी तालिबान सरकार में गृहमंत्री के पद पर है. जबकि उसके चाचा खलील ने बार-बार इंटरनेशनल जिहाद की वक़ालत की है. खलील को अल-क़ायदा का करीबी माना जाता है. भतीजे सिराज़ुद्दीन की तरह उसे भी यूएन की प्रतिबंधित लोगों की लिस्ट में रखा गया है.
जानकारों की मानें तो तालिबान लीडरशिप के अंदरुनी झगडे़ का एक बड़ा कारण पाकिस्तान है. पाकिस्तान चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान की गद्दी पर वो धड़ा काबिज रहे, जो उसके हितों की परवाह करे. मुल्ला बरादर का इरादा था कि सरकार में पश्तूनों को अधिक-से-अधिक मौका मिले. तालिबान का सह-संस्थापक होने और अमेरिका के साथ डील में अहम भूमिका निभाने के नाते ये चर्चा भी चली कि उसे प्रधानमंत्री बनाया जाएगा. लेकिन ऐन मौके पर उसका पत्ता काट दिया गया. मुल्ला बरादर को डिप्टी पीएम का पद मिला. डिप्टी पीएम की कुर्सी भी उसे किसी और के साथ शेयर करनी पड़ रही है. इन नाराज़गियों और असंतुष्ट समझौतों का क्या असर होगा, ये तो आने वाले समय में ही पता चल सकेगा.
दुनियादारी: चाइना की कंपनी एवरग्रैंड के डूबने से दुनिया में 2008 जैसी मंदी फिर आएगी?