आज RO प्यूरिफायर की चर्चा क्यों?
अंग्रेजी अखबार इकॉनमिक टाइम्स के मुताबिक, अब वॉटर प्यूरिफायर बनाने वाली हर कंपनी को अपने प्यूरिफायर के साथ ये भी बताना होगा कि इससे कितना पानी बर्बाद होता है. ये बिजली के उपकरणों पर लगने वाली स्टार रेटिंग की तरह होगा. जैसे 1 स्टार रेटिंग वाले उपकरणों में बिजली की ज्यादा खपत होती है. वैसे ही कम रेटिंग वाले RO प्यूरिफायर में पानी ज्यादा बर्बाद होगा. वॉटर प्यूरिफायर के पानी बर्बाद करने की दर की जानकारी मिलने से उपभोक्ता ये जान सकेगा कि उसे वाकई इसकी जरूरत है भी कि नहीं. अगर है तो किस तरह का वॉटर प्यूरिफायर लेना चाहिए. प्यूरिफायर की रेटिंग का सिस्टम अभी से 18 महीने के बाद लागू होगा.अखबार ने पर्यावरण मंत्रालय के एक सीनियर अधिकारी के हवाले से ये भी लिखा है कि वॉटर सप्लाई करने वाली अथॉरिटी भी ये बताएगी कि उसके पानी का टीडीएस यानी टोटल डिसॉल्वड सॉलिड्स का लेवल क्या है. लगे हाथों ये भी जान लीजिए कि टीडीएस होता क्या है. WHO की गाइडलाइंस के अनुसार, टीडीएस में शामिल होता है कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम, सोडियम, बाइकार्बोनेट, क्लोराइड्स और सल्फेट. इसके साथ कुछ ऑर्गेनिक चीजें भी पानी में होती हैं. ज्यादा टीडीएस होने पर पानी पीने लायक नहीं माना जाता. वॉटर प्यूरिफायर पानी को साफ करने के साथ-साथ टीडीएस का लेवल बनाए रखते हैं.
बता दें कि मई 2019 में नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (NGT) ने पर्यावरण मंत्रालय को निर्देश दिए थे कि वो RO वॉटर प्यूरिफायर को लेकर नियम-कायदा बनाए. इसके बाद मंत्रालय हरकत में आया. कवायद शुरू हुई. पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार संस्था एनजीटी असल में चरणबद्ध तरीके से RO प्यूरिफायर से होने वाली पानी की बर्बादी को बंद करना चाहता है. फिलहाल मार्केट में उपलब्ध RO वॉटर प्यूरिफायर 20 फीसदी की क्षमता से काम करते हैं. मतलब पानी को साफ करने के क्रम में आमतौर पर 70-80 फीसदी पानी बर्बाद करते हैं. पहले चरण में एनजीटी इस बर्बादी को 40:60 के लेवल पर लाना चाहता है. मतलब कम से कम 40 फीसदी पानी तो साफ होकर निकले.
इसे देखते हुए उपकरणों की क्वॉलिटी सुनिश्चित करने वाली संस्था ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्स (BIS) ने भी इसके लिए एक आईएस रेटिंग बनाई है. इसे IS 16240:2015 कहा गया है. भविष्य में आने वाले वॉटर प्यूरिफायर को इस स्टैंडर्ड पर खरा उतरना होगा. इसके बाद ही ये मार्केट में आ सकेंगे.
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एनजीटी कई बार RO वॉटर प्यूरिफायर से पानी की बर्बादी पर चिंता जता चुका है.
सबसे पहले RO का साइंस जानिए
RO का फुलफॉर्म है रिवर्स ऑस्मोसिस (reverse osmosis). ये पानी साफ करने की एक तकनीक है. रिवर्स ऑस्मोसिस को समझने के लिए पहले हमें ऑस्मोसिस को समझना होगा. ऑस्मोसिस एक खास तरह की प्रक्रिया को कहते हैं. लगभग वैसी प्रक्रिया, जैसी देश की सरहद पर होती है. ऑस्मोसिस की ये कहानी दरअसल दो टाइप के लिक्विड मिक्सचर्स की कहानी है. RO प्यूरिफायर के संदर्भ में एक लिक्विड मिक्सचर में होगा साफ पानी. और दूसरे मिक्सचर में होगा मिलावट वाला पानी या गंदा पानी.ये अलग-अलग होते तो कोई कहानी ही न होती. तो ऑस्मोसिस नाम की घटना घटे, इसके लिए हम इन दोनों के बीच एक सरहद बना देंगे. इस सरहद का नाम है – सेमी पर्मीएबल मेंब्रेन. मेंब्रेन यानी झिल्ली. आसान भाषा में कहें तो छन्नी. और सेमी पर्मीएबल मेंब्रेन मतलब ऐसी छन्नी जो चुनिंदा मॉलिक्यूल्स को ही पार जाने की इजाज़त दे. मॉलिक्यूल्स मतलब अणु. जैसे कोई देश अपने नागरिकों से मिलकर बनता है, वैसे ही एक लिक्विड मिक्सचर मॉलिक्यूल्स से बनता है. मॉलिक्यूल्स आपको सामान्यत: आंखों से नहीं दिखेंगे. बहुत छोटे-छोटे होते हैं. लिक्विड मिक्सचर में जनरली दो टाइप के मॉलिक्यूल्स होते हैं. एक तो वो जिसमें घोल के मिक्चर बनाया गया है. और दूसरा जिसे घोला गया है. मिसाल के तौर पर अगर हम किसी गिलास भर पानी में 2 चम्मच चीनी घोल देंगे तो इसमें पानी को सॉल्वेंट कहेंगे और चीनी को सॉल्यूट. सॉल्वेंट और सॉल्यूट का संपुट अच्छी तरह थाम लें. मतलब मिक्सचर में जिसकी मात्रा ज्यादा है, वो सॉल्वेंट और जिसकी कम वो सॉल्यूट.
अब अगर हम किसी झिल्ली या मेंब्रेन के एक तरफ सिर्फ पानी औऱ दूसरी तरफ चीनी और पानी का घोल रख दें तो एक खास शांतिपूर्ण घटना होगी. मेंब्रेन के जिस तरफ सॉल्वेंट का कॉन्सन्ट्रेशन कम होगा तो दूसरी तरफ से सॉल्वेंट आकर उसमें मिलने लगेगा. मतलब जिधर चीनी का घोल है, उधर से निकलकर मिक्चर पानी में मिलने लगेगा. ऐसा इसलिए होगा क्योंकि उसे संतुलन बनाना है. यही कहलाता है ऑस्मोसिस.
ऑस्मोसिस है तो बढ़िया. लेकिन इसके भरोसे छोड़ेंगे तो साफ पानी जाकर गंदे पानी में मिल जाए. इसका समाधान यही है कि ऑस्मोसिस को उलटा चला दो. पानी को गंदे से साफ की तरफ भेजो. यही सिंपल सा आइडिया ऑस्मोसिस से पानी साफ करने का मूलमंत्र है. अपने को गाड़ी उसी स्पीड में चलानी है, बस रिवर्स गेयर लगाकर.
सॉल्वेंट (पानी) के मॉलिक्यूल्स जिस उत्साह में कूद-कूदकर हमारी सेमी-पर्मीएबल मेंब्रेन को पार करते हैं, उसके पीछे दैवीय प्रेरणा नहीं होती. उसके पीछे होता है प्रेशर. सॉल्वेंट अपने अणुओं पर झिल्ली के पार कूदने के लिए ऑस्मोटिक प्रेशर बनाता है. हमें इसका ठीक उल्टा करना है तो दूसरी तरफ से प्रेशर बनाना होगा. मिलावट वाले पानी की तरफ. ताकि इस साइड से पानी के मॉलिक्यूल्स साफ पानी वाली साइड में जाने की हिम्मत कर सकें. जब पर्याप्त प्रेशर उलटी तरफ से लगता है तो करिश्मा होता है. सारे सिद्धांतों के उलट गंदा पानी गंदगी को झिल्ली के एक तरफ छोड़कर साफ पानी में जाकर मिलने लगता है. इस तरह से रिवर्स ऑस्मोसिस का प्रोसेस पूरा होता है. इस धक्का परेड के प्रोसेस में ही काफी प्रेशर लगाना पड़ता है. भारी मात्रा में प्रेशर तो बड़े प्यूरिफिकेशन यूनिट में ही लग सकता है. घरों में लगे प्यूरिफायर में ये प्रेशर कम मात्रा में लगता है इसलिए प्रोसेस भी धीमा होता है. इस वजह से मेंब्रेन के एक तरफ साफ पानी निकल जाता है और दूसरी तरफ गंदा पानी एक सफेद ट्यूब से बाहर निकल जाता है.
लगे हाथों एक बात और साफ कर दें. आपको ये पढ़कर लग रहा होगा कि इतना तिकड़म काहे किए. सब साधारण फिल्टर जैसा ही तो लग रहा है. ये आपको लग रहा है. साधारण फिल्टर और मेंब्रेन में कुछ मूलभूत फर्क है.
#साधारण फिल्टर मैकेनिकल लेवल पर काम करता है. मतलब इधर से पानी डाला और छन्नी के छेद के हिसाब से कुछ चीज एक तरफ रह गई और दूसरी आगे निकल गई. मेंब्रेन में ऐसा नहीं होता. ये केमिकल प्रोसेस है. इसमें न सिर्फ महीन बल्कि अणुओं के स्तर की चीज भी फिल्टर हो जाती है. ये काम आम फिल्टर नहीं कर सकते.
रिवर्स ऑस्मोसिस का प्रोसेस कुछ ऐसे काम करता है.
घरवाले RO फिल्टर कितना पानी बर्बाद करते हैं?
एक अनुमान के मुताबिक, एक लीटर पानी साफ करने के लिए RO फ़िल्टर तकरीबन 3-4 लीटर पानी बर्बाद करता है. कहने का मतलब यह है कि एक लीटर पीने का पानी तैयार करने के लिए हमारे घरों में अमूमन 3 से 4 लीटर पानी को बिना किसी इस्तेमाल के बहा दिया जाता है. उदाहरण के लिए हम एक लीटर साफ़ पानी निकालने में 3 लीटर पानी की बर्बादी का मानक लेते हैं. इस तरह से अगर 250 परिवारों की एक कॉलोनी है, जिसमें हर परिवार रोजाना तकरीबन 20 लीटर पीने का पानी इस्तेमाल करता है. इस हिसाब से हर घर में रोज 60 लीटर पानी आरओ में बर्बाद हो जाता है. इसका मतलब है कि पूरी कॉलोनी में तकरीबन 15 हजार लीटर पानी हर रोज बर्बाद कर दिया जाता है.एनजीटी ने 2019 में ही चेता दिया था कि RO वॉटर प्यूरिफायर जमकर पानी बर्बाद कर रहे है. असल में एनजीटी के निर्देश पर नैशनल एन्वॉयरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टिट्यूट (Neeri), सेंट्रल पलूशन कंट्रोल बोर्ड (CPCB) और IIT-Delhi ने RO के इस्तेमाल पर एक रिपोर्ट तैयार करके उसे सौंपी थी. रिपोर्ट के आधार पर एनजीटी ने 28 मई को पर्यावरण मंत्रालय को जारी निर्देश में ये बातें कहीं-
# RO से पानी साफ होने की प्रक्रिया में अमूमन 80 फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है, और 20 फीसदी ही पीने लायक मिलता है. RO कंपनियों को ऐसी मशीन बनाने के लिए कहा जाए, जिसके द्वारा कम से कम 60 फीसदी पानी पीने लायक बने और 40 फीसदी से ज्यादा बर्बाद न हो. इसके अलावा, साफ पानी मिलने की क्षमता को आगे कम से कम 75 फीसदी तक बढ़ाया जाए.
#देश में 16 करोड़ 30 लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता. यह संख्या पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा है.
#विकसित देशों में भी RO का इस्तेमाल कम करने पर जोर दिया जाता है. वहां समंदर के पानी को पीने लायक बनाने के लिए RO इस्तेमाल होता है क्योंकि इस पानी में TDS बहुत होता है. वहीं भारत में मौजूद पानी में टीडीएस की मात्रा कम होने के बावजूद RO की डिमांड दिन ब दिन बढ़ रही है.
# RO सिस्टम बनाने वाली कंपनियों ने पानी को लेकर लोगों में डर का माहौल बना दिया है.
#घरों में सप्लाई होने वाले पानी में अगर TDS 500mg/लीटर से कम है तो RO को बैन कर देना चाहिए.
#लोगों के घरों में जो पानी सप्लाई होता है, उसमें TDS कितना है, यह कैसे पता चले. इसके लिए सरकार को उस पानी के बारे में बिल के जरिए पूरी जानकारी देनी चाहिए. बिल पर लिखा रहे कि इस पानी का स्रोत क्या है और उसमें TDS कितना है.
# RO सिस्टम से पानी में मौजूद जरूरी मिनरल्स भी निकल जाते हैं. विदेशों में RO के बुरे असर देखे जा रहे हैं. वहां के लोगों में कैल्शियम और मैग्नीशियम की कमी की शिकायतें आने लगी हैं. इसलिए भारत में RO सिस्टम बनाने वाली कंपनियां यह ध्यान रखें कि पानी में कम से कम 150mg/लीटर टीडीएस जरूर मौजूद रहे.
# जिन इलाकों के पानी में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे खतरनाक तत्वों की मौजूदगी है, वहां के लिए भी ऐसी तकनीक लाई जाए जिससे कि इनका स्तर कम हो सके ताकि RO की जरूरत वहां भी न पड़े.
इन जानकारियों और सुझावों से पता चलता है कि RO प्यूरिफायर से पानी की भारी बर्बादी हो रही है. साथ ही ये भी पता चल रहा है कि इसे लेकर कोई पुख्ता सिस्टम भी नहीं बना है. साल 2019 में ही WHO ने भी RO प्यूरिफिकेशन के प्रोसस पर सवाल खड़े किए थे. उसने कहा था कि RO फिल्टर न सिर्फ बैक्टीरिया को मार रहे हैं बल्कि शरीर में कैल्शियम और मैग्नीशियम जैसे में जरूरी न्यूट्रिशन जाने से भी रोक रहे हैं. खबर यहां क्लिक
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फिलहाल मार्केट में आने वाले RO प्यूरिफायर 40 से 60 फीसदी तक पानी बचाने की बात कर रहे हैं. हालांकि भारत सरकार की तरफ से सर्टिफिकेशन का कोई आधिकारिक सिस्टम नहीं है. केंद्र सरकार ने BIS 16240: 2015 स्टैंडर्ड पानी की क्वॉलिटी को लेकर बनाया है लेकिन बर्बादी को लेकर कोई सिस्टम नहीं हैं.
पानी न बर्बाद करने वाला RO प्यूरिफायर कब बनेगा?
इस बारे में अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. कंपनियां अपने लेवल पर रिसर्च कर रही हैं लेकिन अभी ऐसा कोई RO प्यूरिफायर नहीं आया है जो तकनीकी महारथ से पानी की बर्बादी रोक दे. हालांकि पानी की बर्बादी का जुगाड़ जरूर आया है. RO वॉटर प्यूरिफायर बनाने वाली एक बड़ी कंपनी ने 2019 में जोर-शोर से 'जीरो वॉटर-वेस्ट' प्यूरिफायर लॉन्च किया था. लेकिन इसमें जीरो वॉटर वेस्ट का फंडा कुछ अलग है. असल में इस प्यूरिफायर में प्रोसेस को बेहतर बनाने की बजाय बस बाहर निकलने वाले पानी को फिर से स्टोर करने का सिस्टम बनाया गया था. मतलब RO के प्रोसेस में तो पानी उतना ही बाहर निकलेगा, जितना पहले निकलता था. बस बाहर निकलकर बहेगा नहीं. देश क्या, फिलहाल दुनियाभर में RO वॉटर प्यूरिफायर से पानी की बर्बादी को रोकने का यही एक तरीका सामने आया है. अमेरिका और यूरोप में RO प्यूरिफायर को इस तरह से फिट किया जा रहा है कि बाहर निकला पानी फिर से उस पाइप लाइन में डाला जा सके जो कपड़े धोने और सफाई आदि के काम में आता है.वीडियो - पड़ताल: क्या RO का पानी पीने से बीमारियां हो रही हैं?