World TB Day: इतिहास की सबसे पुरानी बीमारी, जिसका जिक्र वेदों में भी मिलता है

11:45 AM Mar 24, 2022 |
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सत्रहवीं शताब्दी के आसपास यूरोप की लगभग एक चौथाई आबादी को टीबी ने लील लिया. अमेरिका में उस वक्त हर सात में से एक व्यक्ति की मौत टीबी से होती थी. 1930 के दशक में भारत में टीबी की बीमारी से लगभग 20 लाख लोगों की जान गई. टीबी. दुनिया के हर देश को अपनी चपेट में लेने वाली सबसे जानलेवा और रहस्यमय बीमारी. इसके बारे में ना कोई समझ थी न ही कोई इलाज.

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बड़ी हस्तियों के निधन के समाचार में दो बीमारियां सबसे ज्यादा सुनने में आती थी. पहला हार्ट अटैक और दूसरा कैंसर. इलाज खोजे जाने से पहले लगभग हर दूसरी मौत का कारण टीबी था. इस बीमारी ने किसी को नहीं बख्शा. राजनेता, लेखक, कलाकार, सभी को अपना शिकार बनाया. लेखकों में प्रेमचंद, फ्रांज काफ्का, जॉर्ज ऑरवेल और जॉन कीट्स टीबी की बीमारी से मरे. पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री मोहम्मद अली जिन्ना और भारत की पहली महिला डॉक्टर आनन्दी गोपाली जोशी की मौत का कारण भी टीबी ही रहा. भारत के महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन से लेकर कमला नेहरू तक, टीबी से मरने वाली बड़ी या चर्चित हस्तियों की लंबी सूची है.

टीबी बोले तो ट्यूबरक्लोसिस. मानव इतिहास की सबसे पुरानी बीमारी. विज्ञान की भाषा में कहें तो बैक्टीरिया से होने वाला ड्रॉपलेट इन्फेक्शन, जो संक्रमित व्यक्ति के खांसने और छींकने से फैलता है.

दस एक साल पहले टीवी पर चलने वाला एक विज्ञापान याद करिए, जिसमें अमिताभ बच्चन बताते थे कि टीबी अब लाइलाज नहीं है. मतलब कभी थी. विज्ञापन का परपज़ था लोगों को इस बीमारी के प्रति जागरूक करना. टीबी के प्रति लोगों को और जागरूक बनाने के लिए WHO ने 24 मार्च यानी आज का दिन चुना. ‛World TB Day 2022’ की थीम है ‛Invest to End TB. Save Lives’, माने टीबी को खत्म करने के लिए निवेश करें और जीवन बचाएं.



टीबी का बैक्टीरिया हवा के ज़रिए एक से दूसरे इंसान में फैलता है.

एंटीबायोटिक्स से पहले

टीबी के ट्रीटमेंट के लिए आज अलग-अलग तरह की एंटीबायोटिक्स और एंटीबैक्टीरियल थेरेपी मौजूद हैं. इनके प्रयोग से इस बीमारी से पूरी तरह छुटकारा मिल सकता है. इन दवाओं की खोज का सिलसिला 1940 में अमेरिका के ड्यूक यूनिवर्सिटी में काम करने वाले बायोकेमिस्ट फ्रेडरिक बर्नहेम के साथ शुरू होता है. बाद में इस खोज की कड़ी में और नाम भी जुड़े.

इन दवाइयों की खोज से पहले इस बीमारी से निजात पाने के लिए तमाम दंद फंद अपनाए जाते थे. तब मरीजों का इलाज घरेलू नुस्खों के साथ जड़ी-बूटियों और पूजा-पाठ पर आश्रित था. कई जगह पौष्टिक भोजन और शुद्ध हवा के सहारे इस पर नियंत्रण का प्रयास किया जाता था. जिन मरीजों में टीबी के लक्षण दिखते थे, उन्हें एहतियातन आइसोलेट कर दिया जाता था. दूर से ठेलकर भोजन की थाली पास पहुंचाई जाती थी. बर्तन अलग रखे जाते थे. मरीज के कपड़ों को या तो पानी में उबाला जाता था या जला दिया जाता था. टीबी से मरने वाले मरीजों के अंतिम संस्कार में भी बहुत सावधानी बरती जाती थी. ऐसे मरीजों के अंतिम संस्कार में ज्यादा लोग नहीं शामिल होते थे. कारण एक ही था. बीमारी के फैलने का डर.



जिन मरीजों में टीबी के लक्षण दिखते थे उन्हें आइसोलेट कर दिया जाता था.

नामकरण और खोज

टीबी को क्षय रोग, तपेदिक और यक्ष्मा के नाम से भी जाना जाता है. संक्रमण के लिए जिम्मेदार इस बैक्टरिया का नाम है ‛माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस’. इसकी खोज करने वाले थे डॉक्टर रॉबर्ट कोच. 24 मार्च 1882 में उन्होंने संक्रमण फैलाने वाले इस बैक्टीरिया का पता लगाया. डॉक्टर कोच की खोज के सम्मान में ही 24 मार्च को World TB Day मनाया जाता है. उनकी थ्योरी के बाद टीबी पर औपचारिक ढंग से शोध कार्य शुरू हुआ.

किसी भी बीमारी के बीच कड़ी स्थापित करने के सम्बंध में कोच के नियम आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं. 1905 में इसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला था. अलग-अलग कालखंड में इस बीमारी के तरह-तरह के नामकरण किए गए. प्राचीन ग्रीस में इसे ‛थिसिस’, रोम में ‛टैब’ और हिब्रू में ‛स्केफेथ’ कहा जाता था. 1700 के दशक में टीबी से पीड़ित रोगियों के पीलेपन को देख इसे ‛White Plague’ का नाम भी दिया गया. 1834 में जर्मन शोधकर्ता डॉक्टर जोहान शोनेलिन ने इस बीमारी के लिए ‛ट्यूबरक्लोसिस’ शब्द गढ़ा.



रॉबर्ट कोच

टीबी का ये बैक्टीरिया आमतौर पर फेफड़ों पर अटैक करता है. पर शरीर के बाकी अंग इससे सुरक्षित हैं ऐसा भी नही है. फेफड़ों के अलावा ये बैक्टीरिया किडनी, रीढ़ की हड्डी, मस्तिष्क और महिलाओ में गर्भाशय को भी संक्रमित करता है. टीबी के बैक्टीरिया से संक्रमित होने और एक्टिव टीबी होने में अंतर है. मेडिकल साइंस में टीबी के तीन स्टेज बताए गए हैं.

पहला है Active TB. इस फेज़ में बैक्टीरिया शरीर के भीतर तेजी से मल्टीप्लाई होता है और एक-एक करके अंगों को डैमेज करता है. दूसरा है Miliary TB. माइलरी टीबी में बैक्टीरिया ब्लड स्ट्रीम में एंटर कर जाते हैं. और एक साथ कई अंगों को बहुत जल्दी प्रभावित करते हैं. इसे टीबी का सबसे घातक फेज़ माना जाता है. तीसरा है Latent यानी सुप्त टीबी. ऐसा तब होता है जब किसी व्यक्ति के शरीर में टीबी के बैक्टीरिया मौजूद तो होते हैं, लेकिन उनमें संक्रमण के लक्षण नहीं दिखते. शरीर का इम्यून सिस्टम इन बैक्टीरियाओं से लड़ने में सक्षम होता है.



टीबी का बैक्टीरिया सबसे ज्यादा फेफड़ों को प्रभावित करता है .

मानव इतिहास की सबसे पुरानी बीमारी

ट्यूबरक्लोसिस का ये बैक्टीरिया उतना ही पुराना है जितनी आदमजाद की उम्र. कई अनुमानों में इसे मानव जाति के इतिहास से भी पुराना माना जाता है. मनुष्य जाति प्राचीन काल से ही संक्रामक बीमारियों से पीड़ित रही है. मगर इनकी पैथॉलॉजी की समझ हाल ही में विकसित हुई. एक समय विश्व की एक तिहाई आबादी टीबी से ग्रसित थी. ऐसा भी माना जाता है कि टीबी का ये बैक्टीरिया इंसानों में आने से पहले मवेशियों में मौजूद था. अनुमान लगाया जाता है कि ‛माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस’ लगभग 30 लाख वर्ष पुराना बैक्टीरिया है.

आर्कियलॉजिस्ट्स की मानें तो मनुष्यों में टीबी का पहला मामला नौ हजार साल पहले इजरायल में पाया गया था. भारत में ये बीमारी 3300 साल जबकि चीन में 2300 वर्ष पुरानी मानी जाती है. प्राचीन चीनी साहित्य में इस बीमारी के लिए ‛फेफड़ों की खांसी’ और ‛फेफड़ों का बुखार’ जैसे शब्द इस्तेमाल किए गए हैं. बेबीलोन युग की हम्मुराबी संहिता में ‛टीबी क्या हो सकती है’ इसका संदर्भ दिया गया है.

3400 ईसवी पूर्व की मिस्र की ममियों की हड्डियों में टीबी के घावों के सबूत मिले हैं. 1629 तक लंदन के मृत्यु प्रमाणपत्रों में मौत के कारणों मे 'Consumption' का उल्लेख मिलता है जो उस समय टीबी का प्रचलित नाम था. इस समय तक लोग मानने लगे थे कि ये संक्रामक बीमारी है. हालांकि ऐसे भी लोग थे जिन्होंने इस राय का विरोध किया. 1699 में इटली के लुक्का साम्राज्य को दुनिया में टीबी को नियंत्रित करने के उद्देश्य से पहली विधायी कार्रवाई पारित करने का श्रेय दिया जाता है. इसके बाद इसे कई इतालवी शहरों में भी लागू किया गया.

वेदों में इसे ‛राजयक्ष्मा’ कहा गया. माने बर्बाद कर देने वाली बीमारी. इसे दूर करने के लिए जड़ी बूटियों के साथ यज्ञ विधानों का जिक्र है. विलियम मैन्स और शेक्सपियर के नाटकों में भी टीबी के संदर्भ मिलता है.



मिस्र की ममियों के हड्डी में टीबी के सबूत मिले.

कैसे जाना जाता था कि मरीज को टीबी है?

आमतौर पर टीबी के मरीजों में कई हफ्तों तक चलने वाली खांसी के साथ बलगम और खून जैसे लक्षण दिखते हैं. मरीज को छाती में दर्द, कमजोरी, वेट लॉस और बुखार होता है. आज इस रोग की विधिवत पहचान परख के लिए सिस्टमेटिक माइक्रोस्कोपिक जांच और एक्स-रे किए जाते हैं. पैथलॉजी की जांच विकसित होने के पहले शुरुआती दिनों में टीबी की पहचान लक्षणों के आधार पर ही की जाती थी.

चरक संहिता निदानस्थान में टीबी के 11 लक्षणों का वर्णन है. इनमें सिर में भारीपन, खांसी, सांस फूलना, आवाज बैठना, कफ की उल्टी, खून थूकना, छाती के किनारों में दर्द, कंधे में दर्द, बुखार, दस्त और खान पान से दूरी जैसे लक्षण बताए गए हैं. यूनानी साहित्य में टीबी का सबसे पहला शास्त्रीय वर्णन हिप्पोक्रेट्स के लेखन से मिलता है. उस समय ग्रीक फिजिशियन Aretaeus की किताब ‛The causes and symptoms of chronic diseases’ में दी गई जानकारी को सबसे सटीक माना जाता था. उन्होंने खांसी, सीने में दर्द, बुखार, पसीना, थकान और आलस्य को टीबी का मुख्य लक्षण बताया था.



शुरुआती दिनों में टीबी की पहचान लक्षणों के आधार पर की जाती थी.

मौजूदा वक्त की बात करें तो WHO के मुताबिक दुनिया में ट्यूबरक्लोसिस के कुल मामलों में से एक-तिहाई मरीज भारत में होते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार साल 2019 में भारत में लगभग एक करोड़ लोग टीबी से बीमार पड़े. फिलहाल उसने इन आकड़ों को स्थिर माना है. संस्था के मुताबिक दुनिया की लगभग एक चौथाई आबादी में आज भी टीबी का बैक्टीरिया निष्क्रिय रूप से मौजूद हैं. भारत में टीबी की जांच और इलाज दोनों निशुल्क हैं. टीबी के ज्यादातर मामले एंटीबायोटिक दवाओं से ठीक हो जाते हैं. बस थोड़ा वक्त लगता है. इसका इलाज इस पर निर्भर करता है कि मरीज को किस तरह का ट्यूबरक्लोसिस है. आमतौर पर इसकी दवा 6 से 9 महीने तक चलती है. अमिताभ बच्चन का डायलॉग दोहराएं तो- टीबी का इलाज पूरी तरह मुमकिन है. बस जरूरी है इलाज के दौरान एहतियात बरतने की.



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