एक शब्द, जो पिछले दो सालों के दौरान सबसे ज़्यादा बोला गया, सुना गया, भोगा गया. दो साल पहले आज ही के दिन राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगा दिया गया था. इसके बाद जो घटा, वो इतिहास है. जिन्होंने अपने को खो दिया, उनके नुकसान की भरपाई असंभव है. लेकिन ज़िंदगी चलते रहने का नाम है. इसीलिए बहुत कुछ खोकर हम चलते रहे. और अब चलते चलते वहां पहुंच रहे हैं, जहां से हम कह सकें कि महामारी का बुरा दौर पीछे छूट गया. सरकार ने भी कोरोना महामारी के संदर्भ में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून के प्रावधानों को हटाने का ऐलान कर दिया है. अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी सुधार के संकेत अब मिलने लगे हैं.
अर्थव्यवस्था जिस तरह धड़ाम हुई, हम वो जानते हैं. एक सख्त लॉकडाउन लगाया गया. उसके नतीजे में उद्योग बंद हुए. नौकरियां चली गईं. इसके बाद दो बार और आंशिक लॉकडाउन की ज़रूरत पड़ी. लेकिन वो पहले लॉकडाउन की तरह नहीं थे. अर्थव्यवस्था 2020-21 की पहली तिमाही मे 23 फीसदी के करीब घट गई. ये था इकनॉमिक शॉक.
अर्थव्यवस्था की रिकवरी 2021-22 की दूसरी तिमाही में जाकर वहां पहुंची जहां हम चाहते थे. दूसरी तिमाही का मतलब हुआ जुलाई से सितंबर का वक्त. इस दौरान अर्थव्यवस्था 8.4 फीसदी की दर से बढ़ी. ये विकास दर जुलाई-सितंबर 2019-20 की विकास दर के लगभग बराबर थी. इसका मतलब ये निकाला गया कि हम महामारी के आर्थिक झटके को अब पीछे छोड़ते जा रहे हैं. केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने दिसंबर 2021 में कहा था कि भारत उन चुनिंदा अर्थव्यवस्थाओं में से है जिन्होंने कोरोना महामारी के दौरान लगातार चार तिमाहियों में ग्रोथ हासिल की.
साल 2021-22 की सारी तिमाहियों में हमने निजी खपत और निवेश बढ़ते देखे. इसका मतलब आम लोग बाज़ार से पहले के मुकाबले ज़्यादा सामान खरीद रहे थे, कुछ पैसे बचा भी ले रहे थे. मैनुफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में ग्रोथ धीमी है, लेकिन हो रही है. और इस सबके चलते सरकार को हर महीने जीएसटी से करीब 1 लाख करोड़ रुपए की आय भी हो रही है.
सबसे ज़्यादा सुधार हुआ है निर्यात के मामले में. भारत ने वित्त वर्ष 2021-22 के लिए निर्यात का लक्ष्य रखा था 400 बिलियन डॉलर. माने तकरीबन 30 लाख 52 हज़ार 880 करोड़ रुपए. इसके लिए डेडलाइन थी 31 मार्च 20222. लेकिन भारत ने ये लक्ष्य 10 दिन बाकी रहते हुए ही हासिल कर लिया - माने 21 मार्च को. सरकार उम्मीद कर रही है कि 31 मार्च तक भारत लगभग 76 हज़ार करोड़ का निर्यात और कर लेगा. इसे लेकर प्रधानमंत्री ने एक ट्वीट भी किया. उन्होंने लिखा,
''भारत ने 400 बिलियन डॉलर के सामान के निर्यात का ऊंचा लक्ष्य रखा था. और पहली बार में ही हमने इस लक्ष्य को प्राप्त भी कर लिया. मैं इस सफलता पर हमारे किसानों, बुनकरों, छोटे उद्योगों, निर्माताओं और निर्यातकों को बधाई देता हूं. ये आत्मनिर्भर भारत अभियान की यात्रा में एक मील का पत्थर है.”
विशेषज्ञ भी मानते हैं कि भारत रिकवरी के रास्ते पर तो है. लेकिन वो अति उत्साह के प्रति आगाह भी करते हैं. वो ध्यान दिलाते हैं कि 2019-20 के दौरान भारत की अर्थव्यवस्था ढलान पर ही थी. जीडीपी घट रही थी और इसमें औसतन 4 से 5 प्रतिशत की गिरावट थी. इसीलिए महामारी से पहले की अवस्था में पहुंचना ही काफी नहीं होगा. क्योंकि 2019-20 में भी गाड़ी रिवर्स गियर में ही थी. RBI के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने इंडिया टुडे से यही बात कही थी. उन्होंने कहा था कि बड़ी गिरावट के बाद तेज़ी से बहाली होना बहुत बड़ी बात नहीं है. बड़ा सवाल ये है कि क्या हम ग्रोथ के अपने पुराने दौर में वापस लौट पाएंगे? क्या हमें अब 8 या 9 फीसदी से आगे बढ़कर सोचने की ज़रूरत नहीं है?
कोरोना काल में बाज़ार को राहत देने के लिए मोदी सरकार ने मई 2020 में 20 लाख करोड़ के आत्मनिर्भर भारत पैकेज का ऐलान किया. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बताया कि कौन से सेक्टर को कितना पैसा दिया जाएगा. तब इस पैकेज की ये कहते हुए खूब आलोचना हुई थी सरकार अपने पास से बहुत अतिरिक्त पैसा दे रही है. ज़्यादातर पैसा उन्हीं मदों से दिया जा रहा है, जो बजट में पहले से हैं. और एक बड़ा हिस्सा कर्ज़ के रूप में है. माने वो लौटाना होगा.
सरकार ने अपने बचाव में कहा था कि ये आलोचना जल्दबाज़ी में की जा रही है. पैकेज का असर ज़मीन पर उतरने दीजिए, तब मूल्यांकन किया जाएगा. अब लगभग दो साल हो गए हैं. तो मूल्यांकन का सही मौका है. हमने विशेषज्ञों से पूछा कि मोदी सरकार ने जो 20 लाख करोड़ बाज़ार में डालने का वादा किया था.
तो यहां तक आते आते हम इतनी बात समझ गए हैं कि आर्थिक मोर्चे पर रिकवरी हो तो रही है. बेशक इसमें सुधार की गुंजाइश है, लेकिन हम सही रास्ते पर निकल तो पड़े हैं. लेकिन इसी बीच एक दिक्कत खड़ी हो गई है. रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण कर दिया है. और इसके चलते अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल और गैस की कीमत काफी बढ़ गई है. आज भी कच्चे तेल का भाव 114 से 122 डॉलर के बीच था. इस आंकड़े से भारत को क्यों परेशानी है, ये समझने के लिए आपको इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण को देखना होगा. इसमें साल 2022-23 में भारत की विकास दर का अनुमान लगाते हुए कच्चे तेल की कीमत को 70-75 डॉलर माना गया था. लेकिन अब तेल इससे कहीं ऊंची कीमत पर बिक रहा है.
चूंकि भारत को अपनी ज़रूरत का 85 फीसदी तेल आयात करना पड़ता है, कीमतों में डेढ़ गुना से भी ज़्यादा का फर्क बड़ी आसानी से हमारा बजट गड़बड़ा सकता है. अगर सरकार पेट्रोलियम उत्पाद जैसे पेट्रोल-डीज़ल की कीमत नहीं बढ़ाती, तो कंपनियां दीवालिया हो जाएंगी. अगर वो टैक्स कम करती है, या फिर तेल कंपनियों को सब्सिडी देती है, तो फिर विकास की दूसरी मदों के लिए पैसा कम हो जाएगा. और अगर वो कीमतों का पूरा भार उपभोक्ताओं पर डाल देती है, तो महंगाई इतनी बढ़ जाएगी कि विकास दर बढ़ने की जगह नीचे आने लगेगी. तो सरकार के पास इस संकट का कोई आसान हल नहीं है. तिसपर अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसीज़ जैसे फिच ने साल 2022-23 के लिए भारत की विकास दर का अनुमान घटाना शुरू कर दिया है. फिच ने भारत के लिए अपने अनुमान को 10.3 से 8.5 फीसदी कर दिया है. यही काम बाकी रेटिंग एजेंसीज़ ने भी किया है.
तो क्या रूस के आक्रमण के चलते भारत की रिकवरी पर ब्रेक लग जाएगा?
रूस-यूक्रेन संकट अगर लंबा खिंच जाता है, तब भी तेल बाज़ार को एक न्यू नॉर्मल मिल जाएगा. और कीमतों में नाटकीय उतार-चढ़ाव बंद होगा.
इन सारी बातों के साथ अंत हम एक राइडर जोड़ना चाहते हैं. बेशक अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ रही है. लेकिन जिस तरह रफ्तार के साथ सीटबेल्ट और एयरबैग अनिवार्य होते हैं, उसी तरह ग्रोथ रेट के साथ भी दो चीज़ें अत्यावश्यक होती हैं -
- महंगाई पर नियंत्रण
- काम करने के इच्छुक युवाओं के लिए रोज़गार
इन दो चीज़ों के बिना वैसे भी ग्रोथ रेट बहुत ऊपर नहीं जा सकती. और अगर चली भी जाए, तो समाज में असमानता बढ़ने लगती है. इसीलिए ये ज़रूरी है कि मोदी सरकार रिकवरी के साथ-साथ रिकवरी के लाभार्थियों की संख्या बढ़ाने पर भी ज़ोर दे. इसके लिए क्या ज़रूरी है, हमने विशेषज्ञों के हवाले से बताया. इन सुधारों को लागू करने के लिए जनादेश की ताकत मोदी सरकार के पास पहले से है. अब बस ये देखना है कि सरकार इन उम्मीदों पर कितना खरा उतर पाती है. और सख्त फैसले लेने का वक्त तेज़ी से खत्म हो रहा है. क्योंकि साल 2023 जाएगा 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों में. इसीलिए जो करना है, वो साल 2022 में करना होगा. और क्या करना होगा वो हम चार बिंदुओं में समेट रहे हैं -
- पर्यटन और हॉस्पिटैलिटी जैसे क्षेत्रों को msme की तरह मदद देनी होगी
- शहरी गरीबों की मदद करनी होगी. इनकी स्थिति बेहतर होगी तो खपत ज़्यादा तेज़ी से बढ़ेगी
- विनिवेश बढ़ाना होगा. सरकार जो बेचना चाहती है, उसे बेच दे और पूंजी को विकास कार्यों में लगाए
- राजकोषीय घाटे का कम रहना ज़रूरी है. लेकिन अगर थोड़े समय के लिए इसे बढ़ने देने में फायदा नज़र आ रहा हो, तो सरकार इससे हिचके नहीं. सरकार का खर्च बढ़ेगा, तो खेल में हर कोई जीतेगा, सरकार, निजी क्षेत्र और आम लोग.
हम इस बात को समझते हैं कि 15 मिनिट के ज्ञान से पूरे देश की अर्थव्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता. ये खेल लंबा चलता है. हमारी नज़र इस खेल पर बनी रहेगी. अब गौर करते हैं हेल्थ सेक्टर पर.
पिछले दो सालों में देश को जिसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत महसूस हुई वो देश की स्वास्थ्य व्यवस्था ही थी. कोरोना की महामारी ने हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को झंझोड़ा, निचोड़ा और खूब मरोड़ा. पहली लहर में आपाधापी देखी, ना टेस्टिंग की किट थी, ना ही डॉक्टरों के पास पीपीई किट थी. दूसरी लहर में थोड़ा बहुत इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार हुआ. मगर ऑक्सीजन की कमी ने सारी व्यवस्था को ध्वस्त करके रख दिया. फिर जो त्रासदी इस देश ने 2021 के अप्रैल-मई में झेली. वो शायद ही कभी भुलाई जा सके.
तो आज हम मोटा-मोटी समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर इन दो सालों में देश में क्या बदला और क्या बदलना जरूरी है ? पहली बात ये कि देश में हेल्थ पर केंद्र और राज्य दोनों के अपने अलग-अलग बजट होते हैं. विस्तार से एक-एक आंकड़ा एक बुलेटिन में समेटना मुश्किल और बोझिल दोनों है. इसलिए हम संक्षेप में अपनी बात रखेंगे. पहले बात कोरोना आने से पहले के साल की. 2019-20 में देश का हेल्थ बजट 64 हजार 609 करोड़ रुपए हुआ करता था. लेकिन कोरोना के बाद सरकार को इसे बढ़ाया.
2020-21 में बजट 80 हजार 694 करोड़ हुआ, 2021-22 में 86 हजार करोड़ और उसके बाद इस साल के बजट में मामूली बढ़ोत्तरी हुई. 86 हजार 201 करोड़. तब जाकर देश में स्वास्थ्य पर किए जाने वाला खर्च कुल जीडीपी के 4 फीसदी के आस-पास पहुंचा. इस बार स्वास्थ्य बजट में ज्यादा वृद्धि ना होने के पीछे तर्क दिया गया कि पीएम केयर फंड के अलावा कई और मदों से वैक्सीन, दवाई और ऑक्सीजन पर पैसे खर्च किए गए. इसलिए बजट में मामूली बढ़ोत्तरी दिखी.
बजट के अलावा इस दौरान स्वास्थ्य ढांचे में ज्यादातर बदलाव कोरोना के मद्देनजर हुए. डॉक्टरों के नए सिरे से ट्रेनिंग दी गई. हेल्थ और फार्मा इंडस्ट्री को एकसाथ जोड़कर काम किया गया. बड़ी बात ये रही कि ICMR यानी इंडिनयन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के दायरे को शोध से बढ़ाकर वैक्सीन तक पहुंचाया गया. नतीजा ये रहा कि ICMR ने भारत बायोटेक साथ मिलकर स्वदेशी वैक्सीन को डेवलप किया. अस्पतालों के अलावा भी वैक्सीन के लिए ट्रायल सेंटर बनाए गए. दूसरी लहर के बाद एक बड़ा बदलाव देखने को मिला कि सरकारी अस्पतालों के अलावा प्राइवेट अस्पतालों ने भी अपने यहां ऑक्सीजन के लिए PSA मतलब प्रेशर स्विंग एड्जॉर्ब्शन संयत्र लगाए.
15 मार्च 2022 को बीजेपी राज्यसभा सासंद इंदु बाला गोस्वामी ने ऑक्सीजन प्लांट को लेकर लिखित सवाल पूछा. सवाल था - क्या सरकार दूरवती क्षेत्रों के अस्पतालों मेंऑक्सीजन की आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए PSA सयंत्र लगा रही है ? ताकि अस्पताल ऑक्सीजन के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो सकें. तब स्वास्थ्य राज्य मंत्री भारती प्रवीण पंवार की तरफ बताया गया. कि देश भर में कुल 1561 PSA लगाए गए. जो ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं. इसमें से 1 हज़ार 225 ऐसे हैं जिनको पीएम केयर फंड के पैसे से बनाया गया. 336 PSA अलग-अलग मंत्रालयों ने स्थापित कराए. सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में सबसे ज्याद 169 PSA संयत्र लगाए गए. मध्य प्रदेश में जहां एक भी ऑक्सीजन प्लांट नहीं था, वहां116 PSA सयंत्र लगाए गए. ये यूपी के बाद सबसे बड़ा आंकड़ा था.
स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़ा एक सवाल 15 मार्च 2022 को संजय राउत ने भी पूछा. सवाल था कि क्या ये सच है कि देश के विभिन्न हिस्सों में बड़ी संख्या में चिकित्सा महाविद्यालयों, सुपर स्पेशिएलिटी अस्पतालों और एम्स जैसे संस्थानों की जरूरत है ? यदि हां तो ब्योरा दीजिए. जवाब फिर से स्वास्थ्य राज्य मंत्री भारती प्रवीण पंवार की तरफ से आया. बताया गया कि प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत किफायती स्वास्थ्य परिचर्चा को बढ़ाना, असंतुलन दूर करना और गुणवत्ता चिकित्सा शिक्षा के लिए सुविधाओं को बढ़ाना है. जिसके लिए 22 नए एम्स और 75 सरकारी मेडिकल कॉलेज को अनोमोदित किया गया है. ये पिछले हफ्ते दिया गया बयान है. जिसका मतलब है कि देश में 22 नए एम्स बनाने की योजना पाइपलाइन में है. अभी बने नहीं है.
इसके अवाला कोरोना की महामारी के बीच ही एक नारा प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से आत्मनिर्भर भारत का भी दिया गया.
प्रधानमंत्री ने जब आत्मनिर्भरता का नारा दिया तो स्वास्थ्य ढांचे की आत्मनिर्भरता सबसे प्रमुख थी. तो क्या भारत इस मामले में आत्मनिर्भर हो पाया ? जवाब हमें मिला इंडिया टुडे मैगज़ीन को दिए नरेश त्रेहान के बयान में. मेदांता अस्तपाल के मैनेजिंग डायरेक्टर डॉ नरेश त्रेहान नेआत्मनिर्भरता के मायने समझाते हुए कहा था कि,
''1970 के दशक के अंत तक भारत में कार्डिक बाइपास सर्जरी नहीं होती थी और हर साल हजारों लोग इलाज के लिए विदेश जाते थे. लेकिन अब देश ने इसे उलट दिया है. अब विदेशों से मरीज चिकित्सा सलाह और ऑपरेशन के लिए भारत आते हैं. हमने क्लिनिकल केयर के संदर्भ में कुछ प्रगति की है, लेकिन हम मेडिकल की पढ़ाई और रीसर्च में पिछड़ रहे हैं. आत्मनिर्भरता का मतलब उच्चतम गुणवत्ता वाली चिकित्सा सुविधा मात्र नहीं है. बल्कि विचार और ज्ञान में मौलिकता की भी उतनी ही अहमितय है. ''
जेनेरिक दवाओं, टीके और कई मामलों की सर्जरी में भारत काफी आगे बढ़ गया है,लेकिन डॉक्टर त्रेहान के बयान पर गौर करें तो भारत को अभी विचार, ज्ञान और रॉ मैटेरियल की मौलिकता पाने के लिए एक लंबा सफर तय करना है. दूसरी बात ये कि डॉक्टरों की कमी या डॉक्टरों का असमान वितरण आज भी भारत के लिए परेशानी का विषय बना हुआ है. जिस पर सरकार को तेजी से काम करने की जरूरत है. हिंदुस्तान में दुनिया के सबसे ज्यादा 605 मेडिकल कॉलेज हैं. जिनमें 322 सरकारी हैं.
इसके बावजूद बच्चों को डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए विदेश जाना पड़ता है. क्योंकि हर किसी का सरकारी संस्थानों में एडमीशन होता नहीं और प्राइवेट में 1 करोड़ रुपये तक की फीस दे पाना हर किसी के बस की बात नहीं. यही वजह थी कि भारत को यूक्रेन में फंसे छात्रों की समस्या से दो चार होना पड़ा. इसे लेकर सरकार की आलोचना भी हुई. एक वर्ग ने रेस्क्यू के लिए सराहना भी की. खैर एक सत्य ये भी है कि 2015 के बाद देश में 193 नए मेडिकल कॉलेज खोले गए. जिसमें से 136 सरकारी हैं. बीते 8 सालों में MBBS की सीटें भी बढ़ी. 2013-14 में 51 हजार 348 MBBS सीट थी, जो 2020 में बढ़कर 88 हजार 120 हो गई है.
आज की तारीख में देश में 13 लाख से ज्यादा एलोपैथिक डॉक्टर हैं, जो कि अमेरिका से भी ज्यादा हैं. बस बात वही है कि हमारी आबादी भी अमेरिका से कई गुना ज्यादा है. WHO के मानक कहते हैं कि एक हज़ार की आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए, भारत में 1 हज़ार 345 लोगों पर एक डॉक्टर हैं. मतलब करीब साढ़े तीन लाख डॉक्टरों की कमी है. चीन की आबादी कमोबेश हिंदुस्तान के बराबर है. वहां डॉक्टरों की संख्या 36 लाख से ज्यादा है. माने भारत के मुकाबले तीन गुना से भी ज्यादा. यहां हिंदुस्तान को चीन से सीखने की जरूरत है.
दूसरी बात ये कि भारत में 45 फीसदी से ज्यादा डॉक्टर तो सिर्फ चार राज्यों - आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में ही हैं. जहां कुल आबादी के सिर्फ 24 फीसदी लोग रहते हैं. ऐसे में यूपी - बिहार सरीखे बड़ी आबादी वाले राज्यों में डॉक्टरों की कमी और इलाज का अभाव बना हुआ है. एक बड़ी समस्या डॉक्टरों के एंड से भी है. ज्यादातर डॉक्टर शहरों में काम करना चाहते हैं, गांव में कम ही डॉक्टर टिकते हैं. जिसकी वजह से कई बार ग्रामीण अंचल के दवाखानों में बढ़िया डॉक्टर नहीं मिलते. बार-बार लोगों को बेहतर इलाज के लिए शहर की तरफ भागना पड़ता है.
2030 तक हिंदुस्तान की आबादी और बढ़ चुकी होगी, तब की स्थिति में WHO के तय मानक पर खरा उतरने के लिए कम से कम 20 लाख अतिरिक्त डॉक्टरों की जरूरत होगी. उसके लिए जरूरी है मेडिकल की सीटें भी बढ़ाई जाए.
सीनियर डॉक्टरों के मुताबिक स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने के लिए अस्पातलों में OPD और इंमेरजेंसी व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए सरकार को ध्यान देना चाहिए. साथ ही सरकारी अस्पतालों में हमेशा डॉक्टरों और नर्सं की कमी की शिकायत रहती है. जिसे दूर करने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए.
सेना में डोगरा, सिख, राजपूत और जाट रेजिमेंट हैं, तो अहीर रेजिमेंट क्यों नहीं बनाई जा रही?