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मौलाना आजाद फेलोशिप बंद करना अल्पसंख्यक विरोधी? मोदी सरकार की बात क्यों नहीं मान रहे छात्र?

JNU छात्र संघ फेलोशिप बंद होने के खिलाफ 22 दिसंबर को अल्पसंख्यक मंत्रालय के सामने प्रदर्शन करने जा रहा है.

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AMU में प्रदर्शन और दिल्ली में सड़क पर छात्र (फोटो- सोशल मीडिया)

हाल ही में केंद्र सरकार ने मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप (MANF) बंद करने का ऐलान किया था. इसके बाद से देश की कई यूनिवर्सिटी के छात्र लगातार विरोध कर रहे हैं. 8 दिसंबर को अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में फेलोशिप बंद करने के बारे में बताया था. सरकार की दलील थी कि मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप केंद्र की दूसरी स्कीम्स के साथ ओवरलैप कर रही थी और अल्पसंख्यक छात्र पहले से ही ऐसी योजनाओं के पात्र होते हैं. हालांकि, सरकार की इस दलील को कई छात्र और टीचर्स नकार रहे हैं और फेलोशिप खत्म करने के इस कदम को "अल्पसंख्यक विरोधी" बता रहे हैं.

बीते 12 दिसंबर को दिल्ली में कई छात्र सड़कों पर उतरे और सरकार के खिलाफ नारेबाजी की. इनमें जेएनयू, डीयू और जामिया के छात्र शामिल थे. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भी छात्रों ने पिछले हफ्ते दो दिन विरोध प्रदर्शन किया. संसद में कई विपक्षी नेता सरकार के इस फैसले के खिलाफ बोल चुके हैं. JNU छात्र संघ 22 दिसंबर को भी अल्पसंख्यक मंत्रालय के सामने इसी मुद्दे को लेकर प्रदर्शन करने जा रहा है. जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन (JNUTA) ने भी एक बयान जारी कर इस फैसले को लोकतंत्र और समावेशी मूल्यों पर हमला बताया. एसोसिएशन ने मांग की है कि सरकार इस "अल्पसंख्यक विरोधी" फैसले को वापस ले.

क्या कहते हैं स्टूडेंट?

जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे नूर आलम बताते हैं कि जो अल्पसंख्यक छात्र JRF (जूनियर रिसर्च फेलोशिप) क्वालीफाई नहीं कर पाते थे, लेकिन NET निकालने पर उन्हें इस फेलोशिप से मदद मिल जाती थी. M.Phil और PhD के लिए यूजीसी की तरफ से मिलने वाली फेलोशिप को JRF कहते हैं. नूर खुद MANF के जरिये पीएचडी कर रहे हैं. वो कहते हैं कि ये एक तरह से सकारात्मक पहल थी, जिससे अल्पसंख्यक छात्र हायर एजुकेशन के लिए हिम्मत जुटा पा रहे थे.

नूर ने दी लल्लनटॉप को बताया कि मौलाना आजाद फेलोशिप के जरिए अल्पसंख्यकों के लिए अलग से व्यवस्था की गई थी, ताकि वे हायर एजुकेशन में भी आगे आएं. इसमें ओवरलैप जैसी बात कहां है? यूजीसी ही इस फेलोशिप को भी देती है.

दिल्ली में सरकार के फैसले के खिलाफ उतरे छात्र (फोटो- फेसबुक/N Sai Balaji)

वहीं JNU से 'वेस्ट एशियन स्टडीज' में पीएचडी कर रहे साजिद इनामदार कहते हैं कि इस फैसले के खिलाफ वे प्रदर्शन करेंगे क्योंकि ये "टारगेटेड मूव" है. उन्होंने कहा कि किसी भी स्टूडेंट को एक समय में एक ही स्कॉलरशिप मिलती है, इसलिए सरकार की दलील सही नहीं है. साजिद बताते हैं,

"जाहिर है कि सरकार के इस फैसले से हायर एजुकेशन में फेलोशिप की सीटें अब कम होगी. MANF पा रहे अल्पसंख्यक छात्रों को दूसरी फेलोशिप में कॉम्पिटिशन करना होगा. ये सिर्फ मुसलमानों का मसला नहीं है. दूसरे अल्पसंख्यक भी इससे प्रभावित होंगे."

कैसे शुरू हुई थी फेलोशिप?

साल 2005 में कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति जानने के लिए एक कमिटी गठित की थी. इस कमिटी को हम सभी सच्चर कमिटी के नाम से जानते हैं. दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता में सात सदस्यों की कमिटी ने 2006 में रिपोर्ट जमा की. कमिटी ने बताया था कि भारत में दूसरे समुदायों की तुलना में मुसलमान सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से काफी पिछड़े हैं. रिपोर्ट में 2001 की जनगणना के हवाले से बताया गया था कि भारत में कुल आबादी में 7 फीसदी ग्रेजुएट या डिप्लोमा वाले हैं. वहीं मुस्लिमों में यह संख्या सिर्फ 4 फीसदी थी. इसके अलावा मुस्लिम छात्रों में ड्रॉप-आउट रेट भी ज्यादा था.

कमिटी ने सिफारिश की थी कि सरकार की नीतियां मुस्लिम समुदाय को मुख्यधारा में लाने पर केंद्रित होनी चाहिए. सच्चर कमिटी की सिफारिशों पर सरकार अल्पसंख्यक छात्रों के लिए कई योजनाएं लेकर आई. साल 2009 में सरकार ने हायर एजुकेशन में मुस्लिमों छात्रों की मदद के लिए मौलाना आजाद नेशनल फेलोशिप शुरू की.

किन छात्रों को मिलती थी फेलोशिप?

यह फेलोशिप देश में मौजूद सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए शुरू की गई थी. लेकिन इस फेलोशिप का लाभ लेने वाले ज्यादातर छात्र मुस्लिम समुदाय के ही हैं. साल 2018-19 में कुल एक हजार छात्रों को यह फेलोशिप मिली थी. इनमें 733 मुस्लिम समुदाय से थे. बाकी छात्र सिख, बौद्ध, ईसाई और जैन समुदाय के थे.

NET क्वालीफाइड अल्पसंख्यकों छात्रों को ही सरकारी संस्थानों से M.Phil और PhD के लिए फेलोशिप मिलती थी. वो भी तब, जब उनके परिवार की सालाना आय 6 लाख रुपये से कम हो. इसके अलावा पोस्ट ग्रेजुएशन में कम से कम 55 फीसदी मार्क्स होने जरूरी थे. पहले दो सालों में जूनियर रिसर्च फेलोशिप के लिए 31 हजार रुपये प्रति महीने मिलते थे और इसके बाद बाकी तीन सालों के लिए 35 हजार रुपये प्रति महीने दिए जाते थे.

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों का प्रदर्शन (फोटो- Twitter/@jibraan_uddin)

UGC डेटा के मुताबिक, इस प्रोगाम के लिए 2014-15 से 2021-22 के बीच 6,722 कैंडिडेट्स को चुना गया. इन स्टूडेंट्स को 738.85 करोड़ रुपये की स्कॉलरशिप दी गई थी. यानी औसतन हर साल 100 करोड़ रुपये से ज्यादा की फेलोशिप दी जा रही थी.

बंद करने की वजह

केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने 8 दिसंबर को लोकसभा में बताया था कि MANF स्कीम केंद्र सरकार की कई दूसरी स्कीम्स से ओवरलैप हो रही थी. अल्पसंख्यक स्टूडेंट्स के लिए केंद्र सरकार की कई स्कीम्स हैं. स्मृति ईरानी ने कहा कि इसी को देखते हुए सरकार ने 2022-23 से MANF स्कीम को बंद करने का फैसला लिया है.

JNU की प्रोफेसर मौसमी बासु कहती हैं कि वैसे तो सरकार रिसर्च में बजट को लगातार कम कर रही है. लेकिन सरकार का यह कदम तर्क से परे है. ओवरलैप जैसी कोई बात ही नहीं है, ये तो माइनॉरिटी फेलोशिप है. प्रोफेसर बासु ने बताया,

"अल्पसंख्यकों के लिए, खासकर महिलाओं को हायर एजुकेशन में 5 साल निकालना काफी मुश्किल होता है. फेलोशिप से एक स्थिरता मिलती है. राज्य सरकार भी पीएचएडी के लिए फेलोशिप देती है. MANF अल्पसंख्यकों के लिए सोच-समझकर लाई गई थी, क्योंकि वो बहुत पीछे थे. सच्चर कमिटी की रिपोर्ट देखिये, फेलोशिप शुरू करने के पीछे ऐतिहासिक आधार था. जब आप टारगेट करते हैं, तो यह साफ हो जाता है कि आप उस समुदाय के लिए फंड नहीं करना चाहते हैं."

प्रोफेसर बासु के मुताबिक, दूसरी फेलोशिप स्कीम है या ये फेलोशिप है वाली बात नहीं है. सभी फेलोशिप एक साथ जारी रह सकती है. सरकार की इच्छा होनी चाहिए कि फेलोशिप की फंडिंग जारी रहे.

ये सही है कि हायर एजुकेशन में मुस्लिम समुदाय की आबादी दूसरे समुदाय की तुलना में अब भी काफी कम है. ऑल इंडिया सर्वे ऑल हायर एजुकेशन की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में मुस्लिमों की आबादी 14.2 फीसदी है. लेकिन कॉलेज और यूनिवर्सिटी में इस समुदाय के छात्रों की संख्या सिर्फ 5.5 फीसदी है. वहीं टीचिंग फैकल्टी भी सिर्फ 5.5 फीसदी ही है.

वीडियो: UGC ने लॉन्च की 5 फेलोशिप और रिसर्च स्कीम, ये लोग कर सकते हैं अप्लाई