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मूवी रिव्यू: चुप

'चुप' देखी जानी चाहिए. नए आईडिया के लिए. तेज़ रफ़्तार स्क्रीन प्ले के लिए. दुलकर सलमान की परफॉरमेंस के लिए.

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'चुप' फिल्म की रिलीज़ से पहले इसका फ्री-व्यू किया गया था. जिसके टिकट्स मात्र 10 मिनट में बिक गए थे.

मुंबई शहर. फिल्मों की नगरी. तरह-तरह की फ़िल्में. अच्छी, बुरी, ठीकठाक फ़िल्में. बड़े बजट की डिज़ास्टर फ़िल्में. छोटे बजट की कमाल फ़िल्में. फाइव स्टार रेटिंग वाली रद्दी फ़िल्में. खाली सिनेमा हॉल्स में चलती शानदार फ़िल्में. फिल्मों में विडंबना. विडंबना पर बनी फ़िल्में. कुल मिलाकर ख्वाबों का कारोबार. फिर आते हैं उन ख्वाबों के निर्माता. फिल्ममेकर्स. और उसके बाद आती है उन ख़्वाबों को रेट करने वाली बिरादरी. क्रिटिक्स. इन सबको मिलाकर बनता है मुंबई का सिनेमा यूनिवर्स. और फिर इस यूनिवर्स में एंट्री होती है एक साइको क़ातिल की. मामला दिलचस्प लगा?  हमें तो लगा था. ये सेटअप है सनी देओल, दुलकर सलमान, श्रेया धन्वंतरी और आर बाल्की की फिल्म 'चुप' का. पूरा नाम: 'चुप-रिवेंज ऑफ दी आर्टिस्ट'. हमको कैसी लगी? आइए बात करते हैं.

# "सर जो तेरा चकराए"

कहानी है मुंबई में घूम रहे एक सीरियल किलर की. जो फिल्म क्रिटिक्स को ढूंढ़-ढूंढ़कर मार रहा है. और उनके माथे पर गोद रहा है सितारे. ऐन उतने ही जितने उन्होंने अपने लास्ट मूवी रिव्यू में दिए थे. और उसी स्टाइल में, जिस स्टाइल की शब्दावली उन्होंने अपने रिव्यू में इस्तेमाल की थी. जैसे एक आलोचक ने लिख दिया कि फिल्म का फर्स्ट हाफ सही ट्रैक पर है लेकिन सेकंड हाफ बिखरा हुआ है. तो उसके शरीर का आधा हिस्सा रेलवे ट्रैक पर और बाक़ी आधा हिस्सा छत्तीस टुकड़ों में बिखरा हुआ मिलेगा. क़ातिल है या कवि! खैर. आलोचक बिरादरी में पैनिक है. इतना कि रिव्यूज़ का कारोबार ही ठप्प पड़ गया है. क्राइम ब्रांच हेड अरविंद माथुर के मत्थे ज़िम्मेदारी आन पड़ी है कि वो जल्द से जल्द क़ातिल का पता लगाए. ताकि फिल्मों की अच्छी-बुरी आलोचनाओं का सिलसिला रिज़्यूम किया जा सके.

दुलकर सलमान और हिंदी फ़िल्में करनी चाहिए.

उधर एंटरटेनमेंट जर्नलिज्म की नई रंगरूट निला मेनन, अरविंद माथुर की मदद के लिए अपनी जान दांव पर लगाने को तैयार है. एक क्रिमिनल साइकोलॉजिस्ट भी है, जिसे किलर की तरह सोचने में महारत हासिल है. जो किलर तक पहुँचने का रास्ता बताएगी. और है एक किलर. जो अनस्टेबल है, खुद से ज़ोर-ज़ोर से बातें करता है, क़त्ल करते वक्त क्रूरता की तमाम हदें पार कर देता है, लेकिन ओकेजनली क्यूट भी है.

क्या अरविंद माथुर इस क़ातिल तक अपनी पहुंच बना पाएगा? अगर हां तो कैसे? और हमारा सीरियल क़ातिल इतनी क्रूरता से इतनी हत्याएं कर क्यों रहा है? इन सारे सवालों का जवाब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.

# "ये हंसते हुए फूल"

'चुप' का सबसे उजला पक्ष है इसकी परफॉरमेंसेस. ख़ास तौर से दुलकर सलमान की. एक डिस्टर्ब्ड नौजवान डैनी के रोल में उन्होंने बता दिया है कि वो नई पीढ़ी के उन अदाकारों में से हैं, जिनकी पारी लंबी चलने वाली है. उनका स्क्रीन प्रेज़ेंस कमाल का है. क्यूट डैनी से डेविल डैनी का ट्रांसफॉर्मेशन वो इतना एफर्टलेसली कर जाते हैं कि दिल खुश हो जाता है. तमाम फिल्म में लाइमलाइट और क्लाईमैक्स के सारे मोमेंट्स उन्होंने ही कब्ज़ा रखे हैं. शानदार प्रदर्शन है ये उनका. दुलकर को हिंदी फ़िल्में और ज़्यादा करनी चाहिए.

सनी देओल काफी अरसे बाद परदे पर लौट रहे हैं. लेकिन ऐसा लगता नहीं कि उनका कोई ब्रेक भी रहा हो. वो अपने रोल में रचे भी हैं और जंचे भी हैं.  वैसे भी वो ऐसे सुपरकॉप का रोल इससे पहले भी कई बार कर चुके हैं. तो उनके लिए ज़रा भी मुश्किल नहीं रहा होगा. श्रेया धन्वंतरी को कदरन कम स्क्रीन स्पेस मिला है लेकिन उनका होना महसूस होता है. एक फ्रेशर एंटरटेनमेंट जर्नलिस्ट, जिसे सिनेमा की विधा से बेहद प्यार है. जो अपने लिखे आर्टिकल की तारीफ़ पाकर बच्चों जैसी खुश होती है और करप्ट रिव्यूअर्स के फैब्रिकेटेड रिव्यूज़ पढ़कर दुखी. जिसे रोमांस करने के लिए सिर्फ स्लो-मो चलकर आए बंदे की ज़रूरत है. म्यूज़िक तो वो अपने दिमाग में ही बजा लेगी. श्रेया ने अपना काम प्यारे ढंग से निभाया है. क्रिमिनल साइकोलॉजिस्ट ज़ेनोबिया के रोल में पूजा भट्ट कन्विंसिंग हैं और ओकेजनली फनी भी.

# "जिन्हें नाज़ है हिंद पर"

फिल्म एक और डिपार्टमेंट में अच्छा स्कोर कर जाती है. डायलॉग्स. संवाद चुटीले और प्रभावशाली हैं. कई जगह हास्य पैदा करने में सक्षम रहे हैं, तो कई जगह हार्श रिएलिटी पर मारक टिप्पणी साबित होते हैं. जैसे एक संवाद है, 

"ये इंडिया है. यहां स्कॉरसेसी नहीं, शेट्टी चलता है". 

कुछेक संवाद फिल्म के नैरेशन को बढ़िया ढंग से कॉम्प्लिमेंट भी करते हैं. जैसे,

"अच्छे फिल्म एक्सपीरियंस के लिए मोबाइल फोन्स और क्रिटिक्स दोनों साइलेंट होने चाहिए".

सनी देओल सहज और असरदार लगे हैं.

डायरेक्टर आर बाल्की हमेशा पाथ ब्रेकिंग सिनेमा की राह चले हैं. चाहे 'चीनी कम' हो या 'पा'. इस फिल्म में भी उनका कुछ अलग करने का आग्रह साफ़ झलकता है. इस बार वो थ्रिलर में हाथ आज़मा रहे हैं और संतोषजनक काम किया है. फिल्म को लिखा भी उन्होंने ही है. आईडिया के लेवल पर 'चुप' बेहतरीन कॉन्सेप्ट है. ऊपर से गुरु दत्त टच इसे और भी आकर्षक बनाता है. गुरु दत्त की फिल्मों के गाने का प्लेसमेंट बेहतरीन है. आप एक स्ट्रोंग कनेक्ट महसूस करते हैं लगातार.

अमित त्रिवेदी का संगीत हमेशा की तरह उम्दा है और विशाल सिन्हा की सिनेमैटोग्राफी सुंदर. मुंबई को उनके कैमरे ने अलग ढंग से कैप्चर किया है. कुछेक फ्रेम्स तो अद्भुत हैं.  

# "ये दुनिया अगर मिल भी जाए"

कमियों के खाते में कुछेक चीज़ें ज़रूर गिनाई जा सकती हैं. जिन्हें बेखतर होकर मेंशन किया जा सकता है, क्योंकि - शुक्र है - कोई साइको किलर असली दुनिया में क्रिटिक्स के पीछे नहीं पड़ा हुआ. फिल्म एक इनोवेटिव आईडिया को और बेहतर करने में थोड़ी कमज़ोर पड़ जाती है. जैसे कि जितना आप ट्रेलर में देखते हैं, फिल्म का सार लगभग वही है. हम इस उम्मीद से जाते हैं कि जितना ट्रेलर में रिवील किया गया है, उससे थोड़ा ज़्यादा ही फिल्म से पल्ले पड़ेगा. फिल्ममेकर ने कुछ एक्स्ट्रा ज़रूर बचाकर रखा होगा. लेकिन ऐसा है नहीं. कमोबेश उतना ही हासिल होता है, जितना ट्रेलर में है. एक क़ातिल, सीरियल किलिंग की अजीब वजह और उसे पकड़ने की जद्दोजहद. बस.

एक और कमी ये लगती है कि क्लाईमैक्स उतना दमदार नहीं बन सका है. ऐसा लगता है कि बहुत जल्दी से और बहुत कन्विनियंटली सब ख़त्म हो गया. आप किसी ग्रैंड शो का इंतज़ार की उम्मीद लगाए बैठे हुए होते हो और थोड़ा निराश फील करते हो.

खैर. बावजूद इन खामियों के 'चुप' देखी जानी चाहिए. नए आईडिया के लिए. तेज़ रफ़्तार स्क्रीन प्ले के लिए. दुलकर सलमान की परफॉरमेंस के लिए. और सिनेमा नाम की उस करिश्माई विधा के लिए, जो हम सबकी ज़िंदगियों का अटूट हिस्सा है. ये महसूस करने के लिए कि सिनेमा हमारी लाइफ में किस हद तक घुसा हुआ है. जिस दौर में एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री को सिरे से खारिज करने की बातें चल रही हैं, 'चुप' जैसी फ़िल्म सिनेमा की अहमियत में हमारा फेथ मज़बूत करती है. और ये इस फिल्म का - मेरी नज़र में - सबसे बड़ा हासिल है.