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'दहाड़' सीरीज़ के वो 4 सीन्स, जो आपको झकझोरकर रख देंगे

ये कुछ ऐसे सीन्स हैं 'दहाड़' के, जिन पर घंटों चर्चा की जा सकती है. वो सीन्स, जो इसे स्टैंडआउट सीरीज़ बनाते है. ऐसे ही चार सीन्स पर बात करेंगे आज.

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'दहाड़' के इस सीन में देवी लाल अपनी बेटी नुपुर के दिल्ली जाने पर बातें कर रहा है.

आगे बढ़ने से पहले एक ज़रूरी डिस्क्लेमर. अगर आपने अमेज़न की सीरीज़ ‘दहाड़’ नहीं देखी है, तो बहुत सारे स्पॉइलर्स मिल सकते हैं. सोनाक्षी सिन्हा की वेब सीरीज़ 'दहाड़' इन दिनों बेहद चर्चा में है. काफी लोग इस पर बात कर रहे हैं. हम भी करते हैं, लेकिन अलग ढंग से. झकझोरकर रख देने वाले कुछ सीन्स पर बात करते हुए.

पहला सीन.  सीनियर इंस्पेक्टर देवी लाल और इंस्पेक्टर अंजलि भाटी एक सीरियल किलर केस पर काम कर रहे हैं. केस के सिलसिले में पूछताछ कर रहे हैं. दोनों एक कोठी पर पहुंचते हैं. घर का मालिक देवी लाल को कोठी के अंदर ले जाता है, जबकि अंजलि बाहर दरवाज़े पर खड़ी हैं. कोठी का मालिक अंदर पहुंचकर केस पर बात नहीं करता. उसका ध्यान इस बात पर है कि अंजलि घर के अंदर ना घुस पाए. क्यों? क्योंकि अंजलि कथित नीची जाति से है. 

उस आदमी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो पुलिस वाली है, केस की इंचार्ज है. बस कथित छोटी जाति की है, इसलिए मालिक नहीं चाहता कि वो उसके पुश्तैनी मकान में कदम भी रखे.

कट टू दूसरा सीन. इस बार अंजलि भाटी पुलिस स्टेशन में घुस रही है. गलियारे से होते हुए वो अपनी सीट तक जा रही हैं. उसके बगल के कमरे में बैठा एक और पुलिसवाला अंजलि को देखकर मुंह बनाता है. जब वो सामने से गुज़र जाती है, तो मेज से निकालकर दो अगरबत्ती जलाता है. फिर अपने पूरे कमरे में घुमाता है. 

अगरबत्ती जलाने के बाद उसे थोड़ी राहत है. वो खुद को अपने कमरे को अब शुद्ध मान रहा है. इस बात को पचाने में उसे दिक्कत होती है कि एक कथित नीची जाति की 'पुलिसवाली' उसके साथ काम करती है.  

एक सीन और है. एक पुलिसवाला है. ऑफिस में जूनियर्स उसकी इज़्जत नहीं करते. बॉस उससे सीधे मुंह बात नहीं करता. वो ट्रांसफर चाहता है मगर उसे ट्रांसफर नहीं मिलता. घर पर बीवी मां बनने वाली है. सारे घरवाले खुश हैं. मिठाई बांट रहे हैं लेकिन पुलिसवाला बाप नहीं बनना चाहता. उसे बच्चे नहीं चाहिए. वो फ्रस्ट्रेट है. रोना चाहता है. चिल्लाना चाहता है. फिर एक रोज़ वो सड़क किनारे स्कूटी रोकता है. 

डिप्रेशन और एंग्जाइटी से लगातार जूझते रहने के बाद वो फाइनली रोता है. खूब रोता है.

ये कुछ सीन्स हैं 'दहाड़' के, जिन पर घंटों चर्चा की जा सकती है. एक साइकोपैथ सीरियल किलर की ये कहानी सिर्फ क्राइम-थ्रिलर जॉनर तक सीमित नहीं है. इसमें सिर्फ महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को नहीं दिखाया गया, बल्कि उसकी जड़ तक पहुंचने की कोशिश की गई है. नीचे 'दहाड़' के कुछ ऐसे ही मज़बूत सीन्स पर बात करेंगे. वो सीन्स, जो इसे स्टैंडआउट सीरीज़ बनाते है. ऐसे ही चार सीन्स पर बात करेंगे आज.

1. "तुम दिल्ली ज़रूर जाओगी"

पहला सीन है सीनियर इंस्पेक्टर देवी लाल और उनकी बेटी के बीच का सीन. बेटी का स्कूल की तरफ से डिबेट कॉम्पटीशन में सिलेक्शन हुआ है. वो प्रतियोगिता में हिस्सा लेने दिल्ली जाना चाहती है. मगर उसकी मां उसे दिल्ली नहीं भेजना चाहती. बेटी को दिल्ली भेजने के लिए पति-पत्नी झगड़ रहे हैं. दोनों के बीच कलह होती है. मां कहती है कि तुम अकेले ये फैसला नहीं ले सकते कि लड़की को बाहर जाना है या नहीं. देवी लाल कहता है बेटी बाहर जाएगी, ताकि वो मां की तरह बैकवर्ड ना रहे. 

इसी सीन में गुलशन की बेटी नुपुर खिड़की के उस पार खड़ी है. मां-बाप को ऐसे लड़ते देख वो कहती है कि वो स्कूल वालों को मना कर देगी. दिल्ली नहीं जाएगी. लेकिन देवी लाल उसे डपटकर कहता है, 

"चाहे जो भी हो, तुम दिल्ली ज़रूर जाओगी".

इस सीन में नुपुर जिस खिड़की के पास खड़ी है, वो किसी जेल जैसी है. सलाखों के पीछे कैद वो 15-16 साल की लड़की, खुद को ही दोषी मान रही है. महसूस करती है कि शायद उसकी वजह से मां-बाप झगड़ रहे है. उसे गिल्ट है कि उसने दिल्ली जाने की ज़िद फालतू में की. ये सीन एक कड़वी हकीकत से हमें रूबरू कराता है. भारत में कई लड़कियां आगे बढ़ने का सपना महज़ इसलिए छोड़ देती हैं, कि उनके घर वाले खुश रहें. अपने मन का करना तो चाहती है, मगर कैद है. तब तक, जब तक कोई हाथ पकड़कर उसे इन सलाखों के बाहर ना खींच ले. देवी लाल दिन-रात कैदियों को सलाखों के पीछे देखता है. अपनी बेटी को वो उस जेल से निकालना चाहता है और निकालता भी है.

2. "और फोटो देखेगी?"

दूसरे सीन में अंजलि भाटी है, जिस पर शादी का दबाव है. उसकी मां सुबह-शाम उसे अलग-अलग लड़कों की तस्वीरें दिखाती है. ऑफिस जाकर धरना देती है कि बेटी किसी लड़के से मिलकर शादी कर ले. इस सीन में अंजलि की मां एक लड़के की तस्वीर दिखाती है. अंजलि फोटो देखती है, फिर अपनी मां से कहती है, "रुक, मैं भी कुछ फोटो दिखाती हूं". फिर वो उन 27 लड़कियों की तस्वीरें दिखाती है, जिनको शादी का झांसा देकर मार डाला गया. जिनकी लाशें शहर के अलग-अलग पब्लिक टॉयलेट्स से मिलती हैं. सारी तस्वीरें दिखाने के बाद वो अपनी मां से पूछती है, 

"और फोटो देखेगी?"

एक लड़की पर शादी का प्रेशर कितना घातक हो सकता है, इसका पूरा सिस्टम इस एक सीन में सिमटा हुआ है.  ये प्रेशर समाज कम, घरवाले ज़्यादा बनाते हैं. दिन-रात शादी की रट लगाकर ना खुद सुकून से रहते हैं, ना रहने देते हैं. देश-दुनिया कितनी आगे निकल गई, कहां पहुंच गई उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं. सिर्फ इस बात की चिंता है कि घर में सयानी लड़की बैठी है और उसके हाथ पीले करने है. 

शादी के दबाव को झेलते-झेलते लड़कियां अपने ही घर में घुटन महसूस करने लगती हैं. रोज़ ताने सुन-सुनकर उन्हें लगने लगता है कि शादी नहीं होगी तो आसमान फट पड़ेगा. इतनी अकेली हो जाती हैं कि उन्हें सही-गलत का आभास ही नहीं होता. जहां सहारा मिलता है, वहीं मुड़ जाती है. किसी ने दो-चार बार प्यार से बात कर ली, थोड़ा पुचकार दिया तो उसे अपना समझने लगती हैं. शादी करना क्यों ज़रूरी है इस सवाल का जवाब शायद ही दुनिया का कोई आदमी दे सके. लोगों को लगता है बेटियों का भविष्य बिना आदमी के अंधकार में ही रहता है. ये शादी का प्रेशर ही है, जो लड़कियों को आगे बढ़ने से रोकता है.  इस लानत पर ये सीन बड़ी मारक टिप्पणी करता है.

3. "सेक्स एक सही उम्र में और दोनों की मर्ज़ी से होता है"

भारत में सेक्स पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता. गलती से अपने आस-पास ये शब्द कोई सुन भी ले, तो या तो मज़ाक बनने लगता है या आदमी नज़रें चुराने लगता है. सेक्स शब्द से इतना असहज महसूस करने वाले लोगों से उम्मीद लगाना ही गलत है कि वो अपने बच्चों से सेक्स एजुकेशन पर बातें करेंगे. भारत में सभ्यता और संस्कृति के नाम पर मां-बाप अपने बच्चों को एक बहुत ज़रूरी शिक्षा से वंचित रखते हैं. फिर यही सेक्स शब्द उनके लिए सबसे ज़्यादा कैची हो जाता है. बिना किसी से पूछे, बिना कुछ जाने वो सेक्स की गलत-सलत नॉलेज रखते हैं. उनके दिमाग में कुछ गलत बातें बैठ जाती हैं.

'दहाड़' के एक सीन में इसी ग़लत धारणा को तोड़ने की कोशिश की गई है. एक सीन में देवी लाल अपने बेटे से सेक्स पर बात करता है. वो बेटे को कुछ अश्लील वीडियो देखते रंगे हाथों पकड़ता है. जनरली ऐसे वक्त बाप या तो बेटे से खफा हो जाता, या घर लौटकर उसे कायदे से सूत देता. पुलिसवालों की छवि तो वैसे भी गुस्सैल आदमी की होती है. लेकिन इस सीन में देवी लाल की अप्रोच अलग है. वो बेटे से सेक्स पर खुलकर चर्चा करता है. वो कहता है कि डांट और सज़ा तो सब ठीक है लेकिन इस पर बात करना बहुत ज़रूरी है. बडे़ ही सिंपल और साधारण तरीके से वो यहां एक लाइन कहता है,

"सेक्स एक सही उम्र में जाकर होता है और दोनों की मर्ज़ी से होता है".

कंसेंट क्या होता है, इस बात को इससे ज़्यादा आसान तरीके से नहीं बताया जा सकता था. सेक्स के लिए लड़का-लड़की दोनों की रज़ामंदी चाहिए, ये बात छोटी उम्र में ही लड़कों के दिमाग में बैठाना बेहद ज़रूरी है. ताकि आगे चलकर वो इसे अपना ईगो इशू ना बनाएं. ये सीन ये काम बड़ी सहजता से कर जाता है.

4. "ये संविधान का टाइम है"

सातवें एपिसोड में अंजलि केस की छानबीन के लिए प्राइम सस्पेक्ट के घर पहुंचती है. सस्पेक्ट के पिता अंजलि को अंदर जाने से रोकते हैं. क्योंकि वो कथित नीची जाति से ताल्लुक रखती है. वो व्यक्ति कहता है कि ये उसके पुरखों की हवेली है और वो किसी भी 'नीची जाति' को घर के अंदर कदम नहीं रखने देगा. इतनी प्रगतिशील दुनिया में भी छोटी और घटिया मानसिकता लोगों के मन में जड़ बनाकर बैठी है, इस बात का उदाहरण है ये सीन. लेकिन सीन सिर्फ इतना ही नहीं है. उस आदमी को अंजलि करारा जवाब देती है. कहती है,

"कौन ऊंच, कौन नीच, इस बात का ठेकेदार तू ना है. पुश्तैनी हवेली? ये थारे पुश्तों का टाइम ना है. संविधान का टाइम है, कायदे-कानून का टाइम है. और कानून ने म्हारे को एक पुलिस अफसर की हैसियत से पूरा हक दिया है अंदर घुसने का. और मैं घुसुंगी. चाहे तेरे पुश्तों को जितना भी कष्ट हो. और जो तूने म्हारे को रोकने की कोशिश की, तो जाति के आधार पर भेदभाव करने और पुलिस वाले के काम में बाधा डालने के जुर्म में अंदर कर दूंगी".

जाति को लेकर होने वाला भेदभाव हम भारतीयों के लिए कोई नई बात नहीं. ये इतना कॉमन है कि लोग इस पर ठीक से ध्यान भी नहीं देते. बहुत छोटे-छोटे उदाहरण आपको अपने आस-पास ही देखने को मिलते हैं. जिन्हें आप इग्नोर करके आगे बढ़ जाते हैं. 

आपकी सोसायटी में काम करने वाली हाउसहेल्फ लिफ्ट का इस्तेमाल नहीं कर सकती. ज़मादार, टॉयलेट साफ करने वाले कर्मचारी अगर गलती से पीने का पानी मांग ले, तो उन्हें प्लास्टिक के या यूज़ एंड थ्रो गिलास में पानी दिया जाता है. घर से कूड़ा ले जाने वाले को घर में घुसने नहीं दिया जाता. न जाने कितने उदाहरण. फिर कोई शिक्षित हो जाता है. और ऐसे तमाम भेदभाव के खिलाफ तनकर खड़ा हो जाता है. जैसे कि हमारी हीरो अंजलि भाटी.

'दहाड़' में समाज की संकुचित मानसिकता, जातिवाद, शिक्षा व्यवस्था पर चोट करने वाले और भी बहुतेरे सीन्स हैं. कितने ही वन लाइनर्स हैं, जो अंदर तक भेद जाते हैं. जैसे अंजलि का ही एक डायलॉग आपको आखिर में सुना जाते हैं.

"बहुत दरवाज़े बंद हुए मेरे मुंह पर, लेकिन मेरा मुंह बंद नहीं हुआ".

अच्छे थ्रिलर प्लॉट के साथ ज़रूरी बातें बेबाकी से करने वाली इस सीरीज़ को ज़रूर-ज़रूर देखें.