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महान एक्टर श्रीराम लागू, जिन्होंने कभी कहा था कि ईश्वर को रिटायर कर देना चाहिए

जिनके बारे में नसीरुद्दीन शाह ने कहा था, "मैं श्रीराम लागू को भारत का सबसे महान रंगकर्मी मानता हूं".

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श्रीराम लागू. राईट में मधुर भंडारकर. लेफ्ट में उनके सुपरहिट नाटक नटसम्राट का पोस्टर.

# एक अकेला इस शहर में-

आज गले में स्कार्फ बांधे, मरून रंग का कोट पहने मोदी अपने ऑफिस में एंटर हुए हैं. इस औचक एंट्री से उनके मातहत हड़बड़ा गए हैं. गाना बजाना छोड़कर ‘गुड मॉर्निंग’ वाले मोड में आ गए हैं. मोदी आराम से एक टेबल पर बैठते हैं और अपने एक कर्मचारी से बोलते हैं. बिलकुल बेतकल्लुफी से-

मिश्रा जी. वो फिल्मफेयर ज़रा दराज़ में रखिए. अब तो भर गया होगा दराज़ भी.

ये सीन मूवी ‘घरोंदा’ से है. गुलज़ार वाली 'घरोंदा'. ‘दो दीवाने इस शहर में’ वाली 'घरोंदा'.

मोदी. एक अधेड़ उम्र के कुंवारे बिज़नसमैन. जिनका लव इंट्रेस्ट वही छाया है जो सुदीप की भी लव इंट्रेस्ट है. छाया और सुदीप, दोनों ही मोदी के ऑफिस में जॉब करते हैं. मूवी में छाया बनीं हैं ज़रीना वहाब. सुदीप का रोल किया है अमोल पालेकर ने. और मोदी बने हैं श्रीराम लागू.

श्रीराम लागू. जिन्हें बिज़नसमैन वाले इस रोल के लिए ‘बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर’ कैटेगरी में फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला. हालांकि उनका ये एक मात्र फिल्मफेयर अवार्ड था लेकिन इसके अलावा साल 1997 में उन्हें कालिदास सम्मान और साल 2010 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी के फेलोशिप अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था.

# कुणी घर देता का, घर?

2016 में एक मराठी मूवी आई - 'नटसम्राट'. एक प्ले एक्टर के जीवन पर आधारित. उसके अर्श से फर्श तक पहुंचने की कहानी. कुछ-कुछ गुरुदत्त की 'कागज़ के फूल' सरीखी. इसमें नाना पाटेकर के जीवंत अभिनय की तारीफ़ हुई. फिल्म भी बहुत सराही गई. लेकिन पुराने लोग नाना की तुलना श्रीराम लागू से भी करने लग गए थे. आखिर उन्होंने भी तो नट सम्राट, गणपत बेलवलकर का किरदार निभाया था बहुत पहले. एक नाटक में. जिसे पहली बार 1970 में बिड़ला मातोश्री सभा, मुंबई में मंच पर प्रदर्शित किया गया था. श्रीराम लागू ने अप्पा बेलवलकर की भूमिका निभाई थी. पुरुषोत्तम दारव्हेकर इस नाटक के निर्देशक थे. नाटक को जितनों ने भी देखा सबने माना कि श्रीराम पूरे ऑडीटोरियम को हिप्नोटाइज़ कर देते थे.

नाटक में वैसे तो श्रीराम लागू द्वारा निभाए कैरेक्टर के काफी मोनोलॉग्स थे. सारे एक से बढ़कर एक. लेकिन वो मोनोलॉग नहीं भूला जाता. जब नट सम्राट के बेटे-बेटी उसे घर से निकाल देते हैं. वो नट सम्राट जो अपने दिनों में खूब फेमस था. खूब पैसा था जिसके पास. आज वो दर-दर भीख मांगता फिरता है. कहता है-

कुणी घर देता का, घर? (कोई घर देगा क्या, घर?)

इस रोल को बाद में कई और एक्टर्स ने निभाया. ये किरदार निभाना इतना कठिन था कि इसे निभाने वाले एक्टर्स मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार पड़ जाते थे. लेकिन ये वो रोल था, जिसने उन्हें वो शोहरत भी दिलवाई जिसके वो असल हकदार थे. वरना इससे पहले 1969 से 1970 तक उनके 8 नाटक बुरी तरह फ्लॉप रहे थे.

# नसीरुद्दीन कहिन-

डॉ. श्रीराम लागू. महाराष्ट्र के सातारा के रहने वाले. पुणे से मेडिकल की पढ़ाई. फिर प्रैक्टिस. 3 साल तक सात समंदर पार तंज़ानिया के मशहूर नाक कान गला (ENT) रोग विशेषज्ञ. सब झमाझम. मगर एक दिन 42 साल के इस डॉक्टर ने डॉक्टरी छोड़ दी. और तय किया मुल्क वापस लौटें. एक्टिंग करने के लिए. आज बातें उन्हीं श्रीराम लागू की. उनके ढेरों आयामों की. विजय तेंडुलकर, अरविंद देशपांडे जैसे रंगकर्मियों के साथ मिलकर मराठी थियेटर को टॉप तक पहुंचाने वाले श्रीराम लागू. श्रीराम लागू, जो 17 दिसंबर, 2019 को गुज़र गए. लगभग आठ बजे. पुणे में. 92 की उम्र में.

बॉम्बे प्रेजिडेंसी. ब्रिटिश राज़ में 16 नवंबर, 1927 को पैदा हुए श्रीराम लागू के बारे में नसीरुद्दीन शाह ने undefined कहा था-

मैं श्रीराम लागू को भारत का सबसे महान रंगकर्मी मानता हूं. बल्कि दुनिया के बेहतरीन एक्टर्स में से एक में उन्हें रखना चाहूंगा. दुर्भाग्य से उनकी फ़िल्में उनके साथ न्याय नहीं करतीं.

श्रीराम लागू एक एक्टर और बुद्धिजीवी दोनों थे.
श्रीराम लागू एक एक्टर और बुद्धिजीवी दोनों थे.

 # 'स्टेज फीयर' वाला स्टेज-

मास्टर श्रीराम लागू. छोटा बच्चा. पुणे में अपने स्कूल ‘भावे’ के एक प्ले में एक्टिंग करने का मौका मिला तो वहां ‘स्टेज फीयर’ ने घेर लिया. हालांकि इस छोटे से बच्चे ने अपनी एक्टिंग से बाजा फाड़ दिया था. बाकी एक्टर्स की लाइन भी मुंह ज़ुबानी याद कर ली थी. लेकिन इस बच्चे का ये स्टेज से डर गोया एक्टिंग का फोबिया सा बन गया. लोगों की मिमिक्री करने और प्ले देखने का शौक मगर नहीं गया. मराठी प्ले खूब देखे. फिर वर्ल्ड थियेटर. लॉरेन ओलिवर और स्पेंसर ट्रेसी जैसे दिग्गजों की फ़िल्में. लेकिन एक्टिंग से डरा ये बच्चा खुद प्ले में कोई एक्ट करने की हिम्मत लंबे समय तक नहीं जुटा पाया. पढ़ाई बेशक ज़ारी रही. खूब पढ़ा. मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया. जीवन में कुछ निश्चितता आई तो अपने स्टेज वाले डर से उबरा. मेडिकल कॉलेज के 5 सालों में 5 नाटकों में और कुछ एकाकी नाटकों में अभिनय किया.

लमाण. श्रीराम लागू की बायोग्राफी का मुखपृष्ठ.
लमाण. श्रीराम लागू की बायोग्राफी का मुखपृष्ठ.

 # 'रोज़गार' वाला स्टेज-

लेकिन फिर वही क्लीशे जो हर आम आदमी के साथ चिपका रहता है. रोज़ी रोटी के चक्कर में शौक पीछे छूट गया. श्रीराम लागू मुंबई, पुणे में डॉक्टरी की प्रेक्टिस करने लगे. जब पिछली बार बचपन में अभिनय छूटा था तो दर्शक तब भी बने रहे थे. अबकी भी दर्शक के तौर पर नाटकों और विश्व सिनेमा से जुड़े हुए थे. कभी कभार नाटकों में कुछ छुटपुट रोल भी कर लिया करते थे. प्रोग्रेसिव ड्रामेटिक्स एसोसिएशन के साथ 1951 से ही जुड़े हुए थे, अब भी जुड़े रहे. फिर 3 बरस के लिए अफ्रीका चले गए. अबकी जब भारत लौटे तो सबसे पहला काम ये किया कि अपनी डॉक्टरी से किनारा कर लिया. अब फुल टाइम एक्टर बन गए. साल 1969. यानी उम्र 42. ये वो साल, वो उम्र जब श्रीराम लागू पूरी तरह एक्टिंग, सिनेमा, नाटक में कूद पड़े.
इस उम्र के बारे डॉक्टर श्रीराम लागू ने खुद दैनिक भास्कर को बताया था कि-

हिंदी फिल्मों में मुझे जल्दी ही अहसास हो गया कि सिनेमा में देरी से एंट्री, अजीब दिखने और व्यावसायिक रूप से निर्धारित प्रवृत्तियों के कारण मैं पिता या अंकल की भूमिका करने के लिए बाध्य हूं. मैंने 150 से ज्यादा हिंदी फिल्मों में काम किया. लेकिन उनमें से 'घरोंदा', 'किनारा', 'इनकार', 'इंसाफ का तराजू', 'साजन बिना सुहागन', 'एक दिन अचानक' और 'एक पल' समेत चुनिंदा फिल्मों को ही याद किया जाता है.

उसके बाद मराठी फिल्मों में एक्टिंग. मराठी नाटकों में एक्टिंग. 100+ हिंदी फ़िल्में. दसियों सीरियल्स. और साथ में नाटकों का डायरेक्शन... ये सब... और बहुत कुछ...

# अपना क़ातिल-

पिंजरा. बेहतरीन गीतों से सज़ी एक 'मराठी म्यूज़िकल'. वी शांताराम का डायरेक्शन. यहां पर इस फिल्म की बात सिर्फ इसलिए नहीं कि ये श्रीराम लागू की पहली मराठी मूवी थी. बल्कि इसलिए भी क्यूंकि उनके किरदार का एक कैरेक्टर आर्क था. मूवी में उन्होंने एक ऐसे मास्टर (श्रीधर पंत) का रोल प्ले किया था, जिसे अपने ही कत्ल के जुर्म में फांसी हो जाती है. वो अपनी बदनामी को गुमनाम करना चाहता है. अपने पुराने कमाए गए नाम को बने रहने देना चाहता है. इस सब के लिए वो अपना ही क़ातिल हो जाना स्वीकार कर लेता है. जर्मन के एक दार्शनिक नीत्शे ने कहा था-

अगर तुम गहरे अंधे कुएं में देखते हो, तो वो गहरा अंधा कुआं भी तुम्हें घूरने लगता है.

इस मूवी में भी यही दिखाया गया है. कैसे 'तमाशे' का विरोध करते-करते एक आदमी तमाशेवाली के प्रेम में पड़ जाता है. इंट्रेस्टिंग बात ये भी कि 'पिंजरा' का दर्शन ही नहीं, खुद मूवी भी एक जर्मन मूवी, 'दी ब्लू एंजल' से इंस्पायर्ड थी. मराठी में बनने के बाद इस फिल्म को सीन दर सीन हिंदी में भी बनाया गया था. लेकिन हिंदी में चली नहीं. दोनों ही वर्ज़न में श्रीराम लागू ने कमाल कर डाला था. ये उनकी कुछ गिनी चुनी फिल्मों में से एक थी जिसमें उन्होंने लीड रोल निभाया था.

# नास्तिक श्री राम

नीत्शे का ज़िक्र पहले भी आया था. फिर आ रहा. नीत्शे ने कहा था-

गॉड इज़ डेड (ईश्वर मर चुका है)

श्रीराम ने भी एक आर्टिकल लिखा- टाइम टू रिटायर गॉड. मने, ईश्वर को रिटायर करने का वक्त आ गया है. श्रीराम लागू के इस आर्टिकल ने भी उतना ही विवाद बटोरा, जितना नीत्शे के कथन ने. एक लेक्चर के दौरान डॉक्टर लागू ने कहा था-

मैं ईश्वर को नहीं मानता. मुझे लगता है अब समय आ गया कि ईश्वर को रिटायर कर दिया जाए.

इंट्रेस्टिंग बात ये है कि जिस महामानव की बात नीत्शे ने की थी, श्रीराम लागू भी अपनी बातों में उसी महामानव की बात करते थे. उनको केवल मराठी के रंगमंच मूवमेंट के लिए ही नहीं, महाराष्ट्र के अंधविश्वास मिटाने वाले आंदोलन के लिए भी याद किया जाएगा. वो महाराष्ट्र अंधविश्वास निर्मूलन समिति से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे. वही समिति जिससे नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे जैसे ख्यात विचारक जुड़े रहे.

# श्रृद्धांजलि-

कुछ और फैक्ट्स इनके बारे में बताते हैं. बीच-बीच में वो ट्वीट जो फिल्म और राजनीति के मशहूर लोगों ने इनको श्रद्धांजली देते हुए किए हैं-

>> दीपा लागू. इनकी वाइफ. वो भी एक्ट्रेस.

Dr. Shreeram Lagoo personified versatility and brilliance. Through the years, he enthralled audiences with outstanding performances. His work will be remembered for years to come. Anguished by his demise. Condolences to his admirers. Om Shanti.

— Narendra Modi (@narendramodi) December 18, 2019

>> लमाण(लामा). इनकी ऑटोबायोग्राफी. मराठी में. श्रीराम लागू ने एक बार कहा था कि एक्टर एक कुली होता है, जो राइटर और डायरेक्टर का माल दर्शकों तक पहुंचाता है. लमाण का मतलब भी कुछ-कुछ वही है- मालवाहक.

Saddened to hear demise of veteran actor Dr. #ShriramLagoo
sir. He was great socialist and versatile actor, his contributions will always be remembered for his memorable roles in theatre & films. #OmShanti
🙏 pic.twitter.com/pqZovSz0lT
 

— Madhur Bhandarkar (@imbhandarkar) December 17, 2019

>> गांधी. 1982 की एक हॉलीवुड मूवी. ऑस्कर की 11 कैटेगरी में नॉमिनेटेड और 8 अवार्ड जीतने वाली मूवी. इसमें गोपाल कृष्ण गोखले का किरदार निभाया. ये उनके जीवन का एक कॉलबैक सरीखा था. क्यूंकि पुणे के स्कूल में उन्होंने यही रोल किया था. जब वो स्टेज फीयर का शिकार हुए थे.

My tributes to all time great artist Shreeram Lagoo. We have lost a versatile personality. A unique theatre actor dominated silver screen and created impact. He was social activists simultaneously.

— Prakash Javadekar (@PrakashJavdekar) December 17, 2019

>> तनवीर. उनके बेटे. जो जवानी में ही गुज़र गए. ट्रेन में ट्रेवल कर रहे थे, किसी का फैंका हुआ पत्थर आकर लग गया. श्रीराम लागू ने उसकी याद में प्रतिष्ठित 'तनवीर सम्मान' की स्थापना की. जो भारत के सबसे प्रॉमिसिंग रंगकर्मी को दिया जाता है.

Sad to hear the demise of #ShriramLagoo. We lost not just the legendary actor but a torchbearer of progressive and rationalist movement in Maharashtra. I shall always remember his character in ‘Samna’. My condolences to his family.

— Prithviraj Chavan (@prithvrj) December 17, 2019

>> डॉक्टर काशीनाथ घाणेकर. इनकी तरह ही डॉक्टर और साथ में रंगकर्मी. उनके ऊपर जब एक बायोपिक, ’अणि डॉक्टर काशीनाथ घाणेकर’, बनी तो उसमें एक किरदार श्रीराम लागू का भी था. इसे निभाया था सुमित राघवन ने. वो 'साराभाई वर्सेज़ साराभाई' वाले.

End of an era. नटसम्राटाने एक्झिट घेतली. एक पर्व संपलं,पण विचार नाही. R.I.P Dr.Lagoo 😓😓😓 pic.twitter.com/aHigvQuPWo

— Sumeet (@sumrag) December 17, 2019

श्री राम लागू जैसे किसी व्यक्ति के बारे में थोड़ा सा और जान लेना, थोड़ा सा और मॉडेस्ट हो जाना है. ऐसे किसी व्यक्तित्व का चले जाना थोड़ा सा और उदास कर देता है. ऐसी किसी शख्सियत के बारे में लिखते-लिखते बीच में रुक जाना एक खला से भर देता है. एक अंतिम अलविदा सा लगता है. गुलज़ार की 'घरौंदा' से शुरू हुआ ये लेख गुलज़ार की ही एक कविता से खत्म हुआ चाहता है-

मौत तू एक कविता है, 

मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे 

ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफ़क तक पहुंचे, 

दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब 

ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आए 

मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको