कि,कोई इंसान जानबूझकर अपराधी नहीं बनता. कि,प्रेम किसी भी अपराधी को सही रास्ते पर ला सकता है. कि,मेहनत और ईमानदारी के रास्ते पर चलने का कोई विकल्प नहीं है.इसमें, ढर्रे पर चलते सीन में भी हम एक जगह एकाएक देखते हैं कि फ्रेम में कुछ अलग दिखाने की कोशिश हो रही है. कैसे, मुहल्ले में अपने-अपने छज्जे पर खड़े युवा प्रेमियों बर्षा और माइकल को पड़ोसी और समाज के लोग गंभीर-चिंतित शक्लों से देख रहे हैं. वैसे यहां उद्देश्य ये होना था कि हंसी पैदा होती, लेकिन यहां एक किस्म की आलोचना नजर आती है. कि क्यों दो लोगों को प्रेम करते देख, उनकी अपार खुशी और पेट में होती गुदगुदी को देख समाज को निश्चिंत नहीं हो जाना चाहिए कि प्रेम का प्रसार हो रहा है! कि, देखो, ये दो लोग कितने खुश हैं! पंजाब में वाल्मीकि समुदाय द्वारा एक संदर्भ से नाराज होने पर फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया. फिल्म में हालांकि इसे बीप कर दिया गया है लेकिन वैसे भी ये संदर्भ कहीं से भी अपमानजनक नहीं है, बल्कि फिल्म के केंद्रीय पात्र के जीवन के सफर का इसी उदाहरण से सीधा लेना देना है. इसमें अरशद वारसी द्वारा निभाया माइकल मिसरा का पात्र कहता है, “हमने डिसाइड कर लिया है कि हम डाकू वाल्मीकि से संत वाल्मीकि बन जाएंगे.” वाल्मीकि को आदिकवि कहा जाता है जिन्होंने संस्कृत में रामायण लिखी थी. उन्हें महर्षि कहा जाता था. जबकि वे पहले डाकू रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे. उनका काम ही लूटपाट और हत्याएं करना था. लेकिन तब के दौर में यदि उन्होंने बदलना चाहा तो समाज ने उन्हें नए रूप में भी स्वीकार किया. आज हमारी फिल्मों में अगर कोई डाकू रत्नाकर हैं तो हमारे अक्षय कुमार और अजय देवगन फौजी और पुलिसवाले बनकर मार देते हैं. सड़क के बीचों-बीच, गोली से. उसे संज्ञा दे देते हैं, समाज की सेवा की और देशभक्ति की. और हमारी रगों में इन्हीं सितारों द्वारा संक्रमित हिंसा भर जाती है. हम इन दिनों अगर गाय की चमड़ी उतारने वालों की पिटाई के वीडियो देखते हैं तो वो पिटाई उसी तरह की है जैसी राउडी राठौड़में अक्षय कुमार का आईपीएस विक्रम सिंह राठौड़ का पात्र रेलवे स्टेशन पर उतरने के बाद वहां छोटे-मोटे गुंडों की करता है. नंगे बदलन, उल्टा करके, लकड़ी के फट्टे से. न्याय व्यवस्था में कोई यकीन नहीं. गुजरात में दलित चेतना को नए स्तर पर ले जाने वाला ये वीडियो आपने देखा होगा. ऐसे वीडियो रोज़ आ रहे हैं. इस बीच फिल्म का मुख्य पात्र डाकू से संत बनना चाहता है और इस परिवर्तन पर आपत्ति होने की कोई वजह नहीं है. यहां भावना आहत होने की भी कोई जगह नहीं दिखती. द लैजेंड..शुरू में एक किस्म की व्यंग्यात्मक कॉमेडी करने की कोशिश करती है. कहीं-कहीं इसका आभास भी होता है लेकिन इसे नियमित नहीं रख पाती. आधी कहानी आते-आते ये नाटकीय और गंभीर हो जाती है. वो भी ठीक है. इसके बाद अंत में वही होता है जिसका अंदाजा आराम से लगा सकते हैं. कि कैसे दो प्रेमी मिलते हैं. लेकिन फिल्म में जिस तरह इनके प्रेम को स्थापित किया गया है और अंत में बर्षा का पात्र जैसे माइकल से प्रेम करने को राज़ी हो जाता है वो कच्चा लगता है. प्रस्तुतिकरण के लिहाज से फिल्म धीमी है. ये ‘धीमा’ शब्द कमर्शियल सिनेमा से आया है. नहीं तो यही फिल्म अगर आर्टहाउस होती तो यही धीमापन/बोरियत इसकी खासियत बन जाती. तो आप चाहें तो ‘धीमी है’ इस आलोचना को न स्वीकार करें. बहुत अच्छा होगा.
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