'दूरंतो'नाम से बनी निर्देशक सौमेंद्र पधी की फिल्म
'बुधिया सिंह - बॉर्न टु रन'नाम से रिलीज हो गई है. कहानी पांच की उम्र में ही 48 मैराथन दौड़ लेने वाले बच्चे बुधिया और उसके कोच बिरंची दास की है. कि, कैसे बुधिया रातों-रात स्टार बन जाता है. भारत के लिए ओलंपिक की उम्मीद उसे माना जाता है लेकिन एक दिन वो फिर उसी गुमनामी में लौट जाता है जहां से आया था.
बेहतरीन बात फिल्म में यह है कि कहानी को जितना हो सकता था, उतना ओरिजनल रखा गया है. दर्शकों को भावुक करके चलाने की कोशिश निर्देशक पधी द्वारा नहीं दिखती. ये देख खुशी होती है. जबकि ओडिशा से ही ताल्लुक रखने वाले पधी, बुधिया और बिरंची दास के फैन रहे हैं. इन पूर्वाग्रहों और भावुकताओं के फिल्म में आने की संभावना इससे बन पड़ी थी लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं होता.
हाल के वर्षों में दो खिलाड़ियों पर बायोपिक बनी हैं. 'भाग मिल्खा भाग' और 'मेरीकॉम'. जहां ये दोनों ही सक्सेस स्टोरीज़ थीं, 'बुधिया सिंह' ऐसे लड़के की कहानी है जिससे कभी भारत के लिए ओलंपिक मैराथन में गोल्ड लाने की उम्मीद थी और आज वही लड़का एक सरकारी हॉस्टल में है और उसकी लंबी दूरी की दौड़ पर रोक लगी हुई है. वो एक अधूरी सक्सेस स्टोरी है.
फिल्म में कोच बिरंची का लीड रोल करने वाले मनोज बाजपेयी इसे जिंदगी की टॉप-5 फिल्मों में एक कह रहे हैं.ऐसा मान भी सकते हैं. बिरंची पर कई तरह के आरोप लगते थे, वो नेगेटिव/ग्रे शेड्स मनोज अपने अभिनय से दिखा जाते हैं. इस 'grey' को किसी भावुक तर्क से सही ठहराने की कोशिश नहीं की गई है.
बिरंची से एक सीन में पूछा जाता है, "आप बच्चे के साथ जबरदस्ती कर रहे हैं, अगर उसे कुछ हो जाता है तो आप जिम्मेदारी लेंगे?" इस पर मनोज का पात्र जवाब देता है, "उड़ीसा में रोज एक बच्चा गरीबी और भुखमरी से मरता है, एक और मर जाएगा तो क्या हो जाएगा!" बिरंची में महत्वाकांक्षा है तो गुडविल भी. लेकिन इसी के बीच वह बहुत frustrated है. वह अतिरिक्त रूप से हीरो नहीं है.
विपक्षी नेता का प्रचार करते हुए बिरंची पैसे लेता है. ये सीन उसके व्यक्तित्व को पूरी तरह से उभार कर सामने लाता है. बिरंची की महत्वाकांक्षा इतनी बढ़ जाती है कि अपनी जिंदगी में बुधिया के सिवा उन्हें कुछ और सूझता ही नहीं है. बुधिया की उपलब्धियों के सामने बिरंची अपने बच्चे को भी इग्नोर कर देता है. वह बुधिया को लेकर बहुत चिंतित है लेकिन ये भी सच है कि ये सपने बिरंची के हैं और इनके चलते बुधिया का बचपन पिस रहा है. हम देखते हैं कि बुधिया की ख्वाहिशें वही हैं जो एक आम बच्चे की होती हैं. उसे खाना, कपड़े और जूते चाहिए, उसका सपना ओलंपिक दौड़ना नहीं है. उसका सपना है लाल साइकिल. और बुधिया दौड़ता है इसलिए क्योंकि बिरंची उसे बताता है कि बहुत सी लाल साइकिल ओलंपिक जीतने पर मिलेंगीं.
फिल्म में बुधिया के रूप में मास्टर मयूर की एक्टिंग शानदार है. दौड़ते बुधिया के तौर पर स्क्रीन पर वो जंचते हैं. दूसरे एक्टर्स भी किरदार के साथ न्याय करते हैं. पूरी फिल्म में बस शुरुआती सीन में बस्ती के लोगों के विरोध के वक़्त एक पुलिस वाले का हमेशा से चले आ रहे बॉलीवुडिया अंदाज़ में "सर ये लोग ऐसे नहीं मानेंगे" कहना अखरता है.
बुधिया जब स्टार बन चुका होता है. जब कोई उसे भारत का फॉरेस्ट गंप कह रहा होता है, कोई भगवान जगन्नाथ का अवतार घोषित कर रहा होता हैं, तब IPC एक्ट 23 और 366 के तहत बुधिया को दौड़ने से रोक दिया जाता है. कहा जाता है वह दौड़ा तो गिरफ्तार होंगे कोच बिरंची. लेकिन उसके सपने बड़े हैं. वो बुधिया से कहलवाता है कि वह वॉकथोन करेगा भुवनेश्वर से कलकत्ता तक, 500 किलोमीटर की. सेकेंड हाफ में बुधिया पर हो रही राजनीति दिखाने का प्रयास फिल्म की लय को थोड़ा कमजोर करता है. अंत में कहा गया है कि बुधिया के लिए सरकार से #BudhiyaForOlympic की अपील की जाए.
2016 के ओलंपिक को ध्यान में रखकर बिरंची बुधिया को मैराथन की तैयारी करा रहे थे. वो बुधिया आज 15 का हो गया है. एक औसत धावक है. बिरंची की 2008 में हत्या कर दी गई है.
म्यूजिक फिल्म के प्रेरक पहलू पर फिट है. गाने के बोल भी नयापन लिए हुए हैं. संवादों में दोहराव नहीं दिखता, नयापन लिए हुए हैं. एडिटिंग अच्छी हुई है इसलिए फिल्म फर्स्ट हॉफ में जकड़ लेती है. हालांकि सेकेंड हॉफ में घटनाओं की बाढ़ आती है और सबको कवर करने के चक्कर में फिल्म थोड़ी बोझिल हो जाती है. वक्त निकालें और बहुत दिन बाद एक अच्छी फिल्म देखकर आएं.
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