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14 की उम्र में ब्याही गई एक्ट्रेस, जिसने अमिताभ और राजेश खन्ना के सुपरस्टार बनने की भविष्यवाणी की थी

सुलोचना लाटकर को लोगों ने बॉलीवुड की मां कहकर सम्बोधित किया. पर उनकी पहचान क्या सिर्फ इतने तक महदूद है?

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अमिताभ बच्चन के साथ सुलोचना

एक लड़की, जिसकी 14 बरस की उम्र में शादी हो जाती है. आगे चलकर वो हिंदी-मराठी सिनेमा का बड़ा नाम बनती है. 21वीं सदी के भारत में एक महिला के लिए ऐसा करना बहुत बड़ी बात मानी जाती है. आप अंदाज़ा लगाइए आज से 70-80 साल पहले तो ये कितना मुश्किल रहा होगा! हम मशहूर अदाकारा सुलोचना लाटकर की बात कर रहे हैं. उनका 4 जून को निधन हुआ. लोगों ने उन्हें बॉलीवुड की मां कहकर सम्बोधित करना शुरू कर दिया. पर उनकी पहचान क्या सिर्फ इतने तक महदूद है? जवाब है बिलकुल नहीं. तो चलिए शुरू करते हैं यात्रा सुलोचना की.

सुलोचना अपनी शुरुआती फिल्मों में (जब वो जयप्रभा स्टूडियो की मराठी फिल्मों में काम किया करती थीं)

जयप्रभा स्टूडियो ने किस्मत बना दी

सुलोचना का जन्म 30 जुलाई 1928 को हुआ. 1942 में शादी हो गई. उस समय इनकी उम्र 14 बरस थी. सुलोचना कोल्हापुर में थी और वहां था फेमस जयप्रभा स्टूडियो. मराठी सिनेमा के बहुत बड़े नाम भालजी पेंढारकर इसके मालिक थे. इनकी सोहबत में सुलोचना ने अभिनय की कला सीखी. यहां मंथली सैलरी पर नौकरी भी करने लगीं. दरअसल पहले सैलरी बेसिस पर एक्टर्स और टेक्नीशियन स्टूडियो में काम किया करते थे. आपने 'जुबली' देखी होगी, तो इसमें बड़े विस्तार से इस पर बात हुई है. या फिर जावेद अख्तर बताते हैं, वो और सलीम खान सिप्पी फिल्म्स के लिए 700 रुपए महीने पर फ़िल्में लिखते थे. खैर ये सब विषयांतर हो जाएगा. 

जीजाबाई का रोल, मराठी फ़िल्मी करियर का हाइलाइट

वापस सुलोचना पर लौटते हैं. कई जगह लिखा मिलता है कि भालजी की 1946 में आई फिल्म ‘सासुरवास’ में वो पहली बार बड़े पर्दे पर दिखीं. पर IMDB पर उनकी पहली फिल्म 'जग बीती' बताई जा रही है. कई जगह ये भी है कि सुलोचना ने 1942 में बतौर बाल कलाकार अपना करियर शुरू किया. ये भी कहा जाता है कि भालजी पेंढारकर की 1944 में आई फिल्म 'महारथी कर्ण' में भी सुलोचना ने काम किया. खैर, जो भी सच हो, बम्बई इंडस्ट्री में आने से पहले वो मराठी सिनेमा का बड़ा नाम हो चुकी थीं. 'वहिनीच्या बांगड्या'  और ‘सांगते ऐका’ उनकी दो बहुत फेमस फ़िल्में हैं. 1964 में आई फिल्म 'मराठा तितुका मेळवावा' में उन्होंने शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई का रोल किया था. ये मराठी सिनेमा में उनके करियर का एक माइलस्टोन है.

'अब दिल्ली दूर नहीं' फिल्म में मोतीलाल के साथ सुलोचना

मोतीलाल ने की थी तारीफ़

एक ओर ये सब हो रहा था, दूसरी ओर उन्हें हिंदी फ़िल्में भी ऑफर होने लगी थीं. इनकी ही एक मराठी मूवी 'स्त्री जन्मा ही तुझी कहानी' का रीमेक 'औरत तेरी यही कहानी' नाम से बन रहा था. सुलोचना ने इसमें काम किया. महान भारतीय अभिनेता मोतीलाल के साथ 'अब दिल्ली दूर नहीं' में बतौर लीड जुड़ी. कहते हैं, इसमें सुलोचना की मोतीलाल ने काफी तारीफ की. उन्होंने बलराज साहनी के साथ भी बतौर लीड काम किया. कहने का मतलब है कि सुलोचना ने सिर्फ मां के रोल नहीं किए. उन्होंने बॉलीवुड के दो सबसे धुरंधर कलाकारों के अपोजिट हीरोइन के तौर पर काम किया. सुलोचना जब हिंदी इंडस्ट्री में आईं, तो उनकी गीता बाली से दोस्ती हो गई. कई लोग ये भी कहते हैं कि गीता ने उन्हीं से प्रभावित होकर अपनी बेटी का नाम उनकी बेटी कंचन के नाम पर रखा.

‘सुजाता’ ने सुलोचना को नई पहचान दी. लेकिन ये फिल्म वो करना नहीं चाहती थीं.

बिमल रॉय ने 32 साल की सुलोचना को मां बना दिया

बहरहाल, सुलोचना के करियर में सबसे बड़ा बदलाव रही बिमल रॉय की फिल्म 'सुजाता'. इसमें उन्होंने नूतन का किरदार निभाया था. पहले जब बिमल रॉय ने उन्हें ये रोल ऑफ़र किया, सुलोचना हिचक रही थीं. उन्हें कई लोगों ने मना भी किया. क्योंकि उस वक़्त वो सिर्फ 32 साल की थीं. फिर अपने कई दोस्तों से सलाह लेने के बाद उन्होंने 'सुजाता' के लिए हां कर दी. इन सलाहकारों में एक नाम ललिता पवार का भी था. ललिता पवार की छवि भी बॉलीवुड में मां की या सास की है. ऐसा ही कुछ सुलोचना के साथ हुआ. भले ही आपको 'सुजाता' न याद हो, पर किसी रोज़ आपने सुलोचना के मुंह से स्क्रीन पर 'नन्ही कली सोने चली' लोरी ज़रूर सुनी होगी. अनायास ही आपको अपनी मां याद आई होंगी. इसके बाद लाइन से उन्होंने मां के रोल किए. 'आए दिन बहार के', 'मजबूर', मुक़द्दर का सिकंदर और 'कटी पतंग' जैसी फिल्मों में.

अशोक कुमार के साथ ‘मेहरबान’ सुलोचना के करियर के सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक है.

उन्होंने कैरेक्टर आर्टिस्ट के तौर पर कई सारे एक्सपेरिमेंट भी किए. 1961 में आई 'सम्पूर्ण रामायण' में वो कैकेयी बनी. 'दिल दौलत दुनिया' में अशोक कुमार की परित्यक्ता पत्नी का रोल किया. सुलोचना अपनी ऐक्टिंग को रिफाइन करने में अशोक कुमार का हाथ भी मानती थीं. उनका कहना था कि अशोक कुमार ने ही उन्हें रोमैंटिक सीन में सहज होना सिखाया. अगर आपको सुलोचना का कोई बेहतरीन काम देखना है, तो अशोक कुमार की ही एक और फिल्म 'मेहरबान' में उनका काम देख डालिए. जब वो फिल्म में सुनील दत्त से कहती हैं: "इन टूटी हुई चप्पलों के लिए क्यों अपनी बेइज़्ज़ती करवा रहा है?" क्या ही अद्भुत सीन है. मज़ा आ जाता है. लौटते हैं सुलोचना की जीवन यात्रा पर. कहते हैं अहम उनको छू भी नहीं पाया था. इतनी व्यस्तताओं के बीच भी वो अपने साथी कलाकारों के लिए स्वेटर बुनने का समय निकाल लिया करती थीं. शायद यही ममत्व और वात्सल्य उन्होंने अपने किरदारों में भी उतारा. 

अमिताभ को उनके 75वें जन्मदिन पर लिखा गया सुलोचना का पत्र

वो अमिताभ के बहुत करीब थीं. उन्होंने 'मुकद्दर का सिकंदर', 'मजबूर', ‘रेशमा और शेरा’ में उनकी मां का किरदार निभाया. अमिताभ के 75वें जन्मदिन पर सुलोचना ने उनके लिए एक लेटर भी लिखा था. इसमें उन्होने अमिताभ के लिए लिखा था, 

"मुझे अब भी 'रेशमा' और 'शेरा' का सीरियस, शर्मीला 'छोटू' याद है, जब मैं आज उसी छोटू को पहाड़ की तरह मज़बूत और विशाल रूप में देखती हूं तो मुझे भगवान के चमत्कार का साक्षात्कार होता है." 

धर्मेन्द्र के साथ सुलोचना ने दिलीप कुमार और अमिताभ की मां का रोल भी निभाया.

कहते हैं सुलोचना ने अमिताभ और राजेश खन्ना दोनों के लिए भविष्यवाणी की थी कि ये सुपरस्टार बनेंगे. और ऐसा हुआ भी. सुलोचना ने करीब 250 हिंदी और 50 मराठी फ़िल्में कीं. वो अमिताभ, धर्मेंद्र और दिलीप कुमार की ऑनस्क्रीन मां बनीं. साल 1999 में उन्हें पद्म श्री अवॉर्ड से नवाजा गया था. इसके अलावा इन्हें फिल्मफेयर का लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड (2004) और महाराष्ट्र भूषण अवॉर्ड (2009) भी मिल चुका है. सुलोचना ने साल 1988 से फिल्मों में काम करना बंद कर दिया था. उनकी आखिरी बड़ी फिल्म थी 'खून भरी मांग'. वो अगले जन्म में भी ऐक्ट्रेस बनना चाहती थीं. फिल्मों में 'झांसी की रानी' और 'महारानी अहिल्याबाई होल्कर' का किरदार निभाना उनकी कुछ अधूरी ख्वाहिशें थीं. वो एक्टिंग को काफी मिस करती थीं. हम भी उन्हें खूब मिस करेंगे. अलविदा सुलोचना लाटकर.