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सूफी गाने सुनते हैं? तो sufism होता क्या है ये भी जान लें

जिसने हमें पैदा किया, उस ऊपर वाले को यहां छवियों में नहीं बांधा जाता. उससे इश्क किया जाता है और यही इबादत मानी जाती है.

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फिल्म रॉकस्टार में 'कुन फाया कुन' गीत के एक पल में रणबीर कपूर.
कुन फाया कुन. सुना ही होगा आपने रॉकस्टार में. रहमान के संगीत में. रहमान, जावेद अली, मोहित चौहान की आवाज में. रणबीर कपूर का पात्र फिल्म में इस मोड़ तक आते-आते वो जो कहीं नहीं है, लेकिन यहीं है उससे मिलने के करीब है. दरगाह के दृश्यों और इस अनुपम गाने को सुनते हुए हमें क्या लगता है? डिफाइन करने के लिए हम एक शब्द यूज़ करते हैं सूफी. सूफी सा लगता है. यही नुसरत के गानों को सुनते हुए लगता है. https://www.youtube.com/watch?v=Ht53-zDs2sM यही तनु वेड्स मनु के 'ऐ रंगरेज मेरे'.. को सुनते हुए लगता है. https://www.youtube.com/watch?v=TMn9TzaFhb8 यही जोधा अकबर के 'ख्वाजा मेरे ख्वाजा' को सुनते-देखते हुए. https://www.youtube.com/watch?v=CaI18sMcnsE No doubt इन रचनाओं को सुनते हुए या इस ज़ोन में मन को घुमाते हुए हमें ये अच्छा अहसास होता है. लेकिन जानकारी के लिहाज से सूफियत और sufism को लेकर हमारे भीतर कुछ धारणाएं मात्र हैं. और उन्हें हम चेक करने की कोशिश नहीं करते. बस आगे बढ़ते जाते हैं. लेकिन आज जान लेते हैं. ये सिलसिला शुरू हुआ दिल्ली में सुल्तानों के आने के साथ. दूसरे मजहबों के लोगों का सुल्तानों से जो भी रिश्ता रहा हो, लोग सूफ़ी फक़ीरों और संतों को बहुत मानते थे. उनकी फिलॉसफी उन्हें दिल से मंजूर होती थी. आज जो हम सूफिज़्म की छवियां देखते हैं, पहले ये बहुत अलग था. उससे ज्यादा पॉलिटिकल और ऑर्गनाइज़्ड था, जितना आज हम इसे आज़ाद और आम लोगों के बीच घूमता-फिरता सा देखते हैं.

1) उससे इश्क

सूफिज़्म का पहला मकसद था अल्लाह या ऊपर वाले से निजी रिश्ता बनाना. इसके लिए ही 'इश्क' शब्द का इस्तेमाल किया जाता था. अल्लाह के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द 'सनम' पुराने अरेबिक समय से ही चला आ रहा था. आज बॉलीवुड ने 'इश्क' और 'सनम' शब्दों को नई पहचान दे दी है, वो बात अलग है.

2) वो रास्ता

इस रास्ते को 'तरीका' कहते थे. और उस पर चलने वाले को 'सलिक'. इस रास्ते पर चलने के लिए एक गुरु यानी 'शेख' की ज़रूरत होती थी. इसके लिए चिश्तिया, सुहरावर्दी जैसे 'सिलसिले' थे. सिलसिलों को सूफ़ी परिवारों की तरह समझा जा सकता है. इन सिलसिलों के 'खानकाह', यानी एक तरह के स्कूल या धर्मशाला होते थे. यहां शेख के शिष्य यानी 'मुरीद' रहते थे. साथ ही किसी भी राहगीर के लिए खानकाह के दरवाज़े हमेशा खुले रहते थे.

3) नीला कपड़ा

तीन साल तक ख़ुद को साबित करने के बाद मुरीद को शेख की सोहबत मिलती थी. और मिलता था पैबंद वाला नीला कपड़ा, जिसे 'खिरका' कहते थे. नीले रंग पर धूल कम दिखती थी. और नीला रंग दुनियादारी से दूर होने का भी अहसास देता है. इसीलिए नीला रंग चुना गया था.

4) स्टेशन

सूफिज़्म में दो चीज़ें होती हैं, 'हाल' और 'मकामत'. मकामत को 'स्टेशन' भी कह सकते हैं, ये 10 खूबियां थीं जिन्हें एक-एक कर हासिल करना होता था. एक सूफ़ी मेहनत कर अल्लाह के करीब पहुंचने के एक-एक मकामत तय करता है. लेकिन उसका हाल अल्लाह की बरक़त पर निर्भर रहता है. दोनों मिलकर अल्लाह के करीब पहुंचने की सीढ़ियों जैसा काम करते हैं.

5) फ़क्र

मकामत में सूफ़ी संतों ने सबसे ऊंची जगह दी है 'तौबा' और 'फ़क्र' को. तौबा मतलब पछतावे का अहसास. रूमी ने फ़क्र को 'फ़ना' के बराबर दर्जा दिया है. फ़क्र एक सूफ़ी की गरीबी और उसके उस गरीबी को स्वीकारने से जुड़ा है. रूमी के लिए फ़क्र सबसे बड़ा शेख था. और सारे सच्चे दिल उसी शेख के मुरीद हैं.

6) जिद्दी ऊंट

सूफिज़्म में एक चीज़ से बड़ा संभलकर रहना पड़ता है. वो चीज़ है 'नफ्स', जिसका मतलब रास्ता भटक जाने की इंसानी फितरत से है. नफ्स कभी-कभी किसी औरत के रूप में देखा जाता है, जो सूफ़ी फकीरों का मन मोह कर उन्हें भटका सकती है. यानी यहां भी एक तरह से फीमेल ओब्जेक्टिफ़िकेशन ही है. जबकि कभी इसे एक जिद्दी ऊंट के रूप में देखा जाता है. रूमी को नफ्स से दो चार होना वैसा ही लगता था जैसा मजनू का ऊंट को खींचकर सही रास्ते से अपनी प्रेमिका के पास ले जाने की कोशिश करना.

7) नच हैदरी मलंगा

वैसे लोगों के मन को कहीं भी बांध के रखना किसी भी शरिया या वेद के बस की बात नहीं होती. यहां भी कुछ लोग थे जो शरिया की ज़्यादा फ़िक्र नहीं करते थे. ऐसे लोगों को कभी कलंदर, कभी मलंग तो कभी हैदरी बोला जाता था. सूफिज़्म पहले से ही लोगों के बीच घूम रहा था. लेकिन अब लोगों के पास इसे अपने तरीके से समझने और मानने की आज़ादी पहले से भी ज़्यादा थी.

8) गीत-संगीत

सूफिज़्म में 'समा' यानी संगीत भरी महफिलें होती थीं, उसमें व्यक्ति आध्यात्मिक संगीत में खो जाते थे. कव्वाली भी इसी से जुड़ी है. टोपी लगाकर गोल-गोल घूमने का नृत्य भी. इसके इवोल्यूशन की कहानी जारी है.

'ये स्टोरी 'दी लल्लनटॉप' के साथ इंटर्नशिप कर रहीं पारुल ने लिखी है.'