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अवध ओझा ने किस पर चला दी थी गोली?

अवध ओझा से पूछा गया- "आप पर गोली चली था?" तो बोले-"नहीं, मैंने चलाई थी."

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19 साल में 19 केस वाले ओझा सर

गेस्ट इन द न्यूज़रूम में लल्लनटॉप के मेहमान बने अवध ओझा. यूट्यूब की लोकप्रियता के ज़ाविए बोलें, तो ओझा सर. यूट्यूब पर इनके (Ojha Sir) हिस्ट्री के तीन-तीन घंटों वाले वीडियोज़ ऐसे भयंकर वायरल होते हैं, जैसे 30 सेकेंड्स के रील हों. सबसे ज़रूरी बात, अवध ओझा एकदम लल्लनटॉप आदमी हैं. GITN की इस कड़ी में अवध ओझा ने बताया कि उन्होंने किस पर गोली चलाई थी. उनपर केस हुआ था और ग़ैर-ज़मानती वॉरंट जारी हुआ था.

उन्होंने बताया कि गांवदारी के विवाद और झगड़े की वजह से जब वो 19 साल के हुए, तब तक उनपर 19 केस थे. फिर जब ये पूछा गया कि सारे ही केस फ़र्जी थे या लगाए गए थे, तब ओझा सर ने ये क़िस्सा सुनाया -

"चूंकी मैं पोस्ट मास्टर का बेटा था, और लोगों को बैकग्राउंड के हिसाब से बिहेव करने की आदत होती है. एक बार मैं मूवी देखने गया था, 'चरस'. धर्मेंद्र जी की फ़िल्म थी. प्यारी सी फ़िल्म थी. हमारे यहां के सांसद जी थे - सत्यदेव सिंह, उन्हीं का सिनेमा हॉल था. ये बात है 1992-93 की. तब वो सांसद थे भी शायद. तो मूवी देखने गए थे और वहां एक साहब थे, उन्होंने मुझे तमाचा मार दिया. बस ऐसे ही, कि बड़े रंगबाजी में घूमते हो, स्कूटर से चलते हो. फिर पहला शूट-आउट वहीं हुआ था. मल्लब, आधे घंटे गोली चली थी.."

सौरभ: "सांसद जी के हॉल में आप पर गोली चली?"

अवध ओझा: "नहीं, मैंने चलाई."

सौरभ: "भाई साहब, ये बात आप ऑन-कैमरा कह रहे हैं?"

अवध: "हां, बिल्कुल कह रहे हैं. मामला रिकॉर्ड में है. नॉन-बेलेबल वॉरंट जारी हुआ था मेरे ख़िलाफ़. बस बात ये थी कि तुम मारे कैसे मुझको?"

सौरभ: "इस मामले को थोड़ा खोलते हैं. आप और आपके मित्र अपने घर से सिनेमा हॉल गए. सांसद सत्यदेव सिंह के सिनेमा हॉल में फ़िल्म लगी थी, 'चरस'. फिर?"

अवध: "फिर पिक्चर में इंटरवल हुआ. हम गए बाहर पान खाने. तो उन साहब से मुलाक़ात हुई. उन्हें लगा दिया एक तमाचा. उनका ये था कि तुम रंगबाजी क्यों करते हो? मैं करता क्या था. स्कूल जाता था स्कूटर से और शर्ट की बटन खोल लेता था, टाई नीचे कर लेता था. 90s में कौन स्कूटर से स्कूल जाता था. सब साइकिल से ही जाते थे. मुझे बड़ा अच्छा लगता था. उन साहब को अच्छा नहीं लगा होगा. तो उन्होंने धर दिया. मैंने फ़िल्म छोड़ी और मैं घर चला आया.

हमारे एक दोस्त हैं, शमीम रज़ा सिद्दक़ी. मैंने उनसे जाकर कहा, 'यार.. जीवन में कुछ नहीं करना है. इसको मारना है.' तो उन्होंने कहा, 'बैठो बैठो अवध! दिमाग़ लगाएंगे. सोचेंगे कुछ.' मैंने उनसे कहा, 'मारते हाथ से हैं. इसमें दिमाग़ क्या लगाओगे! आज तो मारना ही मारना है.'

बात ये थी कि मेरा बचपन भी ऐसा ही बीता था. क्लास में आ रहे हैं, कोई बैग फेंक दे रहा है. बहुत बुली हुआ मैं बचपन में. तो ये सब मेरे दिमाग़ में था. फिर शमीम साहब हमारे साथ गए. गोली चलाई भी. फिर हम लोग फरार. धारा 307 लगी. एक महीने फरारी में रहे. माताजी लॉयर थीं, तो उन्होंने एक बढ़िया काम ये किया कि एक ही दिन में लोअर कोर्ट और सेशन कोर्ट में ज़मानत करा दी थी."

हालांकि, फिर अवध ओझा ने बताया कि आश्रमों की आवा-जाही और अध्ययन की तरफ़ रुझान नके बाद उनका जीवन बदला. कैसे बदला, इसके लिए पूरा इंटरव्यू देखिए -

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