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फीफा वर्ल्ड कप की वो कहानी जो दबी रह गई!

फ़्रांस की हार से ज़्यादा बड़ा संदेश क्या है?

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Argentina players celebrate after winning the FIFA World Cup 2022 (Courtesy: Reuters)

अर्जेंटीना ने 2022 का फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप जीत लिया है. क़तर के लुसैल में खेले गए फ़ाइनल में अर्जेंटीना ने फ़्रांस को पेनाल्टी शूटआउट में 4-2 से हराया. फ़ुटबॉल पर बारीकी से नज़र रखने वाले लोग इस बात पर एकमत हैं कि उन्होंने इस तरह का फ़ाइनल मैच पहले कभी नहीं देखा था. खेल से इतर बात करें तो इस बार का फ़ाइनल मुकाबला ऐतिहासिक था. फ़्रांस और अर्जेंटीना, दोनों ही अपने-अपने हिस्से की मुसीबतों से जूझ रहे हैं. अर्जेंटीना भारी आर्थिक संकट के दलदल में फंसा है. जबकि फ़्रांस में नस्लभेद और प्रवासियों के ख़िलाफ़ माहौल तैयार हो रहा है. जब फ़ाइनल मैच का नतीजा आया, तब समूचा अर्जेंटीना ज़मीन से ऊपर उड़ने लगा था. किसी के पांव धरती पर नहीं टिक रहे थे. लोगों ने अपनी सारी परेशानियों को किनारे रख दिया था. वे एक सूत्र में बंधकर जश्न मना रहे थे. 36 बरस पहले डिएगो माराडोना और अब लियोनेल मेसी इसके सूत्रधार थे.

दूसरी तरफ़, फ़्रांस में कुछ जगहों पर दंगे की ख़बर हुई. पुलिस को आंसू गैस के गोले दागने पड़े. लेकिन बड़ी बहस का विषय कुछ अलग था. बड़ी बहस फ़्रेंच टीम के खिलाड़ियों के मूल से जुड़ी थी. फ़्रांस की वर्ल्ड कप टीम में खेल रहे अधिकतर खिलाड़ियों अफ़्रीकी मूल के हैं. जहां से आने वाले प्रवासियों को रोकने के लिए फ़्रांस में बड़ी मुहिम छिड़ी हुई है. हाल के राष्ट्रपति चुनाव में मरीन ला पेन ने इस मुद्दे को अपने चुनावी कैंपेन में शामिल किया था. वो प्रवासियों पर बैन लगाने की बात कर रही थीं. ला पेन को चुनाव में तो सफलता नहीं मिली, मगर उन्होंने जिस चिनगारी को हवा दी थी, उसकी आग फ़्रांस में भड़कने लगी है. ये देखना दिलचस्प होगा कि फ़ुटबॉल टीम का प्रदर्शन इस आग को बुझा पाने में कितना कामयाब होता है?

आज हम समझने की कोशिश करेंगे कि -

- वर्ल्ड कप में अर्जेंटीना की जीत किन मायनों में खास है?
- फ़्रांस की हार से ज़्यादा बड़ा संदेश क्या है?
- और, फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप से दुनिया को क्या मिला?

18 दिसंबर 2022 की शाम फ़ुटबॉल की दुनिया का सबसे बड़े मैच का आयोजन था. क़तर के दूसरे सबसे बड़े शहर लुसैल में फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप का फ़ाइनल मैच खेला जा रहा था. अर्जेंटीना और फ़्रांस के बीच. फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों भी इस मैच को देखने स्टेडियम में पहुंचे थे. उनके अलावा लगभग 90 हज़ार दर्शक मैदान पर मौजूद थे. मैदान से बाहर बाकी दुनिया में करोड़ों लोगों की नज़र इस मैच पर बनी हुई थी.

अर्जेंटीना ने शुरुआत के 79 मिनटों तक गेम को अपने कंट्रोल में रखा. मेसी और डि मारिया के गोल्स की बदौलत अर्जेंटीना ने 2-0 की बढ़त बना ली थी. उस समय तक लगने लगा था कि फ़्रांस बिना किसी चुनौती के हार जाएगा. मगर किलन एम्बापे ने कहा, अभी हम ज़िंदा हैं. एम्बापे ने दो मिनट के अंतर में दो गोल मारकर फ़्रांस को बराबरी पर ला दिया. 90 मिनट के बाद स्कोर 2-2 था. इसके बाद गेम एक्स्ट्रा टाइम में गया. यहां भी दोनों टीमें बराबरी पर छूटीं. अंत में बात पेनाल्टी शूटआउट तक पहुंची. वहां अर्जेंटीना ने 4-2 के अंतर से बाजी मार ली.

फीफा विश्व कप 2022 जीतने के बाद जश्न मनाते अर्जेंटीना के खिलाड़ी। ( फोटो: रॉयटर्स)

मैच के दौरान कई ऐसे पल आए, जब देखने-सुनने वालों का गला रुंधा, सांसें अटकीं, धड़कनें तेज़ हुईं, आंसू निकले. और, जब सब सामान्य हुआ, तब दिखा कि काले रंग का चोगा पहने साढ़े पांच फ़ीट का लियोनेल मेसी अपने सर्वोत्तम रूप में निखर आया है. उसके जीवन की सबसे बड़ी खाई भर गई थी. द लिटिल बॉय फ़्रॉम रोजारियो ने वर्ल्ड कप की ट्रॉफ़ी अपने हाथों में उठा रखी थी. वो उस पल दुनिया का सबसे खुशनुमा व्यक्ति था. उसके रुख़सार से एक ज़िंदा बयान फूट रहा था. ‘मैं प्रेम हूं. मुझे सहेज लो तो पूर्ण हो जाओगे.’
ज़िंदगी में कुछ भी हासिल करने की पहली शर्त भरोसे से जुड़ी होती है. वो भरोसा सिर्फ प्रेम के पास मिलेगा. मेसी ने फ़ुटबॉल पर और फ़ुटबॉल ने मेसी पर भरोसा दिखाया था. उसकी कड़ी समर्पण से बंधी थी. जो कायम रही और फ़ुटबॉल के इतिहास के सबसे ख़ूबसूरत दृश्यों में से एक का जन्म हुआ.

दृश्य सिर्फ क़तर के लुसैल स्टेडियम में आकार नहीं ले रहा था, बल्कि अर्जेंटीना के गांवों और शहरों में झुके कंधे सीधी रेखा में तन गए थे. ग़रीबी और महंगाई से हताश सड़कों पर ठहाकों का सिलसिला शुरू हो गया. राजधानी ब्यूनस आयर्स के मेन चौराहे पर समंदर उतर आया था. अर्जेंटीना की जनता के चेहरे पर ऐसी खुशी देखे जाने कितना समय बीत गया होगा!

वो भी उस दौर में, जब अर्जेंटीना अपने इतिहास के सबसे बुरे आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. महंगाई दर 90 प्रतिशत के पार पहुंच चुकी है. मतलब, नवंबर 2021 में जिन चीजों के दाम 10 रुपये थे, दिसंबर 2022 में वो 19 रुपये का हो चुका है. ऑर्गेनाइज़ेशन फ़ॉर इकॉनमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की रिपोर्ट के अनुसार, 2023 और 2024 में भी महंगाई दर 80 प्रतिशत के आसपास रहेगी. अर्जेंटीना में 40 फीसदी से अधिक लोग ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन गुज़ार रहे हैं. बेघर और बेरोज़गार होने वालों की संख्या बढ़ी है. देश पर लदा क़र्ज़ लगातार बढ़ता जा रहा है. पांच महीनों में तीन वित्तमंत्री बदले जा चुके हैं. जानकारों की मानें तो अर्जेंटीना की हालत श्रीलंका जैसी हो रही है. अंतर बस इतना है कि अर्जेंटीना में जनता अभी सड़कों पर नहीं उतरी है.

अर्जेंटीना साउथ अमेरिका के दक्षिणी छोर पर बसा है. यहां पर स्पेन ने अपना उपनिवेश बसाया था. 1810 में अर्जेंटीना ने आज़ादी हासिल कर ली. इसके बाद उसने तेज़ी से विकास किया. 1929 की आर्थिक मंदी से पहले अर्जेंटीना दुनिया की दस सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में से एक था. यूरोप में ग़रीबी से जूझ रहे लोगों के लिए अर्जेंटीना एक विकल्प के तौर पर उभर रहा था. फिर 1930 में सब बदल गया. सेना ने सिविलियन सरकार का तख़्तापलट कर दिया. उनकी आर्थिक नीतियों ने अर्जेंटीना को पीछे धकेल दिया. अर्जेंटीना में लोकतंत्र की वापसी 1983 में हुई. नई सरकार ने पुरानी ग़लतियों को सुधारने की भरपूर कोशिश की, लेकिन तब तक बाकी देश काफ़ी आगे निकल चुके थे. अर्जेंटीना के लिए वापसी करना मुश्किल था.

फिर आया 2018 का साल. अर्जेंटीना की करेंसी पेसो की कीमत डॉलर के मुकाबले घटने लगी. तब इंटरनैशनल मॉनेटरी फ़ंड (IMF) ने लोन दिया. मगर इससे इकॉनमी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा. 2019 में सरकार बदल गई. वामपंथी विचारधारा के अल्बर्टो हर्नान्डीज राष्ट्रपति बन गए. इसके बाद लोगों ने सरकारी बॉन्ड्स को बेचना शुरू कर दिया. सरकार डिफ़ॉल्ट कर गई. इंटरनैशनल मार्केट में उनका क्रेडिट खत्म हो चुका था. उन्हें बाहर से पैसा मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी. इन सबके बीच कोरोना महामारी आ गई. तब सरकार ने सरकारी स्टाफ़्स को सैलरी देने और लोगों तक मदद पहुंचाने के लिए खूब सारा कैश प्रिंट किया. इसके कारण महंगाई बढ़ती चली गई.

सरकार IMF के साथ समझौता कर रास्ता निकालने की कोशिश कर रही है. लेकिन हाल-फिलहाल में कोई बड़ा अंतर देखने को नहीं मिल रहा है. अगले साल अर्जेंटीना में राष्ट्रपति चुनाव होना है. मौजूदा राष्ट्रपति हर्नान्डेज का मुक़ाबला पूंजीवादी पार्टियों से है. वे देश को आर्थिक बदहाली के दौर से बाहर निकालने का दावा कर रहे हैं.

अल्बर्टो हर्नान्डीज (AFP)

हालांकि, सबकुछ इतना निराशाजनक भी नहीं है. पोलिटिको की एक रिपोर्ट के अनुसार, अर्जेंटीना के पास गैस और लिथियम का बड़ा भंडार है. रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद से यूरोप के ताक़तवर देश साउथ अमेरिका में संभावनाएं तलाश रहे हैं. इसके अलावा, कुछ ट्रेड डील्स पर भी बातचीत चल रही है.

अर्जेंटीना ने पिछली बार फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप 1986 में जीता था. तब मुल्क़ मिलिटरी शासन की वीभीषिका से उबर ही रहा था. लोकतंत्र की गाड़ी धीमे-धीमे आगे बढ़ रही थी. 1986 की जीत ने उसमें जान फूंक दी थी. उम्मीद जताई जा रही है कि 2022 की जीत अर्जेंटीना के आर्थिक पहिए को रफ़्तार देगी. इस जीत ने कुछ कर दिखाने का भरोसा तो जगा ही दिया है. बशर्ते ये हौसला हुक्मरानों में भी ज़िंदा रहे!

ये तो हुई अर्जेंटीना की जीत की बात. फ़्रांस की हार भी कम ऐतिहासिक नहीं है. फ़्रांस लगातार दूसरी बार फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप के फ़ाइनल में पहुंचा था. 2018 के फ़ाइनल में उसने क्रोएशिया को हराकर खिताब जीता था. लगातार दूसरी जीत का उनका सपना तो साकार नही हो सका, मगर कई कहानियां ज़रूर साकार हुईं.
मसलन, फ़ाइनल में फ़्रांस के लिए तीन गोल करने वाले किलन एम्बापे की कहानी ले लीजिए. एम्बापे की पैदाइश पैरिस की है. लेकिन उनकी मां अल्जीरिया और पिता कैमरून के रहनेवाले हैं. दोनों ही देशों पर फ़्रांस ने औपनिवेशिक शासन चलाया. इन जगहों पर फ़्रांस के क्रूर शासन की अनगिनत दास्तानें हैं.

फ़्रांस की टीम में सिर्फ़ एम्बापे ही नहीं, बल्कि आधे से अधिक खिलाड़ियों की मूल पहचान फ़्रेंच नहीं है. या तो वे ख़ुद या फिर उनके माता-पिता या दादा-दादी प्रवासी बनकर फ़्रांस आए थे. इसलिए, जब फ़्रांस ने मोरक्को से सेमीफ़ाइनल खेला, तब कहा गया कि इतिहास में पहली बार दो अफ़्रीकी टीमें सेमीफ़ाइनल में भिड़ रहीं है. और, जब फ़्रांस फ़ाइनल में पहुंचा, तब कहा गया कि ये फ़्रांस से ज़्यादा तो अफ़्रीका की टीम है.

केन्या के राष्ट्रपति विलियम रुटो ने फ़्रांसीसी टीम के उन 15 खिलाड़ियों की लिस्ट ट्वीट की, जिनका ओरिजिन अफ़्रीकी महाद्वीप के किसी ना किसी देश का है. रुटो ने अर्जेंटीना को जीत पर बधाई दी. साथ में ये भी लिखा कि मेरी अफ़्रीकी टीम ने शानदार गेम खेला.

उनका इशारा फ़्रांसीसी टीम की तरफ था.

हम इस बारे में विस्तार से बात करेंगे. पहले कुछ आंकड़ों पर गौर कर लीजिए.

- इस बार के वर्ल्ड कप में 32 टीमों ने हिस्सा लिया. इन टीमों में 130 से अधिक ऐसे खिलाड़ी थे, जिनका ओरिजिन किसी और देश में हुआ था.
- मोरक्को फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप के इतिहास में सेमीफ़ाइनल तक पहुंचने वाली पहली अफ़्रीकी टीम बनी. इस टीम के कुल 26 में से 14 प्लेयर्स मोरक्को से बाहर पैदा हुए थे. मोरक्को को रिवर्स-माइग्रेशन का फायदा मिला.
- फ़्रांस ने 2018 का फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप अपने नाम किया था. इस टीम में 17 खिलाड़ी अफ़्रीकी मूल के थे. उस समय चर्चित कॉमेडियन ट्रेवर नोआ ने अपने शो में कहा था, ‘अफ़्रीका वन द वर्ल्ड कप!’ यानी, अफ़्रीका ने वर्ल्ड कप जीता. उस समय नोआ की काफ़ी आलोचना भी हुई थी.
- फ़्रांस ने पहला वर्ल्ड कप 1998 में जीता था. उस समय फ़ाइनल में प्लेयर ऑफ़ द मैच ज़िनेदिन ज़िदान थे. ज़िदान अल्जीरिया में पैदा हुए थे. फ़्रांस ने अल्जीरिया पर 132 बरसों तक शासन किया था. अल्जीरिया उत्तरी अफ़्रीका में पड़ता है.

जब कभी फ़्रांस या किसी दूसरे यूरोपियन टीम पर अफ़्रीकी मूल के खिलाड़ियों के प्रभाव को रेखांकित करने की बात होती है, तब इसका एक काउंटर पेश किया जाता है. वो ये कि फ़्रांस की धरती पर पैदा होने वाला शख़्स पहले फ़्रेंच है या यूरोपियन है. उसके बाद उसकी मूल पहचान आती है.
लेकिन इस काउंटर के बरक्स कई उदाहरण सामने आते हैं.
नंबर एक.
2010 में फ़्रांस के करीम बेज़्मा ने कहा था,

‘जब मैं गोल करता हूं, तब मुझे फ़्रेंच बताया जाता है. जब मैं गोल नहीं कर पाता, तब मैं अरब हो जाता हूं.’

नंबर दो.
जुलाई 2018 में जर्मनी के मेसुत ओज़िल का बयान था,

‘जब हम जीतते हैं तो मैं जर्मन बन जाता हूं. जैसे ही हम हारते हैं, मैं प्रवासी बन जाता हूं.’

तीसरा उदाहरण 2020 के यूरो कप का है. इटली के ख़िलाफ़ इंग्लैंड के तीन अफ़्रीकी मूल के खिलाड़ी पेनाल्टी गोल करने से चूक गए थे. उस समय उनके ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर ज़बरदस्त नस्लभेदी टिप्पणियां हुईं थी. उन्हें उनकी चमड़ी का रंग, देश और उनका मूल सब याद दिलाया गया था.

फ़्रांस इससे कतई अछूता नहीं है. जब 1998 में फ़्रांस ने पहला वर्ल्ड कप जीता था, तब नेशनल फ़्रंट पार्टी के जीन मरीन ला पेन ने इसे नकली फ़्रांसीसियों और विदेशियों की टीम कहकर संबोधित किया था. वो प्रवासियों और अश्वेत लोगों को फ़्रांस से दूर रखने की वकालत करते थे. वो यहूदियों के ख़िलाफ़ बयान देते रहे. मुस्लिमों को लेकर फ़्रेंच जनता के अंदर नफ़रत बनते रहे. ये अलग बात है कि जीन कभी राष्ट्रपति चुनाव नहीं जीत पाए. लेकिन उनकी विचारधारा को मानने वालों की संख्या बढ़ती गई.

2011 के बाद से जीन की बेटी मरीन ला पेन ने अपने पिता की विरासत संभाली. मरीन अपने पिता से कहीं अधिक कट्टर हैं. 2021 में उन्होंने कहा था कि अगर वो राष्ट्रपति बनीं तो, इमिग्रेशन यानी दूसरे देशों से आने वाले लोगों पर सख़्त कानून लाने के लिए जनमत-संग्रह करवाएंगी. पिछले कुछ समय से उनकी पार्टी ने आतंकवाद को इस्लाम से जोड़कर प्रचारित किया. उन्होंने बुर्क़ा बैन, मस्जिदों पर ताला, कुरान पर बैन समेत कई मुस्लिम-विरोधी कैंपेन्स चलाए. इसके अलावा, मरीन ने मूल फ़्रेंच और बाहर से आए लोगों को बांटने का वादा भी किया. इसके ज़रिए वो बाहर से फ़्रांस आने वाले लोगों को बुनियादी सुविधाओं और अधिकारों से वंचित रखना चाहतीं थी.

फ़्रांस यूरोप के उन कुछ चुनिंदा देशों में से है, जो मिडिल-ईस्ट या अफ़्रीका के युद्ध-प्रभावित इलाकों से आने वाले लोगों का स्वागत करता है. उन्हें बराबरी के मौके देता है. मरीन ला पेन फ़्रांस की इस मूल पहचान को छीनने पर आमादा थीं. इसके चलते अप्रैल 2022 में हुआ राष्ट्रपति चुनाव काफ़ी अहम बन गया था. इसमें काफ़ी कुछ दांव पर लगा था. चुनाव हुए तो मरीन दूसरे राउंड तक पहुंचीं. दूसरे राउंड में उन्हें 42 प्रतिशत वोट मिले. मैक्रों दूसरी बार चुनाव जीत तो गए, लेकिन मरीन को पिछली बार से 08 प्रतिशत अधिक वोट मिले थे. इसके अलावा, एरिक ज़िमौर नाम के एक कट्टर दक्षिणपंथी कैंडिडेट के उभार ने भी चिंताओं को बढ़ाया है.

हाल के कुछ समय में यूरोप के देशों में राजनीति की दशा और दिशा बदली है. एक तरफ़ फ़्रांस में मरीन और ज़िमौर जैसे नेता उभरकर सामने आए हैं. दूसरी तरफ़, इटली में जियोर्जिया मेलोनी जैसी नेता प्रधानमंत्री बन चुकीं है. आशंका जताई जा रही है कि इससे इन देशों की उदार राजनीति मैली होगी. अलग-अलग नस्लों को समान अवसर देने वाली ज़मीन बंज़र बनती जाएगी. निश्चित तौर पर, इसका एक असर फ़ुटबॉल पर भी पड़ेगा. इस प्रक्रिया में पूरी दुनिया के लिए सबक है. जो भी देश धर्म, भाषा, रंग, नस्ल, विचारधारा आदि के आधार पर लोगों से भेदभाव करता है, उसकी नियति शून्य की होती है. वो अपने ही आभामंडल में घुलकर खत्म हो जाता है. जबकि विविधता को आत्मसात करने वाले शिखर की राह लेते हैं. उनके सामने पूरा आसमान होता है.

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