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अफगानिस्तान में तालिबान की जीत से खुश पाकिस्तान TTP के फेर में फंसा

जानिए TTP की पूरी कुंडली और पाकिस्तान का डर.

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पाकिस्तान में खुशी का माहौल (लेफ्ट) और दाईं तरफ पीएम इमरान खान. फोटो- PTI
जर्मन दार्शनिक नीत्शे का क्वोट है,
“जो कोई भी राक्षसों से लड़ता है उसे ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रक्रिया में कहीं वो खुद ही राक्षस ना बन जाए, और अगर आप लम्बे समय तक खाई को घूरेंगे तो खाई भी आपको घूरने लगेगी”
150 साल पहले कही गई ये बाद वर्तमान में हमारे पड़ोस में ही साकार हो रही है. पाकिस्तान, तालिबान को घूर रहा है. क्यों, क्योंकि तालिबान की परछाई पाकिस्तान के अपने घर में आकार ले रही है. राक्षसों से लड़ने की बात तो बेमानी है, लेकिन हां! समझौते और संधियों का दौर ज़रूर चल रहा है. जिस तालिबान को पाकिस्तान अफ़ग़ानियों का मसीहा करारा दे रहा है, उसके एक धड़े को वो राक्षस की संज्ञा देता रहा है. कौन है राक्षस? कौन है परछाई? और कौन किसे घूर रहा है. चलिए जानते हैं. वजीरिस्तान- जिसे जीतना नामुमकिन रहा है पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान का बॉर्डर लगता है. ये इलाक़ा है- वज़ीरिस्तान का. विश्व विजय पर निकलने वाला सिकंदर हो या मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब, अपने अभियान में सभी शासकों ने इस इलाक़े को अवॉइड किया. कारण- ऊंचे पहाड़, घने जंगल, धधकते रेगिस्तान और तपा देने वाली गर्मी. गर्मियों में चलती लू और जाड़ों में हड्डियां कंपा देने वाली ठंड. अंग्रेज जब 1890 में इस इलाक़े में पहुंचे तो एक ब्रिटिश एडमिनिस्ट्रेटर ने वज़ीरिस्तान के लिए कहा था,
‘ये नेचर का बनाया हुआ एक फ़ॉर्ट्रेस है. जिसकी हिफ़ाज़त पहाड़ किया करते हैं.’
इस इलाक़े की पहचान हैं, यहां के कबीले. जिन्होंने ना जाने कितनी बार आक्रमणकारी सेनाओं को लोहे के चने चबवाए हैं. यहां के अधिकतर कबीले एक ही वंश से आए हैं. नियम क़ानून के नाम पर एक कोड ऑफ़ ऑनर फ़ॉलो किया जाता है, जिसे ‘पश्तूनवाली’ कहते हैं. पारंपरिक रूप से कबीलों के आपसी मामलों का निपटारा करने के लिए एक काउन्सिल बनाई जाती है. जिसमें कबीले के बुजुर्ग सदस्य शामिल होते हैं. इस काउन्सिल को ‘जिरगा’ कहते हैं.
अंग्रेजों के आने से पहले वज़ीरिस्तान में कभी किसी बाहरी ताक़त का दख़ल नहीं रहा. ब्रिटिश आए तो उन्होंने बॉर्डर के इलाक़ों को ट्राइबल एजेंसियों में बांट दिया. साथ ही एक पोलिटिकल एजेंट नियुक्त किया, जो ब्रिटिश गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि की तरह काम करता था. हालांकि इसके बावजूद ब्रिटिशर्स का दख़ल केवल बॉर्डर के कुछ किलोमीटर के इलाक़े तक सीमित था. इसके बाद कबीले के रिवाज और क़ानून ही मुख्य होते थे. ब्रिटिश शासन के दौरान भी कबीलों ने अपनी स्वायत्ता बनाए रखी. ये अंग्रेजों के सिविल और क्रिमिनल कोड से बाहर थे. और अंग्रेजों को टैक्स भी नहीं चुकाया करते थे.
Taliban Kabul Afghanistan तालिबान ने देश भर के इमाम से कहा है कि वो नमाज़ पढ़ने आने वालों को तालिबान के बारे में फैली नकारात्मक बातों को लेकर समझाएं. (फोटो-पीटीआई)

ब्रिटिश इंडिया के वाइसराय लॉर्ड कर्ज़न ने इस इलाक़े के लिए कहा था,
“वज़ीरिस्तान में शासन की सारी कोशिशें नाकाम हैं. हमने ब्लॉकेड लगाए, रिश्वत दी, डराने-धमकाने से काम लेना चाहा. लेकिन जब तक पूरे वज़ीरिस्तान पर मिलिट्री का स्टीम रोलर नहीं चलेगा. तब तक इस समस्या का कोई हल नहीं हो सकता. इसके बिना वहां कभी शांति नहीं आ सकती”
1947 में भारत का बंटवारा हुआ और वज़ीरिस्तान का इलाका पाकिस्तान के हिस्से में आया. मुहम्मद अली जिन्ना ने इस इलाक़े में अंग्रेजों का बनाया सिस्टम लागू रखा. तब भी एक पोलिटिकल एजेंट पाकिस्तान सरकार की तरफ़ से क़बीलाई नेताओं से डील किया करता था. लेकिन जिन्ना ने वज़ीरिस्तान से सेना को पीछे हटा लिया. ये एक सूझ-बूझ भरा फ़ैसला था. नया-नया आज़ाद हुआ पाकिस्तान आंतरिक लड़ाई का जोखिम मोल नहीं ले सकता था.
जिन्ना ने कबीले के प्रधान ‘जिरगा’ से मुलाक़ात की और उन्हें आश्वासन दिया कि पाकिस्तान कबीले के आंतरिक मसलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा. इसके कारण ना कभी पाकिस्तान ने इस इलाक़े में हस्तक्षेप किया, ना ही क़बीलाई मसले वज़ीरिस्तान से बाहर निकले. वजीरिस्तान में घुसे आतंकी 2001 में जब अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में एंटर हुआ. तो तालिबान के आतंकी बॉर्डर पार कर वज़ीरिस्तान के इलाक़े में घुस गए. पहाड़ी इलाक़ा होने के कारण यहां उन्हें छुपने की बढ़िया जगह मिल सकती थी. ये देखते हुए अमेरिका ने पाकिस्तान पर प्रेशर डाला कि वो अपने इलाक़े में मौजूद आतंकियों पर कार्यवाही करे. नतीजतन मुशर्रफ को वज़ीरिस्तान में सेना भेजनी पड़ी.
TV पर भाषण देते हुए मुशर्रफ ने कहा कि वज़ीरिस्तान में अल-क़ायदा की सीनियर लीडरशिप पनाह लिए हुए हैं. 2004 में पाकिस्तानी सेना ने पूरे वज़ीरिस्तान पर धावा बोल दिया. और क़बीलाई इलाक़ों पर सेना का क़ब्ज़ा हो गया. कुछ ही महीनों में कठिन इलाके और कड़े प्रतिरोध का सामना करते हुए, सेना वज़ीरिस्तान में फ़ंस गई. सेना की स्थिति ख़राब होते देखे जल्दबाज़ी में कुछ शांति समझौते किए गए. लेकिन तब तक आग भड़क चुकी थी और इस आग में घी डालने का काम किया 2007 की एक घटना ने.
हुआ यूं कि जून 2007 में इस्लामाबाद स्थित लाल मस्जिद पर स्टूडेंट्स ने क़ब्ज़ा कर लिया. मस्जिद के अंदर उन्होंने एक शरिया अदालत बनाई. जहां वो ऐसे लोगों को पकड़ कर लाते थे, जो उनके हिसाब से इस्लाम के मुताबिक़ नहीं चल रहे थे. इन लोगों में पुलिस वाले भी शामिल थे. मामला ने तूल पकड़ा तो पाकिस्तानी सुरक्षा एजेन्सियां हरकत में आई. छात्रों ने खुद को मस्जिद के अंदर बैरिकेड कर लिया. इसके बाद पाकिस्तान की इलीट कमांडो फ़ोर्स को एक ऑपरेशन के लिए बुलाया गया. कमांडो फ़ोर्स मस्जिद में घुसी और मुदभेड़ में 100 से ज़्यादा छात्र मारे गए. इनमें लड़कियां भी शामिल थीं.
Taliban तालिबान की एक प्रतीकात्मक तस्वीर. फोटो सोर्स- AP

मरने वालों में से अधिकतर छात्र क़बीलाई इलाक़े से आते थे. नतीजतन इन इलाक़ों में हिंसा भड़क उठी. एक साल के अंदर पूरे पाकिस्तान में 88 बम धमाके हुए, जिनमें 1200 लोगों की जान गई और कई घायल हो गए. इसी लाल मस्जिद की घटना से जन्म हुआ तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान यानी TTP का. बैतुल्लाह मसूद का उद्य TTP का फ़ाउंडर था बैतुल्लाह महसूद. ये महसूद जनजाति के ‘शबि खेल’ क्लैन से ताल्लुक़ रखता था. जिसे वज़ीरिस्तान के सबसे क्रूर और डरावने कबीलों में से एक माना जाता था. महसूद की पैदाइश हुई 1970 में. सोवियत ने जब अफ़ग़ानिस्तान पर हमला किया तो वो मुजाहिदीन के साथ जुड़ गया. आगे चलकर उसने वज़ीरिस्तान में एक सख़्त क़बीलाई लीडर के रूप में पहचान बनाई.
2004 में जब पाकिस्तानी सेना ने वज़ीरिस्तान में अपना ऑपरेशन शुरू किया, सेना से लोहा लेने वालों में बैतुल्लाह महसूद एक प्रमुख नाम था. 2005 में पाकिस्तान सरकार को मजबूरन शांति समझौता करना पड़ा तो इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर महसूद ने अपने गुट के लिए बहुत सी रियायतें ले लीं. पीस डील में मिले 5 लाख डॉलर की मदद से उसने अपने गुट को और बड़ा बनाया. और 2007 के बाद कबीले का सबसे बड़ा लीडर बन गया. अकेले वज़ीरिस्तान में ही उसके पास 2000 से ज़्यादा लड़ाके थे. 2007 के आसपास ही दक्षिणी वज़ीरिस्तान में बैतुल्लाह ने एक मीटिंग बुलाई.
मंजर देखिए- चांदनी रात में चट्टान पर शॉल बिछाकर बैतुल्लाह फ़्लास्क से निकाल कर चाय पी रहा है. फ़ोन और टॉर्च की लाइट बैतुल्लाह के चेहरे पर पड़ रही है. उसके आसपास AK-47 लेकर कुछ गनमैन खड़े हैं. साथ ही दो डॉक्टर भी मौजूद हैं. मीटिंग के लिए वज़ीरिस्तान के क़बीलाई लीडरों को न्योता दिया गया है जो सामने ज़मीन पर बैठे हुए हैं. महसूद उनके सामने अपना अजेंडा रखता है. अजेंडे के तहत पाकिस्तान सरकार के मुलाजिमों को निशाना बनाया जाना है. जिनमें पुलिस, सेना, हेल्थ वर्कर और टीचर शामिल हैं. वो कहता है,
“हमारी लड़ाई पाकिस्तान की सरकार से है. और जब तक पाकिस्तान पर TTP का क़ब्ज़ा नहीं हो जाता, ये लड़ाई जारी रहेगी”
उन दिनों अमेरिका ने उस पर 5 मिलियन डॉलर का इनाम रखा था. तुलना के लिए समझिए के अल-क़ायदा के सीनियर लीडर्स पर भी इतनी ही राशि का इनाम हुआ करता था. TTP के गठन के एक साल के अंदर उसके लड़ाकों ने पूरे पाकिस्तान में 2000 लोगों को अपना निशाना बनाया. TTP को बड़ा बनाने के लिए उसने गरीब परिवारों के लड़कों को अपने गुट में शामिल किया. महसूद का दायां हाथ था करी हुसैन. वो इससे पहले सिपा सहाबा का हिस्सा हुआ करता था. सिपा सहाबा एक कट्टरपंथी संगठन था, जो शियाओं को निशाना बनाने के लिए कुख्यात था.
Taliban 1 ये तस्वीर 80 के दशक की है जब सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान के लोगों ने हथियार उठाए थे. फोटो- AP

TTP के गठन के बाद महसूद ने पाकिस्तान के जिहादी नेट्वर्क को दुबारा ज़िंदा किया. उसने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के जिहादी लड़कों और पश्तून वॉरलॉर्ड को इकट्ठा किया. इसके अलावा उसने अमेरिका से छुप रहे अलक़ायदा के भगोड़े आतंकियों को भी अपने गुट में शामिल किया. पैसे और काडर के बल पर वो इतना शक्तिशाली हो चुका था कि एक इशारे पर पाकिस्तान के किसी भी हिस्से पर हमला करवा सकता था. TTP ने ट्राइबल बेल्ट और ‘नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस’ के बड़े इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया. फ़िदायीन हमले, सिर कलम करना, और किड्नैपिंग TPP के सिग्नेचर टैक्टिक हुआ करते थे. 2009 में बैतुल्लाह एक ड्रोन हमले में मारा गया. जिसके बाद TTP अलग-अलग गुटों में बंट गया. 2014 में एक बार खबरें आई थी कि TTP दुबारा एक नए सिरे से फ़्रंट बना रहा है. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के हाशिए पर होने के कारण उसे कोई सपोर्ट नहीं मिल पाया. आज हम TTP के इतिहास की बात क्यों कर रहे हैं? वो इसलिए कि पाकिस्तान तालिबान की जीत से उत्साहित है. लेकिन TTP एक बार दुबारा उसकी जड़ें खोदने के लिए तैयार हो रहा है. 15 अगस्त को काबुल पर तालिबान ने क़ब्ज़ा कर लिया. शायद ही ऐसा कोई मुद्दा हो जिस पर पाकिस्तान के राजनैतिक धड़े आपस में सहमत होते हों. लेकिन इस मुद्दे पर सभी ने एक स्वर से तालिबान को बधाई दी. इमरान खान ने तो यहां तक कह दिया कि अफ़ग़ानियों ने ग़ुलामी की ज़ंजीरे तोड़ दी हैं. मिलिट्री हाइकमान के लिए भी ज़रूरी था अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराना. सो आधा दर्जन रिटायअर्ड आर्मी जनरलों ने भी पब्लिक्ली तालिबान की जीत का जश्न मनाया.
इमरान खान का बयान साफ़ ज़ाहिर करता है कि पाकिस्तान, अमेरिकी गुट से निकलकर चीन के पाले में जा चुका है. चीन भी तालिबान को समर्थन दे चुका है. ऐसे में तालिबान की जीत में पाकिस्तान को अपनी जीत दिखाई दे रही है. लेकिन सब कुछ इतना हंकी डोरी नहीं जितना दिखाई दे रहा है. एक गुट है जिसकी आतिशबाज़ियों की आवाज़ पावर कॉरिडर के कानों में चुभ रही है. ये हैं पाकिस्तान के धार्मिक कट्टरपंथी गुट. जो तालिबान की जीत से उत्साहित होकर सरकार के लिए नई चुनौतियां पेश कर रहे हैं. पाकिस्तान की हार्ड-लाइन वाली पार्टियों में नई सुगबुगाहट है. उन्हें लग रहा है कि पाकिस्तान को भी फंडामेंटलिस्ट इस्लाम की तस्वीर में ढाला जा सकता है.
पूर्व पाकिस्तानी और अमेरिकी अधिकारियों का मानना है कि ये गुट पाकिस्तानी मिलिटरी इस्टैब्लिश्मेंट के लिए नया सरदर्द बन सकते हैं. कराची में इमरान ख़ान के विरोधी मौलाना फ़ज़्ल-उर-रहमान ने तालिबान की जीत का हवाला देते हुए सरकार को उखाड़ फेंकने का दावा किया है. पिछले हफ़्ते एक और कट्टरपंथी नेता मौलाना हमीद-उल-हक़ ने अपने फ़ॉलोअर्स को एक संदेश जारी किया है. जो कुछ इस प्रकार है,
“तालिबान ने पूरे अफ़ग़ानिस्तान में शांति और सुरक्षा क़ायम की है. पाकिस्तान में जब तक लोकतंत्र रहेगा तब तक अमन क़ायम नहीं हो सकता. पाकिस्तान में एक सच्ची इस्लामी व्यवस्था की स्थापना के लिए हमें तालिबान की राह चलकर कठिन संघर्ष करना होगा”
ग़ौरतलब है कि इन्हीं मौलाना हमीद-उल-हक़ को कई तालिबानी लीडर अपना गुरु मानते हैं. इस्लामाबाद में ‘पाकिस्तान इंस्टिट्यूट फ़ॉर पीस स्टडीज़’ के डायरेक्टर हैं, मुहम्मद अमीर राना. उनका कहना है कि तालिबान की जीत के पाकिस्तान पर दूरगामी असर होंगे. मीडिया द्वारा पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा,
''तालिबान के सत्ता में आने से पाकिस्तान विरोधी आतंकवादी समूहों का हौसला बढ़ेगा. लेकिन ये यहीं पर खत्म नहीं होता है. देश में नैरटिव को लेकर एक नई लड़ाई शुरू हो सकती है. जो स्टेट और सोसायटी में धर्म की भूमिका पर चल रही बहस को पूरी तरह बदल कर रख देगी.”
राना का मानना है कि पाकिस्तानी कट्टरपंथियों में एक नई सोच घर कर रही है. वो ये कि अगर अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक रूल आ सकता है तो पाकिस्तान में क्यों नहीं. पाकिस्तान हमेशा तालिबान को समर्थन देता आया है. ऐसे में सवाल उठता है कि पाकिस्तान में उठती शरिया की आवाज़ों को वो किस प्रकार दबा पाएगा. धार्मिक गुट आए दिन विभिन्न मसलों को लेकर हंगामा करते रहते हैं. और छोटे-मोटे एक्शन के अलावा उन पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की जाती. इसका कारण है पाकिस्तान में कट्टरपंथियों की अच्छी ख़ासी तादाद. किसी बड़े धार्मिक लीडर पर एक्शन लिया गया तो पाकिस्तान में दंगे हो सकते हैं. TTP से पाकिस्तान को खतरा? तालिबान की जीत से अगर सबसे बड़ा पुश किसी को मिला है तो वो है तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, यानी TTP को. पिछले रविवार, TTP ने उत्तरी पाकिस्तान में एक फ़िदायीन हमले को अंजाम दिया. इस हमले में 3 पाकिस्तानी सैनिकों की मौत हो गई और 20 लोग घायल हुए. पाकिस्तान सीनेट डिफेंस कमिटी के चेयरमैन हैं, मुशाहिद हुसैन सैयद. TTP के मुद्दे पर उनका कहना है कि पाकिस्तान तालिबान को आगाह कर चुका है. तालिबान को समर्थन देने की एक महत्वपूर्ण शर्त ये है कि तालिबान TTP को पनाह नहीं देगा.
लेकिन तालिबान के TTP से पुराने रिश्ते हैं. 2007 में जब बैतुल्लाह मसूद और राइवल लीडर्स के बीच तनातनी हुई, तो तालिबान के सर्वेसर्वा मुल्ला उमर ने ही उनमें आपसी समझौता करवाया था. UN सिक्योरिटी काउन्सिल के अनुसार TTP के 6000 लड़ाके अफ़ग़ानिस्तान में पनाह लिए हुए हैं. TTP और तालिबान के रिश्ते इस बात से भी समझे जा सकते हैं कि सत्ता में आने के बाद तालिबान ने TTP के कई लड़कों को रिहा कर दिया है. TTP के मुद्दे पर तालिबान ने पाकिस्तान को जवाब दिया है कि वह टीटीपी सदस्यों को पाकिस्तान को नहीं सौंपेगा. लेकिन उन पर पाकिस्तानी सरकार के साथ शांति वार्ता करने के लिए दबाव बनाएगा.
वैसे TTP को लेकर तालिबान के पास ज़्यादा लेवरेज नहीं है. अगर वो TTP पर ज़्यादा दबाव बनाएगा तो TTP के कमांडर, ISKP (इस्लामिक स्टेट-खुरासन) में शामिल हो सकते हैं. ISKP ने पिछले दिनों ही काबुल हवाई अड्डे पर हमला किया था और तालिबान के साथ उसके पुरानी अदावत है.
ऊपर हमने आपको बताया कि 2009 में बैतुल्लाह के मारे जाने के बाद TTP बिखर गया था. 2019 में खबरें आई कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से लौट जाएगा. अमेरिका के बाद अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का क़ब्ज़ा होना तय था. ऐसे में TTP को लगा कि वो दुबारा अपनी शक्ति एकजुट कर सकता है. उसने धीरे-धीरे बाकी आतंकी संगठनों से संपर्क साधना शुरू किया. जुलाई 2020 से लेकर अब तक 9 आतंकी संगठनों का TTP में विलय हो चुका है. ये सब हुआ नूर वली महसूद की लीडरशिप में. नूर वली के मुल्ला बरादर से पुराने सम्बंध हैं. बताया जाता है कि मुल्ला बरादर के आग्रह पर ही TTP के गुटों में समझौता हो सका है.
पाकिस्तान के पीएम इमरान खान (Imran Khan). (तस्वीर: एपी) पाकिस्तान के पीएम इमरान खान (Imran Khan). (तस्वीर: एपी)

अपना संगठन मज़बूत करने के बाद नूर वाली अब पाकिस्तान में कमबैक की तैयारी कर रहा है. अब उसकी मंशा है TTP को तालिबान जैसी शक्ल देना. यानी एक आतंकी गिरोह के बजाय वो TTP को एक राष्ट्रवादी संगठन की छवि देना चाहता है. जिसका विद्रोह पाकिस्तान की भ्रष्ट सरकार से है. TTP का घोषित उद्देश्य है, पाकिस्तान स्टेट को जड़ से उखाड़ फेंकना. इसलिए तालिबान की जीत पर इमरान खान जितना चाहे बत्तीसी दिखा लें. इस मुस्कुराहट के पीछे की नर्वसनेस किसी से छुपी नही हैं. पाकिस्तान की विदेश नीति का एक ही एंगल है- भारत. उसे लग रहा है कि तालिबान के जीतने के बाद भारत पूरी तरह घिर चुका है. चीन से दोस्ती पहले ही पक्की थी. और तालिबान की जीत सोने पर सुहागा साबित होगी.
लेकिन तालिबान की आड़ में TTP पाकिस्तान के लिए नया सरदर्द पैदा करने के तैयारी में हैं. पाकिस्तान अपने ही घर में पनपते खतरे से नावाक़िफ़ है. 2018 में इमरान ख़ान धार्मिक उन्माद की लहर पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचे थे. आने वाले दिनों में ये लहर, चक्रवात की शक्ल लेकर पाकिस्तान को निगलने के लिए तैयार हो रही है.