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पारसी लोग कैसे आए भारत!

1200 साल पहले पारसी लोग ईरान से भारत आए. क्यों? और कौन था वो राजा जिसने पारसियों को अपने यहां शरण दी?

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पारसी 9वीं-10वीं सदी में ईरान में हो रहे अत्याचार से भागकर भारत आए. भारत में पहली पारसी बस्ती का प्रमाण संजाण (सूरत के करीब) मिलता है (तस्वीर- Getty)

नमक, अलमारी और कपास. इन तीन चीजों में क्या कॉमन है? एक जमाने में भारत में इन तीन चीजों को बनाने वाली सबसे बड़ी कम्पनियों के नाम थे. टाटा(Ratan Tata), गोदरेज और वाडिया. ये तीनों नाम एक ही समुदाय से आते हैं. पारसी समुदाय. जो असल में जोरोस्ट्रियन नाम के एक धर्म को मानने वाले लोग हैं. दुनिया के सबसे पुराने धर्मों में से एक, जिसका इतिहास ईसा से भी 2000 साल पुराना है.  इन लोगों को भारत में पारसी कहा गया. क्यों? (Parsis migration to India)

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पहले पारसी शब्द का मतलब जानते हैं. ये शब्द पर्शिया से निकला है. पर्शिया यानी आज का ईरान(Iran). और पारसी यानी पर्शिया के लोग. पारसियों की कहानी शुरू होती है सातवीं सदी से. साल 641 तक पर्शिया में जोरोस्ट्रियन धर्म के लोग बहुसंख्यक हुआ करते थे. ठीक इसी समय पर अरबों ने अपना साम्राज्य फैलाना शुरू किया और इस क्रम में वो पर्शिया पहुंचे. पर्शिया पर सैसानी वंश का शासन था. अरबों से युद्ध में पर्शिया के शासक यज़्देगर्द शहरियार की हार हुई. उन्होंने भागने की कोशिश की लेकिन उन्हें मार डाला गया. लिहाज़ा धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए जोरोस्ट्रियन लोगों ने पर्शिया से पलायन शुरू कर दिया. ये पलायन अगली कई सदियों तक चला. और इस दौरान 18 हज़ार शरणार्थियों का एक जत्था भारत भी पहुंचा. (Parsi community in India)

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Parsi migration to India
पारसी धर्म जिसे जरथुस्त्र धर्म भी कहते हैं. इस धर्म की स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक संत ज़रथुष्ट्र ने की थी (तस्वीर- Quora)

पारसियों के इतिहास के बारे में ज़्यादा किताबें नहीं है. अधिकतर बातें क़िस्सा-ए-संजान नाम की एक कविता से ली गई हैं. जिसे दस्तूर बहमन कैकोबाद नाम के पारसी पुजारी ने लिखा था. कैकोबाद सन 1600 के आसपास गुजरात के नवसारी में रहा करते थे. लम्बे समय तक क़िस्सा-ए-संजान महज़ एक लोक कथा मानी जाती रही. लेकिन हाल में हुए पुरातत्व सर्वेक्षण इसके प्रामाणिक होने की तरफ़ इशारा करते हैं. इस सर्वेक्षण में क्या पता चला, इसकी बात आगे. फ़िलहाल क़िस्सा-ए-संजान के बारे में बताते हैं.

क़िस्सा-ए-संजान एक कविता है. इसकी शुरुआत होती है साल 641 में हुए नेहावंद के युद्ध से. जिसमें ईरान के अंतिम सैसानी बादशाह यज़्देगर्द की हार हो हुई. और पर्शिया पर अरबों का राज हो गया. हालांकि पर्शिया के कुछ राजकुमार अभी भी विद्रोह कर रहे थे. उन्होंने पर्शिया के ख़ोरासन प्रांत को अपना ठिकाना बनाया था. जहां उनके साथ जोरोस्ट्रियन शरणार्थी भी रहने लगे. ये शरणार्थी कुछ सौ साल तक ख़ोरासन में रहे. क़िस्सा-ए-संजान के अनुसार इसके बाद ये लोग आठवीं सदी में भागकर होरमुज़ चले गए. होरमुज़ को 30 साल तक अपना ठिकाना बनाने के बाद उन्हें यहां से भी भगा दिया जाता है. यहां से इन लोगों की भारत तक यात्रा शुरू होती है. शरणार्थियों का पहला बेड़ा आठवीं शताब्दी में भारत के पश्चिमी तट तक पहुंचता है. जहां ये लोग शुरुआती 19 साल तक दीव को अपना घर बनाते हैं.

दीव के बाद ये बेड़ा पहुंचता है गुजरात. क़िस्सा-ए-संजान के अनुसार दीव से गुजरात की यात्रा में इन लोगों को भयंकर तूफ़ान का सामना करना पड़ा. तूफ़ान से बचने के लिए वे ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. और वादा करते हैं कि अगर ईश्वर ने उन्हें बचा लिया तो वे आतश बहरम की अगियारी यानी एक मंदिर बनाएंगे. जोरोस्ट्रियन धर्म में 'आतश बहरम' पवित्र आग को कहा जाता है. जिसे इस धर्म में सबसे ऊंचा स्थान हासिल है. क़िस्सा-ए-संजान के अनुसार इसके बाद तूफ़ान रुक जाता है. और ये लोग गुजरात के वलसाड़ पहुंच जाते हैं. यहां इन लोगों को पारसी कहा जाता है. गुजरात के एक स्थानीय शासक, जिनका नाम जदी राणा था, वे इन पारसियों को अपने राज्य में शरण देने के लिए तैयार हो जाते हैं. लेकिन चार शर्तों के साथ.

Jadi Rana
हिंदू राजा जादी राणा या जदेजा ने करीब 18,000 पारसियों को अपने राज्य में शरण दी और उन्हें अपना धर्म और अपनी परंपरा के पालन की इजाजत दी (तस्वीर- Facebook/The Rajputs)

पहली शर्त - वे स्थानीय रीति रिवाज अपनाएंगे.  
दूसरी शर्त- वो स्थानीय भाषा बोलेंगे.
तीसरी शर्त- वे स्थानीय लोगों जैसे ही कपड़े पहनेंगे.   
और चौथी शर्त- पारसी कभी हथियार इकट्ठा नहीं करेंगे.

ये शर्तें मानने के बाद पारसियों ने अपने लिए एक नया शहर बनाया. जिसका नाम उन्होंने रखा- संजान. संजान पर्शिया के उस शहर का नाम था जिसने ख़ोरासान में इन लोगों को पनाह दी थी. आधुनिक समय में ईरान में इस शहर का नाम सिंदन है. संजान की स्थापना के साथ-साथ उन्होंने यहां पवित्र आग का एक मंदिर भी बनाया. आगे कहानी कहती हैं कि आने वाले समय में पारसियों में आपस में कुछ दिक़्क़तें भी शुरू हुई. मसलन पारसियों के बीच आपस में ये बहस छिड़ने लगी कि आतश बहरम का मुख्य पुजारी कौन होगा. पारसियों में पुजारी ही न्याय करता था. इसलिए अलग-अलग इलाक़ों में क्षेत्राधिकार को लेकर अड़चनें आने लगी. अंत में फ़ैसला हुआ कि पारसी अपने इलाक़े को पांच हिस्सों में बांट लेंगे. इन हिस्सों को 'पांच पंथक' कहा गया. हर पंथक पर एक पुजारी परिवार होता था. जो अपने क्षेत्र के फ़ैसले करता था. और आतश बहरम का पुजारी भी इन्हीं में से चुना जाता था.

Parsi Map
इस्लामिक अत्याचार से त्रस्त होकर पारसियों का पहला समूह लगभग 766 ईसा पूर्व दीव (दमण और दीव) पहुंचा. दीव से वे गुजरात में बस गए (तस्वीर- Indiatoday)

इन आंतरिक छोटे-मोटे झगड़ों के अलावा कई सदियों तक पारसी शांति से रहते रहे. फिर 13 वीं सदी के अंत में एक बड़ी घटना हुई. जनरल अलफ़ ख़ान नाम के एक मिलिट्री कमांडर ने संजान पर हमला बोल दिया. क़िस्सा-ए-संजान के अनुसार ये हमला सुल्तान महमूद ने किया था, जो सम्भवतः महमूद अलाउद्दीन ख़िलजी का नाम है. अलफ खान के ख़िलाफ़ पारसियों ने पहली बार हथियार उठाए. लेकिन युद्ध के दूसरे ही दिन उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. नतीजतन संजान पर अलफ़ ख़ान का क़ब्ज़ा हो गया. और पारसियों को एक बार फिर अपने स्थान से बेदख़ल होना पड़ा. उन्होंने पवित्र आग को अपने साथ लिया और बच्चों और औरतों को लेकर बहरोट के पहाड़ों में चले गए. यहां 12 साल तक छुपकर रहने के बाद उन्होंने वंसड़ा को अपना नया ठिकाना बनाया. यहां क़िस्सा-ए-संजान अपने आख़िरी चैप्टर में पहुंच जाता है. आख़िर में ज़िक्र आता है कि पवित्र अग्नि को लेकर पारसी नवसारी चले गए. हालांकि उनका एक धड़ा संजान लौटा और उसे फ़िर बसा लिया.

जैसा कि पहले बताया पारसियों के भारत आगमन की इस कहानी का एकमात्र सोर्स क़िस्सा-ए-संजान नाम की कविता है. सालों तक लोग इसे महज़ लोक कथा मानते आए थे. लेकिन 21 वीं सदी में ये शक भी दूर हो चुका है. 2002-2004 के बीच संजान में पुरातत्वविद्यों ने खुदाई की.इस खुदाई में मिट्टी के पश्चिम-एशियाई बर्तन, पश्चिम-एशियाई कांच और मुद्राएं मिली हैं जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि यहां रहने वाले लोगों का संबंध ईरान से था. इस बात की पुष्टि कोंकण के चिनचानी गांव में मिली तांबे की पांच प्लेटों से भी होती है. जिनसे पता चलता है कि 10वीं और 13वीं शताब्दी में यहां पारसियों की मौजूदगी थी और संजान में उनका एक बंदरगाह भी था.

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ईरानशाह आतश बेहराम, जिसे उदवाड़ा अताश बेहराम के नाम से भी जाना जाता है, उदवाड़ा गुजरात में एक मंदिर में रखी गई एक पवित्र अग्नि है. यह पारसी धर्म के आठ अग्नि मंदिरों में से एक है (तस्वीर- wikimedia commons)

बहरहाल क़िस्सा-ए-संजान की कहानी 13 वीं सदी पर आकर ख़त्म हो जाती है. इसके आगे की बात दूसरे ऐतिहासिक सोर्सेज से पता चलती है. 'आतश बहरम' साल 1741 तक नवसारी में रही. लेकिन फिर एक विवाद के चलते इसे गुजरात के दूसरे इलाक़े उडवाड़ा में स्थापित कर दिया गया. आज की बात कहें तो वर्तमान यानी साल 2023 में भी ये उडवाड़ा में ही स्थापित है. यहां पारसियों का एक बड़ा मंदिर है. इस पवित्र आग को पारसी लोग ईरानशाह कहकर बुलाते हैं. जो उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक प्रतीक है. आज भी पारसी लोग हर धार्मिक अनुष्ठान या शादी- ब्याह से पहले यहां पूजा करने आते हैं.

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