एक खबर चल रही है. कहा जा रहा है कि पॉल्यूशन कंट्रोल में आ जायेगा. कैसे? वो ऐसे कि कार्बन डाई ऑक्साइड को पत्थर में तब्दील कर दिया जायेगा. हमने कहा, गजब! माने जब कार्बन डाई ऑक्साइड हवा में जाएगी ही नहीं तो पॉल्यूशन होगा ही कैसे? वाह! शाब्बाश साइंस के कीड़ों! ऐसे ही कूदो!
Stones made from CO2 gasses. (Image: Annette)
लेकिन फिर एक कीड़ा हमारे भी कूदा. कि आखिर ये कार्बन डाई ऑक्साइड पत्थर बनेगी कैसे? ये होती तो गैस है. फिर ऐसे कौन से फ्रिज में इसको रक्खा जायेगा कि ये पत्थर हो जायेगी?
गैस को पत्थर में बदलने का मामला क्या है?
होता ये है कि फैक्ट्रियों से जो धुआं निकलता है, उसमें मेनली कार्बन डाई ऑक्साइड और हाइड्रोजन सल्फाइड होती हैं. उसके साथ और भी ज़हरीली गैसें मौजूद रहती हैं लेकिन कम मात्रा में. इन गैसों को निकलते ही पानी में घोल दिया जाता है. चूंकि गैस है और पानी में पूरी तरह घुलेगी नहीं, इसलिए उसके बबल बन जाते हैं. बबल यानी बुलबुले. जब बबल बनते हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि वो पानी की सतह पर आकर फूट जायेंगे. इसको रोकने के लिए बेसाल्ट (Basalt) चट्टानों के टुकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है. बेसाल्ट की चट्टान मुख्य रूप से ज्वालामुखी के फटने से बहते हुए लावा के सूख जाने पर बनती है. ये दुनिया की सबसे मजबूत चट्टानों में से एक होती हैं. लेकिन इनका स्ट्रक्चर ऐसा होता है कि इनकी सतह पर छोटे-छोटे छेद बने होते हैं. इन्हीं छोटे-छोटे छेदों की वजह से ही ये इस काम में बहुत काम लायक होती हैं.
400-500 मीटर ज़मीन के नीचे, बेसाल्ट चट्टान के टुकड़ों के बीच पानी में पॉल्यूशन वाली गैस को पानी में घोला जाता है. यहां हीरो बनते हैं बेसाल्ट चट्टान के टुकड़े. गैस के पानी में घुलते ही जो बुलबुले बनते हैं, उन्हें बेसाल्ट के टुकड़ों की सतह पर बने छेद सोख लेते हैं. स्पंज देखा है? उसकी सतह पर भी छेद होते हैं. वैसे ही छेद समझ लो. उनमें पानी घुसता था, फिर अंगूठा लगा के नोट गिनने के काम में आता था. वैसे ही बेसाल्ट की चट्टानों पर बने छेद में गैस घुस जाती है.
1. Basalat Rock 2. Basalt Rock Surface
ये सारा कार्यक्रम होते वक्त, इन चट्टानों पर बहुत सारा प्रेशर लग रहा होता है. क्यूंकि ये 400-500 मीटर ज़मीन के अन्दर होती हैं. साथ ही इनका टेम्परेचर भी 70 डिग्री फारेनहाइट या 21-22 डिग्री सेंटीग्रेड होता है. लगभग दो साल में प्रेशर और टेम्परेचर के इफेक्ट से जमी कार्बन डाई ऑक्साइड पत्थर में तब्दील हो जाती है.
इस कार्यक्रम के दौरान, कोई कहता है कि 75% कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकल जाती है तो कोई कुछ और आंकड़े दे रहा है. लेकिन आइसलैंड में जो टेक्नीक काम में लाई जा रही है उसके हिसाब से मात्र 5% कार्बन डाई ऑक्साइड बाहर निकलती है. जो कि एक बहुत ही अच्छी खबर है.
Plant in Iceland (Image: AP)
साथ ही, जो पुराने तरीके थे, उनमें सबसे पहले पॉल्यूशन भरी हवा से कार्बन डाई ऑक्साइड को बाहर निकालना पड़ता था. अभी ऐसा नहीं किया जा रहा है. इस प्रोसेस में गैस को सीधे पाइपलाइन के थ्रू ज़मीन के नीचे भेजा जा रहा है. जिसकी वजह से ऐसे प्लांट के लगने और चलने की लागत में ज़मीन-आसमान का फ़र्क आ गया है. बल्कि इसको ऐसा समझा जाए कि चूंकि हवा में कार्बन कंटेंट की कटौती की जा सकेगी इसलिए प्लांट की लागत को नील बटे सन्नाटा ही माना जाए.
कुछ ध्यान रखने लायक पॉइंट
1. आइसलैंड में दुनिया के मुकाबले मात्र 5% कार्बन डाई ऑक्साइड रिलीज़ होती है. यानी बाकी जगहों पर गैस को ज़मीन के नीचे दबाने के लिए बहुत ही ज़्यादा जगह की ज़रुरत पड़ेगी.
2. जैसे-जैसे प्लांट बदलेगा, उनसे निकलने वाली गैस बदलेंगी. इसलिए गैस के पत्थर बनने में लगने वाला टाइम बदलेगा.
3. ज्योग्रफ़ी के हिसाब से आइसलैंड ऐसी जगह पर है जहां ज्वालामुखी से बनी बेसाल्ट रॉक्स प्रचुर मात्रा में मिलती हैं.