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भारत की पनडुब्बियों को दुश्मन ढूंढे ना ढूंढ पाएगा, जर्मनी अपनी धांसू तकनीक देने को तैयार

AIP तकनीक वाली पनडुब्बी पानी के अंदर 15 दिन तक रह सकती है.

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भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ उनके जर्मन समकक्षबोरिस पिस्टोरियस और पनडुब्बी की प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो सोर्स- PTI)

जर्मनी और भारत के बीच पनडुब्बियां (India Germany Submarine Deal) बनाने के लिए 42 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की एक डील होने वाली है. इस डील के तहत 6 आधुनिक डीज़ल अटैक सबमरीन बनाई जाएंगी. जर्मनी की समुद्री हथियार बनाने वाली कंपनी थिसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स इन पनडुब्बियों के लिए अपनी तकनीक देगी. ऐसा बताया गया है कि इन पनडुब्बियों के निर्माण में भारत की युद्धपोत और पनडुब्बियां बनाने वाली भारतीय कंपनी मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड यानी MDL का सहयोग लिया जा सकता है.

जर्मनी के रक्षा मंत्री क्या बोले?

जर्मनी के रक्षा मंत्री बोरिस पिस्टोरियस कल 6 जून, 2023 को दो दिन के दौरे पर दिल्ली आए हैं. अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स ने जर्मनी और भारत के अधिकारियों के हवाले से लिखा है कि बोरिस की उपस्थिति में इस डील पर शुरुआती एग्रीमेंट साइन किया जाएगा.

बोरिस ने जर्मनी के पब्लिक ब्रॉडकास्टर (मीडिया ग्रुप) ARD से बात करते हुए भी कहा कि बुधवार को जब हम मुंबई पहुंचेंगे तो पनडुब्बी की डील उनके एजेंडे में होगी. इस बारे में जर्मन अधिकारियों की भारतीय अधिकारियों से बातचीत होगी. बोरिस ने आगे कहा,

“ये न सिर्फ जर्मन इंडस्ट्री के लिए बल्कि भारत और भारत-जर्मनी के कूटनीतिक रिश्तों के लिए एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण कॉन्ट्रैक्ट है.”

हालांकि इस बारे में अभी भारतीय विदेश मंत्रालय, MDL या जर्मन कंपनी थिसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.

गौरतलब है कि जब भारत में आपसी साझेदारी से पनडुब्बी बनाने का टेंडर घोषित किया गया था. तब थिसेनक्रुप ने इसमें ख़ास रुचि नहीं दिखाई थी. लेकिन रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध का दूसरा साल शुरू चल रहा है. जानकार ऐसा मानते हैं कि रूस और चीन की नजदीकियां देखते हुए अब पश्चिम देश सैन्य मामलों में भारत के नजदीक आ रहे हैं, खास तौर पर जर्मनी.

ये पनडुब्बियां जिस प्रोजेक्ट के तहत बन रही हैं वो पहली ही काफ़ी लेट है. लेकिन अब उम्मीद है कि काम जल्दी शुरू होगा.

कौन सा प्रोजेक्ट है ये?

जून 1999 में एक कैबिनेट कमेटी ने ‘प्रोजेक्ट 75’ के प्लान को मंजूरी दी. इसके तहत तय किया गया कि साल 2030 तक इंडियन नेवी के लिए 24 सबमरीन बनाई जाएंगी. इनमें 18 पारंपरिक और 6 न्यूक्लियर पावर वाली सबमरीन होंगी. इस प्रोजेक्ट को दो हिस्सों या कहें तो दो स्टेज में बांटा गया. पहली स्टेज प्रोजेक्ट-75 और प्रोजेक्ट-75I.

इसके बाद साल 2005 में 23 हजार करोड़ रुपए की लागत से फ़्रांस के नेवल ग्रुप के साथ प्रोजेक्ट-75 के तहत स्कॉर्पीन क्लास की 6 पनडुब्बियां बनाने का करार हुआ. बीती 18 मई को प्रोजेक्ट-75 के तहत, छठवीं और आखिरी स्कॉर्पीन क्लास की पनडुब्बी का समुद्री ट्रायल शुरू कर दिया गया. साल 2024 की शुरुआत में इसे इंडियन नेवी को सौंप दिया जाएगा. माने 19 साल में 6 पनडुब्बियां बनकर तैयार हो पाईं. जबकि असली प्लान साल 2030 तक 24 पनडुब्बियां बनाने का था.

AIP तकनीक वाली पनडुब्बियां 

अब आइए प्रोजेक्ट-75I यानी प्रोजेक्ट-75 इंडिया. इस स्टेज के तहत भी 6 पनडुब्बियां बनाई जानी हैं. इनमें कुछ और खासियतें भी होंगी. मसलन, बेहतर हथियार, बेहतर सेंसर और सबसे ख़ास- एयर इंडिपेंडेंट प्रोपल्शन सिस्टम यानी AIP. किसी भी पनडुब्बी के बार-बार पानी की सतह पर आने से दुश्मनों की नजर में आने का खतरा बढ़ जाता है. और AIP तकनीक वाली पनडुब्बी, पारंपरिक डीजल-इलेक्ट्रिक पनडुब्बियों की तुलना में ज्यादा देर तक समुद्र के अंदर रह सकती है. अंतर समझें तो एक AIP इक्विप्ड सबमरीन पानी के अन्दर 15 दिन से भी ज्यादा वक़्त तक रह सकती हैं. जबकि पारंपरिक पनडुब्बियों को अपने जनरेटर चलाने के लिए 2 से 3 दिन में पानी की सतह पर आना पड़ता है. इन्हीं जनरेटरों से पनडुब्बी की बैटरी रिचार्ज होती है. जिसके सहारे पनडुब्बी पानी के अन्दर चलती है.

साल 2019 में, भारत में MDL और L&T (लार्सन एंड टुब्रो) को ‘स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप मॉडल’ के तहत विदेशी कंपनियों के साथ मिलकर AIP तकनीक वाली डीज़ल अटैक पनडुब्बी बनाने के लिए मंजूरी दी गई थी. इन दोनों कंपनियों को सरकार की तरफ से स्ट्रैटेजिक पार्टनर बनाया गया. अब इनका काम था ओरिजिनल इक्विपमेंट मैन्यूफैक्चर (OEM) यानी कुछ विदेशी कंपनियों के साथ करार करके सबमरीन बनाना. 

इसके ललिए 5 OEMs को चुना गया. ये पांच कंपनियां थीं- फ्रांस की नेवल ग्रुप, जर्मनी की थिसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स, रूस की ROE, साउथ कोरिया की डेवू और स्पेन की नवांशिया.

अंग्रेजी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के मुताबिक, स्ट्रैटेजिक पार्टनर्स की OEMs के साथ साझेदारी में दिक्कतें आईं. अप्रैल 2022 में फ़्रांस के नेवल ग्रुप ने कह दिया कि वो इस प्रोजेक्ट से बाहर निकल रहा है. रूस और स्पेन की कंपनियां भी पीछे हट गईं. इसकी वजह क्या रही? नेवल ग्रुप का कहना था कि सौदे में मांग की गई है कि AIP की तकनीक का इस्तेमाल सही है, ये साबित किया जा चुका हो. जबकि फ़्रांस की नेवी अभी इस प्रोपल्शन सिस्टम का इस्तेमाल नहीं करती है. ऐसे में इसे अभी आजमाने की जरूरत है.

दूसरी एक और समस्या टेक्नोलॉजी का ट्रांसफर बताई गई. कहा गया कि विदेशी कंपनियां अपनी तकनीक और विशेषज्ञता शेयर नहीं करना चाहती थीं. जो कि इस स्ट्रैटेजिक पार्टनर मॉडल के तहत सबमरीन बनाने पर उन्हें करना पड़ता.

थिसेनक्रुप के इस समझौते के लिए तैयार होने की संभावना थी. थिसेनक्रुप के पास भी AIP टेक्नोलॉजी है. इस टेक्नोलॉजी के चलते पनडुब्बी पानी के अंदर ज्यादा देर तक रह सकती है. एक और बात, थिसेनक्रुप की बनाई पनडुब्बियों का इस्तेमाल भारत पहले भी कर चुका है. ये भी एक वजह है कि साउथ कोरिया की डेवू और स्पेन की नवांशिया के बजाय इस जर्मन कंपनी के साथ करार कुछ सहज हो सकता था.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, जर्मनी चाहता है कि जर्मन और यूरोपीय डिफेंस कंपनियां भारत को हथियार देने की कोशिशें बढ़ाएं ताकि भारत की रूस पर निर्भरता कम हो.

जर्मनी से हमने पहले भी पनडुब्बियां खरीदी हैं

पाकिस्तान को साल 1963 में अमेरिका से पहली पनडुब्बी मिली थी. अमेरिका और इंग्लैंड हमें दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के बची हुई पुरानी पनडुब्बी दे रहे थे. ऐसे में हमें सोवियत संघ की तरफ रुख करना पड़ा. इसके बाद भारत को साल 1967 से साल 1974 के बीच 8 फॉक्सट्रॉट क्लास की सबमरीन मिलीं. फिर 1981 में जर्मनी की HDW कंपनी की 4 हंटर-किलर सबमरीन मिलीं. इनमें से 2 जर्मनी में ही बनीं जबकि दो जर्मनी की टेक्नोलॉजी लेकर MDL में बनाई गईं. 2 और सबमरीन बनाने की बात चल रही थी. लेकिन इस सौदे को लेकर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे. और MDL को काम बंद करना पड़ा था.