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'भारत-नेपाल जमीन की अदला-बदली करेंगे', इस पर नेपाल में बवाल हो गया!

नेपाल, कालापानी-लिपुलेख को अपना इलाका मानता है, बदले में भारत की 'चिकन्स नेक' से रास्ता चाहिए.

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भारत और नेपाल के प्रधानमंत्री, सीमा विवाद को लेकर प्रदर्शन करते नेपाली लोग (फोटो सोर्स- PTI)

भारत और नेपाल के बीच 'लैंड-स्वैप डील' (India Nepal Land Swap Deal) चर्चा में है. बीते दिनों नेपाल के PM पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' भारत के दौरे पर थे. यहां उनकी मुलाकात PM मोदी से भी हुई. दोनों के बीच कई अहम मुद्दों पर बात हुई. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इन मुद्दों में से एक था- कालापानी सीमा विवाद. नेपाली PM प्रचंड ने कहा कि कालापानी के विवाद को सुलझाने के लिए दोनों देशों के बीच जमीन की अदला-बदली हो सकती है. उधर प्रचंड के भारत से वापस लौटने के बाद नेपाल के विपक्षी दल प्रचंड का कर्रा विरोध कर रहे हैं. इसे ही नेपाल-भारत लैंड स्वैप डील कहा जा रहा है. क्या है ये डील? दोनों देशों के लिए इसके क्या मायने हैं? इन सभी सवालों के जवाब जानने की कोशिश करेंगे.

विवाद क्या है?

भारत और नेपाल के बीच करीब 1 हजार 800 किलोमीटर लंबी सीमा है. इसमें से बिहार की करीब 600 किलोमीटर की सीमा, और उत्तर प्रदेश की 651 किलोमीटर की सीमा नेपाल से लगती है. इनके अलावा नेपाल से सटे भारतीय राज्यों में उत्तराखंड, सिक्किम और पश्चिम बंगाल भी हैं. इस सीमा के कई इलाकों को लेकर भारत और नेपाल के बीच विवाद रहा है. लेकिन इन्हें लेकर दोनों देशों के बीच खासी तल्खी रही हो, ऐसे उदाहरण नहीं मिलते.

लेकिन 2020 में मामला तब गरमा गया, जब नेपाल ने कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख के इलाकों को अपने नक़्शे में दिखा दिया. भारत के मुताबिक, ये उत्तराखंड राज्य का हिस्सा हैं. भारत ने भी अपने नक़्शे में इन इलाकों को अपनी टेरिटरी का हिस्सा दिखाया. मई 2020 में भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड के धारचूला से लिपुलेख तक एक सड़क का उद्घाटन किया. इस पर नेपाल ने फिर लिपुलेख पर अपना दावा दोहराया. कुल-मिलाकर दोनों देशों के बीच कूटनीतिक खींचतान का ये मामला महीनों सुर्खियों में रहा.

नेपाल के अखबार द काठमांडू पोस्ट की एक खबर के मुताबिक, जून 2023 की शुरुआत में जब प्रचंड, भारत दौरे पर आए तो दिल्ली में पत्रकारों से बात करते हुए उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बात हुई. खास तौर पर कालापानी के मुद्दे पर लैंड स्वैप की संभावनाओं पर बात हुई ताकि नेपाल को भी समुद्र तक पहुंच मिल सके.

नेपाली अख़बार लिखता है कि 2020 में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा पर ताजा विवाद के बाद, ये पहली बार है जब भारत ने इन मुद्दों को सुलझाने की बात की है.

अख़बार के मुताबिक दहल ने कहा,

"इस बार, दोनों देशों ने सीमा विवाद पर गंभीरता से चर्चा की है. कालापानी मुद्दे पर भारतीय मीडिया में भी चर्चा हुई है और उनका सामान्य नजरिया है कि ये मुद्दा सुलझना चाहिए. हमने भारत से इस मुद्दे को सुलझाने के लिए कई विकल्पों पर बात की. एक विकल्प भारत-बांग्लादेश मॉडल है. दोनों देशों के बीच लंबे वक़्त से एक समस्या थी, जिसे उन्होंने सुलझा लिया. ये मॉडल भी हमारे बीच के मुद्दे का एक समाधान हो सकता है."

प्रचंड जिस मॉडल की बात कर रहे हैं, वो दरअसल भारत और बांग्लादेश के बीच साल 2015 में किया गया एक लैंड स्वैप एग्रीमेंट है. जिसके तहत दोनों देशों ने एक-दूसरे को कुछ इलाके दिए और सीमा विवाद को हमेशा के लिए सुलझा लिया. 

लेकिन प्रचंड के इस लैंड स्वैप डील वाले समाधान से नेपाल और भारत में सबका सहमत होना मुश्किल है. कैसे, ये समझते हैं.

नेपाल क्या चाहता है?

जब भारत और नेपाल के बीच 2020 में नक़्शे वाला विवाद हुआ तो, नेपाल के तत्कालीन PM, KP ओली ने एक 9 लोगों की टास्क फ़ोर्स बनाई थी. और इस पैनल से सभी ऐतिहासिक साक्ष्य, मानचित्र वगैरह इकट्ठा करने को कहा था ताकि कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख पर नेपाल का दावा स्थापित किया जा सके. नेपाल के अधिकारियों का कहना है कि जब भारत के साथ कालापानी मुद्दे पर बात होगी तो इन सबूतों को सामने रखा जाएगा.

सीमा विवाद सुलझाने के लिए जब नेपाल में टास्क फ़ोर्स बनी, तब CPN-UML के नेता प्रदीप ग्यावली नेपाल के विदेश मंत्री थे. आज यही CPN-UML यानी ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी’ नेपाल की प्रमुख विपक्षी पार्टी है. नेपाल की बाकी विपक्षी पार्टियां भी प्रचंड का विरोध कर रही हैं. वहां के सदन में हंगामा हो रहा है. प्रदीप ग्यावली भी PM प्रचंड के लैंड स्वैप डील वाले बयान को बचकाना बता रहे हैं. क्यों?

प्रदीप 3 कारण बताते हुए कहते हैं,

"पहली बात, हमारे संविधान में जमीन की अदला-बदली की अनुमति देने वाला कोई नियम या प्रावधान नहीं है. दूसरा कि हमारे लिए लैंड स्वैप आख़िरी विकल्प है, क्योंकि पहले तो हमें कालापानी पर अपना दावा कायम करना है. फिर ‘वो रास्ता’ भारत के लिए बहुत जरूरी है. और फिर जब अभी औपचारिक बातचीत नहीं हुई है तो PM को (दहल) को अपने पत्ते नहीं खोलने चाहिए. उन्हें ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर हल्के में बात नहीं करनी चाहिए."

नेपाल की टास्क फ़ोर्स लैंड स्वैप डील के अलावा भी कुछ समाधान सोच रही है. उसका मानना है कि नेपाल को कालापानी इलाके पर अपना दावा मजबूत करना चाहिए या फिर कालापानी इलाके को कुछ सालों के लिए लीज़ पर दे दिया जाए. लेकिन लीज़ का सवाल इसलिए नहीं उठता क्योंकि भारत जिन इलाकों को अपना मानता है, उन्हें नेपाल से लीज़ पर आखिर क्यों ही लिया जाएगा.

जो लैंड स्वैप वाला समाधान प्रचंड चाहते हैं, उसे नेपाल के नेता और जानकार लोग और मुश्किल मानते हैं. प्रदीप ग्यावली के बयान में जिस रास्ते का जिक्र हुआ है, वो सिलीगुड़ी कॉरिडोर है. जिसे चिकेन्स नेक (Chicken's Neck) भी कहा जाता है. पश्चिम बंगाल में 60 किलोमीटर लंबा और मात्रा 22 किलोमीटर चौड़ा ये इलाका भारत के बाकी इलाकों को उसके पूर्वोत्तर राज्यों से जोड़ता है. भारत के लिए ये कूटनीतिक और सामरिक दोनों मायनों में बहुत संवेदनशील क्षेत्र है. इसलिए कालापानी के बदले में नेपाल को इस रास्ते से होकर बांग्लादेश तक जाने की इजाजत देना, भारत के लिए आसान निर्णय नहीं होगा. 

हालांकि भारत की तरफ से अभी इस लैंड स्वीप डील को लेकर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है. लेकिन नेपाल जानता है कि कालापानी के इलाके के बदले इंडिया के चिकेन्स नेक से रास्ता लेना कितनी बड़ी बात है. 

नेपाल के सर्वे डिपार्टमेंट के पूर्व डायरेक्टर जनरल तोया नाथ बराल टास्क फ़ोर्स का हिस्सा रहे हैं. वो कहते हैं कि मामले को सुलझाने के लिए लैंड स्वैप डील को बतौर समाधान सुझाया गया था. लेकिन ये बहुत जटिल मुद्दा है.

वो कहते हैं,

"अगर हमें भारत से पश्चिमी नेपाल में महेंद्रनगर के आसपास 400 से 500 वर्ग किलोमीटर का इलाका मिल भी जाता है तो इससे हमारा हित नहीं होगा. अगर हमें नेपाल की पूर्वी सीमा से होते हुए, भारतीय जमीन पर एक पट्टी दे दी जाए और हम बांग्लादेश तक पहुंच सकें तो ये हमारे लिए बड़ी उपलब्धि होगी."

वहीं डेनमार्क में नेपाल के राजदूत रहे विजय कांत करना कहते हैं,

"ये प्रस्ताव असंभव है. ये पट्टी भारत के लिए बहुत संवेदनशील है. क्योंकि इस इलाके से भारत की सीमा चीन, भूटान, म्यांमार और तिब्बत के कुछ हिस्सों से लगती है. हमें चिकन्स नेक से कोई रास्ता नहीं मिलेगा. हो सकता है कहीं और कोई जमीन दे दी जाए."

वहीं प्रचंड का मानना है कि भारत इस मुद्दे पर बात करने को तैयार है, यही खुद में बड़ी उपलब्धि है.

प्रचंड ने अख़बार से बात करते हुए कहा,

"PM मोदी का मानना है कि ये विवाद का हल होना चाहिए. वो ये भी मानते हैं कि अगर सीमा-विवाद चलता रहा तो दोनों देशों के रिश्ते नहीं सुधरेंगे."

लेकिन प्रचंड ये भी कहते हैं कि PM मोदी से बात करने के बाद मुझे ये समझ में आया है कि अगर हम कालापानी और लिपुलेख में उलझे रहे तो दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध नहीं सुधरेंगे.

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