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एवरेस्ट की खोज से इस भारतीय का नाम क्यों मिटा दिया गया?

साल 1856 में माउंट एवरेस्ट को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी घोषित किया गया. कौन था एवरेस्ट को नापने वाला भारतीय और कैसे नापी गई एवरेस्ट की ऊंचाई?

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राधानाथ सिकदर ने 13 वर्ष की मेहनत के बाद, माउंट एवरेस्ट पर चढ़े बिना अपनी गणितीय गणनाओं से 1865 में इसकी ऊंचाई 29,002 फीट आंकी थी (तस्वीर- wikimedia commons/peakclimbingnepal.com)

जब पहली बार माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई नापी गई. तमाम गणनाओं के बाद रिज़ल्ट आया, ठीक 29 हज़ार फ़ीट. ये संख्या कुछ ज़्यादा ही नीट थी. सर्वे करने वालों को लगा कहीं लोग इसपे सवाल ना उठा दें. इसलिए अंत में उन्होंने अपनी तरफ़ से 2 फ़ीट और जोड़ दिए. इस तरह एवरेस्ट की ऊंचाई 29 हज़ार 2 फ़ीट मानी गई. पहले इसका नाम पीक 15 हुआ करता था. जब तय हो गया कि ये दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है, इसका नाम सर जॉर्ज एवरेस्ट(George Everest) के नाम पर रखा गया. जॉर्ज एवरेस्ट 1830 से 1843 तक भारत के सर्वेयर जर्नल हुआ करते थे. हालांकि इसकी खोज एवरेस्ट ने नहीं की थी. बल्कि इसे खोजने वाला शख़्स एक भारतीय था. कौन था ये शख़्स, कैसे हुई एवरेस्ट की खोज? (Mount Everest)

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एवरेस्ट दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है. ऐसे में इसकी खोज की बात आपको अटपटी लग सकती है. जो चीज़ सारी दुनिया के सामने है, उसकी खोज कैसे हो सकती है? तो यहां सवाल सिर्फ़ ये नहीं है कि एवरेस्ट को सबसे पहले देखा किसने था. अवश्य ही हज़ारों लोगों ने देखा होगा. ख़ासकर नेपाल और तिब्बत में. तिब्बत में इसे 'चोमोलुंगमा' और नेपाल में 'सागरमाथा' कहते हैं. इन लोगों को इस पहाड़ के बारे में पता तो था लेकिन ना ये पता था कि इसकी ऊंचाई कितनी है, ना ये कि ये दुनिया का सबसे ऊंचा पहाड़ है. इस बात का पता साल 1852 में लगा. (Radhanath Sikdar)

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George Everest
सर जॉर्ज एवरेस्ट 1830 से 1843 के बीच भारत के सर्वेयर-जनरल रहे (तस्वीर- Wikimedia commons)

शुरुआत साल 1802 में हुई, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वे का काम शुरू किया. इसे द ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे (Great Trigonometrical Survey) भी कहते हैं. इस सर्वे में हिमालय की ऊंचाई का पता लगाना भी शामिल था. लेकिन इस काम में एक अड़चन थी. नेपाल और तिब्बत, ये दोनों राज्य अपने यहां विदेशियों को आने नहीं देते थे. 1830 में सर्वे किसी तरह नेपाल और भारत की सीमा तक पहुंचा. आगे जाने की इजाज़त नहीं थी. इसलिए तराई के इलाक़ों से सर्वे का काम किया गया. सर्वे के काम में दिक़्क़तें काफ़ी थीं. मसलन ठंडे मौसम के चलते साल में केवल तीन महीने सर्वे का काम चल पाता. ऊपर से मलेरिया आदि बीमारियों का हमेशा डर बना रहता. जिसके चलते हिमालय का सर्वे करने में लम्बा वक्त लगा.

1843 में ऐंड्रू स्कॉट वॉ नए सर्वेयर जनरल बने. उन्होंने बिहार में भागलपुर, उत्तर प्रदेश में पिलीभीत, और पश्चिमी बंगाल में दार्जीलिंग से सर्वे का काम शुरू किया. सर्वे के तहत 1847 में कंचनजंगा की ऊंचाई नापी गई. जो 28 हज़ार फ़ीट से कुछ ऊपर थी. इसी दौरान ऐंड्रू स्कॉट को कंचनजंगा के पीछे एक और चोटी दिखाई दी. जो लगभग 230 किलोमीटर दूर थी. स्कॉट के सहायक जान आर्मस्ट्रोंग ने एक दूसरी जगह से इस पीक को देखा और इसे नाम दिया पीक 'b'. वॉ ने तब अपनी डायरी में ये नोट लिखा था कि 'b' नाम की पीक कनचंजंगा से ऊंची दिखाई दे रही है. इस बात को वेरिफ़ाई करने के लिए और मीज़रमेंट्स की ज़रूरत थी.

वॉ ने जेम्स निकलसन नाम के एक अधिकारी को और मेजरमेंट्स लेने के लिए भेजा. निकलसन ने पांच अलग-अलग स्थानों से 30 ऑब्ज़र्वेशन किए. शुरुआती गणनाओं से निकलसन ने 'बी' पीक की ऊंचाई 30 हज़ार 200 फ़ीट निकाली . लेकिन इस दौरान उनसे से एक गलती हो गई. पीक की ऊंचाई नापते वक्त लाइट के रेफ़्रैक्शन को ध्यान में रखना पड़ता है. निकलसन ने ये ध्यान नहीं रखा इसलिए उनका सारा डेटा गड़बड़ा गया.

Andrew Scott Waugh
जॉर्ज एवरेस्ट 1843 में सेवानिवृत्त हुए और कर्नल एंड्रयू स्कॉट वॉ सर्वेयर जनरल बने (तस्वीर- wikimedia commons)

निकलसन आगे कुछ करते उससे पहले ही उन्हें मलेरिया के चलते वापस लौटना पड़ा. आगे की गणनाओं के लिए उन्होंने पीक b का नाम पीक 15 रख दिया. पीक b की ऊंचाई नापना मुश्किल साबित हो रहा था. फिर साल 1852 में एक शख़्स ने ये मुश्किल आसान कर दी. जून की एक दोपहर देहरादून स्थित सर्वेयर ऑफ़िस में एक शख़्स बड़े नाटकीय ढंग से दाखिल हुआ. उसने ऐलान किया-

“मैंने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी का पता लगा लिया है.”

इस शख़्स का नाम था राधानाथ सिकदर. सिकदर का एवरेस्ट की खोज में क्या रोल था. ये जानने के लिए शुरू से उनकी कहानी जानते हैं. राधानाथ बंगाल के रहने वाले थे. साल 1831 में उन्होंने 30 रुपए प्रति माह की तनख़्वाह में ब्रिटिश सरकार में नौकरी शुरू की. उन्हें मैथ्स की अच्छी नॉलेज थी, इसलिए ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे में भाग लेने के लिए उन्हें देहरादून भेजा गया. कुछ साल देहरादून में काम करने के बाद 1851 में उन्हें कोलकाता भेजा गया. जहां उन्होंने हिमालय का सर्वे कर रही टीम को जॉइन किया. सिकदर का पद चीफ़ कम्प्यूटर का था. कुछ लोग इंस्ट्रुमेंट्स के ज़रिए  डेटा इकट्ठा करते थे. वहीं इन ह्यूमन कम्प्यूटरों का काम उस डेटा को ऐनलायज़ करना था.

ऐंड्रू स्कॉट के साथ काम करते हुए उन्होंने दार्जलिंग से हिमालय की चोटियों का मेजरमेंट लेना शुरू किया. इससे पहले आप सोचें कि ज़मीन से किसी पहाड़ की ऊंचाई कैसे नाम सकते हैं, हम बतलाए देते हैं. महज़ दसवीं की गणित का काम है. एक ट्रायएंगल की कल्पना कीजिए. जिसका एक बिंदु पहाड़ की चोटी है. और बाक़ी दो बिंदु ज़मीन पर हैं. ज़मीन पर मौजूद दो बिंदुओं की दूरी आप आसानी से नाप सकते हैं. इसके बाद बस आपको एक और चीज़ नापनी है. दोनों बिंदु तीसरे बिंदु से कितना कोण बना रहे हैं. इसके बाद बेसिक बौद्धायन थियोरम से आप पहाड़ की ऊंचाई माप सकते हो.

1922 Index of Great Trigonometrical Survey of India
ग्रेट ट्रिगोनोमेट्रिकल सर्वे ऑफ इंडिया का इंडेक्स चार्ट (तस्वीर- wikimedia commons)

एवरेस्ट की ऊंचाई मापने के लिए सिकदर के योगदान के बारे में इतिहासकार जॉन की लिखते हैं,

“बहुत सम्भव है सिकदर की गणनाओं ने ही पहली बार प्रूव किया था कि एवरेस्ट सबसे ऊंची चोटी है”

अपनी किताब Everest: The Mountaineering History, जिसे एवरेस्ट के इतिहास पर एक प्रामाणिक किताब माना जाता है, में वॉल्थ अंसवर्थ लिखते हैं "एवरेस्ट की ऊंचाई के डेटा जब पहली बार पब्लिश हुआ, उसे पढ़ने से पता चलता है कि सिकदर की गणना से ही एवरेस्ट की ऊंचाई मापी गई". अंसवर्थ बताते हैं, ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे के दौरान जॉर्ज एवरेस्ट राधानाथ सिकदर के काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सिकदर को अपना दायां हाथ बना लिया था.

हालांकि किताब में ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि सिकदर को भारतीय होने के चलते काफ़ी भेदभाव सहना पड़ा. एक वाक़या है. हेनरी थुइलियर नाम के एक अधिकारी कोलकाता में सर्वे ऑफ़िस के हेड हुआ करते थे. थुइलियर अपने काम में काफ़ी गलतियां करते थे. परेशान होकर सिकदर ने हेड ऑफ़िस के पास एक ख़त लिखा जिसमें उन्होंने हेनरी थुइलियर को खूब खरी खोटी सुनाई. ये साल 1858 था. 1857 की क्रांति को हुए एक ही साल हुआ था. इसलिए सिकदर के इस कदम को भी नाफ़रमानी की तरह देखा गया. थुइलियर ने सिकदर की शिकायत सर्वेयर जनरल से की. जनरल ने सिकदर से एक माफ़ी भरा ख़त लिखने को कहा, सिकदर ने ख़त लिखा भी लेकिन उन्होंने अपनी भाषा के लिए माफ़ी मांगी, ना कि अपने आरोपों के लिए.

सिकदर की गणनाओं के आधार पर साल 1856 में एवरेस्ट का डेटा एशियाटिक सोसायटी के आगे पेश किया गया. सर्वेयर जनरल ऐंड्रू स्कॉट ने एवरेस्ट को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी बताते हुए उसका नाम पूर्व जनरल जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर रखने की सिफ़ारिश की. काफ़ी माथापच्ची के बाद 1865 में Royal Geographical Society ने चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया. कमाल की बात ये है कि जॉर्ज एवरेस्ट को हिमालय में कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. इतिहासकार जान की के अनुसार उन्होंने अपनी ज़िंदगी में कभी उसे देखा तक नहीं. और वो खुद भी नहीं चाहते थे कि उनका नाम इस चोटी से जोड़ा जाए.

Mount Everest
अंग्रेज शुरुआत में माउंट एवरेस्ट को पीक-15 कहते थे. तिब्बती भाषा में माउंट एवरेस्ट का नाम है चोमोलुंगमा, जिसका अर्थ है ‘विश्व की मां देवी’ (तस्वीर- education.nationalgeographic.org)

बहरहाल एवरेस्ट को तो इज्जत और रसूख़ के चलते क्रेडिट मिल गया. लेकिन इसे खोजने वाले राधानाथ सिकदर का क्या? साल 1861 में ‘The Manual Of Surveying For India’ नाम से छपी पत्रिका के पहले संस्करण में में सिकदर का नाम बाबू राधा नाथ सिकदर के नाम से दर्ज था. और उन्हें कम्प्यूटिंग टीम के हेड होने का क्रेडिट भी दिया गया था. लेकिन जब 1875 में इस मैन्यूअल का तीसरा संस्करण छपा, सिकदर का नाम उसमें से ग़ायब हो चुका था.

लिव हिस्ट्री इंडिया नाम की वेब साइट में छपे एक आरिकल में मयूर मुल्की के लिखते हैं कि सदियों बाद 2011 में कुछ शोधकर्ताओं ने सिकदर के बारे में और जानकारी इकट्ठा करने की कोशिश की. इस खोज में वो पश्चिम बंगाल में कोलकाता से कुछ 50 किलोमीटर दूर चंदननगर पहुंचे. यहां उन्हें राधानाथ सिकदर के नाम पर एक गली का नाम मिला. पता चला कि रिटायरमेंट के बाद वो यहां आकर बस गए थे और साल 1870 में उनकी मौत हो गई. उनका घर और बाक़ी निशानियां तोड़ी जा चुकी हैं. सिकदर के योगदान को लम्बे समय तक भुलाए रखा गया लेकिन 21 वीं सदी में कई लोग अब एवरेस्ट की खोज में उनके योगदान को नए सिरे से सामने ला रहे हैं.

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