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300 स्पार्टन्स छोड़ो, 30 सिपाहियों संग औरंगजेब पर भारी छत्रसाल की कहानी सुनो

राजा छत्रसाल का जन्म बड़े कष्टमय समय में हुआ था. माता-पिता की हत्या कर दी गई थी. छत्रसाल बुंदेलखंड को मुगल शासन से आजाद कराना चाहते थे. अपने पूरी जीवन में छत्रसाल ने मुगलों से कई युद्ध लड़े, और हर युद्ध में जीत हासिल की.

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राजा छत्रसाल

नक्शे के हिसाब से बुंदेलखंड सेंट्रल इंडिया में पड़ता है. आधा यूपी और आधा एमपी में. बुंदेलखंड ने गरीबी और पिछड़ेपन की मार झेली है. लगभग हर साल सूखा पड़ जाता है. लेकिन बुंदेलखंड का इतिहास समृद्ध है. यहां बहादुरी का सूखा कभी नहीं रहा. राजा युद्ध लड़ते थे और जीतते थे. बुंदेलखंड उन आल्हा-ऊदल का इलाका है. जिनकी बहादुरी के किस्से गांव की चौपाल पर बखाने जाते हैं. और बुंदेलखंड उस बुन्देला राजवंश का साम्राज्य भी रहा है जिसकी नींव 11वीं सदी में राजा पंचम ने रखी थी. इसी राजवंश के नाम पर इस पूरे इलाके को बुंदेलखंड कहा जाता है. आज के हिसाब से बात करें तो झांसी, पन्ना, छत्तरपुर, दमोह, सागर, दतिया, चंदेरी, ललितपुर, बांदा, हमीरपुर, जालौन, महोबा, चित्रकूट, टीकमगढ़, रीवा, जबलपुर, विदिशा, ग्वालियर और भिंड के इलाके बुंदेलखंड में आते हैं.

बुंदेला राजवंश के लिए स्वर्णिम युग कहा गया राजा छत्रसाल के शासन को. छत्रसाल ने बुंदेलखंड मुगलों से आजाद करवाया था. इतिहासकार महेंद्र प्रताप सिंह के मुताबिक़ दक्षिण में मुगलों ने जितना इलाका कब्जाया, बुंदेलखंड में उससे कहीं ज्यादा इलाका छत्रसाल ने मुगलों से छीन लिया था.

उस वक़्त बुंदेलखंड में राजा छत्रसाल के लिए कहावत थी,

‘छत्रसाल तेरे राज में धक धक धरती होय.

जित जित घोड़ा पग धरे, तित तित हीरा होय.

जित जित घोडा मुंह धरे, तित तित फत्ते होय.’

माने जहां-जहां छत्रसाल का घोड़ा पैर रखता वहां हीरे की खान और जहां पैर रखता वहां छत्रसाल की जीत. ये कहने की बात नहीं है, बुंदेलखंड के इतिहास में दर्ज सच है.

राजा छत्रसाल की पैदाइश-

साल था 1649. 4 मई यानी आज ही के दिन बुन्देला रियासत के चंपतराय और लाल कुंवर की चौथी औलाद हुई थी. नाम रखा गया छत्रसाल. ये वो वक़्त था जब माता-पिता दोनों मुगलों से बचते-बचाते ओरछा के जंगलों में भटक रहे थे.
एक किस्सा है, कहा जाता है कि मुग़ल सैनिकों ने जब जंगल में चंपतराय को घेर लिया. तो चंपतरात ने नवजात छत्रसाल को गोद में लिया और पत्नी लालकुंवारी का हाथ पकड़कर एक पहाड़ी से दूसरी पर छलांग लगा दी. इस वक़्त चंपत राय की उम्र थी 62 साल. लेकिन उम्र आड़े नहीं आई. घाटी पार कर गए और सबकी जान बच गई.
लालकवि छत्रसाल के दरबारी कवि थे. छत्रप्रकाश नाम से उन्होंने छत्रसाल की जीवनगाथा लिखी थी. इसमें लिखा है कि ककरकंचनहार की उस पहाड़ी को मोर-पहाडी इसीलिए कहते हैं क्योंकि चंपतराय की छलांग मोर की उड़ान जैसी थी. छत्रसाल पर बनी वेबसीरीज में भी इस घटना को फिल्माया गया है.
चंपतराय और लाल कुंवर जंग में साथ लड़ा करते थे. नन्हे छत्रसाल मां की पीठ से बंधे रहते. इस दौरान कई बार मुगलों ने हमला किया. लेकिन सफल नहीं हुए.
छत्रसाल जब 4 साल के हुए तो लाल कुंवर ने उन्हें उनके ननिहाल भेज कर दिया. इधर शाहजहां ने चंपत राय को पकड़ने के लिए अभियान छेड़ रखा था. और उधर छत्रसाल तलवार चलाना सीख चुके थे. 10 साल के हुए तो एक मुग़ल सैनिक का सिर उतार लिया. मां-बाप को लगा कि अब बेटा योद्धा बनने के लिए तैयार है तो उसे अपनी कहानी बताई. मुगलों की गुलामी, उनसे पुरानी अदावत और अपनों से ख़तरा. ये भी बताया कि अब बुंदेलखंड की तकदीर तुम्हारे हाथ में है.
और इसके 2 साल बाद जब छत्रसाल 12 साल के थे. चंपत राय और लाल कुंवर दोनों को मुगलों ने मार दिया. साजिश रची थी ओरछा की रानी हीरा देवी ने. हीरा देवी के समर्थक सुजान सिंह और दतिया के राव शुभाकरण ने मुगलों की मदद की. इस वक़्त चंपत राय की तबियत बेहद खराब थी. पति-पत्नी दोनों को मोरान गांव के पास घेर लिया गया. लाल कुंवर बहादुरी से लड़ीं और मारी गईं. और सहरा रियासत के लोकपाल सिंह धधेरा ने दोनों के शरीर से सिर काटकर तोहफ़े में औरंगजेब को दिए. ईनाम भी पाया. तारीख़ थी, 7 नवंबर 1661.

छत्रसाल के शुरुआती साथी और दुश्मन-

इस वक़्त 12 साल से कुछ ज्यादा उम्र थी. छत्रसाल के बाकी दोनों भाइयों की कोई ख़ास इच्छा नहीं थी. न मां-बाप की हत्या के बदले की. और न बुंदेलखंड की आजादी का उनका सपना पूरा करने की. लेकिन सबसे छोटे छत्रसाल के अंदर बदले की आग जल रही थी, बुंदेलखंड का सपना पल रहा था.
दतिया, ओरछा और चंदेरी के राजा और राव वगैरह छत्रसाल के पिता के दुश्मन थे. अब छत्रसाल के हो गए. धंधेरा वंश के लोग रिश्तेदार थे लेकिन उनसे भी मुखालिफत पक्की थी. बहन मानकुंवारी ने भी औरंगजेब के डर से अपने घर के दरवाजे छत्रसाल के लिए बंद कर लिए. और छत्रसाल के पिता के पारिवारिक पुजारी भानु पंडित ने भी कोई शरण देने से मना कर दिया.
ऐसे वक़्त में छत्रसाल का साथ तीन-चार लोगों ने दिया. एक थी पास के गांव नूना में रहने वाले एक कुम्हार की लड़की सुहासिनी, इतिहास में जिक्र कम है लेकिन सुहासिनी ने छत्रसाल को भाई की तरह माना. शरण दी. दो लोग और थे. एक चंपत राय के साथी लल्लू गड़रिया और महाबली पटेल. महाबली ने छत्रसाल को उनकी मां के दिए हुए जेवर और एक कम उम्र का घोड़ा सौंपा. आगे के वक़्त में महाबली और उन्हीं के गांव दैलवाड़ा के भानु भट्ट, दोनों लोग छत्रसाल के बॉडीगार्ड रहे और सलाहकार भी.
इन कुछ लोगों के स्नेह में छत्रसाल ने करीब साढ़े तीन साल गुजारे और मां बाप को दिए वचन के मुताबिक़ साल 1665 में देवकुमारी से शादी कर ली. इस वक़्त उम्र थी 15 साल.

छत्रसाल मुगलों को करीब से समझना चाहते थे-

देवकुमारी से शादी के करीब डेढ़ साल बाद छत्रसाल ने मुग़ल आर्मी ज्वाइन करने का सोचा. वो उनकी कूटनीति, ताकत और कमजोरियां समझना चाहते थे. साल 1667 के आस-पास छत्रसाल अपने चचेरे भाई बल्दीवान और भाई अंगदराय के साथ मिर्जा जय सिंह से मिले और मुग़ल आर्मी ज्वाइन कर ली. औरंगजेब की निगाह देवगढ के किले पर थी. उसके कहने पर जय सिंह ने बहादुर खान को हमला करने के लिए भेजा. बहादुर खान किला नहीं जीत सका. इधर बीजापुर की लड़ाई में छत्रसाल मुगलों की तरफ़ से लड़ चुके थे और जीत चुके थे. इसलिए बहादुर खान की मदद के लिए देवगढ़ भी भेज दिए गए. यहां भी छत्रसाल की जीत हुई. गंभीर रूप से घायल हुए, लेकिन जीत का सेहरा बंधा बहादुर खान के सिर.
छत्रसाल यूं भी मुग़ल आर्मी में प्रयोग के तौर पर शामिल हुए थे. ऊपर से सम्मान नहीं मिला तो एक दिन सेना छोड़ दी. और आगे की योजना के लिए महाराष्ट्र के छत्रपति शिवाजी से मिले.

छत्रपति शिवाजी से भेंट-

इतिहासकारों के मुताबिक़, एक दिन शिकार खेलने के बहाने छत्रसाल मुगल खेमे से भाग निकले. और भीमा नदी पार करके पत्नी सहित पूना में शिवाजी से मिले. इतिहासकार मानते हैं कि शिवाजी से छत्रसाल की भेंट तब हुई होगी जब शिवाजी औरंगजेब की कैद से भाग निकले थे. छत्रसाल कुछ वक़्त तक पूना में ही शिवाजी के साथ रहे. यहीं उन्होंने शिवाजी से युद्ध की तकनीक और शासन करने की नीतियां सीखीं. बाद में इस सीख का इस्तेमाल छत्रसाल ने बुंदेलखंड में बखूबी किया भी.

छत्रसाल चाहते थे कि वो दक्षिण में ही रहकर शिवाजी के साथ मुगलों से लड़ें. लेकिन शिवाजी दूरदर्शी थे. वह मुगलों के खिलाफ़ लड़ाई को सिर्फ दक्षिण तक सीमित नहीं रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने छत्रसाल से कहा कि, बुंदेलखंड लौट जाइए और मुगलों के खिलाफ़ वहां से लड़ाई का आगाज करिए.

हालांकि इतिहासकार यदुनाथ सरकार कहते हैं कि शिवाजी मुग़ल सेना को डाइवर्ट करके दक्षिण में खुद पर दबाव कम करना चाहते थे. वजह जो भी हो, लेकिन छत्रसाल ने शिवाजी की सलाह मान ली थी.

बुंदेलखंड के लिए लड़ाई का आगाज-

साल 1671, छत्रसाल बुंदेलखंड लौटे. पत्नी थी, एक-दो भरोसे के साथी और मां के दिए जेवर. सामने थे मुगल जिनसे लड़ना था. बुंदेलखंड जीतना था. कहा जाता है कि मां के दिए जेवर बेचकर सेना के लिए साजो-सामान जुटाया. सेना भी कितनी, खुद को मिलाकर पांच घुड़सवार और 25 तलवारबाज. आपने 300 स्पार्टन्स की बहादुरी के किस्से सुने होंगे. ये सिर्फ तीस थे. और लाखों की मुगल फ़ौज से लड़ने निकले थे.

पहला मौक़ा आया जब औरंगजेब ने ओरछा के मंदिरों पर हमला करने के लिए फिदाई खान को भेजा. यहां के राजा सुजान सिंह थे. वही सुजान सिंह जिन्होंने छत्रसाल के पिता की हत्या में मुगलों की मदद की थी. सुजान सिंह की उम्र इस वक़्त 77 साल थी. छत्रसाल से माफी और मदद दोनों मांगी. 8 मई 1670 को फिदाई खान ने ओरछा के मंदिरों पर हमला करता लेकिन धर्मांगद बक्शी और छत्रसाल के सैनिकों ने मुगल सेना को दोनों तरफ़ से घेर लिया. फिदाई खान को वापस भागना पड़ा. तीन दिन बाद वापस लौटा तो दोबारा छत्रसाल अपनी सेना सहित तैयार मिले. दोबारा जंग छिड़ी और फिदाई खान की सेना को भयंकर नुकसान उठाना पड़ा. छत्रसाल की जीत हुई. ये लड़ाई कितनी महत्वपूर्ण है, इसे ऐसे समझिए कि झांसी से करीब 34 मील उत्तर में धूमघाट नाम की जिस दोनों सेनाएं भिडीं उसे आज भी मध्यप्रदेश की हल्दीघाटी कहा जाता है.

धूमघाट पश्चिम की तरफ़ बुंदेलखंड का एंट्री पॉइंट है. यहा औरंगजेब की हार होने के बाद छत्रसाल हीरो बन गए थे. सुजान सिंह की मदद करने की खबर ने भी इलाके में बाकी राजाओं पर अच्छा प्रभाव डाला था. जिसके चलते छत्रसाल के पिता चंपतराय के पुराने साथी और करीब 70 सरदार मुगलों के खिलाफ़ एकसाथ आ गए. लीडरशिप छत्रसाल की.

साल-दो साल गुजरे, छत्रसाल के पांव जम चुके थे. मऊ के आस-पास के इलाकों पर उनका कब्जा हो चुका था. महोबा और मऊ को छत्रसाल ने अपनी सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया. सेना अब मबजूत थी और मुगल खेमों के लिए छत्रसाल फ़िक्र का सबब बन चुके थे.

इस दौरान का एक किस्सा बड़ा चर्चित है-

बांसा के जागीरदार केशवराय दांगी, अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते थे. उन्होंने छत्रसाल को वन-ऑन-वन फाइट के लिए ललकार दिया. लोगों ने मना किया. लेकिन छत्रसाल कहां मानने वाले थे. भिड़ गए और बरछी के हमले से केशवराय को धराशायी कर दिया. केशवराय तो हार गए लेकिन छत्रसाल ने उनकी जागीर बेटे विक्रमजीत को वापस कर दी. इसके बाद एक के बाद एक छत्रसाल जीतते गए. दक्षिण में रायसेन ,उत्तर में कालपी और महोबा तक के इलाके ,पश्चिम में सिरोंज और ग्वालियर और पूर्व में बघेलखंड तक छत्रसाल का इलाका हो गया. कलिंजर के किले पर कब्जा करने के बाद छत्रसाल वापस मऊ लौट आए.

छत्रसाल के गुरु-

स्वामी प्राणनाथ नाम के एक संत छत्रसाल के गुरु थे. पहली बार भेंट पर उन्होंने साम्राज्य विस्तार की प्रेरणा दी थी. उन्हीं के कहने पर छत्रसाल ने पन्ना को अपनी राजधानी बनाया. करीब 25,000 सैनिक हो चुके थे. खुद स्वामी प्राणनाथ कभी-कभी छावनी जाया करते और सैनिकों का हौसला बढाते.

प्राणनाथ के बताए मुताबिक़ छत्रसाल ने विजयी अभियान जारी रखा. पूर्वी बुंदेलखंड अब तक छत्रसाल के कब्जे में आ चुका था. मुग़ल भी छत्रसाल से हार मान चुके थे. मुगलों ने वक़्त-वक़्त पर अपने कई कमांडर भेजे. रोहिल्ला खान, कलिक, मुनव्वर खान, सदरुद्दीन, शेख अनवर, सैयद लतीफ़, बहलोल खान और अब्दुस अहमद वगैरह. लेकिन कोई भी छत्रसाल को हरा नहीं पाया.

साल 1707 में छत्रसाल ने औरंगजेब के साथ संधि कर ली. बदले में औरंगजेब ने छत्रसाल को राजा की उपाधि और 4000 मनसब की पदवी भी दी. इसी साल औरंगजेब की मौत हो गई. और उसके बाद के मुग़ल शासकों से भी छत्रसाल के संबंध साल 1723 तक ठीक-ठाक चले. लेकिन साल 1727 में इलाहाबाद के मुगल सूबेदार मोहम्मद खान बंगश ने बुंदेलखंड पर हमला कर दिया. ये लड़ाई दो साल चली. शुरू में बंगश ने छत्रसाल का बड़ा नुकसान किया. हालांकि अब शिवाजी जीवित नहीं थे और मराठा नेतृत्व पेशवा बाजीराव के हाथों में था. ऐसे में छत्रसाल ने बाजीराव से मदद मांगी. पिता बेटे जैसे सम्बन्ध थे.

छत्रसाल ने बाजीराव को भेजे पत्र में लिखा,

‘क्या आपको पता है बाजीराव, मैं अभी ठीक उसी स्थिति में हूं. जिसमें वो हाथी था, जब मगरमच्छ ने उसके पैर अपने जबड़े में जकड़ लिए थे. मेरा वंश ख़त्म होने की ओर है. आइए, मेरी प्रतिष्ठा बचा लीजिए.’

इस वक़्त छत्रसाल की उम्र 77 की हो चली थी. लेकिन जब बाजीराव युद्ध में शामिल हो गए तो बंगश के पांव उखड गए. उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा. बाजीराव की मदद से छत्रसाल इतना खुश हुए कि राज्य का तीसरा हिस्सा देने का वादा कर दिया. इसके बाद छत्रसाल करीब 4 साल जिए. और 81 की उमर में 4 दिसंबर 1731 को उनका निधन हो गया. छत्रसाल ने अपने 60 साल के योद्धा जीवन में औरंगजेब की भेजी सेनाओं से जितने युद्ध लड़े. सभी में जीत हासिल की. कुल 52 युद्धों में एक भी नहीं हारे.

उनके बारे में बुंदेलखंड में कहा जाता था-

‘इत जमना, उत नर्मदा, इत चंबल उत टोंस.

छत्रसाल सौं लड़न की, रही न काहू हौंस.’

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