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Odisha Train Accident की जांच CBI को सौंपने पर विपक्ष Modi सरकार पर सवाल क्यों उठा रहा है?

क्या 'कवच सिस्टम' इस दुर्घटना को रोक सकता था?

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बालासोर हादसे के बाद की तस्वीर (फोटो: PTI)

रोज़ 2 करोड़ तीस लाख लोग भारतीय रेल में सफर करते हैं. ये आंकड़ा ऑस्ट्रेलिया की आबादी से थोड़ा ही कम है. रेलवे का काम है इन सब लोगों को सुरक्षित रूप से मंज़िल पर पहुंचाना. उस माल को सही समय पर पहुंचाना, जिसपर हमारी अर्थव्यवस्था टिकी है. ये काम हो पाए, तभी कहा जा सकता है कि भारतीय रेलवे में ट्रांसफॉर्मेश्नल चेंज हुआ है. बालासोर में जो हुआ, उसने बदलाव के इसी दावे पर सवाल उठाया है. एक हादसा क्यों हुआ, वो जांच में सामने आ जाएगा, क्योंकि CBI कार्रवाई शुरू हो गई है. दोषियों को सज़ा भी होगी. लेकिन क्या हम इस हादसे से सबक लेते हुए उन चीज़ों पर ध्यान देंगे, जो ये तय कर सकें कि अगर आप पूरे परिवार सहित जब ट्रेन में सोएं तो ये भरोसा रहे कि सुबह मंज़िल पर उतरेंगे.

बालासोर में हुए एक्सीडेंट को करीब 72 घंटे बीत चुके हैं. अब तक 275 लोगों के मौत की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है. जबकि 11 सौ से अधिक लोग जख्मी हैं. 187 शवों की पुष्टि अभी तक नहीं हो पाई है. हादसे के बाद से ट्रैक बंद था. क्योंकि तीन ट्रेनों की आपसी टक्कर ने ट्रैक को काफी नुकसान पहुंचाया था. एक चौथी ट्रेन (मालगाड़ी) भी थी, जो इन तीन ट्रेनों वाले हादसे की चपेट में आई और जहां की तहां खड़ी हो गई. हालांकि रेल कर्मियों ने दिन-रात मेहनत करके  आज सुबह ट्रैक्स पर आवाजाही शुरू पूरी तरह शुरू कर दी.

हादसा कैसे हुआ था, अब तक आपने कई बार सुन लिया होगा. लेकिन एक रीकैप बनता है, ताकि आप आगे आने वाली चीज़ों का संदर्भ समझ पाएं.

ये हादसा हुआ ओडिशा के बालासोर जिले के बहनागा बाजार रेलवे स्टेशन के पास. ये जगह कोलकाता से करीब 280 किलोमीटर और भुवनेश्वर से करीब 170 किलोमीटर दूर है. हादसा जिस रूट पर हुआ वो दक्षिण पूर्व रेलवे जोन का हिस्सा है. डिवीजन है खड़गपुर. हादसे की जगह कुल चार रेल ट्रैक हैं. किनारे-किनारे दो लूप लाइन और बीच दोनों मेन लाइन. लूप लाइन का इस्तेमाल एक ट्रेन को रोककर दूसरी ट्रेन को पास देने के लिए किया जाता है. जबकि मेन लाइन से ट्रेन बिना रुके गुजर जाती हैं.  

शाम के 6 बजकर 55 मिनट. बहनागा स्टेशन से थोड़ा पहले दो मालगाड़ी लूप लाइन पर खड़ी थीं. ताकि मेन लाइन पर यशवंतपुर एक्सप्रेस और कोरोमंडल एक्सप्रेस को पास दिया जा सके. यशवंतपुर एक्सप्रेस, बेंगलुरु से कोलकाता की ओर जा रही थी. जबकि कोरोमंडल एक्सप्रेस हावड़ा से चेन्नई की ओर. यानी दोनों ट्रेने आमने-सामने से आ रही थीं, अलग-अलग लाइन पर. दोनों को अपनी-अपनी लाइन पर सीधे निकलना था. यशवंतपुर एक्सप्रेस 126 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से जा रही थी जबकि कोरोमंडल एक्सप्रेस 128 किलोमीटर की स्पीड से.

रेल अधिकारियों का कहना है कि कोरोमंडल को ग्रीन सिग्नल था. यानी रुकना नहीं था. फुल स्पीड में निकल जाना था. लेकिन इसी बीच सिग्नल की कुछ दिक्कत हुई और कोरोमंडल को लूप लाइन में जाने के लिए सिग्नल मिला. जिसके बाद कोरोमंडल एक्सप्रेस लूप लाइन पर गई और वहां पर खड़ी मालगाड़ी से 128 किलोमीटर प्रति घंटे की स्पीड से टकरा गई. कोरोमंडल एक्सप्रेस का इंजन मालगाड़ी के डिब्बों पर चढ़ गया. कोरोमंडल के डिब्बे चारों तरफ तितर-बितर से होकर फैल गए. और इसी दूसरी मेन लाइन से गुजर रही यशवंतपुर एक्सप्रेस के आखिरी दो डिब्बे भी इसकी चपेट में आ गए.

कोरोमंडल के सिग्नल में  क्या दिक्कत हुई इस पर रेलवे के अधिकारियों ने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया. कहा कि रेलवे सेफ्टी कमिश्नर की जांच चल रही है. अभी प्रथम दृष्टया सिग्नल की ही दिक्कत लग रही है. जांच के बाद ही कुछ कहा जा सकेगा. बीते दिन रेल मंत्री ने कहा था कि दुर्घटना के वजहों और जिम्मेदार लोगों की पहचान कर ली गई है.

केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के मुताबिक हादसे की वजह 'इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग' से जुड़ी हो सकती है. इस बात का वज़न समझने के लिए आपको एक इंटरलॉकिंग पर एक क्रैश कोर्स कराते हैं. अगर ट्रैक पर कोई पहले से कोई ट्रेन हो, तो पीछे से आ रही ट्रेन के पास ज़्यादा ऑप्शन्स नहीं होते. कोई स्टेयरिंग नहीं है, कि आप गाड़ी का रास्ता बदल सकें. सिर्फ ब्रेक लगाए जा सकते हैं, और तब भी गाड़ी रुक जाएगी, ये इसी बात पर निर्भर करेगा कि रफ्तार और वज़न कितना है. माने सेफ्टी की सिर्फ एक गैरंटी हो सकती है- कि एक बार में ट्रैक के एक हिस्से पर एक ही गाड़ी हो.

अगर ट्रेन को अपने रास्ते में पटरियां बदलनी हैं, तो रूट इस तरह से सेट किया जाए, कि जब हमारी ट्रेन निकले, तब उस जगह कोई और ट्रेन न पहुंचे. इसके लिए सिग्नल, ट्रैक और पॉइंट - माने वो कांट जहां से ट्रेन पटरियां बदलती हैं, उन्हें आपस में लॉक किया जाता है. माने सिग्नल तभी मिलेगा, जब रूट क्लीयर होगा. और जब एक गाड़ी के लिए रूट ब्लॉक किया जाएगा, तब किसी और गाड़ी को न सिग्नल दिया जाएगा और न ही ट्रैक और पॉइंट इस तरह से सेट किए जाएंगे, कि अनजाने में कोई गाड़ी वहां आ जाए. इसी प्रॉसेस को कहते हैं इंटरलॉकिंग. ट्रैक, सिग्नल और पॉइंट आपस में बंधे हुए हैं और वो हमेशा साथ काम करते हैं. सिद्धांत के स्तर पर ये एक फूल-प्रूफ सिस्टम माना जाता है. माने इसमें अनायास कोई भूल होने की गुंजाइश नहीं रहती. और इसीलिए पूरी दुनिया में इस्तेमाल किया जाता है. बस तकनीक का फर्क है.

भारत में लंबे समय तक पुराने तरीके से इंटरलॉकिंग की जाती रही. अब रेलवे का फोकस तेज़ी से इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग पर है. इसमें कंप्यूटर सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल होता है. और एक ऑपरेटर अपने सिस्टम पर बैठकर एक बहुत सारे सिग्नल और पॉइंट्स पर काम कर सकता है, रूट सेट कर सकता है. ये एक उन्नत और सुरक्षित सिस्टम है. इसीलिए अगर बालासोर हादसे में इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग को लेकर जांच चल रही है, तो ये एक चिंता का विषय है. क्योंकि बालासोर में जो हुआ, वो इंटरलॉकिंग के सिद्दांत के विपरीत है. गाड़ी को सिग्नल मेन लाइन का मिला, लेकिन पॉइंट लूप लाइन पर सेट था. फिर अचानक सिग्नल वापिस भी ले लिया गया. लेकिन गाड़ी रफ्तार के चलते लूप में चली ही आई. ये ठीक वैसी ही परिस्थिति है, जिससे निपटने के लिए इंटरलॉकिंग की व्यवस्था लाई गई थी.

ये चिंता की बात इसीलिए भी है, क्योंकि कि इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग को लेकर तीन महीने पहले ही चेतावनी दी गई थी. मंत्री जी ने जांच की बात तो कही, लेकिन ये नहीं बताया कि कर्नाटक के हुबली स्थित दक्षिण-पश्चिम रेलवे ज़ोन के मुख्य परिचालन प्रबंधक ने 9 फरवरी को इंटरलॉकिंग सिस्टम की ख़ामियों को लेकर सरकार को पत्र लिखा था. ये बात इंडिया टुडे के सगत राय की रिपोर्ट में दर्ज है.

पत्र में ऐसे ही एक फ़ेल्योर का ज़िक्र था. कर्नाटक के यशवंतपुर जंक्शन से दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन तक चलने वाली संपर्क क्रांति एक्सप्रेस. 8 फरवरी को ट्रेन का सिग्नल फे़ल हो गया था, मगर लोको-पायलट की सतर्कता ने हादसे को टाल दिया. उन्होंने कहा कि इस घटना से पता चलता है कि सिस्टम में गंभीर ख़ामियां हैं. पूरे मामले की जांच होनी चाहिए और जल्द से जल्द इन ख़ामियों को दूर करने के लिए सुधारात्मक क़दम उठाए जाने चाहिए. अब सवाल ये है कि इतनी बड़ी खामी के सामने आने के बाद भी इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया?

बात खामियों की हो रही है तो एक नजर पिछले साल यानी 2022 में संसद में पेश की गई इस रिपोर्ट पर भी डाल लेते हैं. ये रिपोर्ट थी भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक यानी Comptroller and Auditor General (CAG) की.  इसकी जांच रिपोर्ट 'Performance Audit on Derailment in Indian Railways' के मुताबिक़, अप्रैल 2017 से लेकर मार्च 2021 के बीच देश में 217 ऐसे रेल हादसे हुए, जिनमें जान-माल का नुक़सान हुआ. इनमें से हर चार में से लगभग तीन रेल हादसे यानी 75 फीसदी हादसे, ट्रेन के पटरी से उतरने की वजह से हुए. और रिपोर्ट में ये भी कहा गया था कि ट्रेन के पटरी से उतरने की वजह पटरियों के रखरखाव या maintenance से जुड़ी हुई है. रिपोर्ट में और क्या था, बताते हैं. भारतीय रेलवे, ट्रेन हादसों को दो कैटेगरी में बांटता है-

1. Consequential Train Accidents: माने वो रेल हादसे, जिनमें जानमाल को नुक़सान हुआ हो. मसलन किसी की मौत हुई हो. कोई घायल हुआ हो, रेलवे की संपत्ति को नुकसान पहुंचा हो या रेलवे ट्रैफिक में रुकावट हुई हो.

2. दूसरा है Other Train Accidents, जिनमें ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त तो हुई. मगर कोई नुक़सान नहीं हुआ. स्थिति क़ाबू में आ गई.

> CAG की रिपोर्ट में बताया गया कि अप्रैल 2017 से लेकर मार्च 2021 तक, कुल दो हज़ार 17 रेल हादसे हुए.
> 217 - consequential train accidents
> और 1800, अन्य ट्रेन हादसे.
> इन 217 consequential accidents में 163 हादसे ट्रेन के पटरी से उतरने की वजह से हुए थे. मतलब लगभग 75%.
> अन्य ट्रेन दुर्घटनाओं में भी 68% यानी 1229 हादसे डिरेलमेंट के कारण हुए.

ये तो आप समझ ही गए कि ट्रेन हादसों की बड़ी वजह पटरी से उतरना है. मगर शायद हमारे नीति-नियंताओं को ये समझ नहीं आया. हम ये क्यों कह रहे हैं? क्योंकि CAG की रिपोर्ट में ये भी दर्ज था कि ट्रैक के मेनटेनेंस कामों के लिए जो फ़ंड्स आवंटित होते हैं, उसमें कटौती हुई है. साल 2018-19 में ट्रैक की मरम्मत और नए ट्रैक बिछाने के लिए 9 हज़ार 6 सौ 7 करोड़ रुपए अलॉट किए गए थे. लेकिन 2019-20 में इसे घटाकर 7 हज़ार 4 सौ 17 करोड़ रुपये कर दिया गया. साथ ही, आवंटित राशि का भी पूरा इस्तेमाल नहीं किया गया.

राशि तो इस्तेमाल नहीं ही हुई, इसके अलावा हादसों की जांच का रवैया भी "सरकारी" ही था. क़ायदे के अनुसार, जांच समिति को दुर्घटना के चार दिनों के अंदर दुर्घटना की जांच करनी होती है, 7 दिन के अंदर जांच रिपोर्ट सौंपनी होती है और अधिकारी को दस दिनों के अंदर स्वीकार करनी होती है. कुल 63% मामलों में इन्क्वायरी रिपोर्ट्स समय पर सौंपे नहीं गई और 49% मामलों में अधिकारी ने समय के अंदर रिपोर्ट स्वीकारी नहीं.

सवाल रेलवे के सुरक्षा उपायों पर उठ रहे हैं तो एक आंकड़ा भी देखते जाइए. इंडिया टुडे में छपी मिलन शर्मा की रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण पूर्व रेलवे, जहां हादसा हुआ वहां एंटी कोलिजन सिस्टम के लिए आवंटित बजट में से एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया. रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण पूर्व रेलवे को एंटी ट्रेन कोलिजन सिस्टम के लिए 468.9 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था. ये पैसा साल 2020-21 में कम आवाजाही वाले 1563 RKM (रूट किलोमीटर ) के लिए था. लेकिन मार्च 2022 तक इसमें से एक भी रूपया खर्च नहीं किया गया था.

इसी जोन के दूसरे सेक्शन के लिए भी ट्रेनों को टक्कर से बचाने के लिए 1563 RKM के लिए 312 करोड़ रुपए सैंक्शन किए गए थे. मार्च 2022 तक इसमें से भी एक रुपए खर्च नहीं किए गए थे. इसी तरह से 2021-22 में 162.9 करोड़ रुपए दक्षिण पूर्व रेलवे को मिले, ताकि ज़्यादा दबाव वाले रूट्स पर ऑटोमैटिक सिग्नल ब्लॉक और सेंट्रलाइज्ड ट्रैफिक कंट्रोल स्थापित किया जा सके. लेकिन एक भी पैसा इसमें से भी खर्च नहीं किया गया. रेल मंत्रालय के सोर्सेज के हवाले से रिपोर्ट में लिखा गया है कि इस क्षेत्र में सुरक्षा उपायों के लिए अभी तक कोई टेंडर नहीं निकाला गया.

बात को बार-बार इस दिशा में घुमाया जा रहा है कि ये हादसा कवच या किसी और तकनीक के चलते रोकना मुश्किल था. लेकिन ये आंकड़ें आपको बता रहे हैं कि पांच साल में रेलवे में सेफ्टी पर 1 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का वादा करने वाली सरकार ने पैसा कितना जारी किया. और जो पैसा मिल भी गया, उसमें से भी कितना कम खर्च हो पाया. यहां टेंडर ही नहीं निकल पा रहा है. ये बात सरकार और रेल अधिकारी - दोनों के एटीट्यूड पर सवाल खड़े करती है. सरकार के दावों पर आएंगे लेकिन पहले समझ लेते हैं कि कवच सिस्टम है क्या?

कवच एक ऑटोमैटिक ट्रेन प्रोटेक्शन सिस्टम है. जिसे भारतीय रेलवे के रिसर्च डिजाइन एंड स्टैंडर्ड ऑर्गनाइजेशन (RDSO) ने डेवलप किया है. इस पर काम 2012 में शुरू हुआ था. तब इस प्रोजेक्ट का नाम Train Collision Avoidance System (TCAS) था.

ये सिस्टम कई इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज का सेट है. जिन्हें ट्रेन और ट्रैक पर एक-एक किलोमीटर की दूरी पर इंस्टॉल किया जाता है. सिग्नल आने से पहले ही लोकोपायलट को मालूम चल जाता है कि वो ग्रीन है, रेड या डबल यलो. जैसे ही कोई लोको पायलट किसी सिग्नल को जंप करता है कवच एक्टिव हो जाता है. ये लोको पायलट को अलर्ट करता है और ट्रेन के ब्रेक का कंट्रोल हासिल कर लेता है. जैसे ही सिस्टम को पता चलता है कि ट्रैक पर दूसरी ट्रेन आ रही है वो पहली ट्रेन के मूवमेंट को एक निश्चित दूरी पर रोक देता है. 4 मार्च 2022 को खुद रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने एक लोकोमोटिव इंजन में बैठकर इसका परीक्षण किया था. ये टेस्टिंग सफल रही थी और 200 मीटर पहले ही ट्रेन रुक गई थी. तो यहां सवाल अब ये है कि कवच का स्टेटस क्या है, कहां-कहां ये इस्तेमाल में है और क्या ये जिस रूट पर दुर्घटना हुई वहां इंस्टॉल था? वैसे रेलवे एक्सपर्ट सुधांशू मणि का कहना है कि कवच होता, तब भी बालासोर हादसे को रोकना बहुत मुश्किल था.

फिलहाल रेल मंत्री ने सीबीआई से जांच कराने की बात कही है. हालांकि, इस पर कांग्रेस और TMC ने सवाल उठाए हैं. कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर कुछ बिंदुओं पर सवाल पूछा है, कि CBI क्रिमिनल केसेज़ की जांच करती है. रेल दुर्घटनाओं की नहीं.

अब इस पूरे मसले में एक बात आती है, कारकूनों की. कामगारों की. 1 दिसंबर 2022 तक, भारतीय रेलवे में क़रीब सवा तीन लाख अराजपत्रित पद (non-gazetted posts) ख़ाली पड़े हुए थे. यानी रेलवे में कामगारों की भारी कमी थी. और, ये ख़ुद अश्विनी वैष्णव ने ही बताया था. राज्य सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में.
> northern zone में 38 हज़ार 754
> वेस्टर्न ज़ोन में 30 हज़ार 476,
> ईस्टर्न ज़ोन में 30 हज़ार 141,
> सेंट्रल ज़ोन 28 हज़ार 650 पद ख़ाली हैं.

इसमें ग़ौर करने वाली बात ये है कि इनमें से ज़्यादातर वेकेंसियां ऑपरेशन और मेनटेनेंस से जुड़ी हुई हैं. इसीलिए कहा जा रहा है कि भले बालासोर हादसे की वजह क्रिमिनल एक्ट में खोजी जाएं, लेकिन रेलवे के पूरे सिस्टम में सुधार की आवश्यकता है.

इन वेकेंसियों को न भरे जाने के विरोध में सेंट्रल रेलवे के राष्ट्रीय रेलवे मजदूर संघ (NRMU) ने छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर विरोध प्रदर्शन भी किया था. इसी प्रदर्शन में कामगारों ने बताया था कि पद नहीं भर रहे हैं और इसी वजह से कर्मचारियों को ओवरटाइम काम करना पड़ रहा है. मुंबई स्टेशन के टिकट बुकिंग कर्मचारी ने हड़ताल के दौरान मीडिया को बताया था, "मैं लगातार 16 घंटे तक डबल शिफ़्ट में काम कर रहा हूं, क्योंकि हमारे पास रिलीव करने के लिए स्टाफ नहीं है. स्टाफ़ की कमी के कारण मैं छुट्टी भी नहीं ले पा रहा हूं."

सरकार का रिस्पॉन्स क्या? कि पद भरने की प्रक्रिया सतत है, चल रही है.
द हिंदू में हादसे से एक दिन पहले यानी 1 जून को छपी एक रिपोर्ट में लोको पायलट्स की कमी और उन पर काम के ओवरलोड को रेल दुर्घटनाओं के पीछे की बड़ी वजह बताई गई थी. रिपोर्ट के मुताबिक इस साल के जून में रेलवे बोर्ड ने भी दुर्घटनाओं को रिव्यू करते हुए कहा था कि खाली पदों को जल्द से जल्द भरा जाए. साथ ही सभी ज़ोन्स के जनरल मैनेजर्स को निर्देश दिया था कि वर्कफ़ोर्स और काम के घंटों का ख़याल रखें. किसी भी सूरत में कोई कर्मचारी 12 घंटों से ज़्यादा काम नहीं करेगा.

अगर सरकार को पिछले साल से मालूम है कि पटरियों का मेनटेनेंस की वजह से ज़्यादातर दुर्घटनाएं हुई हैं, तो सरकार ने क्या किया? तीन महीने पहले रेलवे का एक क़द्दावर कर्मचारी उन्हें पत्र लिखता है, कि सिग्नल सिस्टम में फ़ॉल्ट है. सरकार ने इस जानकारी का क्या किया? कामगारों की हालत ख़राब है.. सरकार ख़ाली पद क्यों नहीं भर रही है? हमने सत्ताधीशों से वो सारे सवाल पूछने की कोशिश की है, जो पूछे जाने चाहिए. बार बार पूछे जाने चाहिए. लेकिन इस मौक़े पर हम पहले तो उन परिवारों को सांत्वना देना चाहते हैं, जिनका घर का कोई कहीं से निकल कर कहीं पहुंचना चाहता था.. और नहीं पहुंच पाया. सैकड़ों लोगों की जान गई, हज़ार से ज़्यादा घायल हैं. दर्द भरी तस्वीरें और कहानियां सामने आईं.

कहीं कोई पिता लाशों के ढेर में अपने बेटे को तलाशता दिखा, तो किसी का पूरा परिवार ही इस दुनिया से चला गया. पटरियों पर बिखरे हुए सामान की तस्वीरें आईं. कहीं एक पांव का जूता पड़ा दिखा, तो कहीं एक बैग. बैग जो खुला हुआ था. खिलौने जो बिखरे हुए थे. पानी की बोतल, जो आधी ख़ाली थी. इन्हीं बिखरी चीज़ों में एक प्रेम कविता भी बिखरी मिली. रंग बिरंगी नोटबुक. प्रेम कविताओं से भरी हुई. पटरियों किनारे पड़े इस नोटबुक के जिस खुले पन्ने पर रिपोर्टर की नजर पड़ी उस पर बना था लाल, नीला, हरा और गुलाबी रंग के एक फूल का चित्र और बंगाली भाषा में लिखी थी एक कविता. --

‘ऑल्पो ऑल्पो मेघ थेके बृष्टि श्रष्टि होई. चोट्टो चोट्टो गोलपो थेके भालोबाशा श्रृष्टि होई.’

इसका तर्जुमा है,

'जैसे छोटे-छोटे बादलों से बारिश होती है, वैसे ही छोटी-छोटी कहानियां प्रेम को जन्म देती हैं.'

इस त्रासदी में भी हमने निस्वार्थ प्रेम की कहानियां देखीं. किसी ने घायलों को खाना-पानी पहुंचाया, किसी ने उनको मुफ़्त में दवाएं पहुंचाईं. हमने बालासोर के सौभाग्य सारंगी को देखा. 25 साल के सारंगी दुर्घटना वाली जगह के पास वाले गांव में दवाखाना चलाते हैं. हादसे के तुरंत बाद सारंगी ने घायलों को दर्द निवारक दवा पहुंचाई. आठ हज़ार रुपये के टेटनस इंजेक्शन मुफ्त में बांट दिए. हमने 64 साल के रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी नीलांबर बेहरा और उनके परिवार को भी देखा, जिन्होंने लगभग 50 बच्चों को खाना खिलाया और उन्हें अपने घर पर रहने की जगह दी. हमने उन स्थानीय किराना दुकानदारों को देखा जिन्होंने खाने-पीने की चीजें, पानी की बोतलें मुफ्त में बांट दी.

हमने बालासोर मेडिकल कॉलेज में लगी उस असंख्य भीड़ को भी देखा जो आधी रात ब्ल्ड बैंक के सामने क़तार में खड़ी थी. कि जो बन पड़े, वो कर दिया जाए. इन मर रहे लोगों को बचा लिया जाए. जिन लोगों ने इस हादसे में अपनों को खोया है, हमारी संवेदनाएं उनके साथ है. उम्मीद करते हैं कि बालासोर से सबक लिया जाएगा और चीजें बदलेंगी. 

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