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जानिए INS विक्रांत के पुनर्जन्म की पूरी कहानी

यह भारत के समुद्री इतिहास में बनाया गया अब तक का सबसे बड़ा युद्धपोत है.

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आईएएनएस विक्रांत (फोटो: पीटीआई)

''अब से कुछ घंटों के बाद मैं विराम लूंगा. लेकिन बीते 36 सालों में अपने बेड़े और अपनी नौसेना के लिए मैंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देकर नाम कमाया. तभी तो मुझे ''लेडी ऑफ खुलना फेम'' कहा जाता है. अब मेरी विदाई की बेला है. आप सबकी शुभकामनाओं के साथ, मैं अपनी ध्वजा उतारने जा रहा हूं. मैं उम्मीद करता हूं कि जल्द ही विक्रांत फिर आपके साथ होगा.''

जो आपने सुना, वो एक जहाज़ के आखिरी शब्द थे. कोई आम जहाज़ नहीं, भारत का पहला विमानवाहक पोत. माने एयरक्राफ्ट कैरियर - INS विक्रांत. 1971 की लड़ाई के इस हीरो का सेवा में आखिरी दिन था 31 जनवरी, 1997. इस रोज़ जहाज़ के कैप्टन, कमांडर एच एस रावत ने विक्रांत से जो आखिरी संदेश भेजा था, उसी का एक हिस्सा हमने आपको अभी बताया. दुनिया भर की नौसेनाओं में मान्यता है कि जहाज़ कभी मरते नहीं. क्योंकि समंदर का खारा पानी और दुश्मन का बारूद लोहे को तो गला सकता है, लेकिन जहाज़ की आत्मा को छू भी नहीं सकता. वो अजर, अमर है. इसीलिए जहाज़ पुनर्जन्म लेते हैं. ये बस कहने की बातें होतीं, तो कमांडर रावत की बात 25 साल बाद सच न होती.

INS विक्रांत अब लौट आया है. और क्या खूब लौटा है. आज कोच्ची में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे आधिकारिक रूप से नौसेना में कमीशन कर दिया. साथ में नौसेना के नए निशान का अनावरण भी किया. आज नौसेना को अगर एक नया जहाज़ मिला है, तो उसके साथ पूरे देश को वो आत्मविश्वास भी हासिल हुआ है, कि विमानवाहक पोत जैसे जटिल जहाज़ की न सिर्फ कल्पना कर सकता है, बल्कि उसे अपने बूते बना भी सकता है.

भूगोल की किताब में आपने एक शब्द पढ़ा होगा -लैंडलॉक्ड. ऐसे देश, जो चारों तरफ से किसी दूसरे देश से घिरे हुए हैं. मिसाल के लिए नेपाल या अफगानिस्तान. व्यापार और यातायात के लिए पूरी तरह से पड़ोसी देशों पर निर्भर. इसीलिए जिन देशों को समुद्री सीमा की एक छोटी सी पट्टी भी मिल जाती है, वो उसे अपना सबसे बड़ा असेट मानते हैं. भारत की किस्मत इस मामले में बड़ी दमदार है. हमारे भूगोल ने हमें तीन दिशाओं में समुद्री सीमाएं दी हैं. सिंधु घाटी सभ्यता के ज़माने से भारत दुनिया भर के साथ समंदर के रास्ते व्यापार करता रहा, आज भी करता है. हिंद महासागर को तो लंबे वक्त तक हमारा बैकयार्ड ही कह दिया जाता था. माने अनंत तक पसरे समुद्र में हमारी ठसक सभी मानते थे. अब इतना तो आप समझते ही हैं कि ठसक उसी की मानी जाती है, जिसके पास ताकत हो. और समंदर पर ताकत के इज़ाहर के लिए ज़रूरी है नौसेना.

आधुनिक नौसेनाएं सिर्फ समंदर की सतह पर तैनात नहीं रहतीं. वो समंदर के भीतर भी पहरा देती हैं और समंदर के ऊपर पसरे आसमान में भी. आसमान में पहरा देने के लिए चाहिए लड़ाकू विमान. तो आपने विमान ले लिए. लेकिन एक समस्या अब भी बरकरार रहेगी. समंदर के ठीक किनारे से उड़ान भरने के बाद भी लड़ाकू विमान एक सीमित दूरी तक ही पहरा दे पाएंगे. अब अगर दुश्मन इस सीमित दूरी के बाहर हो, तो क्या किया जा सकता है? जवाब है - एक तैरती हुई एयरफील्ड. इसी तैरती हुई एयरफील्ड को कहा जाता है विमानवाहक पोत या एयरक्राफ्ट कैरियर.

दुनिया में आपका दुश्मन कहीं भी जाकर छिप जाए. एयरक्राफ्ट कैरियर की पहुंच से बाहर नहीं होगा. इसीलिए अपने बैकयार्ड की रखवाली के लिए भारत ने 6 दशक पहले ही नौसेना में एयरक्राफ्ट कैरियर्स को शामिल कर लिया था. हमारा पहला एयरक्राफ्ट कैरियर था INS विक्रांत. भारत ने इसे ब्रिटेन से खरीदा था और 1961 में विजय लक्ष्मी पंडित ने इसे कमीशन किया था. 10 साल बाद पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया. 1971 के इस युद्ध में INS विक्रांत और उसके हवाई बेड़े ने पूर्वी पाकिस्तान की बाड़ेबंदी कर दी थी. इसके चलते पश्चिमी पाकिस्तान की फौज समंदर के रास्ते कभी पूर्वी पाकिस्तान नहीं पहुंच पाई. उलटा विक्रांत से उड़ान भरने वाले सी हैरियर और आलीज़े लड़ाकू विमानों ने पूर्वी पाकिस्तान में घुस-घुसकर पाकिस्तानी फौज के ठिकानों पर बम गिराए. इनमें खुलना भी शामिल था. 

याद कीजिए कमांडर रावत का वो आखिरी संदेश, जिसके बारे में हमने आपको शुरुआत में बताया था. विक्रांत और उसके क्रू के इस शानदार प्रदर्शन के चलते ही उसे ''लेडी ऑफ खुलना फेम'' कहा गया. आप पूछेंगे कि विक्रांत तो पुरुष का नाम है, तो लेडी क्यों. तो इसका जवाब ये है कि दुनियाभर की नौसेनाएं जहाज़ियों की पुरानी परंपराओं और मान्यताओं में आस्था रखती हैं. और मान्यता ये है कि जहाज़ का नाम चाहे जो हो, उसका लिंग माने जेंडर हमेशा स्त्रीलिंग होता है. इसे जहाज़ी लकी मानते हैं. और विक्रांत जैसे विशाल जहाज़ों को ''मदर शिप'' कहा जाता है.

जैसे कि हमने आपको बताया, INS विक्रांत 1997 में डीकमीशन हो गया था. तब हमारे पास एक दूसरा एयरक्राफ्ट कैरियर था - INS विराट, जिसे हमने 1987 में ब्रिटेन से खरीदा था. विराट को खरीदते हुए भारत ने उसमें बहुत से सुधार करवाए थे. लेकिन विराट पहले ही 26 साल ब्रिटेन की नौसेना में तैनात रह चुका था. इसीलिए भारत को जल्द एक नए और उन्नत एयरक्राफ्ट कैरियर की ज़रूरत थी. अंदरखाने रूस से एक एयरक्राफ्ट कैरियर खरीदने पर विचार शुरू हो गया था. लेकिन हम एक बड़े सवाल का जवाब भी खोज रहे थे. कि आखिर हम कब तक विदेश से आयात के भरोसे रहेंगे?

समस्या दो स्तर पर थी. पहली तो ये कि पैसा देकर जहाज़ भले खरीदे जा सकते हैं, लेकिन तकनीक नहीं. एक बार कोई विदेशी हथियार या सिस्टम ले लीजिए, आम मेंटेनेंस से लेकर अपग्रेड तक के लिए किसी दूसरे देश की तरफ देखना पड़ेगा. फिर दूसरी समस्या थी संसाधनों की. एयरक्राफ्ट कैरियर दुनिया में सबसे जटिल हथियार माना जाता है. इसीलिए इसकी कीमत भी सबसे ज़्यादा होती है. और भारत जैसे विकासशील देश के पास इतने पैसे थे नहीं कि हम जब चाहें, इन जहाज़ों को खरीदते रहें. समाधान का एक ही तरीका था - भारत को अपने बूते एक विमानवाहक पोत बनाना था. और तब जून 1999 में रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस के दफ्तर ने एक पुरानी फाइल को झाड़-फूंककर निकाला. दरअसल 1989 से ही एक स्वदेशी एयरक्राफ्ट कैरियर बनाने की बात चल रही थी. डिज़ाइन का काम शुरू भी हो गया था. लेकिन 1991 आते आते देश की माली हालत खराब हो गई. इतनी, कि सरकार ने नौसेना से एक छोटे जहाज़ का डिज़ाइन बनाने को कह दिया. लेकिन राजनैतिक अस्थिरता और खराब माली हालत के चलते बात टलती रही. इसीलिए जब अटल बिहारी वाजयेपी की NDA सरकार ने एक एयरक्राफ्ट कैरियर बनाने के लिए कैबिनेट मंज़ूरी दी, तो वो फैसला ऐतिहासिक था.

इसे नाम दिया गया प्रोजेक्ट 71. और जहाज़ का नाम रखा गया एयर डिफेंस शिप ADS. ADS को आप एयरक्राफ्ट कैरियर का छोटा भाई कह सकते हैं. आज जो INS विक्रांत आपको नज़र आ रहा है, उससे करीब एक तिहाई छोटे जहाज़ की कल्पना थी. और इस कल्पना को साकार करने का काम दिया गया केरल के कोच्चि में स्थित कोचिन शिपयार्ड लिमिटेड CSL को. CSL ने सैंकड़ों जहाज़ बनाए थे, लेकिन ADS जैसा नहीं. आप पूछेंगे कि भैया ये तो होता ही है. कोई भी नया काम शुरू करो, तो वो बड़ा ही लगता है. लेकिन ये काम कितना बड़ा है, एक उदाहरण से समझिए.

हो सकता है कि आपमें से कुछ लोगों ने वायुसेना स्टेशन देखे हों. न देखे हों, तो हम बता देते हैं कि वो कैसे होते हैं. सबसे ज़रूरी होता है एक रनवे, जहां से विमान उड़ान भरते हैं, फिर लैंड करते हैं. इसके बाद चाहिए एक कंट्रोल टावर, जहां से फाइटर जेट्स को नियंत्रित किया जा सके. इसके बाद चाहिए लड़ाकू विमानों को रखने के लिए बंकर, उनकी मरम्मत के लिए एक हैंगर, पायलट्स के लिए रहने के लिए क्वार्टर. ईंधन और हथियार रखने के लिए सुरक्षित भंडार. और भी ढेर सारा तामझाम होता है. इसीलिए वायुसेना स्टेशन किसी छोटे शहर जितने बड़े होते हैं. अब सोचिए, अगर आपसे कहा जाए कि इस छोटे से शहर को घड़ी करो, और एक जहाज़ पर लाद दो. CSL को भारत सरकार ने यही काम दिया था.

CSL के पास न तो इतनी जगह थी, और न ऐसी तकनीक कि वो ये जहाज़ बना पाते. लेकिन CSL, DRDO और नौसेना के इंजीनियरों ने हार नहीं मानी. हेलमेट का फीता कसा और शुरू से शुरू किया. पहले उस यार्ड माने गोदी का विस्तार किया, जहां जहाज़ पर काम किया गया. फिर वो मशीनें जुटाईं, जिनका इस्तेमाल होना था. DRDO और स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने एक खास तरह का स्टील बनाया, जिसका इस्तेमाल युद्धपोतों में होता है. इसे हम कहते हैं वारशिप ग्रेड स्टील. जैसा हमने बताया, बाज़ार में सामान मिल जाता है, कौशल नहीं मिलता. ADS में जिस तरह की वेल्डिंग होनी थी, उसके लिए भी CSL ने कई प्रयोग किए. तब जाकर बात बनी. तिसपर पांच साल के भीतर ADS का डिज़ाइन इतना बदल गया था, कि उसे नौसेना ने इंडीजीनस एयर क्राफ्ट कैरियर IAC 1 कहना शुरू कर दिया था. माने स्वदेशी विमानवाहक पोत. माने अब CSL की ब्रीफ बदल गई थी. उन्हें छोटा नहीं, बड़ा भाई बनाना था.

खैर, अप्रैल 2005 में IAC 1 का निर्माण शुरू हुआ और ये ड्राइंग बोर्ड पर चस्पा डिज़ाइन से वास्तविकता में बदलने लगा. किसी भी जहाज़ के जीवन में कील लेयिंग सेरेमनी का बड़ा महत्व होता है. कील को आप जहाज़ की रीढ़ की तरह समझ सकते हैं. इसका काम शुरू होता है, तब एक समारोह का आयोजन किया जाता है. IAC 1 की कील लेयिंग हुई थी 28 फरवरी 2009 को. चूंकि भारत ने कभी एयरक्राफ्ट कैरियर बनाया नहीं था, इसीलिए कुछ उपकरण हमने आयात किये. मिसाल के लिए जहाज़ के इंजन. इन्हें अमेरिकी कंपनी जनरल इलेक्टिक ने बनाया है. और ये टरबाइन इंजन हैं. मतलब वैसे ही इंजन, जैसे हवाई जहाज़ में लगते हैं. लेकिन ये बहुत बड़े टरबाइन हैं. इसके अलावा जहाज़ पर जो हवाई अड्डा तैयार किया जाएगा, मसल टेक ऑफ और लैंडिंग के लिए कंट्रोल्स, वो रूस से आयात किया जा रहा है. इसे हम कहते हैं एविएशन कॉम्पलेक्स. जहाज़ पर लगने वाला एक रडार यूरोपियन कंपनी लियोनार्डो से लिया गया.

बावजूद इसके, IAC 1 को बनाने में खर्च हुए 20 हज़ार करोड़ का तकरीबन 80 फीसदी हिस्सा भारतीय कंपनियों के पास ही पहुंचा. क्योंकि जहाज़ का ज़्यादातर काम भारत की ही सरकारी और निजी कंपनियों को दिया गया - मिसाल के लिए भेल, लार्सन एंड ट्यूब्रो, किर्लोस्कर आदि. अगस्त 2013 में IAC 1 को लॉन्च कर दिया गया. माने बुनियादी ढांचा तैयार हो गया था और ये तैरने लगा. इसके बाद आगे का काम शुरू हुआ, जो 9 साल और चला.  

17 साल लगे, कई डेडलाइन मिस हुईं. लेकिन जब 28 जुलाई 2022 को ये नौसेना को डिलिवर किया गया, तब भारत ही नहीं पूरी दुनिया ने इसे नज़र भरकर देखा. सारा लाव लश्कर लेकर इसका वज़न बैठता है 43 हज़ार टन. 1600 नौसैनिक और अफसरों के रहने के लिए ढाई हज़ार से ज़्यादा कंपार्टमेंट. और इस बार महिला नौसैनिकों के लिए भी सुविधाएं जुटाई गई हैं. कोई एमरजेंसी हो जाए, तो 16 बेड का अस्पताल भी है, जहां डेंटिस्ट से लेकर ICU तक की सुविधाएं हैं. जहाज़ चलाने वालों का पेट भरा रहे, इसके लिए एक मैकेनाइज़्ड किचन भी है, जहां 3 हज़ार रोटी हर घंटे बनाई जा सकती हैं. इन्हीं सारी सुविधाओं के साथ IAC 1 को INS विक्रांत के रूप में कमीशन कर दिया गया है.

अब आप पूछेंगे कि एयरक्राफ्ट कैरियर की तो खूब बात हुई, लेकिन एयरक्राफ्ट कौन कौनसे होंगे. तो जानिए कि विक्रांत पर 30 एयरक्राफ्ट तैनात किये जा सकते हैं. जिनमें मिग 29 K लड़ाकू विमान होंगे, अमेरिका से हाल में लिये गए MH 60 R हेलिकॉप्टर होंगे, स्वदेशी हेलिकॉप्टर ध्रुव होगा और रूसी हेलिकॉप्टर कामोव 31 भी होगा. ये सब मिलकर हवाई हमला कर सकते हैं, दुश्मन के हवाई जहाज़ों का उड़ान भरते ही पता लगा सकते हैं. हवा से पानी के सतह के नीचे चल रही पनडुब्बी को भी निशाना बना सकते हैं. अब इतना सारा तामझाम एक ही जहाज़ पर तैनात होगा, तो सेक्योरिटी का भी इंतज़ाम करना होगा. इसीलिए विक्रांत समंदर में कभी अकेला नहीं उतरेगा. उसके साथ दूसरे जहाज़ और पनडुब्बी साथ चलेंगे. अगले साल के मध्य से विक्रांत से मिग 29 K उड़ान भरने लगेंगे. भारत विक्रांत के लिए FA 18 और रफाल मरीन लेने पर भी विचार कर रहा है. ये भी संभव है कि स्वदेशी विमान विक्रांत से उड़ान भरें, लेकिन इसमें अभी समय है.

इस मुबारक मौके पर भारतीय नौसेना के नए निशान यानी इसाइनिया का भी अनावरण हुआ. सो आज हम सबने इस नए निशान को विक्रांत पर लहराते देखा. इस नए चिह्न के लिए प्रेरणा छत्रपति शिवाजी से प्रेरणा ली गई, जिन्होंने अपनी नौसना बनाई थी. कान्होजी आंगड़े मराठों के माने हुए नेवल कमांडर थे. आज प्रधानमंत्री ने इस विरासत का भी उल्लेख किया.

दुनिया में जितने देश महाशक्ति कहलाए या बनने का इरादा रखते हैं, उन्होंने हमेशा नौसेना को मज़बूत करने पर ध्यान दिया. अमेरिका और चीन के उदाहरण हमारे सामने हैं. अब भारत भी इस तरफ अपने कदम बढ़ा रहा है. समस्या है संसाधनों की. भारत एयरक्राफ्ट कैरियर्स और पनडुब्बियों में से किसी एक को चुनने को मजबूर है. दिवंगत जनरल बिपिन रावत ने ये बात साफ भी की थी कि नौसेना को पनडुब्बियों पर ध्यान लगाना चाहिए. इस बहस का फिलहाल कोई अंत नज़र नहीं आता. लेकिन आज का दिन बहस का नहीं है. आज का दिन उत्सव का है. आज का दिन विक्रांत का है. जिसका ध्येय वाक्य है - जयेम सं युधि स्पृध. माने जो मुझसे लड़ते हैं, मैं उन्हें जीत लेता हूं. इस मौके पर नौसेना और पूरे देश को बधाई. जय हिंद.

वीडियो: PM मोदी ने जिस INS विक्रांत को नौसेना में शामिल किया, उसकी असली खूबी ये है