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सिद्दारमैया, डीके शिवकुमार या कोई और...कर्नाटक में कांग्रेस जीती तो कौन सा नेता खेल करेगा?

कर्नाटक में कांग्रेस का पूरा इतिहास.

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कर्नाटक में 13 मई को नतीजे आएंगे. (फाइल फोटो- PTI)

अब तक आए ओपिनियन पोल तो यही कह रहे हैं कि कर्नाटक में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो रही है. अगर ओपिनियन पोल सही साबित हुए तो बीजेपी एक बहुत महत्वपूर्ण समय में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राज्य में सत्ता से बाहर हो जाएगी . लेकिन कांग्रेस अगर चुनाव जीत भी गई तो उसके सामने कई और चुनौतियां मुंह बाए खड़ी रहेंगी. राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि असली अग्नि परीक्षा तो नतीजे आने के बाद शुरू होगी.  सबसे बड़ी चुनौती होगी ये तय करना कि कांग्रेस मुख्यमंत्री किसे बनाएगी. कहीं ऐसा न हो कि कर्नाटक में भी राजस्थान जैसा सियासी ड्रामा हो जाए. अशोक गहलोत और सचिन पायलट की तरह ही भिड़ंत सिद्दारमैया और डीके शिवकुमार में न हो जाए. कर्नाटक में कांग्रेस के ये दोनों ही क़द्दावर नेता मुख्यमंत्री की रेस में हैं. और खुद को सबसे आगे मान रहे हैं.

लेकिन मुश्किलें इतनी भर होतीं तो कहना ही क्या था? एक और किरदार है जिसने दशकों तक मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए इंतजार किया. पूरी जवानी पार्टी में खपाने के बाद भी ये पद अब तक उस मौक़ा मिला नहीं. लेकिन इस बार वो नेता कांग्रेस के सबसे शक्तिशाली नेताओं में शुमार है. कौन है वो नेता? चुनाव से पहले कांग्रेसी खेमे में चल क्या रहा है? और चुनाव के बाद अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री की रेस कौन जीतेगा? इन सारे सवालों के जवाब हम तलाशने की कोशिश करेंगे. लेकिन वर्तमान को समझने से पहले इतिहास को समझना ज़रूरी होता है. तो आज़ादी के बाद से कर्नाटक में कांग्रेस की राजनीति पर एक नज़र.

आज़ादी के बाद

आज़ादी के बाद मैसूर के महाराजा अपने स्टेट के लिए अलग संविधान बनाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने 29 अक्तूबर 1947 को एक अलग संविधान सभा का गठन कर दिया. ये वो दौर था जब अंग्रेज़ भारत छोड़ कर गए ही थे. पूरा देश आज़ादी की सांस ले रहा था. इस नए दौर का उत्साह चरम पर था. इसलिए जब मैसूर संविधान सभा की बैठक हुई तो ज़्यादातर सदस्यों ने कहा कि भारत की संविधान सभा को ही मैसूर के लिए भी संविधान बनाना चाहिए. महाराजा को सदस्यों की ये मांग माननी पड़ी. 16 दिसंबर 1949 को मैसूर संविधान सभा को ही तदर्थ विधानसभा या प्रोविज़नल असेम्बली में बदल दिया गया, ताकि नए संविधान के तहत राज्य में चुनाव करवाए जा सकें.

एक दिलचस्प तथ्य ये है कि 1947 में देश आज़ाद तो हो गया, लेकिन सरकारें चुनाव से नहीं बनी. बल्कि उन्हें नियुक्त किया गया था. जिसे आज कर्नाटक कहा जाता है, तब वो इलाक़ा मैसूर के तहत आता था. क्यासमबल्ली चेंगलराया रेड्डी उस वक़्त मैसूर में कांग्रेस के प्रभावशाली नेता हुआ करते थे. उन्होंने मैसूर में स्थिर सरकार स्थापित करने के लिए मैसूर चलो आंदोलन चलाया था. जवाहललाल नेहरू ने के.सी रेड्डी को मैसूर राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त किया.

केसी रेड्डी. (क्रेडिट- karnataka.com)

राज्य में पहले चुनाव हुए 1952 में. कांग्रेस चुनाव जीती. और केंगल हनुमंथइया राज्य के पहले चुने हुए मुख्यमंत्री बने. फिर 1956 में भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया. इस तरह 1 नवंबर 1956 को नया मैसूर स्टेट बना. इस नए राज्य में बॉम्बे स्टेट के चार ज़िले, हैदराबाद स्टेट के तीन ज़िले, मद्रास स्टेट का एक ज़िला और एक तालुका शामिल किए गए. इसी नए मैसूर राज्य को 1973 में नाम दिया गया कर्नाटक. पर अब वहां वोक्कालिगा समुदाय का प्रभाव कम होता चला गया. और लिंगायत समुदाय मजबूती से उभरता गया.

पांच बरस बाद 1956 में फिर चुनाव हुए. तब लिंगायत बहुमत में आ गए थे. हनुमंथइया अब राष्ट्रीय राजनीति की ओर रुख कर चुके थे. और यहीं से शुरू हुआ लिंगायतों का राजनीतिक रसूख. कांग्रेस के एस निजलिंगप्पा एकीकृत मैसूर स्टेट के पहले मुख्यमंत्री चुने गए. निजलिंगप्पा के सीएम बनने के बाद से 1973 से मैसूर स्टेट का नाम कर्नाटक होने तक कांग्रेस ने चार लिंगायत मुख्यमंत्री बनाए. एस निजलिंगप्पा, बीडी जत्ती, आर एस कांथी और वीरेंद्र पाटिल. लिंगायतों का वोट कांग्रेस को सत्ता तक आसानी से पहुंचा रहा था.

1972 में इंदिरा गांधी के करीबी देवराज अर्स ने कर्नाटक की कुर्सी संभाली. कहा जाता है इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी के पुनरुत्थान में देवराज अर्स का अहम योगदान था. नवंबर 1978 में हुए उपचुनाव में इंदिरा गांधी ने कर्नाटक की चिकमंगलूर सीट से जनता दल के वीरेंद्र पाटिल को हराकर लोकसभा में वापसी की. उस वक़्त इंदिरा गांधी को अकेले पूरे विपक्ष से लोहा लेते हुए दिखाया गया. कांग्रेस का नारा था – एक शेरनी सौ लंगूर, चिकमंगलूर-चिकमंगलूर.

लेकिन कुछ ही महीने बीते थे, इंदिरा और अर्स के संबंधों में खटास आ गई. बात इतनी बिगड़ गई कि अर्स ने कर्नाटक में पार्टी ही तोड़ दी. कहा जाता है इसकी वजह संजय गांधी थे. देवराज अर्स ने कर्नाटक में कांग्रेस (अर्स) नाम से अलग पार्टी बना ली. फूट के बाद इंडियन नेशनल कांग्रेस (इंदिरा) और इंडियन नेशनल कांग्रेस (अर्स) में बंट गई.

देवराज अर्स. (फाइल फोटो-इंडिया टुडे)

इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को कांग्रेस (आई) कहा गया. वो कर्नाटक विधानसभा में नो कॉन्फिडेंस मोशन लेकर आई. लेकिन विधायक अर्स के साथ थे. अर्स की सरकार बच गई. लेकिन कुछ महीने बाद कांग्रेस (आई), अर्स के विधायकों को तोड़ने में कामयाब हो गई. सदन में दोबारा बहुमत परीक्षण हुआ और इस बार देवराज अर्स गिनती पूरी करने में कामयाब नहीं हो पाए. उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और कांग्रेस (आई) के आर. गुंडुराव कर्नाटक के अगले सीएम बने. गुंडुराव ने 1983 तक सरकार चलाई.

1989 में एक बार फिर कांग्रेस सत्ता में आई. इस बार कांग्रेस ने फिर से लिंगायत नेता को तरजीह दी. वीरेंद्र पाटिल दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. हालांकि वीरेंद्र पाटिल को मुख्यमंत्री बनाना और फिर हटाना राजीव गांधी और कांग्रेस के लिए हमेशा का सिरदर्द बनकर रह गया. ख़ास तौर पर उन्हें जिन हालात में राजीव गांधी ने हटाया उसका असर भविष्य की राजनीति पर पड़ना ही पड़ना था. लिंगायत समुदाय की कांग्रेस से नाराज़गी की शुरुआत हो चुकी थी.

1990 में वीरेंद्र पाटिल को पैरालिटिकल स्ट्रोक हुआ. राजीव गांधी ने कर्नाटक से लौटते हुए हवाई अड्डे में उन्हें हटाने की घोषणा कर दी. पाटिल हटे और एस बंगारप्पा मुख्यमंत्री बनाया. पाटिल लिंगायत समाज से आते थे. पाटिल को हटाने से लिंगायत समाज में नकारात्मक संदेश पहुंचा. नतीजा ये रहा कि तब से रूठे लिंगायत, कांग्रेस से अबतक खुश नहीं हुए.

आखिरकार 1994 में कांग्रेस हार गई. 1999 में सत्ता में फिर उसकी वापसी हुई. एसएम कृष्णा को मुख्यमंत्री बनाया गया. उन्होंने पूरे पांच बरस तक सरकार चलाई. 2004 में चुनाव हुए. लेकिन कांग्रेस इस बार बहुमत न ला सकी. इसलिए उसे जनता दल (सेकुलर) के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी. इस गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने धरम सिंह. लेकिन ये गठबंधन ज्यादा दिन टिक नहीं सका. धरम सिंह ने इस्तीफा दे दिया. फिर जेडीएस ने कांग्रेस का पल्ला छोड़कर बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया. और सरकार बना ली. जेडी (एस) के एचडी कुमारास्वामी पहली बार मुख्यमंत्री बने.

देवगौड़ा के साथ सिद्दारमैया. (इंडिया टुडे)

तब सिद्दारमैया जेडीएस में हुआ करते थे. कर्नाटक के कद्दावर नेता माने जाते थे. कहा जाता था कि जेडीएस में एचडी देवगौड़ा के बाद सिद्दारमैया ही सबसे ताकतवर नेता थे. धरम सिंह की सरकार में सिद्दारमैया को जेडीएस की तरफ से उप मुख्यमंत्री बनाया गया था. बताया जाता है कि कांग्रेस ने तब सिद्दारमैया को भी जेडीएस से तोड़कर अपने साथ लाने की कोशिश की थी. हालांकि तब ऐसा हो नहीं सका.

सिद्दारमैया तब तक समझ चुके थे कि अगर जेडीएस की सरकार बनती है तो एचडी देवगौड़ा अपने पुत्र कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाना चाहेंगे. सिद्दारमैया और देवगौड़ा के बीच भारी मनमुटाव था. 2006 में सिद्दारमैया ने जेडीएस से नाता तोड़ा लिया और अपनी अलग पार्टी बना ली. नाम दिया ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव जनता दल. हालांकि उसी साल सिद्दारमैया पार्टी सहित कांग्रेस में शामिल हो गए. जब विलय हुआ तो मंच पर सोनिया गांधी मौजूद थीं.

सोनिया गांधी के साथ सिद्दारमैया. (फाइल फोटो- Twitter/@siddaramaiah)

इस बीच कांग्रेस का एक और नेता देवगौड़ा परिवार के लिए सिरदर्द बन चुका. नाम - डीके शिवकुमार. ये आमफ़हम बात है कि शिवकुमार पार्टी के लिए फंड जुटाते हैं.  1999 के विधानसभा चुनाव में डीके शिवकुमार ने कुमारस्वामी को हरा दिया. फिर 2004 में कांग्रेस की तेजस्विनी ने देवगौड़ा को लोकसभा चुनाव हराया. माना जाता है कि देवगौड़ा की इस हार के सूत्रधार भी डीके ही थे. तेजस्विनी फिलहाल बीजेपी में है.

डीके के बढ़ते कद को देखते हुए उन्हें कांग्रेस की एसएम कृष्णा सरकार में मंत्री बनाया गया. डीके को शहरी विकास मंत्रालय का जिम्मा दिया गया. इस बीच डीके का राजनीतिक रसूख भी बढ़ा और संपत्ति भी.

पर समय बदला और 2006 के बाद कर्नाटक की सत्ता से कांग्रेस की विदाई हो गई. अब डीके के बुरे दिन भी शुरू हो गए. अवैध संपत्ति के आरोप लगे. जांच एजेंसियों के रेडार पर आए. अवैध खनन की एक जांच में उनसे जुड़ी दो कंपनियों और उनके भाई और डीके सुरेश से जुड़ी एक कंपनी का नाम था. इन मामलों ने डीके के दामन पर दाग लगा दिया था.

2013 में राज्य में एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हुई. कई नेता मुख्यमंत्री पद की लालसा लिए बैठे थे लेकिन कुर्सी मिली सिद्दारमैया को. डीके यहां झटका खा गए. राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि सिद्दारमैया ने डीके शिवकुमार को अपने मुख्य कैबिनेट में शामिल करने से ही मना दिया. सिद्दा ने कहा कि वो दागी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करेंगे. भारी मान मुनव्वल और आलाकमान के लगातार बढ़ते दबाव के कारण किसी तरह डीके को 6 महीने बाद सिद्दारमैया ने अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया.

डीके शिवकुमार. (फाइल फोटो- PTI)

इस बार डीके को ऊर्जा मंत्रालय मिला. सत्ता में रहते हुए डीके की ऊर्जा भी बढ़ी, ताकत भी बढ़ी और संपत्ति भी बढ़ी. लेकिन डीके बिग पिक्चर में आए 2017 में. जब अहमद पटेल राज्यसभा का चुनाव लड़ रहे थे. सोनिया गांधी के इस सिपहसालार को राज्यसभा में जाने से रोकने के लिए अमित शाह ने पूरा जोर लगा दिया था. गुजरात कांग्रेस के विधायकों के लिए सेफ हाउस चाहिए था. तब न सिद्दारमैया को याद किया गया और न तब कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष जी परमेश्वर को. अहमद पटेल के लिए विधायकों को बचाकर रखने के लिए जिम्मेदारी दी गई डीके शिवकुमार को. उनके पास धनबल की कमी नहीं थी.

डीके के ने ये काम बखूबी किया. अहमद पटेल राज्यसभा पहुंच गए. यहां कांग्रेस के लिए डीके की एक संकटमोचक के तौर पर इमेज बनी. फिर 2018 में जब कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की बारी आई तब भी डीके शिवकुमार का काफी एक्टिव रोल रहा. कुमारस्वामी सरकार में डीके मंत्री भी बने. डीके तब भी एक्टिव हुए जब कुमारास्वामी की सरकार गिराने के लिए 13 कांग्रेस और 3 जेडीएस विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. बागी विधायकों को मनाने के लिए डीके मुंबई के एक पांच सितारा होटल के बाहर बैठे दिखे. हालांकि तब काम बन नहीं सका.

राज्य में बीजेपी की सरकार बनने के बाद 2019 में डीके शिवकुमार को ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग केस में गिरफ़्तार कर लिया. करीब 50 दिन में जेल में बिताने के बाद डीके बाहर आए.

और अब फिर चुनाव सिर पर है. सवाल है कि इस बार क्या होगा?

डीके की इस कहानी से ऐसा लगता है कि जैसे कर्नाटक में डीके ही कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हैं. लेकिन कर्नाटक की कहानियां कुछ और भी कहती हैं.

इंडिया टुडे/आजतक के लिए एक दशक से ज्यादा से कांग्रेस कवर कर रहीं मौसमी सिंह बताती हैं कि-

कर्नाटक में सिद्दारमैया का एक प्रभामण्डल है. एक ऑरा है. उनकी फॉलोइंग है. ग्राउंड पर अच्छी पकड़ है. कांग्रेस के लिए वोट जुटाने का काम सिद्दारमैया कर सकते हैं. कुरुबा समाज के सिद्दारमैया का वोट बैंक सिर्फ अपनी जाति तक ही सीमित नहीं है. उनकी दूसरी जातियों और समुदायों में भी अच्छी पकड़ है. जबकि डीके एक अच्छे मैनेजर हैं. वो संकट की घड़ी में पार्टी को मैनेज तो कर सकते हैं, वोक्कालिगा हैं तो थोड़े-बहुत वोट अपने समाज के भी बटोर सकते हैं. लेकिन कर्नाटक जीतने भर के वोट जुटाना डीके शिवकुमार के बस की बात नहीं है.

कुछ ऐसा ही कहना लोकमत से जुड़े आदेश रावल का भी है. आदेश कहते हैं कि-
 

डीके सिर्फ अपने क्षेत्र के नेता है. अपने क्षेत्र में उनकी पकड़ है. लेकिन सिद्दारमैया कर्नाटक के सर्वमान्य मेता हैं. जमीनी नेता हैं. उनकी हर क्षेत्र और हर तबके में पकड़ है. और इस भरोसे को सिद्दा ने दशकों की राजनीति के बाद हासिल किया है.

और यही वजह है कि अपनी-अपनी राजनीतिक ताकत को देखते हुए दोनों ही नेता खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मान रहे हैं.

ये सभी जानते हैं कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनने के आसार उस नेता के होते हैं जो अपने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को टिकट दिला सका हो. कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हैं डीके शिवकुमार. सिद्दारमैया भी कर्नाटक में कांग्रेस के प्रमुख नेता हैं. मुख्यमंत्री रह चुके हैं. जमकर प्रचार कर रहे हैं. देखा जाए तो टिकट बंटवारें में दोनों नेताओं की खींचतान कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन इस कहानी में थोड़ा ट्विस्ट है. कांग्रेस के अंदरखाने से छनकर आती खबरें ये बताती हैं कि इस बार टिकट बंटवारे में न तो डीके शिवकुमार की चली और सिद्दारमैया की. इस बार सबसे अहम किरदार था कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का. यही वो तीसरा शख्स है जिसका ज़िक्र हमने शुरुआत में किया था.

राहुल गांधी के साथ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, (फाइल फोटो- PTI)

हर टिकट खड़गे मुहर के बाद ही दिया गया. साथ ही इस बार एक और अहम बात देखने को मिली. टिकट बंटवारा सिर्फ खड़गे तक ही सीमित नहीं था. सांसदी गंवा चुके राहुल गांधी ने भी टिकट बंटवारे में अहम भूनिका निभाई है.

यानी अगर कांग्रेस की सरकार बनती है तो न डीके और न ही सिद्दा, विधायकों को जुटाकर खेमेबाजी करने की उम्मीद दोनों ही नेताओं के पास बची नहीं है.

लेकिन इस बीच दबी जबान में एक जुमला और चल रहा है- कि अगर कांग्रेस की सरकार बनती है तो कोई ताज्जुब नहीं कि खड़गे खुद सीएम बन जाएं.

दरअसल, खड़गे कर्नाटक के दलित समाज से हैं. कर्नाटक में करीब 20 फीसदी दलित हैं. 36 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. और खड़गे वो नेता है तो कर्नाटक के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचते पहुंचते दो बार रह गए. आलाकमान का आदेश खड़गे के पक्ष में नहीं आया और खड़गे मन मसोस कर रह गए.

हालांकि कर्नाटक की राजनीति को समझने वाले कुछ वरिष्ठ पत्रकार इन बातों पर इत्तेफाक नहीं रखते. उनका कहना है कि खड़गे ने टिकट बंटवारे में मनमानी नहीं की है. और सभी नेताओं को बराबर की तवज्जो दी गई है. कुरैशी का कहना है कि पार्टी हाईकमान ने भी इस बात का ध्यान रखा है कि किसी नेता की मनमानी ना हो. इनमें खड़गे भी शामिल हैं.

पर हाल ही में खड़गे ने एक ऐसा बयान दे दिया जिससे नरेंद्र मोदी के हाथ चुनावी बारूद लग गया है. खड़गे ने मोदी को ज़हरीला सांप कहा. इसके बाद मोदी ने अपनी चुनाव सभाओं में कहना शुरू किया कि सांप तो शिव भगवान का प्रिय है. मैं शिव के गले का सांप बनने को तैयार हूँ. नतीजे ही बताएंगे कि खड़गे का ये बया कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित हुआ या इससे पार्टी को फ़ायदा हुआ.

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