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राहुल गांधी के अमेरिका में दिए भाषण पर हमलावर हुए BJP और ओवैसी

राहुल गांधी के विदेश दौरे के क्या मायने हैं?

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सैन फ्रांसिस्को में बोलते राहुल गांधी (बाएं) और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री के साथ PM मोदी (दाएं)

राहुल गांधी अपनी 6 दिन की अमेरिका यात्रा पर हैं. और आज सुबह-सुबह वे न्यूज चैनलों की स्क्रीन पर चमके. सुबह-सुबह इसलिए क्योंकि सैन फ्रांसिस्को और भारत के समय में साढ़े 12 घंटे का फर्क है. मतलब दिन रात का अंतर. राहुल ने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में भारतीय मूल के लोगों के साथ बातचीत की. और जैसा कि राहुल के पिछले कुछ दौरों में हमें देखने को मिला है, एक बार फिर से उनके बयानों पर विवाद शुरू हो गया. राहुल ने अपने संबोधन में जिन मुद्दों पर बात की एक-एक कर समझते हैं.


1. अपने संबोधन में राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर रखा. राहुल ने कहा कि भारत में कुछ ऐसे लोग हैं जो सब जानते हैं. हमारे प्रधानमंत्री भी इन्हीं में से एक हैं. राहुल ने तंज़िया लहजे में कहा कि अगर मोदी भगवान के साथ बैठ जाएं, तो भगवान को ही ब्रह्मांड का ज्ञान देने लगेंगे.

2. दूसरी बात नई संसद से जुड़ी थी. राहुल ने कहा कि नई संसद का उद्घाटन, असली मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए किया गया है. बेरोज़गारी, महंगाई, नफ़रत जैसे मुद्दों पर बीजेपी चर्चा नहीं करना चाहती है.

3. तीसरा मुद्दा: दलित और मुस्लिम. राहुल गांधी से जब मुस्लिम समुदाय के साथ ज्यादती का सवाल पूछा गया तो उन्होंने इसे सिर्फ मुस्लिमों के साथ न रखते हुए दलित अल्पसंख्यक और आदिवासियों से भी जोड़ा. राहुल ने जाति आधारित जनगणना का भी समर्थन किया. कहा कि हम सरकार में आए तो भारत को दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के लिए एक बेहतर जगह बनाएंगे. उन्होंने ये भी कहा कि दलितों, आदिवासियों, गरीबों और अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे व्यवहार के आधार पर ये कहा जा सकता है कि आज भारत 'फेयर प्लेस' नहीं है. साथ में ये भी कहा कि भारत नफरत में विश्वास नहीं रखता. आज मुसलमानों के साथ जो हो रहा है, वही 80 के दशक में उत्तर प्रदेश में दलितों के साथ होता था.

राहुल के फेयर प्लेस वाली टिप्पणी पर बीजेपी की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आई. केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि राहुल गांधी जब भी भारत से बाहर जाते हैं, देश को अपमानित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते. और जिस 80 के दशक का वे जिक्र कर रहे हैं उस समय तो कांग्रेस की ही सरकार थी. न कि मोदी की.  

पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि राहुल ने भारत को बदनाम करने का ठेका ले लिया है. कांग्रेस ने मुसलमानों को च्विंगम की तरह यूज किया.

विदेशी धरती पर भारत के अपमान के आरोपों पर कांग्रेस की ओर से जवाब भी आया. कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने पीएम मोदी के एक बयान का ज़िक्र करते हुए पलटकर उन पर देश के अपमान का आरोप लगाया. आज राहुल के बयान और कुछ किया हो, न हो. भाजपा नेताओं और ओवैसी को एक सुर में ला दिया. AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने भी राहुल गांधी पर निशाना साधा. ओवैसी ने कहा कि राहुल, राजस्थान का जिक्र नहीं करते जहां नासिर और जुनैद की हत्या कर दी गई. ओवैसी ने 84 के सिख विरोधी दंगों और उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के साथ हुई हिंसा का जिक्र करते हुए कहा कि उस समय भी कांग्रेस की सरकार थी.

राहुल गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा कि उनकी पार्टी इसके समर्थन में है. पिछली सरकार में कुछ सहयोगी दल इसके लिए तैयार नहीं थे, जिसकी वजह से ये पास नहीं पाया.

इसके अलावा राहुल गांधी ने केंद्र सरकार पर केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप भी लगाया. लंबे समय से विपक्षी दल इस मुद्दे पर केंद्र को घेरते आ रहे हैं. राहुल ने कहा कि अब राजनीति के सामान्य टूल, मसलन जनसभा, रैली आदि काम नहीं कर रहे. अब जिन संसाधनों की जरूरत है वो BJP और RSS कंट्रोल कर रहे हैं.  एक तरीके से राहुल ने ये साफ करने की कोशिश की कि भारत में विपक्षी नेताओं पर होने वाली कार्रवाई राजनीति से प्रेरित हैं.

ये तो हो गई राहुल गांधी के संबोधन की मुख्य बातें और उस पर आई प्रतिक्रियाएं. लेकिन इस संबोधन में एक और सुर्खी बनी - कार्यक्रम स्थल पर खालिस्तान समर्थकों की नारेबाज़ी. जिस समय राहुल गांधी कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे, उसी समय कुछ लोगों ने खालिस्तानी झंडे लहराए और इंदिरा गांधी, कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ नारेबाज़ी की. खालिस्तान का नारा भी दिया.

अमेरिका स्थित खालिस्तानी संगठन, सिख फॉर जस्टिस SFJ ने इसकी ज़िम्मेदारी ली है. ये संगठन भारत में प्रतिबंधित है.  SFJ के प्रमुख गुरपतवंत सिंह पन्नू ने इस घटना के बाद कथित तौर पर एक ऑडियो जारी कर कहा कि राहुल गांधी अमेरिका में जहां-जहां जाएंगे, खालिस्तान समर्थक वहां खड़े होंगे. राहुल के बाद, अगला नंबर 22 जून को मोदी का होगा.

खालिस्तान समर्थकों की नारेबाजी का राहुल गांधी ने मुस्कुरा कर जवाब दिया और बार-बार दोहराते रहे कि नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान. हालांकि राहुल गांधी के कार्यक्रम में खालिस्तान समर्थकों की नारेबाजी का वीडियो शेयर कर बीजेपी ने उन पर निशाना भी साधा. बीजेपी आईटी सेल हेड अमित मालवीय ने ट्वीट कर कहा कि 1984 में नफरत की ऐसी आग लगाई थी जो अब तक नहीं बुझी.

सैन फ्रांसिस्को में भारतीय समुदाय के लोगों के साथ बातचीत के अलावा राहुल गांधी स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में छात्रों के साथ बातचीत भी करेंगे. इसके अलावा वे वाशिंगटन डीसी में सीनेटर्स और थिंक टैंक्स के साथ भी बैठक करेंगे. राहुल की 6 दिन की ये अमेरिका यात्रा न्यूयार्क में एक सार्वजनिक सभा के साथ खत्म होगी.

राहुल ने क्या कहा और उसपर कैसी प्रतिक्रियाएं आईं, ये भारत की घरेलू राजनीति का विषय है. लेकिन इन दिनों घरेलू राजनीति सिर्फ घर में रह रहे लोगों के भरोसे ही नहीं चलती. तभी तो नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी, दोनों नेता नियमित रूप से विदेश में रह रहे भारतवंशियों को एंगेज करते हैं. भारतवंशी माने भारतीय मूल के वो लोग जिन्होंने अलग-अलग कारणों से अपना घोंसला कहीं और बना लिया है. अंग्रेज़ी में इसे कहते हैं इंडियन डायस्पोरा.

अब तक, डायस्पोरा की छवि बहुत सिंपल रही है. क्लीशे धारणा यही है कि प्रवासी भारतीय, दुनिया में भारत के अनौपचारिक राजदूत हैं. वे भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका प्रसार करते हैं. लेकिन अब ये धारणा बदल रही है. अंतरराष्ट्रीय समाज-शास्त्रियों का मानना है कि डायस्पोरा के अंदर भारतीय समाज की सारी ख़ामियां भी हैं, जो विलायत में उनके जीवन में झलक जाती हैं. मसलन जाति. तभी तो कैलिफोर्निया में जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून बनाना पड़ा.

खैर, हम डायस्पोरा के उन गुणों पर लौटते हैं, जिनके चलते वो सरकार ही नहीं, राजनैतिक दलों के लिए भी एक आकर्षक कॉन्सटीट्यूएंसी बन जाते हैं.

दिल्ली के एशिया सोसाइटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट में सीनियर फेलो और अंग्रेजी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के अंतरराष्ट्रीय मामलों के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर सी राजा मोहन ने आज एक लेख लिखा है. भारतवंशियों और उनके प्रभाव पर छह बिंदु पॉइंट-आउट किए हैं. क्या लिखा है?

1.  भारतीय डायस्पोरा दिन-ब-दिन बड़ा हो रहा है. अनुमान हैं कि ये संख्या लगभग साढ़े तीन करोड़ तक पहुंच गई है. इनमें विदेशों में पढ़ने, रहने और काम करने वाले भारतीय नागरिकों के साथ-साथ वो लोग भी हैं, जो भारतीय मूल के हैं और दूसरे देशों की नागरिकता ले ली है. UN के मुताबिक़, भारत का डायस्पोरा दुनिया में सबसे बड़ा है. और इसके मायने क्या हैं? कि भारतीयों की मांग बढ़ रही है और बढ़ेगी. मोदी सरकार भी ऐसी नीतियों को बढ़ावा दे रही है जो "माइग्रेशन ऐंड मोबिलिटी" को बढ़ाए. यानी आने वाले सालों में भारत की वैश्विक छाप और गहरी होगी.

2. भारवंशी समृद्ध हैं. और भारतीय अर्थव्यवस्था में अलग-अलग तरीक़ों से योगदान देते हैं. भारत में बनी चीज़ें ख़रीदने से लेकर भारतीय कॉन्टेंट कन्ज़्यूम करने तक.

3. तीसरा ये कि भारतीय अब दूसरे देशों की राजनीति में भी सक्रीय हो रहे हैं. ख़ासतौर पर अंग्रेज़ी-भाषी समाज में. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हों, या अमेरिका की उपराष्ट्रपति. दोनों के तार यहीं से जुड़े हुए हैं. US और UK के अलावा भी कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों में भी भारतीय ऊंचे पदों पर क़ाबिज़ हैं. और ये मौजूदगी आने वाले समय में बढ़ेगी ही.

4. चौथा पॉइंट भी एक बढ़ोतरी की ओर संकेत करता है -- भारत के अंदर की राजनीति में भी भारतवंशियों का दख़ल बढ़ा है. बीते कुछ दशकों में डायस्पोरा अपनी बैक-सीट से पहली पंक्ति में आने की जुगत करता हुआ दिखा है.  डायस्पोरा के नेता भारत के मुद्दों पर बोलते सुनाई देते हैं. वो प्रेशर ग्रुप्स बनाते हैं और अपने स्थानीय नेताओं और अफ़सरों को उनकी शिकायतें दिल्ली पहुंचाने के लिए कहते हैं.

5. पांचवां पॉइंट, चौथे से जुड़ा हुआ है. चूंकि भारतवंशी वहां की राजनीति में सक्रिय हुए हैं, तो इससे वहां की राजनीति पर भी असर पड़ना शुरू हुआ है. वो वहां की लोकल पॉलिसी तय करने में अपने हितानुसार अपना मत रखते हैं. मगर इससे भारत की नीयत पर संदेह भी पैदा हो सकता है. ऐसे ही सवाल चीन पर भी खड़े हुए थे. चीनी भी यूरोप की राजनीति में अच्छा दम रखते हैं. और कई मौक़ों पर उनपर ये आरोप लगे कि वो लोकल राजनीति में अपना अजेंडा ठेल रहे हैं.

6. छठी बात ये कि कहानी केवल भारतीय डायस्पोरा की नहीं है. बात उपमहाद्वीप की भी है. अगर पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल की संख्या जोड़ दी जाए, तो साउथ-एशियन डायस्पोरा की संख्या साढ़े चार करोड़ के पास है. ऐसा लग सकता है कि इसका फ़ायदा मिलेगा. लेकिन पिक्चर अलग है. हमने राजनीतिक गुटबाज़ी देखी है. राजनीति में बहुत फ़र्क़ देखा है. 'सबका साथ' के नैरेटिव के सामने धार्मिक, जातिय और जातिगत गुटबाज़ी हुई है. जो परेशान करने वाली है.

ये थे सी राजा मोहन की समीक्षा. हमने भी बीते शुक्रवार, 27 मई के लल्लनटॉप शो में भी आपको ऐसे भारतीयों के उदाहरण गिनवाए थे, जिनका दुनिया में रसूख है.
अब चूंकि हमने आपको डायस्पोरा का महत्व बताया ही, तो इसी मसले को थोड़ा और विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं कि भारतवंशियों का विदेशी धरती की राजनीति, संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव कितना है?

हमने कुछ ही दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऑस्ट्रेलियाई दौरे की तस्वीरें-वीडियो देखी थीं. क्वॉड की बैठक तो नहीं हुई. लेकिन नरेंद्र मोदी ने सिडनी के ओलिंपिक पार्क में 20 हज़ार से ज़्यादा भारतीय मूल के लोगों को संबोधित किया और इसकी भारत में खूब चर्चा हुई. कार्यक्रम के दौरान ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी एलबनीज़ ने नरेंद्र मोदी को बॉस ही बता दिया था. ये सब छवियों का, ऑप्टिक्स का खेल है. संकेत ये, कि प्रधानमंत्री मोदी विलायती ज़मीन पर बहुत लोकप्रिय हैं. इसीलिए ज़रूरी है कि ये समझा जाए कि क्या राहुल गांधी और कांग्रेस, एक नए मोर्चे पर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को चुनौती देना चाहते हैं?

विशेषज्ञ मानते हैं कि राहुल और नरेंद्र मोदी - दोनों नेता, डायस्पोरा आउटरीच के मामले में एक ही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. लेकिन नरेंद्र मोदी इस दौड़ में बहुत आगे हैं. इसका एक कारण ये भी है, कि नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं. सो उन्हें सुनने दोनों तरह के लोग आते हैं - वो, जो मोदी को सुनना चाहते हैं और वो भी, जो एक ठेठ भारतीय कार्यक्रम में हिस्सा लेना चाहते हैं, जिसमें PM आएंगे. एक और बात गौर करने लायक है. नरेंद्र मोदी जिन लोगों से मिलते हैं, उन्हें आप किसी एक कैटेगरी में नहीं डाल सकते. उनके कार्यक्रमों में हर तरह के लोग आए हैं - आम भारतवंशी, संबंधित देश में भाजपा इकाइयों के सदस्य और कुछ स्थानीय भी.

जबकि जैसे कार्यक्रमों में हमने राहुल को बोलते सुना है, वो प्रायः यूनिवर्सिटीज़ या थिंकटैंक्स में होते हैं. यहां आने वाले भारतवंशियों, कांग्रेस कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों को एक खांचे में रखा जा सकता है - उच्च शिक्षित एकैडमिया. इससे आपको दोनों नेताओं की टार्गेट ऑडियंस का एक अनुमान मिल सकता है. संभवतः इसी अंतर को पाटने के लिए राहुल की इस बार की यात्रा का अंत एक सार्वजनिक सभा से होगा.

आप किसी ब्रैंड को सीमित रखेंगे, तो वो सीमित रहेगा. भाजपा ने बहुत पहले इस बात को समझ लिया था. इसीलिए वो हर तरह के समूहों के बीच उतरने का प्रयास करती है. राहुल और उनकी पार्टी कांग्रेस, जिनके पास दशकों का कल्चरल कैपिटल था, उन्होंने क्रमशः अपनी एज को खो दिया. अब राहुल अपने पिता राजीव गांधी की तरह फिर डायस्पोरा को रिझाते नज़र आ रहे हैं. उन्हें बस एक बात का विशेष ध्यान रखना होगा. भारत से बाहर के मंचों पर जो वो कहते हैं, उसपर अक्सर भारत में विवाद खड़ा हो जाता है. मिसाल के लिए राहुल गांधी का केम्ब्रिज दौरा . 28 फरवरी, 2023 को राहुल गांधी के केंब्रिज संबोधन में उन्होंने प्रधानमंत्री पर देश के बुनियादी ढांचे को बर्बाद करने का आरोप लगाया.

ऐसे तमाम बयानों को लेकर कांग्रेस का पक्ष यही रहा कि राहुल ने गलती नहीं की, और वो माफी नहीं मांगेंगे. लेकिन इंफॉर्मेशन वारफेयर की दुनिया में कांग्रेस एक कदम पीछे नज़र आती रही.

इस पूरी कहानी में एक सवाल छूट रहा है. कि राहुल के विदेश दौरों में उनकी मदद कौन कर रहा है?

एक मज़े की बात और जोड़ देते हैं. एक बहुत प्रचलित नोशन है कि भारत की आलोचना विदेशी ज़मीन पर करना भारतीय धारणा है. और जो लोकतंत्र इनसेक्योर होते हैं, केवल उन्हें ही आलोचना से दिक़्क़त होती है. मगर ये कोई भारतीय या पूर्वी धारणा नहीं है. ये दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका की धारणा है. एक बहुत फ़ेमस पंक्ति है - domestic politics must end at the water’s edge. मतलब वही है -- जितना उड़ना है, यहीं उड़ो. पड़ोसियों के सामने जा कर मत रो कि पापा बेरहम हैं, पीट दिए.

हम इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ते हैं कि क्या विदेश में होने वाली आलोचना और तारीफ़ में पिंक एंड चूज़ की नीति अपनाई जा सकती है? और क्या सरकार की आलोचना को देश की आलोचना माना जा सकता है? इतना ज़रूर है कि डायस्पोरा के चलते भारतीय राजनीति में एक और दिलचस्प लड़ाई देखने को मिल रही है.