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आखिर ये कौन सी बीमारियां हैं, जिनका एक इंजेक्शन 18-18 करोड़ का आता है?

सोशल मीडिया पर अक्सर ऐसी पोस्ट दिख जाती हैं, जिनमें इन बीमारियों के इलाज के लिए पैसे डोनेट करने की रिक्वेस्ट की जाती है.

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तस्वीर एक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित मोटिवेशनल स्पीकर जोनाथन लेनसेस्टर की है. (फोटो: सोशल मीडिया)

आज की तारीख में हर कोई अपने हाथ में एक स्क्रीन लिए घूम रहा है. इन्हीं स्क्रीन्स पर सोशल ‘मीडिया’ का जाल भी फैल चुका है. और जहां मीडिया अपने पैर पसारेगा, वहां विज्ञापन अपने आप पीछे-पीछे चले आते हैं. कोई क्रीम बेच रहा है तो कोई डोनेशन इकट्ठा करने की मुहिम चला रहा है.

डोनेशन के विज्ञापन भी अलग-अलग तरह के होते हैं. इनमें से कुछ इलाज के लिए होते हैं. मसलन, विज्ञापन में बताया जाएगा कि एक बच्चा वेंटिलेटर पर है. बच्चे को एक भयानक सी बीमारी है. उसकी मां बगल में बैठी रो रही है. मदद की गुहार कर रही है. ये सब देखकर आपका मन दुखी हो जाता है.

दरअसल, इस तरह के विज्ञापनों का उद्देश्य क्राउड फंडिंग (Crowdfunding) करना होता है. क्राउड फंडिंग (Crowdfunding) का मतलब वो प्रक्रिया, जिसके जरिए सोशल मीडिया पर लोगों की मदद से पैसे इकट्ठा किए जाते हैं.

बीमारियों की क्राउड फंडिंग में एक बात कॉमन होती है. दरअसल, इस तरह के विज्ञापनों में बताया जाता है कि मरीज को कोई दुर्लभ बीमारी है. इस तरह की बीमारी का नाम आमतौर पर लोगों ने सुना नहीं होता है. 

पिछले दिनों  ऐसी ही एक बीमारी की खबर आई. दिल्ली स्थित एम्स अस्पताल की तरफ से केंद्र सरकार को एक सिफारिश पत्र लिखा गया. इस पत्र में 11 महीने के एक बच्चे के इलाज के लिए 17.5 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता मांगी गई.

अब सवाल है कि आखिर किसी बीमारी को दुर्लभ कहने के पीछे का पैमाना क्या है? आखिर वो कौन सी बीमारियां हैं, जिनका इलाज इतना महंगा है? इन बीमारियों के इलाज में प्रयोग होने वाली दवाएं कौन सी होती हैं और वो इतनी महंगी क्यों होती हैं? आइए, सारे सवालों के जवाब जानते हैं.

लेकिन क्या पैमाना है किसी भी बीमारी को दुर्लभ कह देने के पीछे? कौन सी हैं वो बीमारियां जिनका इलाज इतना महंगा है? क्या दवाएं हैं इनके लिए और वो क्यों इतनी महंगी हैं? आइए जानते हैं.

क्या होती हैं दुर्लभ बीमारियां?

वैसे दुर्लभ बीमारियों यानी 'Rare Diseases' की कोई एक परिभाषा नहीं है. अलग-अलग देशों में ये परिभाषा अलग-अलग हो सकती है. कहने का मतलब कि बीमारी कितना फैली हुई है, इसका इलाज कितनी आसानी से मिल जाता है और देश की जनसंख्या कितनी है, ऐसे कुछ कारण मिलकर ये तय करते हैं कि कहीं पर किसी बीमारी को कब दुर्लभ कहा जाएगा.  

भारत सरकार ने 2021 में अपनी राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति को मंज़ूरी दी थी. इस नीति में दुर्लभ बीमारियों के लिए कुछ तथ्य दिए गए हैं. आगे बढ़ने से पहले इस नीति में दी गईं कुछ बड़ी बातें जान लीजिए-

- आम बीमारियों की तुलना में बहुत कम लोग दुर्लभ बीमारियों से प्रभावित होते हैं. 'विश्व स्वास्थ्य संगठन' यानी W.H.O. कहता है कि एक दुर्लभ बीमारी वो बीमारी है जो 10,000 में 10 से भी कम लोगों को होती है.

- ऐसा अनुमान है कि दुनियाभर में लगभग 6 हजार से 8 हजार दुर्लभ बीमारियां हैं. इनमें लगातार नई बीमारियां जुड़ती रहती हैं.

- लगभग 95 फीसदी दुर्लभ बीमारियों का कोई स्वीकृत उपचार नहीं है. मतलब उनको अलग-अलग वजहों से सरकार की मंजूरी नहीं मिली है.

- 80 फीसदी दुर्लभ बीमारियां जेनेटिक होती हैं.

- जेनेटिक होने की वजह से लगभग 50 फीसदी मामले बच्चों में पाए जाते हैं. एक वर्ष की उम्र के बच्चों में होने वाली 35 फीसदी मौतों के लिए ये बीमारियां जिम्मेदार हैं.

- ये भले ही कम लोगों को होती हों, लेकिन इनके कई मामले काफी सीरियस और जानलेवा हो सकते हैं.

अब ऐसी कुछ बीमारियों और इनके इलाज के बारे में जानते हैं.

Spinal Muscular Atrophy (स्पाइनल मस्कुलर एट्रॉफी)

Spinal Muscular Atrophy (स्पाइनल मस्कुलर एट्रोफी) यानी SMA. ये बीमारी जेनेटिक होती है और किसी को जन्म से ही हो सकती है. इसमें शरीर की नसें ठीक से काम नहीं करती हैं. मांसपेशियां कमजोर और छोटी हो जाती हैं. वैसे तो ये पूरे शरीर में फैल सकती है, लेकिन इसकी शुरुआत अक्सर शरीर के बीच वाले हिस्से से होती है, जैसे कंधे, कूल्हे और उनके बीच का हिस्सा. इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के लिए खाना निगलना और यहां तक कि सांस लेना भी मुश्किल हो सकता है. जिन बच्चों को SMA होता है, वो खुद से बैठ तक नहीं पाते हैं.

SMA के कई टाइप होते हैं. किसी को किस तरह का SMA होता है, ये दो बातों पर निर्भर करता है-

- बीमारी के लक्षण कब दिखाई देना शुरू हुए 

- हालत कितनी गंभीर है

Zolgensma दुनिया की सबसे महंगी दवाओं में से एक है. कीमत लगभग 18 करोड़ रुपए.  (इमेज क्रेडिट: आज तक)

इस बीमारी का इलाज Zolgensma नाम का एक इंजेक्शन है. ये दुनिया की सबसे महंगी दवाओं में शुमार है. बताया जाता है कि इसके एक ही डोज से काम हो जाता है. जिन बच्चों को यह इंजेक्शन दिया गया, उनमें इस बीमारी के और कोई लक्षण नहीं देखे गए.

इंजेक्शन के एक डोज की कीमत- लगभग 18 करोड़ रुपये

Hemophilia B (हीमोफिलिया बी)

Hemophilia (हीमोफिलिया) भी एक जेनेटिक यानी आनुवांशिक बीमारी है. इसका एक टाइप, Hemophilia B (हीमोफिलिया बी) काफी दुर्लभ है. इसमें व्यक्ति के खून में एक ऐसे प्रोटीन की कमी हो जाती है, जो खून के थक्के जमाने में मदद करता है. ऐसे में चोट लगने पर खून बहता ही चला जाता है. खून बहना बंद ना होने पर व्यक्ति की जान भी जा सकती है.

अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) ने Hemgenix (हेमजेनिक्स) नाम की दवा को इस बीमारी के इलाज के तौर पर मंजूरी दी है.

दवा के एक डोज की कीमत- लगभग 28 करोड़ रुपये

Hutchinson-Gilford Progeria Syndrome (हचिंसन-गिलफोर्ड प्रोजेरिया सिंड्रोम)

ये भी एक आनुवांशिक बीमारी है. इसमें बचपन में ही तेज़ी से उम्र बढ़ने लग जाती है. इसी बीमारी से फिल्म 'पा' में अमिताभ बच्चन का किरदार जूझ रहा था.

फिल्‍म 'पा' में अमिताभ बच्चन एक ऐसे बच्‍चे का किरदार निभाया है जिसकी उम्र 13 साल है और जिसे प्रोजेरिया नाम की बीमारी हो जाती है. (इमेज क्रेडिट: आज तक)

इससे पीड़ित बच्चे आमतौर पर जन्म के समय नॉर्मल दिखते हैं. लेकिन बाद में बाकी बच्चों की तुलना में इनका शरीर और वज़न काफी धीरे बढ़ता है. इनका चेहरा भी अलग दिखने लगता है. आंखें बड़ी दिखने लगती हैं, नाक और होंठ काफी पतले हो जाते हैं, ठुड्डी छोटी और कान उभरे हुए नज़र आने लगते हैं. इसके अलावा बाल झड़ने लगते हैं. बचपन में ही झुर्रियां पड़ने लगती हैं, जोड़ों में दर्द होने लगता है.

इस बीमारी में कम उम्र में ही दिल का दौरा या स्ट्रोक होने की संभावना भी बहुत बढ़ जाती है. बीतते समय के साथ ये बीमारी और सीरियस हो जाती है. 

इसके लिए Zokinvy नामक दवा दी जाती है. कहने को इसकी कीमत बाकी दवाओं की तुलना में कम है, लेकिन ये कीमत पीड़ित के शरीर के आकार और डोज़ के हिसाब से बढ़ सकती है. इसकी सालाना लागत 9 करोड़ रुपये तक हो सकती है.

दवा के एक डोज की कीमत- लगभग 64 लाख रुपये

Neuroblastoma (न्यूरोब्लास्टोमा)

Neuroblastoma (न्यूरोब्लास्टोमा) एक प्रकार का कैंसर है. ये Nerve Tissues (नर्व टिशूज़) यानी तंत्रिका ऊतकों में ट्यूमर बनने के कारण फैलता है. ये ट्यूमर आमतौर पर गुर्दे के पास विकसित होता है. Neuroblastoma (न्यूरोब्लास्टोमा) आमतौर पर 5 से 10 साल के छोटे बच्चों को प्रभावित करता है.

कुछ मामलों में एक ट्यूमर एक जगह से शुरू होकर दूसरी जगहों तक भी पहुंच जाता है. जैसे ट्यूमर के गुर्दे यानी किडनी से फैलकर बच्चे की रीढ़, पेट, छाती और गर्दन तक पहुंचने के केस भी देखे गए हैं.  

इसके लिए Danyelza नाम की दवा मंजूर की गई है. इसकी एक शीशी की कीमत लगभग 17 लाख रुपये है. लेकिन बताया जाता है कि पूरे इलाज के लिए एक साल में इसके 48 डोज की जरूरत पड़ती है. इस वजह से इसकी सालाना लागत 8 करोड़ के पार चली जाती है.

दवा के एक डोज की कीमत- लगभग 17 लाख रुपये

Generalized lipodystrophy (जेनरेलाइज्ड लिपोडिस्ट्रॉफी)

इस बीमारी से शरीर में leptin (लेप्टिन) की कमी हो जाती है.  Leptin (लेप्टिन) एक तरह का हार्मोन होता है. इसकी कमी से शरीर में असामान्य रूप से चर्बी इकट्ठा होना शुरू हो जाता है.

इसके लिए Myalept नाम की दवा दी जाती है. इसका महीने का खर्चा लगभग 64 लाख रुपये हो सकता है. इस वजह से सालाना लागत 7 करोड़ रुपये के ऊपर तक चली जाती है.

दवा के एक डोज की कीमत- लगभग 64 लाख रुपये (मासिक)

इन बीमारियों का इलाज इतना मुश्किल क्यों है?

इसके दो बड़े कारण हैं-

इलाज की कमी: मेडिकल साइंस ने बहुत प्रगति की है. बहुत सारी बीमारियों को संभव बनाया है. हालांकि, अभी भी कई बीमारियों का इलाज खोजा जाना बाकी है. दुर्लभ बीमारियों की संख्या 6 से 8 हजार के बीच है. हालांकि, मेडिकल साइंस अभी तक इनमें से 300 से भी कम बीमारियों का इलाज खोज पाया है. 

इलाज का बहुत महंगा होना: ये तो हम देख ही चुके हैं कि अगर दवाएं उपलब्ध भी हैं, तो वो इतनी महंगी हैं कि कोई आम परिवार इन्हें खरीद नहीं सकता. जिन लोगों को ये दुर्लभ बीमारियां होती हैं, उनकी गिनती बहुत कम होती है. इस वजह से ये दवाएं भी कम ही बनाई जाती हैं. वहीं दवा का उत्पादन करने वाली कंपनियों पर ऐसे आरोप लगते रहते हैं कि वो अपनी रिसर्च की लागत को कम करने के लिए इन दवाओं को बहुत ऊंचे दामों पर बेचती हैं. अभी बहुत कम दवा कंपनियां ऐसी दवाएं बनाती हैं और फिलहाल भारत में इनका कोई घरेलू निर्माता नहीं है.

अगर ये दवाएं किसी दुर्लभ बीमारी से ग्रस्त पीड़ित को समय पर मिल जाएं तो उसकी जिंदगी बदल सकती है. ऐसे में इन दवाओं की भारी-भरकम कीमत को लेकर दुनियाभर में बहस छिड़ी हुई है. आम लोगों को अगर इन दवाओं की जरूरत होती है, तो इसके लिए क्राउड फंडिंग ही करनी पड़ती है. ऐसे में कुछ ऐसा इंतजाम करने की जरूरत है कि जरूरतमंद लोगों तक ये दवाएं आसानी से पहुंच जाएं.

डिस्क्लेमर: इस आर्टिकल का उद्देश्य केवल पाठकों को जानकारी देना है. इसमें बताई गई दवाओं की उपलब्धता और कीमतें अलग-अलग कारणों, जैसे जगह, बाजार और अर्थव्यवस्था की स्थिति और विनियमों के आधार पर निर्भर कर सकती हैं. इस आर्टिकल का उद्देश्य किसी खास दवा या दवा कंपनी को बढ़ावा देना या उसका समर्थन करना नहीं है. पाठक ऐसे विषय या मुद्दे पर पेशेवर सलाह लेने को ही प्राथमिकता दें. दी लल्लनटॉप इस आर्टिकल में दी गई किसी भी जानकारी के इस्तेमाल की सलाह नहीं देता. अगर कोई ऐसा करता है, तो उसके परिणामों के लिए दी लल्लनटॉप जिम्मेदार नहीं है.