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जब सबकुछ CCTV में कैद हो गया, फिर पुलिस क्राइम सीन को रीक्रिएट क्यों करती है?

साक्षी हत्याकांड सीसीटीवी में दर्ज हुआ था. इसके बावजूद पुलिस ने क्राइम सीन पर आरोपी को ले जाकर घटना को रीक्रिएट किया था. यही अतीक-अशरफ हत्याकांड में भी हुआ था.

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पुलिस ने साक्षी हत्याकांड को रीक्रिएट किया, जबकि CCTV फुटेज मौजूद था.

दिल्ली के Sakshi Murder Case ने पूरे देश को झकझोरा, क्योंकि इसका CCTV फुटेज सामने आया. सबने देखा कि आरोपी साहिल ने कैसे बेरहमी से साक्षी को मारा. चाकू से 40 से भी ज्यादा वार किए. इस दौरान लोग आसपास से गुजरते रहे, पर किसी ने साक्षी को बचाने की कोशिश नहीं की. अब दिल्ली पुलिस जांच कर रही है. और इसी सिलसिले में वो साहिल को शाहबाद डेरी स्थित घटनास्थल ले गई. यहां Crime scene recreation किया गया. माने हत्याकांड के दौरान कब-क्या-कैसे हुआ, सब दोहराया गया. 

ऐसे में स्वाभाविक रूप से ये सवाल उठा, कि जब पूरे देश ने टीवी और इंटरनेट पर देख ही लिया कि साक्षी की हत्या कैसे हुई, तो पुलिस ने भी देखा ही होगा. ऐसे में क्राइम सीन रीक्रिएट करने की ज़रूरत क्यों पड़ी? फिर अतीक अहमद और अशरफ की हत्या तो लाइव टीवी पर हुई थी. पुलिस की टीम स्वयं चश्मदीद थी. बावजूद इसके, इस मामले में भी क्राइम सीन रीक्रिएट किया गया था. ऐसा क्यों किया जाता है? क्या ये सिर्फ कानूनी खानापूर्ति होती है? क्या अदालतें सीसीटीवी फुटेज के आधार पर फैसला नहीं सुना सकतीं? इन सवालों के जवाब खोजने के लिए दी लल्लनटॉप ने फॉरेंसिक एक्सपर्ट्स और वकीलों से बातचीत की.

कैमरा झूठ तो नहीं बोलता, लेकिन…

फॉरेंसिक एक्सपर्ट डॉक्टर तीरथ दास डोगरा 1971 से फॉरेंसिक्स में काम कर रहे हैं और कई हाई प्रोफाइल मामलों की जांच के बाद अपनी राय रख चुके हैं, मसलन 2002 गुजरात दंगे, आरुषि हत्याकांड आदि. उन्होंने क्राइम सीन रीक्रिएशन पर कहा -

'रीक्रिएशन के कई उद्देशय होते हैं, जो केस के हिसाब से तय होते हैं. इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर के दिमाग में खुद कई सवाल आते हैं, जिनके जवाबों की तलाश में ये किया जाता है. ये पता होना जरूरी है कि हम रीक्रिएशन से ढूंढ क्या रहे हैं? क्या समस्याए आ रही हैं? ये रीक्रिएशन कैसे इस केस की कार्रवाई में मददगार साबित होगा? रीक्रिएशन करने का सबसे बेसिक पर्पज़ यही होता है. 

कई बार इन्वेस्टिगेशन अटक जाती है, और रीक्रिएशन से इसमें नई चीज़ें उजागर हो जाती हैं. मैंने ऐसे कई मामलों पर काम किया है जिसमें लोगों ने कहा था कि ये लगभग नामुमकिन है, पर रीक्रिएट कर साबित किया गया कि ऐसा होना मुमकिन है. दूसरी बात, आपको जो बातें या घटनाक्रम पता है, उसे कोरेबोरेट (सत्यापित) करने के लिए भी कई बार सीन रीक्रिएशन जरूरी है.'

हमने डॉ. डोगरा से आगे पूछा कि जो घटना कैमरे या कैमरों पर इतने साफ तरीके से कैद हुई, उस मामले में सीन रीक्रिएट करने की क्या जरूरत है? इसपर डॉ. डोगरा ने कहा कि कई बार कैमरे भी धोखा दे सकते हैं. कैसे, उन्होंने बताया,

'मैंने कई ऐसे केसों पर काम किया है जिसमें कैमरे के फुटेज से बड़े-बड़े अफसर गुमराह हो गए थे. अगर वो फोटो है, तो वो मिसलीडिंग हो सकती है. वीडियो भी बिना एडिट किया ही होना चाहिए. 

सीन रीक्रिएट कर अधिकारी इस बात की भी पुष्टि कर लेते हैं कि कहीं कोई चीज़ मिसकैलकुलेट तो नहीं हो रही. (मिसाल के तौर पर) कई बार कैमरे के एंगल की वजह से रोड पर पड़ी कोई चीज़ मिस हो जाती है, वो सीन रीक्रिएट कर समझ आती है. हालांकि, सीन रीक्रिएशन में उन्हीं चीज़ों को दोहराया जाता है, जो कैमरे में नज़र आई हो. ऐसा भी होता है कि एक ही केस में हमें चार-पांच बार सीन रीक्रिएट करना पड़े.'  

डॉ. डोगरा ने आगे ये भी बताया कि कई बार तो डॉक्टर और फॉरेंसिक एक्सपर्ट तक को क्राइम सीन रीक्रिएशन से नई जानकारी मिलती है. वो कहते हैं,

'सबसे पहले तो इससे वारदात को कन्फर्म किया जाता है. हां, ये (घटना) मुमकिन है, इस तरह से हो सकती है. कैमरे में कई बार चीज़े क्लीयर नहीं होती. कैमरे में इवेंट पूरी तरह से नज़र नहीं आता है. कोर्ट में साबित करना होता है, कि इसी हथियार का इस्तेमाल किया गया था. डॉक्टर्स को अपनी राय देनी पड़ती है, कि यही वेपन है, जिससे हमला किया गया. ऐसे में सीन रीक्रिएशन से डॉक्टर्स को मदद मिलती है, कि ऐसी सिचुएशन थी. तब जाकर डॉक्टर बता पता है, कि जो शारीरिक आघात हुए हैं, वो ऐसे हुए हैं. आपको कोर्ट में सारी चीज़ें साबित करने के लिए ऐसा करना पड़ता है. हालांकि, ये केस बाय केस बेसिस पर किया जाता है. कई केसों में मुझे रीक्रिएशन करने के बाद नई जानकारी मिली है. वो भी वीडियो रिकॉर्डिंग मिलने के बावजूद.'

वकीलों ने क्या कहा?

डॉक्टर डोगरा के बाद हमने वकीलों से बातचीत कर ऐसे मामलों में लीगल पेचीदगियों को समझने की कोशिश की. इंडिया टुडे के लिए लंबे समय से सुप्रीम कोर्ट कवर कर रहे संजय शर्मा ने आपराधिक मुकदमों के विशेषज्ञ वकील सुशील टेकरीवाल से बात की. सुशील ने बताया कि सीसीटीवी फुटेज मान्य सबूत नहीं है. वारदात से जुड़े जैविक यानी बायोलॉजिकल, फॉरेंसिक, साइंटिफिक और फिजिकल सबूत किसी भी घटना के प्राथमिक सबूत माने जाते हैं. सीन रीक्रिएशन से कई चीज़ें मिल सकती हैं. खून के निशान, हथियार, संयोग से रह गए उंगली के निशान, और कुछ दूसरे फॉरेंसिक और जैविक सबूत भी सीन रीक्रिएशन से मिल सकते हैं.  

टेकरीवाल के मुताबिक सीसीटीवी फुटेज की अहमियत कोरेबोरेटिव एविडेंस या पुष्टिकारक साक्ष्य के तौर पर ही होती है. यानी सीसीटीवी फुटेज अपराध की कड़ियां जोड़ने में मददगार बन सकती है, लेकिन मुख्य कड़ी नहीं हो सकती. अपराध साबित करने का मुख्य ज़रिया मौलिक और वैज्ञानिक सबूत ही होते हैं. माने महज़ सीसीटीवी फुटेज देखकर अदालत फैसला नहीं सुनाती.

दी लल्लनटॉप से बातचीत में एडवोकेट नेहा रस्तोगी अदालती कार्यवाही में सीसीटीवी फुटेज की जगह को और विस्तार से समझाती हैं. उन्होंने हमे बताया कि ऐसे सारे सबूतों को इंडियन एविडेंस एक्ट के सेक्शन 65 बी के तहत मीडिया एविडेंस के तहत फाइल किया जाता है. ऐसे में कोर्ट चार चीज़ों का ध्यान रखती है -

- फुटेज केस से रेलेवेंट है या नहीं? फुटेज केस से सीधे तौर पर जुड़ी हो, कोर्ट तभी उसी एडमिसेबल मानती है.

- घटना के बाद जो भी वीडिया या ऑडियो हो, उसमें एडिटिंग नहीं होनी चाहिए. घटना जैसे भी कैप्चर (रिकॉर्ड) की गई है, बिना किसी बदलाव के वैसे ही कोर्ट के सामने पेश होनी चाहिए. एडिटिंग के बाद पेश हुए वीडियो या ऑडियो को कोर्ट मंजूर नहीं करेगा, चाहे वो एडिट करने के बाद रेलेवेंट ही क्यों ना हो जाए.

- अगर वीडियो या ऑडियो में बातचीत हो रही है, तो उसकी टाइप की हुई कॉपी भी होनी चाहिए. वो भी शब्द-बा-शब्द.

- किसी भी वीडियो या ऑडियो का एक जीवनकाल होता है. प्रायः इसे पांच साल माना जाता है. उससे ज्यादा पुराना वीडियो या ऑडियो होता है तो कोर्ट उसे कंसीडर करे, ये ज़रूरी नहीं है. हालांकि, अगर किसी केस में कोर्ट को लगता है कि पांच साल से पुराना वीडियो अभी भी सही है और उसमें कोई कमी या बदलाव नहीं आए हैं, तो वो उसे स्वीकार कर लेती है.

एडवोकेट नेहा ने हमें ये भी बताया कि अगर कोई घटना कई कैमरों पर रिकॉर्ड होती है, और उनके टाइम मैच होते हैं, तो ऐसे में मामले में सहूलियत हो जाती है. फिर सीसीटीवी को ऑपरेट कौन कर रहा होता है, इसपर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. अगर सरकारी सीसीटीवी का फुटेज है (मसलन पुलिस द्वारा स्थापित कैमरे) और बिना किसी छेड़छाड़ का वीडियो हो, तो उसे वरीयता मिलती है.

कौन तय करता है कि रीक्रिएशन होगा या नहीं?

सीन रीक्रिएशन का फैसला आमतौर पर इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर (जांच अधिकारी) का होता है. किसी-किसी केस में कोर्ट भी इसकी मांग कर सकता है. तब पुलिस को रीक्रिएशन के नतीजों/निष्कर्षों के साथ कोर्ट में लौटना पड़ता है.

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