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पहली बार विदेश से उठी खालिस्तान की मांग, सियासत ने भिंडरावाला को देश में उसका चेहरा बना दिया

'खालिस्तान' शब्द आज फिर प्रासंगिक है लेकिन खालिस्तान की मांग की जड़ें इतिहास में कहीं गहरे दफ्न हैं.

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अमृतपाल सिंह और जरनैल सिंह भिंडरांवाला (फोटो सोर्स- आज तक)

एक 30 साल का शख्स दुबई से 2022 में भारत आता है. और उसकी आमद के साथ ही एक बार फिर 'खालिस्तान' की मांग का जिन्न भी बोतल से बाहर निकल आता है. ये नया युवक कौन? अमृतपाल सिंह (Amritpal Singh). दुबई से आने के बाद वो सिरमौर बन जाता है एक ऐसे संगठन का जिसकी बुनियाद डाली थी दीप सिद्धू ने. संगठन का नाम, 'वारिस पंजाब दे.' 

दीप सिद्धू की सड़क दुर्घटना में मौत के बाद अमृतपाल सिंह ने संगठन की कमान संभाली और जल्द ही वो ख़बरों में छा गया. कुछ अपने चेहरे-मोहरे की वजह से तो कुछ अपनी कारगुज़ारियों के कारण. लोग उसकी तुलना जरनैल सिंह भिंडरांवाला से करने लगे.  क्योंकि वो भी भिंडरांवाला की तरह ‘अलग खालिस्तान’ का नारा बुलंद करने लगा. 

और अब अमृतपाल सिंह फरार है. उसे पकड़ने के लिए पंजाब पुलिस और इंटैलिजेंस एजेंसियां दिन-रात अभियान चला रही हैं. उसके संगठन के कई लोगों को गिरफ्तार कर उनसे पूछताछ की जा रही है.

खालिस्तान की मांग को लेकर हिंसा, सियासत और बवाल की दशकों पुरानी कहानी नए किरदारों और राजनीतिक मौसम के हिसाब से नए-नए मोड़ लेती आई है. लेकिन जब जब खालिस्तान की बात होती है जरनैल सिंह भिंडरांवाला का ज़िक्र ज़रूर आता है. 

'खालिस्तान' शब्द आज फिर ख़बरों में है, लेकिन खालिस्तान की मांग की जड़ें इतिहास में कहीं गहरे दफ्न है. 

सिख धर्म का इतिहास-

खालिस्तान आंदोलन की तह में जाने के लिए हमें सिख धर्म के इतिहास को समझना पड़ेगा. पन्द्रहवीं सदी के आखिर में गुरु नानक ने सिख धर्म की स्थापना की. इस परंपरा में सिखों के कुल दस गुरु हुए. इस सिलसिले के आख़िरी गुरु गोविंद सिंह थे. गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की शुरुआत कर सिख धर्म को एक औपचारिक रूप दिया. और इस धर्म के नियम कायदे तय. अपने छोटे से इतिहास में सिख गुरुओं को मुग़ल बादशाहों के हाथों क्रूरता का सामना करना पड़ा था. इसलिए गुरु गोविंद सिंह के कौल पर खालसा फ़ौज की शुरुआत हुई.

गुरु गोविन्द सिंह ने बंदा सिंह बहादुर को खालसा फ़ौज का लीडर बनाया. बंदा सिंह बहादुर की मौत के बाद साल 1733 में मुगलों ने सिखों के साथ संधि की कोशिश की और सिखों के लीडर कपूर सिंह को नवाब की उपाधि दी. नवाब कपूर ने सिखों को एक करने के लिए दल खालसा की स्थापना की. दल खालसा को दो हिस्सों में बांटा गया था. बुड्ढा दल और तरुण दल. बुड्ढा दल में 40 की उम्र से ऊपर के अनुभवी लोग होते थे. और तरुण दल में 40 की उम्र से कम के लोग. बुड्ढा दल का काम धर्म का प्रचार प्रसार करना, और सिख गुरुद्वारों की रक्षा करना होता था. वहीं तरुण दल एक्टिव ड्यूटी पर तैनात रहता था.

नवाब कपूर सिंह ने सिखों को एक करने के लिए दल खालसा की स्थापना की (तस्वीर- Wikimedia commons)

आगे जाकर इन दोनों दलों को 12 छोटे-छोटे हिस्सों में बांटा गया. हर छोटा दल अपने अपने सूबे की रक्षा करता और उसमें विस्तार भी करता. इस दौरान जीती गई जमीन का हिसाब हरमंदिर साहिब में जाकर लिखा जाता. बाकायदा दस्तावेज़ तैयार होते. आगे जाकर इन दस्तावेज़ों के आधार पर रियासतें तैयार हुई, जिन्हें मिस्ल कहा जाने लगा. चूंकि दल खालसा के 12 हिस्से थे. इसलिए सिखों की रियासत 12 मिस्लों के रूप में तैयार हुई. अठारहवी सदी के अंत तक ये मिस्लें यूं ही चलती रहीं और कई बार इनमें आपसी लड़ाइयां भी हुईं. फिर साल 1799 में रणजीत सिंह ने लाहौर जीता और 1801 में खुद को पंजाब का महराजा घोषित कर दिया. उन्होंने 12 मिस्लों को एक किया और सिख साम्राज्य की शुरुआत की. महाराजा रणजीत सिंह ने अपने राज को सरकार खालसा का नाम दिया. और अगले दशकों में सिख साम्राज्य को तिब्बत और अफ़ग़ानिस्तान की सीमाओं तक पहुंचा दिया.

अंग्रेज़ों का राज और सिखों के लिए अलग देश की मांग-

ये साम्राज्य आधी सदी तक चला लेकिन 1849 में अंग्रेजों से हार मिलने के बाद सिख साम्राज्य कई टुकड़ों में बंट गया. जिसमें से लगभग सारा पंजाब अंग्रेजों के अधीन हो गया और उन्होंने उसका नाम पंजाब प्रोवेंस रख दिया. जो छोटे मोटे प्रिंसली स्टेट बचे भी, उन्होंने भी अंततः अंग्रेजों की दासता स्वीकार कर ली. सिखों और अंग्रेज़ों के बीच रिश्ते कुछ ख़राब नहीं थे. बाकायदा सिख, ब्रिटिश आर्मी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करते थे. लेकिन प्रथम विश्व युद्ध और जलियांवाला बाग़ नरसंहार की घटना ने पंजाबियों के दिल में ब्रिटिश हुकूमत के लिए नफरत भर दी. साल 1930 के आसपास, जब लगने लगा कि अंग्रेज़ भारत से चले जाएंगे, पंजाब में सिखों के बीच सिख होमलैंड की मांग उठने लगी. इस मांग को उठाने में सबसे आगे था ‘शिरोमणी अकाली दल’(Shiromani Akali Dal). ये संगठन बना 1920 में. खुद को सिखों का प्रतिनिधि मानने वाला शिरोमि अकाली दल चाहता था कि सिखों का अपना अलग देश होना चाहिए.

1940 में लाहौर रिजॉल्यूशन पास हुआ. इसमें मुस्लिम लीग ने औपचारिक तौर पर पाकिस्तान बनाने की मांग उठाई. मौका देखकर अकाली दल ने भी सिखों के लिए अलग देश की मांग उठाना शुरू कर दिया. पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह अपनी किताब ‘सिखों का इतिहास’ में लिखते हैं,

“सिखों में ‘अलग राज्य’ की कल्पना हमेशा से ही थी. रोज़ की अरदास के बाद गुरु गोविंद सिंह का ‘राज करेगा खालसा’ नारा लगाया जाता है. इस नारे ने अलग राज्य के ख्व़ाब को हमेशा जिंदा रखा.”

खुशवंत आगे लिखते हैं,

“सिख नेताओं ने कहना शुरू कर दिया था कि अंग्रेज़ों के बाद पंजाब पर सिखों का हक है.”

लेकिन आजादी के बाद हुए विभाजन ने उनकी ‘अलग राज्य’ की उम्मीदों को धूमिल कर दिया था. आजादी के बाद भी सिख लगातार अलग देश या कम से कम भारत के अंदर एक आजाद सूबे की मांग उठाते रहे. लेकिन धर्म के आधार पर अलग देश की मांग को सरकार ने अस्वीकार कर दिया. लेकिन आजादी के कुछ साल बाद हुई एक घटना ने अकाली दल को एक और मौका दे दिया. हुआ ये कि 1953 में आंध्र प्रदेश को अलग राज्य बना दिया गया. जो भाषा के आधार पर गठित होने वाला पहला राज्य था. इससे ‘क्यू’ लेकर अकाली दल ने ‘सिखों’ के बदले ‘पंजाबी भाषा’ बोलने वालों के लिए अलग राज्य की मांग कर दी. इस स्ट्रेटेजी को बड़ी सफलता मिली जब 1 नवंबर, 1966 में उस वक्त के पंजाब को भाषा के आधार पर विभाजित करके पंजाब (पंजाबी भाषी) एवं हरियाणा (हिंदी भाषी) बना दिया गया. 

खालिस्तान की मांग करने वाले सिख अलगावादी नेता जगजीत सिंह चौहान (तस्वीर- Wikimedia commons)
खालिस्तान के मुद्दे को पाकिस्तान ने खूब भुनाया-

पंजाब बनने के बाद सिखों की मांग पूरी हो जानी चाहिए थी. लेकिन यहां से चीजें सुधरने के बजाय और बिगड़ती चली गई. पंजाब गठन के दौरान सरकार ने चंडीगढ़ को पंजाब और हरियाणा की संयुक्त राजधानी बना दिया. कुछ पंजाबी बोलने वाले इलाके हरियाणा राज्य को दे दिए गए. एक और बड़ी दिक्कत थी पानी को लेकर. केंद्र सरकार ने सतलज, रावी और ब्यास नदी पर बनी नहरों को अपने कंट्रोल में लेकर उनके मनमाने आवंटन कर दिए. इस चक्कर में इन नदियों का सिर्फ 23% पानी पंजाब को मिला. ये सब मुद्दे पंजाब में नए उबाल का कारण बन रहे थे. 1967 में हुए चुनावों में अकाली दल ने मांग उठाई कि पंजाब को जम्मू-कश्मीर की तरह धारा 370 के तहत विशेष दर्जा दे दिया जाए.

अकाली चुनाव जीते पर अब तक उन्होने अलग देश की मांग नहीं उठाई.

इन चुनावों में अकाली दल को जीत मिली. हालांकि इस दौरान अकाली दल ने कभी अलग देश की मांग नहीं रखी.  तो फिर सवाल ये कि खालिस्तान की मांग पहली बार कहां से उठी. इसके लिए हमें चलना पड़ेगा देश के बाहर. 13 अक्टूबर, 1971 की बात है. अमेरिकी अखबार न्यू यॉर्क टाइम्स में एक विज्ञापन छपा. इस विज्ञापन में खालिस्तान नामक नए देश की घोषणा की गई थी. और दुनिया भर में रहने वाले सिखों से मदद देने को कहा गया था. इस विज्ञापन को छपवाने वाले शख्स का नाम था, जगजीत सिंह चौहान. जगजीत एक समय में पंजाब विधानसभा का डिप्टी स्पीकर रह चुका था.

1969 में चुनाव हारने के बाद वो ब्रिटेन गया. और यहां उसने खालिस्तान के समर्थन में अभियान चलाना शुरू किया. खालिस्तान का मतलब होता है, शुद्ध स्थान. जैसे खालिस घी, खालिस दूध वैसे ही खालिस्तान. जगजीत जिस खालिस्तान की मांग कर रहा था, उसमें पंजाब, हरियाणा, हिमांचल, और राजस्थान के भी कुछ हिस्से आते थे. ब्रिटेन में जगजीत की मुहिम को कोई खास समर्थन नहीं मिला. इसी बीच 1971 का युद्ध हुआ. और पाकिस्तान ने इस युद्ध में खालिस्तान आंदोलन को हवा देने की कोशिश की. जगजीत सिंह को पाकिस्तान आने का निमंत्रण मिला. यहां उसने फिर खालिस्तान की बात की. जिसे पाकिस्तान की प्रेस ने खूब जोर-शोर से उछाला.

जगजीत सिंह के अनुसार ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने उसे प्रस्ताव दिया था कि ननकाना साहिब खालिस्तान की राजधानी बनेगा. अगले कुछ सालों में जगजीत की मुहिम को यूरोप और अमेरिका के एक सिख धड़े द्वारा समर्थन मिलने लगा, और जगजीत सिंह चौहान की हैसियत बढ़ती गई. साल 1973 में अकाली दल की कार्यसमिति ने आनंदपुर साहिब में आयोजित एक सम्मेलन में एक नीतिगत प्रस्ताव अपनाया. जिसे आनंदपुर रिजॉल्यूशन कहा जाता है. इस प्रस्ताव में कहा गया था कि केंद्र सरकार को डिफेंस, मुद्रा और विदेश नीति को छोड़कर बाकी मामले पंजाब सूूबे पर छोड़ देने चाहिए. इसके एक पंजाबी संस्करण में सिखों को एक राष्ट्र के रूप बयान किया गया था. हालांकि ये संस्करण कभी प्रकाशित नहीं हुआ. इस प्रस्ताव पर केंद्र की भी प्रतिक्रिया आई. इंदिरा गांधी(Indira Gandhi) ने इस प्रस्ताव को ‘देशद्रोह’ की कार्रवाई बताया. उन्होंने कहा कि ये कोई स्वायत्तता की मांग नहीं है. ये तो अलग देश बनाने की मांग है. इसके बाद इस प्रस्ताव पर अगले एक दशक तक कोई ज्यादा चर्चा नहीं हुई.

ज्ञानी जैल सिंह मुख्यमंत्री बने-

इधर अकाली दल पर नकेल कसने के लिए 1972 में इंदिरा ने सरदार ज्ञानी जैल सिंह को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया. जैल सिंह पंजाब में अकालियों का वर्चस्व तोड़ना चाहते थे. गुरुद्वारों, कॉलेज और स्कूलों में अकालियों का प्रभाव था. इसकी काट के लिए जैल सिंह ने सिख जनता को खुश करने के लिए सरकारी कार्यक्रम चलवाए. सिख गुरुओं के नाम पर सड़कों और स्कूलों के नामकरण हुए. शहीदी दिवसों पर सरकारी कार्यक्रमों का आयोजन होने लगा. लेकिन ये सब भी काफी नहीं था. इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस की छवि इतनी खराब हुई कि 1977 में जैल सिंह पंजाब से रुखसत हो गए. अकाली दल एक बार फिर सत्ता में आ गया.


उस वक्त केंद्र में तो इंदिरा गांधी जैसी करिश्माई लीडर थीं जो शायद कांग्रेस को फिर से जीवित कर देते लेकिन पंजाब में कांग्रेस की स्थिति बेहद कमज़ोर थी.

जरनैल सिंह भिंडरांवाला-

कांग्रेस को चाहिए था कोई करिश्माई नेता. मशहूर पत्रकार मार्क टली ने अपनी किताब में लिखा है कि कांग्रेस ने जरनैल सिंह भिंडरावाला (1947 – 1984) को आगे बढ़ाना शुरू किया. जरनैल सिंह बराड़/भिंडरांवाला सिखों के धार्मिक समूह दमदमी टकसाल का प्रमुख लीडर था. वो सात साल की उम्र में 'दमदमी टकसाल' आया था. यहीं पढ़ा और बड़ा हुआ. जरनैल ने दमदमी टकसाल में सिखों के ग्रंथों और सिख धर्म के विषय में गहन अध्ययन किया था. फिर 1977 में उसे दमदमी टकसाल का अध्यक्ष चुन लिया गया. दमदमी टकसाल एक सिख शैक्षिक संगठन है. जिसका मुख्यालय अमृतसर के पास चौक मेहता इलाके में है. दमदमा साहिब को 1737 में सिखों के लिए शिक्षा की सर्वोच्च गद्दी माना जाता था.

जरनैल सिंह भिंडरांवाले पंजाब में सिखों के धार्मिक समूह दमदमी टकसाल का प्रमुख लीडर था (तस्वीर- Getty)
निरंकारी-

शिया और सुन्नी, शैव और वैष्णव या कैथलिक और प्रोटेस्टेंट्स की तरह ही निरंकारी भी सिखों की एक उपशाखा है. मगर जहां सिख मानते हैं कि गुरु गोविंद सिंह उनके आख़िरी गुरू थे, निरंकारियों का कहना है कि गोविंद सिंह के बाद भीजीवित गुरु हो सकते हैं. 

भिंडरांवाला कैसे बना इतना ताकतवर?

साल 1978. बैसाखी का दिन. इस तारीख का सिख धर्म में ख़ास महत्त्व है क्योँकि गुरु गोविन्द सिंह ने बैसाखी के दिन ही खालसा पंथ की शुरुआत की थी. उस रोज़ अमृतसर में उत्सव का माहौल था. बखेड़ा तब खड़ा हुआ जब निरंकारी पंथ का समूह सरकार के पास जुलूस निकालने की इजाज़त लेने पहुंचा. पंजाब में तब अकाली दल की सरकार थी और उन्होंने इजाजत दे भी दी. ये जानते हुए कि इससे कुछ लोग नाराज़ हो सकते हैं. भिंडरांवाला ने तत्काल दरबार साहिब के पास एक सभा बुलाई. सभा में निरंकारियों के खिलाफ जोरदार भाषण दिया गया. इसके बाद इधर से एक जुलूस निरंकारियों की तरफ बढ़ा.

दोनों पक्षों में खूनी झड़प हुई और कुल 13 लोग मारे गए. इसे अकाली-निरंकारी संघर्ष के नाम से जाना जाता है. इस घटना के बाद भिंडरांवाला और उनके समर्थकों ने अकाली सरकार की नाक में दम कर दिया. अकालियों को 50 साल के इतिहास में पहली बार कट्टर सिख धड़े से चुनौती मिल रही थी.

पंजाब में भिंडरांवाला का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था. तब दिल्ली कांग्रेस की नजर भिंडरांवाले पर पड़ी. अपनी किताब ‘ट्रेजेडी ऑफ पंजाब’ में कुलदीप नैयर इस पूरे घटनाक्रम का ब्यौरा देते हैं. कुलदीप लिखते हैं कि तब कांग्रेस में पंजाब की कमान संजय गांधी के हाथ में थी. पंजाब में परंपरागत सिख धड़ा अकाली दल का समर्थक था. इसलिए संजय ने सुझाव दिया कि किसी ऐसे व्यक्ति को अकाली दल के चैलेंजर के रूप में खड़ा किया जाए, जो सिखों में खासी पकड़ रखता हो. इसके लिए दो लोगों को चुना गया. अंत में संजय गांधी ने फैसला किया कि जरनैल सिंह भिंडरांवाला को इस काम के लिए आगे बढ़ाया जाए. कुलदीप नैयर के हिसाब से ये बात कमलनाथ ने खुद उन्हें बताई थी.

पंजाब में हालत कैसे बिगड़े?

कांग्रेस ने 1978 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) के चुनावों में ऐसे उम्मीदवारों का समर्थन किया जिन पर भिंडरांवाला का हाथ था. जनवरी 1980 तक इंदिरा की सत्ता में वापसी चुकी थी. इन चुनावों में भिंडरांवाला ने कांग्रेस के लिए प्रचार किया. भिंडरांवाला ने कांग्रेस(आई) उम्मीदवार गुरदिल सिंह ढिल्लन और रघुनाथन लाल भाटिया का समर्थन किया. एक वक्त तो इंदिरा और भिंडरांवाला ने स्टेज भी शेयर किया था. इलेक्शन के कुछ दिन बाद ही बैसाखी झगड़े को लेकर फैसला आया और गुरबचन सिंह रिहा हो गए. इस खबर से भिंडरांवाला इतना बौखलाया कि उसने अकालियों के खिलाफ और जोर-शोर से बोलना शुरू कर दिया.

जून 1984 में हुए ऑपरेशन ब्लू स्टार में जरनैल सिंह भिंडरांवाले मारा गया. उसका शव अकाल तख़्त के आंगन में पड़ा मिला (तस्वीर- Getty)

दुश्मन का दुश्मन दोस्त की तर्ज़ पर भिंडरांवाला को अकाली दल का साथ मिला. दोनों ने मिलकर धर्म युद्ध मोर्चा नामक एक आंदोलन की शुरुआत कर दी. इस आंदोलन का उद्देश्य था, आनंदपुर साहेब प्रस्ताव को लागू करवाना. ये साल 1982 की बात है. यानी आनंदपुर साहेब प्रस्ताव फिर चर्चा में आ गया. जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे. जितने उग्र प्रदर्शन होते उतना ही कड़ा होता था कांग्रेस सरकार (जो केंद्र में भी थी और राज्य में भी) का रुख. पंजाब में स्थिति बद से बदतर होती गई.

इस बीच भिंडरांवाला ने स्वर्ण मंदिर को अपना ठिकाना बना लिया. वहां से आदेश जारी किए जाने लगे. अगले दो सालों में सरकार ने कई बार भिंडरांवाला को गिरफ्तार करने की कोशिश की. लेकिन मामला बिगड़ता चला गया. भिंडरांवाला और उसके समर्थक स्वर्ण मंदिर के अंदर भारी हथियार इकट्ठा करने लगे. सरकार हथियारों के इस ज़ख़ीरे को रोक नहीं पाई. इस सब की परिणीति हुई ऑपरेशन ब्लू स्टार में.

भिंडरांवाला की मौत के बाद खालिस्तान मूवमेंट?

भिंडरांवाला को खालिस्तान आंदोलन का चेहरा माना जाता है. लेकिन असल में इस मूवमेंट को विदेशों में रहने वाले कुछ कट्टरपंथी सिख नेताओं का समर्थन मिलता रहा. इधर 1984 से लेकर अगले एक दशक तक पंजाब उग्रवाद की चपेट में रहा. लेकिन इस एक दशक में जनता भी इस अशांति से तंग आ चुकी थी. शाम ढले लोगों ने घरों से बाहर निकलना बंद कर दिया. आए दिन कत्लो गारत की ख़बरें आती थीं.  कुछ अख़बार पंजाब को फ़ौज के हवाले करने की बात करने लगे थे. इस बीच पंजाब में पुलिस की कमान सौंपी गई केपीएस गिल को. गिल ने खालिस्तान आंदोलन को आखिरकार कुचल दिया. 

धीरे-धीरे पंजाब में खालिस्तान आंदोलन की आग बुझती चली गई. जगजीत सिंह के ऊपर राजीव गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप लगे. सरकार ने उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया. फिर 2001 में अटल बिहारी वाजपोयी की सरकार से उसे माफी मिली और वो भारत वापिस आ गया. भारत आकर भी उसने खालिस्तान की मांग छोड़ी नहीं. बल्कि उसने खालसा राज पार्टी का गठन किया. और बोला कि लोकतान्त्रिक तरीके से खालिस्तान की मांग को आगे बढ़ाएगा. इस बार जनता से उसे कोई सपोर्ट न मिला और 2007 में हृदयाघात से उसकी मृत्यु हो गई. इस तरह भारत में खालिस्तान आंदोलन लगभग ख़त्म होता गया. लेकिन विदेशों में खालिस्तान कमांडो फ़ोर्स और खालिस्तान लिबरेशन फ़ोर्स जैसे कई संगठन खड़े हुए. इनमें से ज्यादातर को आतंकी संगठन करार दिया गया. इन संगठनों के बचे खुचे लोग अब भी विदेशों में खालिस्तान के मुद्दे को उठाते हैं. और अब 21 वीं सदी में अमृतपाल सिंह नाम का एक और किरदार खालिस्तान की कहानी को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है. 

वीडियो: अमृतपाल सिंह का खुफिया रिपोर्ट में पाकिस्तान और ISI से क्या कनेक्शन निकला