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धीरेंद्र शास्त्री और सोशल मीडिया से पहले के 5 बाबा, अब होते तो बहुत वायरल होते!

बिना फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब के भारतीय राजनीति को हमेशा के लिए बदल देने वाले बाबाओं की कहानी.

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धीरेंद्र शास्त्री सोशल मीडिया के दौर में मशहूर हुए, लेकिन उनसे पहले ऐसे संत या बाबा हुए हैं जिन्होंने बिना फेसबुक-ट्विटर के राजनीति को प्रभावित किया है. (तस्वीरें: इंडिया टुडे)

कथावचक आचार्य धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री (Pandit Dhirendra Krishna Shastri) का बिहार दौरा खासा विवादित रहा. राजधानी पटना में 13 मई से 17 मई तक हनुमान कथा का आयोजन किया गया था. लेकिन कथा को लेकर धर्म और अध्यात्म के साथ सियासत ज्यादा होती रही. ‘हिंदू राष्ट्र’, ‘विश्वगुरु’, ‘हिंदूहित’ जैसे राजनीतिक शब्द सियासी गलियारों में गहमा-गहमी का तापमान बढ़ाते रहे. आरजेडी बागेश्वर बाबा को ‘मंडल की राजनीति का मोहरा’ बताती रही और बीजेपी धीरेंद्र शास्त्री के विरोध को हिंदू विरोध कहती रही.

धीरेंद्र शास्त्री उन बाबाओं में से एक हैं जो सोशल मीडिया के दौर में लोकप्रिय हुए. फिर उस लोकप्रियता से सियासी कद बनाने की कवायद में जुट गए. लेकिन सोशल मीडिया से पहले भी ऐसे बाबा हुए हैं जिन्होंने सियासत में आकर अपना कद बढ़ाया और बड़े-बड़े नेताओं को अपने आगे झुकने पर मजबूर कर दिया. उनके दरबार में सियासी हस्तियों के नतमस्तक होने के किस्से भरे पड़े हैं. हम आपको आज सोशल मीडिया से पहले के ऐसे पांच बाबाओं के बारे में बताएंगे, जिनके सियासी कद और राजनीतिक रसूख के सामने सरकारें झुकती थीं, जिन्होंने धर्म को राजनीति से जोड़कर ना सिर्फ भारत की सियासत को प्रभावित किया, बल्कि हमेशा के लिए बदल दिया.

स्वामी करपात्री महाराज: नेहरू और इंदिरा से भिड़ गए

करपात्री महाराज (Swami Karpatri) ने धर्मशास्त्रों का गंभीर अध्ययन किया था. उनकी शास्त्रीय विद्वता के लिए उन्हें 'धर्मसम्राट' की उपाधि मिली थी. 40 के दशक में अंग्रेजों ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 पारित किया, जिसके तहत 1937 में प्रांतीय चुनाव होने लगे. यही वो समय था जब शास्त्रों के आधार पर समाज और सरकार चलाने के लिए बनारस से एक संत की आवाज़ गूंजी. ये साधु दिन में एक बार भोजन करता था और जितना उसके दोनों हाथों में आ जाता था उतना ही खाता था. कर यानी हाथों को बर्तन बनाने ने की वजह से इंन्हें करपात्री महाराज नाम मिला था. असली नाम था हरि नारायण ओझा.

आजादी के बाद, 1948 में करपात्री महारज ने 'हिंदू हित सर्वोपरि' का नारा देते हुए अखिल भारतीय रामराज्य परिषद नाम की पार्टी बनाई. करपात्री महाराज के दरबार में राजाओं, व्यापारियों, बड़े नेताओं और आम जनता की भीड़ जुटती थी. 1952, 1957 और 1962 के लोकसभा चुनाव में बाबा ने अपने प्रत्याशी उतारे. 1957 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में करपात्री महाराज की पार्टी 17 सीटें जीतने में कामयाब रही. 1952 के लोकसभा चुनाव में 3 उम्मीदवार और 1962 में 2 प्रत्याशी रामराज परिषद के टिकट से जीत कर संसद पहुंचे. करपात्री महाराज हिंदू कोड बिल की खिलाफत करते हुए प्रधानमंत्री नेहरू से भिड़ गए थे. 1952 के चुनाव में रामराज परिषद ने नेहरू के खिलाफ जबलपुर बस स्टैंड पर दूध बेचने वाले व्यक्ति (चिरऊ महाराज) को इलाहाबाद की फूलपुर सीट से चुनाव लड़वाया था.

Swami Karpatri - Wikipedia

1965 में गौहत्या के खिलाफ सख्त कानून बनाने की मांग को लेकर करपात्री महारज ने आंदोलन शुरू किया था. ताशकंद समझौते में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की आकस्मिक मृत्यु के बाद जनवरी 1966 में इंदिरा गांधी  प्रधानमंत्री बनीं. वो करपात्री महाराज का सम्मान करती थीं. उन्हें लगा इंदिरा गांधी की सरकार में गौहत्या के खिलाफ सख्त कानून और बूचड़खाने को बंद कराने की मांग मनवा लेंगे. लाखों साधु-संतों को लेकर 7 नवंबर 1966 को बाबा ने संसद की तरफ कूच कर दिया. 

मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक सभा में जनसंघ के तत्कालीन सांसद स्वामी रामेश्वरानंद ने संतों को उकसाते हुए भाषण दिया कि संसद में घुस कर सांसदों को पकड़कर बाहर ले आएं. ऐसा करे बिना गौहत्या को रोकने और बूचड़खाने बंद करने का कानून नहीं बनेगा. इस भाषण के बाद साधु-संत संसद की तरफ बढ़े और जवाब में पुलिस ने फॉयरिंग कर दी. कई साधु-संत, महिलाएं और बच्चे मारे गए. राजधानी में कर्फ्यू लगा दिया गया और तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया. 

करपात्री महाराज को मानने वाले आज भी कहते हुए मिल जाते हैं कि साधु-संतों के शव देखकर बाबा ने इंदिरा गांधी को शाप दिया था कि जैसे इंदिरा ने इन साधुओं पर गोलियां चलवाई हैं वैसे ही उनका भी हाल होगा. करपात्री महाराज के असर और उनके कद का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग पूजा-आरती के बाद जयकारे में करपात्री महाराज का भी जयकारा लगाते हैं.  

बाबा राघवदास: मंदिर, मूर्ति और सियासत

बाबा राघवदास का जन्म महाराष्ट्र के पुणे में सन 1896 में हुआ था. बचपन का नाम राघवेंद्र था. परिवार 1913 में प्लेग (महामारी) का शिकार हुआ तो राघवदास प्रयाग, काशी घूमते हुए पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में मौनी बाबा से मिले और उनके शिष्य हो गए. बाद में जिला देवरिया में अपना आश्रम बनाया और पूर्वी उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मभूमि. महात्मा गांधी के साथ नमक सत्याग्रह में जुड़े और विनोबा भावे से भूदान आंदोलन में. 

आजादी के बाद जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के भीतर के समाजवादी धड़े के 13 विधायक आचार्य नरेंद्र देव के नेतृत्व में विधानसभा और कांग्रेस से इस्तीफा देकर बाहर आए तो 1948 में उप-चुनाव हुए. कांग्रेस ने बागी नरेंद्र देव को हराने के लिए अयोध्या सीट से बाबा राघवदास को उतारा. उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस में पुरुषोत्तम दास टंडन, गोविंद बल्लभ पंत जैसे बड़े नेता बाबा राघवदास के मुरीद और भक्त थे. नेहरू प्रधानमंत्री थे. सरदार पटेल गृहमंत्री और गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के प्रीमियर (मुख्यमंत्री को तब प्रीमियर कहा जाता था).

Baba Raghav Das - Wikipedia

बाबा राघवदास ने चुनाव में राममंदिर का मुद्दा उठाया और चुनावी सभाओं में सौगंध लेते फिरते थे कि चुनाव जीतने के बाद वो राम जन्मभूमि को 'मुक्त' करा लेंगे. कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने राम मंदिर के पक्ष में पोस्टर लगवाए. उनमें राघवदास राम और नरेंद्र देव रावण की तरह पेश किए गए थे. राघवदास के पक्ष में संतों-महंतों ने अयोध्या की गलियां जाम कर दीं. गोविंद बल्लभ पंत ने भाषणों में राघवदास में गांधी की आत्मा होने की बात कही और नरेंद्र देव को नास्तिक और हिंदू विरोधी बताया. वहीं पुरुषोत्तम दास टंडन जनसभाओं में लोगों से पूछा करते थे कि राम की धरती अयोध्या किसी नास्तिक को कैसे स्वीकार कर पाएगी. पूरे चुनाव का ध्रुवीकरण कर दिया गया. आचार्य नरेंद्र देव 1312 वोट से चुनाव हार गए.

चुनाव जीतने के बाद साल 1949 में 22-23 दिसंबर की दरमियानी रात को बाबा राघवदास की प्रेरणा से बाबा अभिराम दास और हनुमान प्रसाद पोद्दार ने अपने तीन-चार साथियों के साथ मिलकर पहले सरसू स्नान किया, फिर राम-मूर्ति बाबरी मस्जिद में रख दी. यहां से अयोध्या के मंदिर विवाद ने एक नया मोड़ ले लिया और इसी मोड़ ने आगे चलकर पूरे भारतीय महाद्वीप की राजनीति की दशा और दिशा बदल दी. लोगों के सोचने, सरकारें चुनने और राजनीतिक फैसला लेने की कसौटियां बदल गईं.      

धीरेंद्र ब्रह्मचारी: जिनकी बात इंदिरा गांधी भी मानती थीं

धीरेंद्र ब्रह्मचारी का जन्म 12 फरवरी 1924 को बिहार के मधुबनी में हुआ था. उनके बारे में कहा जाता है कि 13 साल की उम्र में ब्रह्मचारी घर छोड़कर लखनऊ के पास गोपालखेड़ा के महर्षि कार्तिकेय से योग शिक्षा लेने चले गए थे. साल 1958 में धीरेंद्र दिल्ली पहुंचे और प्रधानमंत्री नेहरू को योग सिखाने लगे. थोड़े ही समय में लाल बहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को योग सिखाने और आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने लगे. नेहरू ने इंदिरा गांधी को योग सिखाने को लिए ब्रह्मचारी से कहा और वो इंदिरा के भी योग गुरु हो गए. बाद में जब इंदिरा सत्ता में आईं तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी के पास भी असीम शक्ति आ गई.

धीरेंद्र ब्रह्मचारी का सियासी कद और राजनीतिक रसूख इतना था कि केंद्रीय मंत्री, सचिव स्तर के नौकरशाह और उद्योगपति उनसे मिलने के लिए घंटों इंतज़ार किया करते थे. उस समय उनके पास कई प्राइवेट जेट (हवाई जहाज) थे जिनमें 4 सीटर सेसना, 19 सीटर डॉर्नियर और मॉल-5 विमान की खूब चर्चा हुआ करती थी. वो इन हवाई जहाजों को खुद ही उड़ाया करते थे. अफसरों के विभाग और मंत्रियों के मंत्रालय बदलवा दिया करते थे. आपातकाल के दौरान ब्रह्मचारी की नज़दीकी संजय गांधी से भी बढ़ी और वो दूरदर्शन पर पूरे देश को योग सिखाने लगे.

Swami Dhirendra Brahmachari: The controversial yogi - India Today

इंदिरा गांधी से नज़दीकी के चलते धीरेंद्र ब्रह्मचारी को उस वक्त ‘रासपुतिन’ कहा जाने लगा था. इंदिरा की दोस्त और उनकी जीवनी लिखने वाली पुपुल जयकर ने लिखा है कि धीरेंद्र ब्रह्मचारी आपातकाल के दौरान इंदिरा को गंभीर राजनीतिक मामलों में सलाह दिया करते थे और इंदिरा उनकी सलाह पर अमल भी किया करती थीं. जयकल लिखती हैं कि धीरेंद्र बिना कस्टम ड्यूटी दिए विमान मंगवाने, सरकारी जमीन हथियाने और भ्रष्टाचार के लिए चर्चा में रहते थे, लेकिन प्रधानमंत्री उनकी शिष्या थीं सो उनका झंडा ऊंचा ही रहता था.

संजय गांधी के मौत के बाद राजीव गांधी ने धीरेंद्र ब्रह्मचारी का इंदिरा गांधी से संपर्क काट दिया. राजीव उनके तिकड़मी चरित्र को पचा नहीं पा रहे थे. धीरेंद्र की एंट्री प्रधानमंत्री आवास में प्रतिबंधित कर दी गई. प्रधानमंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने धीरेंद्र ब्रह्मचारी पर सख्ती बढ़ाई और उनसे हवाई जहाजों को उड़ाने के लिए हवाई अड्डे के प्रयोग की फीस वसूली जाने लगी. विदेशी हथियार रखने के लिए उन पर आपराधिक मुक़दमा भी चलाया गया. इसी बीच 1991 में विमान चलाते हुए धीरेंद्र ब्रह्मचारी की एक दुर्घटना में मौत हो गई.

चंद्रास्वामी: ना कोई हद, ना कोई सरहद

आजादी के एक साल बाद 1948 में चंद्रास्वामी का जन्म राजस्थान के जैन परिवार में हुआ. नाम रखा गया "नेमीचंद जैन." बाद में हाथ की सफाई से जादू करने लगे और तांत्रिक होने का दावा करते हुए देश-विदेश के कई बड़े नेताओं, अभिनेताओं और उद्योगपतियों को अपने प्रभाव में ले लिया. नरसिम्हा राव सरकार में वो बहुत ताकतवर थे. उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का गुरू, सहयोगी और अनौपचारिक सचिव कहा जाता था. स्वामी ने दिल्ली में बड़ा आलीशान आश्रम बनवा रखा था. 

From the India Today archives (1995) | The Chandraswami Files - India Today

पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर भी चंद्रास्वामी के करीबियों में शुमार थे. पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह के मुताबिक मारग्रेट थैचर के ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनने की भविष्यवाणी चंद्रास्वामी ने की थी. उसके बाद वो स्वामी के प्रभाव में आ गई थीं. उनके संपर्क में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की पत्नी नैंसी रीगन और हॉलीवुड स्टार एलिजाबेथ टेलर भी थीं. 

चंद्रास्वामी पर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को वित्तीय मदद देने का आरोप लगा था. हत्याकांड की जांच के लिए ‘मिलाप चंद्र जैन आयोग’ बनाया गया था. उसने अपनी रिपोर्ट में स्वामी को हत्या के साजिशकर्ता शिवरासन को पैसे देने का दोषी ठहराया था. चंद्रास्वामी पर हवाला और हथियारों की दलाली का भी आरोप लगा. इन आरोपों के बाद वो धीरे-धीरे नेपथ्य में चले गए.  

महंत अवैद्यनाथ संन्यास, सियासत और सत्ता  

गोरखपुर का गोरक्षपीठ आज की तारीख में उत्तर भारत की राजनीति का एक शक्ति केंद्र है. राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इसी पीठ के महंत हैं. महंत अवैद्यनाथ राम मंदिर आंदोलन के केंद्र में रहे हैं. 1990 के दशक में इस मुद्दे को भारतीय राजनीति का केंद्रीय सवाल बनाने वालों में महंत अवैद्यनाथ भी शामिल थे. उनका भी अपना बड़ा सियासी कद और रसूख था.

(ये स्टोरी हमारे साथी अनुराग अनंत ने की है.)

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