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क्या चीन ने ताइवान पर क़ब्ज़ा करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति को खरीद लिया?

ताइवान-चीन संबंधों का इतिहास क्या है?

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ताइवान के पूर्व राष्ट्रपति मा यिंग-जियू और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग

क्या चीन फूट डालो, शासन करो की नीति पर चल रहा है?
क्या चीन ने ताइवान के ‘अगले राष्ट्रपति’ को खरीद लिया है?
क्या चीन अपने पड़ोसी को हड़पने में कामयाब हो जाएगा?

इन सवालों के केंद्र में एक स्वायत्त द्वीप है. जो ख़ुद को अलग मुल्क़ मानता है. मगर चीन उसकी इच्छा में दिलचस्पी नहीं लेता. उसका एक्कै मकसद है, उस द्वीप को अपने में मिलाना. चाहे जो विधि अपनानी पड़े. अब तक आप समझ चुके होंगे कि हम ताइवान की बात कर रहे हैं. ताइवान कहता है, हमको किसी के सर्टिफ़िकेट की ज़रूरत नहीं है. चीन की तो कतई नहीं. अगर हमारे ऊपर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की तो अंज़ाम बुरा होगा.

वो अपनी अलग पहचान कायम रखने के लिए मरने-मारने को तैयार है. लेकिन अब इस संकल्प में दरारें दिख रहीं है. चीन ने ताइवान के एक बड़े नेता को अपनी तरफ़ मिला लिया है. ये नेता हैं, ताइवान के पूर्व राष्ट्रपति मा यिंग-जियू. जिस समय मौजूदा राष्ट्रपति साइ इंग-वेन यूनाइटेड स्टेट्स और लैटिन अमेरिका के चक्कर लगा रही हैं. इस मकसद से कि उनके दोस्त हाथ छोड़कर ना निकल जाएं. ताकि चीन के वर्चस्व से लोहा लिया जा सके.

उसी समय मा यिंग-जियू चीन पहुंच गए हैं. इतिहास में पहली बार ताइवान के किसी मौजूदा या पूर्व राष्ट्रपति ने मेनलैंड चाइना की धरती पर कदम रखा है. पहुंचते ही उन्होंने कहा, ‘हम सब चाइनीज हैं.’ उनका इशारा ताइवान और चीन को एक खांचे में फिट करके देखने का था. ये बयान चीन की पोलिसी से सौ फ़ीसदी मेल खाता है. अगले बरस ताइवान में राष्ट्रपति चुनाव होने वाला है. इसमें मा की कुओमिन्तांग पार्टी (KMT) की जीत की संभावना जताई जा रही है. अगर ऐसा हुआ तो ताइवान के संप्रभु देश बने रहने का सपना ख़तरे में पड़ सकता है.

ताइवान के पूर्व राष्ट्रपति मा यिंग-जियू चीन पहुंचे 

तो, आइए जानते हैं,

- ताइवान-चीन संबंधों का इतिहास क्या है?
- ताइवान की राजनैतिक पार्टियां क्या चाहती हैं?
- और, क्या चीन, ताइवान पर वैध तरीके से क़ब्ज़ा कर लेगा?

जहां आज कहानी ताइवान की.

जब कभी ताइवान का ज़िक्र आता है, तब हमारे मन में एक सवाल उठता है. वो ये कि ताइवान एक स्वायत्त द्वीप है, चीन का हिस्सा है या संप्रभु देश है? इस सवाल का जवाब इस पर डिपेंड करता है कि आप ये सवाल किससे पूछ रहे हैं? मसलन, चीन, ताइवान को अपना अभिन्न हिस्सा मानता है. उसका मकसद इसको आधिकारिक तौर पर अमलीजामा पहनाने का है.
वहीं ग्वाटेमाला, बेलिज़, हेती समेत कुल 13 देश ऐसे हैं, जो ताइवान को संप्रभु देश मानते हैं. उन्होंने उसके साथ डिप्लोमेटिक संबंध बनाकर रखे हैं. कुछ समय पहले तक ये संख्या 20 से ज़्यादा थी. लेकिन चीन उन्हें लगातार तोड़ रहा है. मार्च 2023 में होंडुरास ने ताइवान को छोड़कर चीन के साथ डिप्लोमैटिक संबंध स्थापित कर लिया. चीन कहता है कि अगर हमारे साथ रिश्ता रखना है तो ताइवान को अलग मानना बंद करना होगा. इसको वन चाइना पॉलिसी के नाम से भी जाना जाता है. भारत, अमेरिका समेत 180 से अधिक देश इस पॉलिसी को मानते हैं. हालांकि, कुछ देशों ने ताइवान के साथ अलग से सैन्य और व्यापारिक संबंध बनाकर रखे हैं. लेकिन वे उसे आधिकारिक संबंध नहीं मानते. इसकी सबसे बड़ी वजह चीन की आपत्ति है.

तो, क्या ताइवान को संप्रभु देश नहीं माना जा सकता? इसका जवाब थोड़ा जटिल है. समझने के लिए थोड़ा पीछे चलते हैं.

साल 1933. दिसंबर के महीने में उरुग्वे के मॉन्टेवीडियो में एक साउथ और नॉर्थ अमेरिका के देशों का सम्मलेन आयोजित हुआ. इसमें स्टेट की परिभाषा, उसके अधिकारों और कर्तव्यों का निर्धारण किया गया था. इस बैठक में तय प्रावधान बाद में लीग ऑफ़ नेशंस में भी शामिल किए गए.

मॉन्टेवीडियो कन्वेंशन के आर्टिकल वन में स्टेट की परिभाषा दर्ज है. इसके मुताबिक, स्टेट बनने के लिए चार ज़रूरी चीजें चाहिए.

- नंबर एक. तय सीमाएं. ताइवान के पास देश होने लायक पर्याप्त ज़मीन है. उसकी सीमाएं भी निर्धारित हैं. वो साउथ चाइना सी, फ़िलिपींस सी और ताइवान स्ट्रेट के बीच में है.

- नंबर दो. पर्याप्त आबादी. ताइवान की आबादी लगभग 02 करोड़ 36 लाख लोगों की है. ये भी देश होने के लिए काफी है.

- नंबर तीन. सरकार. ताइवान में एक लोकतांत्रिक सरकार काम करती है. इसका चुनाव ताइवान के आम लोग करते हैं.
यहां तक तो सब ठीक चलता है. मामला फंसता है चौथी अहर्ता पर.

- ये है संप्रभुता. यानी, दूसरे देशों के साथ राजनैतिक और कूटनीतिक संबंध बनाने की आज़ादी का मसला. ताइवान यहीं पर मात खाता है. 25 अक्टूबर 1971 तक ताइवान, यूनाइटेड नेशंस (UN) का मेंबर था. उसे सिक्योरिटी काउंसिल की स्थायी सदस्यता भी मिली थी. अक्टूबर 1971 में यूएन जनरल असेंबली ने प्रस्ताव पास कर ताइवान को बाहर निकाल दिया. और, उसकी जगह चीन को सदस्यता दे दी. ताइवान से वादा किया गया था कि उसे यूएन में वापस लिया जाएगा. लेकिन समय के साथ चीन का प्रभुत्व बढ़ता गया और ताइवान से किया गया वादा ठंडे बस्ते में चला गया.

मौजूदा समय में ताइवान यूएन या उसकी किसी संस्था का सदस्य नहीं है. 2022 में जब वर्ल्ड हेल्थ असेंबली में कोरोना के मुद्दे पर उसको बुलाने की बात चली थी, तब चीन ने बड़ा बखेड़ा खड़ा किया था. इसके बाद ताइवान की एंट्री रोक दी गई थी.

ये सब बताने का मतलब ये है कि ताइवान के पास यूएन के पर्याप्त सदस्यों का समर्थन नहीं है. गिनती के देशों ने उसके साथ डिप्लोमैटिक रिश्ता रखा है. उनकी भी संख्या घटती जा रही है. जो देश बचे हुए हैं, उनमें कोई ऐसा नहीं है, जिसकी इंटरनैशनल पोलिटिक्स में तूती बोलती हो. अधिकतर मामलों में ये संबंध ऐतिहासिक और सांकेतिक ही है. जैसे-जैसे इन देशों की आर्थिक ज़रूरतें बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे इन देशों का रुख भी बदल रहा है. वे आर्थिक फायदे पर फ़ोकस कर रहे हैं. इसके चलते उनका झुकाव चीन की तरफ़ बढ़ रहा है.
हालिया उदाहरण होंडुरास का है. 26 मार्च 2023 को होंडुरास ने चीन के साथ डिप्लोमैटिक संबंध स्थापित करने का ऐलान किया. उसने ताइवान के साथ आठ दशक पुरानी दोस्ती तोड़ दी. इसकी दो बड़ी वजहें बताई जाती हैं.

- नंबर एक. प्रासंगिकता. जिस समय होंडुरास ने ताइवान के साथ दोस्ती की थी, उस समय कोल्ड वॉर चल रहा था और कम्युनिज़्म का ख़तरा बढ़ रहा था. अब कोल्ड वॉर बीत चुका है और विचारधारा की लड़ाई भी मंद पड़ गई है. नई दुनिया में देशों के बीच संबंध के मायने बदल गए हैं. इसका असर ताइवान पर पड़ रहा है.

- नंबर दो. आर्थिक संकट. होंडुरास इस समय बड़े आर्थिक संकट से जूझ रहा है. उसके ऊपर ताइवान का लगभग पांच हज़ार करोड़ रुपये का क़र्ज़ है. ये क़र्ज़ बढ़ता जा रहा है. रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, होंडुरास ने चीन के साथ संबंध जोड़ने से पहले ताइवान से लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये की मदद मांगी थी. ताइवान की इनकार के बाद होंडुरास ने उसके साथ रिश्ता तोड़ लिया. उसे उम्मीद है कि चीन उसे आर्थिक संकट से उबार लेगा. हालांकि, जानकारों का कहना है कि ये होंडुरास के दलदल में फंसने की शुरुआत है.

होंडुरास नौवां ऐसा देश है, जिसने 2016 के बाद ताइवान से रिश्ता तोड़ा है. 2016 में क्या हुआ था? उस बरस डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (DPP) की साइ इंग-वेन ताइवान की राष्ट्रपति चुनी गईं थी. उनके आने के बाद से ताइवान का साथ छोड़ने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है. इस लिस्ट में अगला नंबर पराग्वे का हो सकता है. पराग्वे में अप्रैल 2023 में चुनाव होने वाले हैं. विपक्षी पार्टी ने कहा है कि अगर वो सत्ता में आई तो वन चाइना पॉलिसी को सपोर्ट किया जाएगा. जो पार्टी अभी सत्ता में है, वो आर्थिक मदद मांग रही है. ताइवान इस डॉलर डिप्लोमेसी से परेशान चल रहा है. वो दोस्त देशों में मची भगदड़ को रोकने की कोशिश कर रहा है. ताइवान की राष्ट्रपति साइ इंग-वेन का हालिया दौरा इसी कोशिश का हिस्सा है.

साइ का दौरा 29 मार्च को शुरू हो चुका है. उनका दौरा कुल दस दिनों का है. इस दौरे में वो अमेरिका में रुकेंगी ज़रूर, लेकिन ये अमेरिका का आधिकारिक दौरा नहीं है. ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिका, ताइवान को देश के तौर पर मान्यता नहीं देता है. इसी वजह से अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन भी उनसे नहीं मिलेंगे. हालांकि, अमेरिकी संसद के निचले सदन के स्पीकर केविन मैक्कार्थी का उनसे मुलाक़ात का प्लान बन रहा है. इन रपटों पर चीन ने नाराज़गी जताई है. कहा कि अगर साइ ने मैक्कार्थी से मीटिंग की तो उसका करारा जवाब मिलेगा. इससे पहले अगस्त 2022 में पिछली स्पीकर नैन्सी पेलोसी अचानक ताइवान पहुंच गई थीं. जिसके बाद चीन ने ताइवान को घेरकर मिलिटरी ड्रिल की थी. उसने इशारा किया था कि अगर ऐसा दोबारा हुआ तो बुरा परिणाम भुगतना पड़ेगा.

साइ इंग-वेन के दौरे पर मचे बवाल पर अमेरिका ने नरमी बरती है. वाइट हाउस ने कहा कि ये एक नॉर्मल ठहराव है. इसको लेकर हंगामा करने की ज़रूरत नहीं है.

ताइवान की राष्ट्रपति साइ इंग-वेन

साइ उस समय अमेरिका पहुंची हैं, जब अमेरिका और चीन के संबंध खराब हुए हैं. यूक्रेन वॉर के बाद से चीन और रूस की करीबी बढ़ी है. जबकि अमेरिका, यूक्रेन के सबसे बड़े सहयोगी के तौर पर सामने आया है. फ़रवरी में अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन ने चीन पर जासूसी बैलून भेजने का आरोप लगाकर अपना दौरा रद्द कर दिया था. जिसके बाद से दोनों देशों के बीच खटास काफ़ी बढ़ गई है. साइ का अमेरिका जाना क्या गुल खिला सकता है?

जिस समय साइ अमेरिका पहुंच रहीं थी, उसी समय ताइवान के पूर्व राष्ट्रपति मा यिंग-जियू चीन में घूम रहे थे. उन्होंने नान्जिंग का दौरा किया. वो बोले, हम सब चीनी हैं. ताइवान स्ट्रेट के दोनों तरफ़ रहने वाले लोग एक ही साम्राज्य का हिस्सा रहे हैं. मा ने ये भी कहा कि मैं दोनों देशों के बीच शांति की स्थापना करने में मदद कर सकता हूं.
मा KMT पार्टी के नेता हैं. ये पार्टी च्यांग काई-शेक ने बनाई थी. इसने कम्युनिस्ट क्रांति से पहले पूरे चीन पर शासन किया. 1949 में माओ की क्रांति के बाद KMT अपने लोगों और सारे

साजो-सामान लेकर फ़ारमोसा द्वीप पर पहुंच गई. इसी को ताइवान या रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (ROC) कहते हैं. दूसरे विश्वयुद्ध के समय इस पर जापान ने क़ब्ज़ा कर लिया था. विश्वयुद्ध में जापान की हार हुई और ये वापस चीन के नियंत्रण में आ गया. फिर सिविल वॉर शुरू हुआ. इसमें माओ की कम्युनिस्ट पार्टी जीत गई. फिर ताइवान पर क़ब्ज़े को लेकर KMT के साथ झगड़ा शुरू हुआ. 1949 से पहले और 1949 के बाद का ताइवान कैसे बना?

शुरुआत के कई दशकों तक च्यांग काई-शेक ने तानाशाही शासन चलाया. उसके उत्तराधिकारी भी वैसे ही थे. 1986 में राजनैतिक सुधार लागू किए गए. उसी बरस डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (DPP) की स्थापना हुई. इसके बाद लोकतांत्रिक चुनावों का रास्ता साफ़ हुआ. तब से KMT और DPP ने बारी-बारी से सत्ता चलाई है. चीन को लेकर उनकी क्या नीति रही है? ताइवान में अगले बरस राष्ट्रपति चुनाव होने जा रहा है. इसमें KMT की जीत की संभावना जताई जा रही है. अगर ऐसा हुआ तो चीन के प्रति ताइवान की पोलिसी पर क्या असर पड़ेगा?

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