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1971 युद्ध में इजरायल ने भारत की कैसे मदद की!

1971 युद्ध के दौरान इजरायल ने भारत की मदद की और वहां से दोनों देशों के बीच रिश्तों का एक नया अध्याय शुरू हुआ.

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1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान गोल्डा मेयर ने गुप्त रूप से भारत को सैनिक सहायता पहुंचाई थी (तस्वीर-Wikimedia commons/Indiatoday)

इराक, ईरान और लीबिया. 21 वीं सदी में इनमें से दो देश इराक और लीबिया अमेरिकी युद्ध की भेंट चढ़ गए. तीसरा है ईरान. जो अमेरिका का कट्टर दुश्मन है. और लगातार परमाणु हथियारों की होड़ में लगा हुआ है. ईरान का मानना है कि इराक और लीबिया की जो हालत हुई, वो इसी कारण थी कि उसके पास परमाणु हथियार नहीं थे. वहीं अमेरिका का मानना है कि इराक परमाणु हथियार इसलिए हासिल करना चाहता है, ताकि वो अमेरिका पे हमला कर सके. लेकिन इस पूरे खेल में एक तीसरा खिलाड़ी भी है. इजरायल (Israel), अमेरिका का पक्का दोस्त. (India Israel Relations)

ईरान का न्यूक्लियर साइंटिस्ट मारा गया,  मोसाद में ईरान की न्यूक्लियर साइट पर किया हमला. स्क्रीन पर कौंधती ऐसी हेडलाइंस आप गाहे-बगाहे सुनते रहते होंगे. कारण साफ़. इजरायल जानता है कि अगर ईरान ने परमाणु हथियार हासिल कर लिए तो सबसे बड़ा खतरा उसी के ऊपर होगा. इजरायल और इस्लामिक राष्ट्रों के बीच दुश्मनी का लम्बा इतिहास रहा है. हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान(Pakistan) खुद को इस्लामिक राष्ट्र कहता है और इजरायल के गठन के बाद से ही उसकी मुखालफत करता रहा है. इजरायल और अरब राष्ट्रों के बीच जो तीन बड़ी लड़ाइयां हुईं. उनमें पाकिस्तान ने अरब देशों को मदद पहुंचाई. इजरायल और अरब देशों के बीच पहली लड़ाई 1948 में हुई.

Indira Gandhi with Army Chiefs
1971 की जीत के बाद भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी तीनों सेनाओं के प्रमुख जनरल सैम मानेकशॉ, एडमिरल एसएम नंदा और एयर चीफ मार्शल पीसी लाल को  ने बधाई देती हुई (तस्वीर-Wikimedia commons)

इस युद्ध में पाकिस्तान ने अरब देशों को मदद देने की पूरी कोशिश की. पाकिस्तान ने चुपके से चेकोस्लोवाकिया से ढाई लाख राइफल्स खरीद कर अरब देशों को पहुंचाने की कोशिश की. वहीं 1967 का अरब-इजरायल युद्ध, जिसे सिक्स डे वॉर कहा जाता है. इस युद्ध में पकिस्तान ने अपने फाइटर पायलट भेजे. ऐसा ही कुछ 1973 योम किपुर की लड़ाई में भी हुआ. जब पाकिस्तान के फाइटर पायलट सैफुल आज़म ने अरब देशों की ओर से लड़ते हुए 4 इजरायली फाइटर प्लेन्स को मार गिराया था.

अरब देशों के साथ इस तनाव के चलते इजरायल हमेशा चौकन्ना रहता आया है कि कहीं ये देश न्यूक्लियर हथियार हासिल न कर लें. इसके बावजूद जैसा कि हम जानते हैं, पाकिस्तान ने भारत की देखा देखी 70 के दशक में न्यूक्लियर हथियार बनाने की शुरुआत की. और 2000 आते आते परमाणु शक्ति बन गया. तो सवाल ये कि इजरायल ने पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम को रोकने की कोशिश क्यों नहीं की. साफ़ तौर पर तो इजरायल ने कभी कुछ नहीं किया. लेकिन कोशिश पूरी थी. और इस कश्मकश का एक सबब ये भी रहा कि भारत और इजरायल नजदीक आ गए. इस पूरी कहानी की शुरुआत हुई 1971 युद्ध से (1971 India-Pakistan War). कैसे क्यों और क्या?

शुरुआत 1947 से. नवम्बर महीने में UN फिलिस्तीन के बंटवारे के लिए एक रेजोलुशन पेश हुआ. भारत ने इस रेजोलुशन के खिलाफ वोट किया. नेहरू(Jawaharlal Nehru) ने भड़कते हुए कहा कि इस मामले में अंतराष्ट्रीय ताकतों ने भारत पर प्रेशर डालने की कोशिश की है. और उन्हें हजारों करोड़ की घूस देने की पेशकश की गयी. विजय लक्ष्मी पंडित जो तब UN में भारत की अम्बेसडर थीं, उन्होंने खुलासा किया कि उन्होंने कई बार जान से मारने की की धमकी भी मिली. तमाम विवादों के बावजूद इजरायल के गठन को मंजूरी मिल गयी. और साल 17 सितंबर 1950 को, भारत ने आधिकारिक तौर पर इज़राइल को एक देश के तौर पर मान्यता भी दे दी. इजरायल को मुंबई में एक दूतावास खोलने की मंजूरी भी मिल गई. भारत ने इजरायल में अपने राजनयिक नहीं भेजे. लेकिन उस दौर में भारत में कई आवाजें थीं जो इजरायल के हक़ में बोल रही थीं. इसकी बानगी दिखी 1968 में.

RN Kao RAW
भारतीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) के पहले प्रमुख रामेश्वर नाथ काव (तस्वीर-Twitter)

क्या हुआ इस साल? उस साल इंदिरा गांधी(Indira Gandhi) सरकार ने रॉ(RAW) के गठन को मंजूरी दी. जिसके पहले हेड बने रामेश्वर नाम काओ(RN Kao). रॉ के गठन की शुरुआत से ही इंदिरा ने काओ को इजरायल की ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद(Mossad) से संबंध बनाने का निर्देश दिया. काओ की ये कोशिश कारगर रही. दोनों देशो की ख़ुफ़िया एजेंसी 1971 में पहली बार साथ आई. उस साल पाकिस्तान के विदेश मंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो नार्थ कोरिया की यात्रा पर गए. ताकि उनके साथ सैन्य समझौता कर सकें. साथ ही मोसाद को खबर मिली कि पाकिस्तान की आर्मी, लीबिया और ईरान के लड़ाकों को अपने यहां ट्रेनिंग दे रही है. ये वही साल था जब भारतीय उपमहद्वीप में एक और युद्ध की पटकथा लिखी जा रही थी.

पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे नरसंहार की ख़बरें भारत को मार्च महीने में ही लग गयी थी. भारत लगातार इस कोशिश में लगा था कि इस असलियत को दुनिया तक पहुंचाया जाए. जून महीने में इजरायल की संसद में ये मामला उठा. तब विदेश मंत्री एबा इबान ने इजरायल की संसद में एक बयान दिया. उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे हालात पर चिंता जाहिर करते हुए कहा,

“हम पूर्वी बंगाल में हो नरसंहार के गवाह बने हुए हैं. यहूदी लोग, जिन्होंने अपने इतिहास में बहुत दुःख और कष्ट सहे हैं, उन्हें मानवीय पीड़ा के प्रति विशेष रूप से जागरूक और सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए, चाहे वह कहीं भी हो"

हालांकि इजरायल की तरफ से भारत को सीधे तौर पर समर्थन की बात नहीं कही गयी. लेकिन इस बयान में दो चीजों के जिक्र से आपको इजरायल के रुख का अंदाजा लग जाएगा.
पहला कि उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान को पूर्वी बंगाल कहकर बुलाया था, दूसरा पूर्वी पाकिस्तान में हो रही मारकाट को उन्होंने नरसंहार का नाम दिया. भारत के अलावा ऐसा करना वाला इजरायल एकमात्र दूसरा देश था. श्रीनाथ राघवन ने 1971 युद्ध पर एक किताब लिखी है,  1971: A Global History of the Creation of Bangladesh.

किताब में राघवन बताते हैं कि इजरायल और पाकिस्तान के तनाव पूर्ण रिश्तों को देखते हुए भारत ने इजरायल से इस युद्ध में मदद मांगी. फ्रांस में भारत के राजदूत, DN चटर्जी ने इजरायल से बातचीत शुरू की. 6 जुलाई 1971 को इस बाबत विदेश मंत्रालय को लिखे एक नोट में चटर्जी लिखते हैं कि इजरायल से मिलने वाली कोई भी मदद , चाहे वो हथियार तेल या पैसों की हो, भारत के लिए बहुत उपयोगी साबित होगी. इंदिरा ने चटर्जी की इस पेशकश को मंजूरी दी. हालांकि इस काम में एक बड़ी दिक्कत ये थी कि दोनों देशों के बीच राजनयिक सम्बन्ध न के बराबर थे. इसलिए किसी भी डील के लिए एक तीसरे पक्ष की जरुरत थी.

Golda Meir
गोल्डा मेयर इज़राइली शिक्षिका, राजनीतिज्ञ और इज़राइल की चौथी प्रधानमंत्री थी (तस्वीर-Wikimedia commons)

राघवन लिखते हैं कि ऑस्ट्रिया और स्विट्ज़रलैंड के बीच बेस एक छोटे से देश लिक्सटनटाइन को इस डील के लिए चुना गया. महज 160 वर्ग किलोमीटर में बसा ये देश इस डील के लिए एकदम मुफीद जगह थी. क्योंकि इस पर किसी की नजर नहीं थी. लिक्सटनटाइन में एक हथियार कंपनी थी. जिसके मालिक श्लोमो जाब्लूदोविक्ज़ PN हक्सर के परिचित थे. हक्सर तब प्रधानमंत्री के सेक्रेटरी हुआ करते थे. और 1965 में लन्दन में डिप्टी रहते हुए दोनों अच्छी जान पहचान बना चुके थे. प्रधानमंत्री की तरफ से ग्रीन सिग्नल मिलते ही हक्सर ने जाब्लूदोविक्ज़ को एक खत लिखकर हथियारों की मांग की. जाब्लूदोविक्ज़ सीधे पहुंचे इजरायल की प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर(Golda Meir) के पास.

गोल्डा मेरे एक अलग पशोपेश में थीं. जैसा कि पहले बताया कुछ साल पहले ही उन्होंने अरब देशों से एक बड़ी लड़ाई लड़ी थी. जिसके चलते इजरायल में हथियारों की शॉर्टेज चल रही थी. वहीं भारत और इजरायल के रिश्तों में तब कोई खास गर्मजोशी भी नहीं थी. इसके बावजूद गोल्डा मेयर में भविष्य में भारत का महत्त्व समझते हुए इस डील के लिए हामी भर दी. उन्होंने जाब्लूदोविक्ज़ को एक सीक्रेट तार भेजा. इस तार में इंदिरा गांधी के लिए हिब्रू में एक सन्देश लिखा हुआ था. गोल्डा मेयर लिखती हैं,

"मैंने तुमसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ये सूचित करने के लिए कहा था. हमें विश्वास है कि वो हमारी मदद का महत्व समझेंगी”

राघवन इसी डील से जुड़ा एक और नोट अपनी किताब में साझा करते हैं. 4 अगस्त 1971 को लिखा ये नोट रामनाथ काव ने लिखा था. इस नोट में दर्ज़ है कि इजरायल से कैसे हथियार एयरलिफ्ट कर भारतीय सेना तक पहुंचाए जाएंगे. इसी किताब में राघवन एक और डील की बात बताते हैं. जो पाकिस्तान और ईरान के बीच चल रही थी. ये डील थी क़ी अगर भारत कराची पर हमला करेगा तो ईरान पाकिस्तान को एयर सपोर्ट मुहैया कराएगा. हालांकि सोवियत संघ के डर से ऐन मौके पर ईरान के शाह ने इस डील से हाथ पीछे खींच लिए.

तमाम ऐसी डीलों के बीच 1971 के युद्ध में भारत की जीत हुई. बांग्लादेश(Bangladesh) नाम के नए देश का गठन हुआ. बांग्लादेश को मान्यता देने वाले कुछ पहले देशों में इजरायल भी था. हालांकि विडम्बना ये कि बांग्लादेश ने इजरायल को कभी मान्यता नहीं दी. बहरहाल इस पूरी कहानी में अण्डरलाइन करने वाली बात ये है कि इस युद्ध के बहाने 1971 में भारत और इजरायल समबन्धों की नींव पड़ गई. इसके बाद अब सीधे चलते हैं 1977 पे. 1977 में रॉ ने पता लगाया कि कहूता स्थित लैब में पकिस्तान न्यूक्लियर हथियार बनाने की तैयारी कर रहा है. भारत कोई एक्शन लेता उससे पहले ही प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति जिया उल हक़ को ये बात फोन पर बता दी. जिसे बाद पाकिस्तान में रॉ का पूरा नेटवर्क ख़त्म हो गया.

Srinath Raghavan writer
श्रीनाथ राघवन की 1971 युद्ध पर लिखी किताब 1971: A Global History of the Creation of Bangladesh (तस्वीर-Amazon/Twitter)

इसके बरअक्स इजरायल, जो तब इस्लामिक देशों के न्यूक्लियर प्रोग्राम को लेकर खासा इंटरेस्टेड था, उसने पाकिस्तान पर अपनी नजर बनाए रखी. 17 मई 1979 को इजरायल के प्रधनमंत्री ने ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर को एक खत लिखा और पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम पर चिंता जताई. इजरायल की चिंता का खास कारण था, पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया उल हक़ और लीबिया के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी की गहरी दोस्ती.

इसके बाद 1981 में एक और घटना हुई. जून 1981 की बात है. इजरायल के F-16 फाइटर प्लेन्स ने टेक ऑफ किया और बाग्दाद के पास एक अंडर कंस्ट्रक्शन न्यूक्लियर रिएक्टर को जमींदोज़ कर वापस लौटे. इस घटना ने पाकिस्तान में खतरे के अलार्म बजा दिए. उन्हें डर था कि इजरायल पाकिस्तानी न्यूक्लियर ठिकाओं पर भी हमला कर सकता है. और इसमें भारत और इजरायल साथ आ सकते हैं. पाकिस्तान के डर बेवजह नहीं था. अपनी किताब ईटिंग ग्रास: द मेकिंग ऑफ द पाकिस्तानी बॉम्ब में, पूर्व पाकिस्तानी ब्रिगेडियर फ़िरोज़ हसन 
लिखते हैं,

“1982 में पाकिस्तानी इंटेलिजेंस को खबर लगी कि भारत कहूता पर हमले की योजना बना रहा है. पहले वो जैगुआर विमान का इस्तेमाल करने वाले थे. लेकिन फिर इजरायल ने उन्हें प्रस्ताव दिया कि इस काम के लिए इजरायली विमानों का इस्तेमाल किआ जाए. जामनगर से टेकऑफ कर इजरायली विमान हिमालय के बिलकुल नजदीक उड़ते हुए पाकिस्तान में इंटर करेंगे."

खान की किताब के अनुसार इंदिरा इस प्लान को मंजूरी दे चुकी थीं. लेकिन ऐन मौके पर अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के हस्तक्षेप से इजरायल पीछे हट गया. इस बीच 1992 में भारत और इजरायल ने पूर्ण राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किए. और तब से दोनों देशों के रिश्ते मजबूत हो गए. 2023 में भारत एशिया में इजरायल का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है. वहीं रूस के बाद भारत सबसे ज्यादा हथियार भी इजरायल से ही खरीदता है. जहां तक पाकिस्तान की बात है. साल 2020 में पाकिस्तान के पूर्व वजीर-ए आजम इमरान खान ने दावा किया था कि अमेरिका उन पर इजरायल से रिश्ते सुधारने के लिए प्रेशर डाल रहा है. हालांकि पाकिस्तान अपने रुख पर कायम है. और साल 2023 में भी उसने इजरायल को देश के रूप में मान्यता नहीं दी है.

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