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CIA ने हिमालय पर गुमा दिया न्यूक्लियर डिवाइस!

साल 1965 में CIA ने IB के साथ मिलकर चीन की जासूसी का प्लान बनाया था

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1965 में भारत और अमेरिका के एक संयुक्त पर्वतारोहण दल को अपना अभियान को मौसम की चुनौतियों के कारण अधूरा छोड़ना पड़ा जिसके चलते एक न्यूक्लियर डिवाइस नंदा देवी पर ही छूट गया (तस्वीर: spies in Himalayas)

कैप्टन मोहन सिंह कोहली अपने टेंट से मुंह बाहर निकाल कर आसपास के माहौल पर एक नज़र डालते हैं. मौसम ख़राब होने को है और टीम को नंदा देवी की चोटी तक पहुंचना है. कोहली जिस टीम को लीड कर रहे हैं उसमें भारतीयों के साथ-साथ कुछ अमेरिकी पर्वतारोही भी है. और साथ में कुछ शेरपा. जो पर्वतारोहण के उपकरणों के अलावा पीठ पर गुरु रिनपोचे को लेकर चल रहे हैं.

गुरु रिनपोचे कोई स्थानीय देवता नहीं हैं. ये एक न्यूक्लियर डिवाइस है. एक थर्मोन्यूक्लियर जनरेटर. एक जासूसी यंत्र को पावर करने के लिए. कहानी में जासूस भी हैं, थ्रिल भी और एडवेंचर भी. नंदा देवी की चोटियों पर एक न्यूक्लियर डिवाइस ले ज़ाया गया है. चीन पर नज़र रखने के लिए. कहानी का सूत्रधार है अमेरिका. खास तौर पर कहें तो CIA. टीम डिवाइस को लेकर चोटी पर पहुंचने ही वाली थी कि तभी अंधड़ आ जाता है. बड़ी मुश्किल से जान बचाकर ये लोग नीचे वापस लौटते हैं. न्यूक्लियर डिवाइस वहीं छूट जाता है. एक साल बाद टीम वापस उसे निकालने पहुंचती है तो पता चलता है डिवाइस हिमालय की चोटियों में गुम हो गया है.

इस सीक्रेट मिशन की खबर बाहर आती है 1977 में. इंदिरा सरकार की रुखसती हो चुकी थी. सरकार में कम्यूनिस्ट साझेदार मोरारजी देसाई के लिए सरदर्द खड़ा कर देते हैं. आख़िर भारतीय इंटेलिजेन्स CIA के साथ क्यों काम कर रही थी? वो भी तब जब अमेरिका पाकिस्तान का समर्थक था. इस पूरे खेल का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा भारत को. पोटेंशियल ख़ामियाज़ा. क्योंकि नंदा देवी की चोटी पर खोया न्यूक्लियर डिवाइस अगले 100 साल तक एक्टिव रह सकता है. और अगर कहीं गलती से वो गंगा की धारा तक पहुंच गया तो भारत में एक न्यूक्लियर त्रासदी आ सकती है.

कैप्टन कोहली के पास अमेरिकी पहुंचा

साल 1965. पाकिस्तान से साथ जंग को अभी वक्त है. उससे पहले भारतीय पर्वतारोही टीम को एक और जंग लड़नी है. जंग एवरेस्ट की चोटियों से. मोहन सिंह कोहली और उनकी टीम तैयारी में जुटी है. पिछली तीन कोशिशों में टीम चोटी के नज़दीक पहुंची लेकिन बर्फीले तूफ़ान के चलते उन्हें वापस लौटना पड़ा.

बैरी बिशप और जनरल कर्टिस लीमे (तस्वीर: Wikimedia Commons)

फ़रवरी में, नेपाल को रवाना होने से ठीक दो दिन पहले कोहली एक पास एक शख़्स आता है. बैरी बिशप, एक 33 वर्षीय अमेरिकी जो 1963 में एवरेस्ट फ़तेह करने वाली अमेरिकी टीम का हिस्सा रह चुका था. इन दिनों बैरी नेशनल जियोग्राफ़िक चैनल के लिए फोटो एडिटर का काम कर रहा है. लेकिन कोहली से मिलने के पीछे बैरी का इरादा कुछ और है.

बैरी बिशप चाहता है कि कोहली एवरेस्ट की तैयारी छोड़कर उसके साथ जीमू ग्लेशियर चले. कंचनजंगा का बेस जो नेपाल और सिक्किम के बॉर्डर पर पड़ता था. बिशप की पेशकश सुन कोहली अचरज में पड़ जाते हैं. ITBP की पर्वतारोही टीम सालों से एवरेस्ट चढ़ने की कोशिश कर रही है. ऐसे में ऐन मौक़े पर मिशन को छोड़कर वो कंचनजंगा जाएं. क्यों, किसलिए?

कोहली को अपने सवालों का कोई जवाब नहीं मिलता. बिशप के जाने के बाद कोहली मलिक को एक लिखित नोट भेजते हैं. भोला नाथ मलिक, आर एन काव के गुरु और तब IB के हेड, जिन्हें भारतीय इंटेलिजेन्स का पितामह माना जाता है. नोट में कोहली लिखते हैं,

“मशहूर पर्वतारोही बैरी बिशप मुझसे मिलने आए थे. मुझे दाल में कुछ काला दिखाई दे रहा है. कृपया उन पर नज़र रखें.”

भारत ने पहली बार एवरेस्ट फ़तेह किया

इसके दो दिन बाद कोहली अपनी टीम को लेकर नेपाल के लिए निकल जाते हैं. इस बात से अंजान कि बिशप को कोहली से मिलने मलिक ने ही भेजा था. इस पूरे खेल के पीछे इंटरनेशनल एस्पियोनाज़ यानी जासूसी की कोशिश थी. दसअसल बैरी बिशप, जनरल कर्टिस लीमे के आदेश पर भारत पहुंचे थे. लीमे जब अमेरिकी एयर फ़ोर्स के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ हुआ करते थे. उन्हें अमेरिकी फ़ौज का सबसे खूंखार जनरल माना जाता था.

माउंट एवेरेस्ट की चोटी पर भारतीय टीम एंड कैप्टन एमएस कोहली (तस्वीर: mheadventures.com)

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लीमे की अगुवाई में अमेरिका ने जापान में भयंकर बमबारी की थी. जिसमें 50 हज़ार जापानी नागरिक मारे गए थे. यहां तक कि क्यूबन मिसाइल क्राइसिस के दौरान वो राष्ट्रपति JF केनेडी से भी उलझ पड़े थे. और तब उन्होंने वो मशहूर बयान भी दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि अमेरिका अपने विरोधियों को नेस्तोनाबूत करने के लिए तीसरे विश्व युद्ध को भी तैयार है. लीमे के बारे में एक बात और फ़ेमस थी कि वो न्यूक्लियर हथियारों के इस्तेमाल से भी गुरेज़ नहीं करते थे.

लीमे का भारत में इंट्रेस्ट जगा था चीन के कारण. जो तब न्यूक्लियर टेस्ट की कोशिश में लगा था. शिनजियांग में टेस्ट हो रहे थे और वहां सैटेलाइट से निगरानी रखने का कोई ज़रिया नहीं था (तब). इसलिए बिशप में लीमे को सुझाया कि हिमालय की चोटियों से चीन पर नज़र रखी जा सकती है. यूं तो इसके लिए नेपाल और पाकिस्तान की चोटियां भी मुफ़ीद थीं. लेकिन घनी दोस्ती के बाद भी अमेरिका को पाकिस्तान पर भरोसा नहीं था. भारत कुछ साल पहले ही चीन से धोखा ख़ा चुका था. ऐसे में अमेरिका ने साल 1964 में भारत से मदद लेने की ठानी.

अब आते हैं आज की तारीख पे. ये दिन इसलिए खास है क्योंकि आज ही के दिन 20 मई, साल 1965 को भारत ने पहली बार एवरेस्ट को फ़तेह किया था. और इस टीम को लीड करने वाले थे कैप्टन मोहन सिंह कोहली. जो नेवी में हुआ करते थे. लेकिन पर्वतारोहण के लिए उन्हें खास तौर पर ITBP में शामिल किया गया था.

एवरेस्ट फ़तह करने के बाद 23 जून को कोहली और उनकी टीम दिल्ली लौटी. सेना का डगलस DC-3 विमान पालम हवाई अड्डे पर उतरता है. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री विदेश दौरे पर थे. इसलिए कोहली और उनकी टीम का स्वागत करने लिए गृह मंत्री, रक्षा मंत्री समेत IB के सभी टॉप अधिकारी वहां पहुंचे थे. फूल माला और तिरंगे के बीच कोहली के पास एक शख़्स आता है और कान में धीरे से कुछ कहता है.

RN काओ ने कहा अमेरिका जाना होगा

सीनियर इंटेलिजेन्स ऑफ़िसर बलबीर सिंह कोहली जो ITBP में इन्स्पेक्टर जनरल हुआ करते थे, कोहली को बताते है कि प्लेन के पीछे की ओर एक खास शख़्स उनका इंतज़ार कर रहा है. ये शख़्स थे आर.एन. काओ. काओ तब IB की एक ब्रांच एविएशन रिसर्च सेंटर (ARC) के डायरेक्टर हुआ करते थे.

आर एन काओ (तस्वीर: Wikimedia Commons)

कोहली प्लेन के पीछे पहुंचते हैं. इस बात से पूरी तरह अंजान की इंटेलिजेन्स का इतना सीनियर ऑफ़िसर उनसे क्यों मुलाक़ात करना चाहता है. काओ कोहली को बताते हैं कि उन्हें अमेरिका जाना होगा. फ़ौज के तरीक़ों में रचे बसे कोहली के पास कारण पूछने का कोई कारण ना था. ये ड्यूटी थी और उन्हें सिर्फ़ ऑर्डर का पालन करना आता था. फिर भी कोहली एक बार काओ को बताते हैं कि उनके पास पासपोर्ट नहीं है.

तब काव कोहली को बताते हैं कि पासपोर्ट तैयार हो चुके हैं. कोहली इतना तो ज़रूर समझ जाते हैं कि ज़रूर कोई भारी मसला है. लेकिन कोहली के लिए तुरंत निकलना सम्भव नहीं था. उन्हें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मुलाक़ात और सदन में बोलने का न्योता दिया गया था. ये सुनकर काओ कुछ देर रुक कर बोले, अच्छा ठीक है, पहले सारी औपचारिकताएं पूरी कर लो. इसके बाद काओ अगले दिन कोहली को एक मीटिंग के लिए बुलाते हैं.

अगले दिन RK पुरम स्थित ARC के ऑफ़िस में काओ कोहली को पूरा ब्रीफ़ देते हैं. कोहली को IB के चार और ऑफ़िसरों के साथ एक संयुक्त भारतीय-अमेरिकी अभियान में हिस्सा लेना था. जिसका उद्देश्य था कंचनजंगा पर चढ़ाई करना. यही बात बैरी बिशप ने भी कोहली से कही थी. इसलिए कोहली को समझ आ जाता है कि बिशप IB की सहमति से ही उनसे मिलने पहुंचे थे. इसके बाद काओ बताते हैं कि टीम को कंचनजंगा पर “कुछ चीज़” छोड़कर आनी है.

चीन की जासूसी

भारत से टीम एक स्पेशल प्लेन में अमेरिका पहुंचती है. वहां उन्हें अलास्का के एयरफ़ोर्स बेस पर ले ज़ाया जाता है. यहां पर्वतारोहण की कुछ ड्रिल्स पूरी की जाती हैं. इसी दौरान CIA को खबर मिलती है कि चीन ने एक और परमाणु परीक्षण कर लिया है.

माउंट एवेरेस्ट के बेस कैम्प में भारतीय टीम (तस्वीर: mheadventures.com)

अमेरिकी टीम को हेड कर रहे बैरी बिशप पर प्रेशर दिन रात बढ़ता जा रहा था. उन्हें जल्द से जल्द भारत पहुंचकर अपने मिशन को अंजाम देना था.अलास्का एयरफ़ोर्स बेस पर एक आखिरी मीटिंग के बाद टीम भारत के लिए रवाना होती है. मिशन बहुत ही मुश्किल और कोहली के शब्दों में लगभग नामुमकिन था. टीम को कंचनजंगा की पीक तक पांच लोड कैरी करने थे. 8 हज़ार 5 सौ उनयासी फ़ीट की ऊंचाई तक. क्या था इन लोड्स में?

एक लिस्निंग़ डिवाइस जो सुदूर चीन से आ रही तरंगों को पकड़ सके. लेकिन इतनी ऊंचाई पर पावर सोर्स क्या होगा, ये अलग दिक्कत थी. इसके लिए CIA ने एक थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस तैयार करवाया था. और इस पूरे सिस्टम को एकदम पीक पर इंस्टॉल करना था.

थरमोनयूक्लियर जनरेटर का नाम था SNAP 19C—सिस्टम फ़ॉर न्यूक्लियर औक्जिलरी पावर. इसमें 4 ट्रांसरिसीवर लगे थे. और एक 6 फुट लम्बा एंटीना. ये कोई बम नहीं था. यानी एक्सपलोड होने के लिए इसमें एक ट्रिगर लगा होना चाहिए था. लेकिन चूंकि इसके अंदर प्लूटोनियम का कोर था, इसलिए रेडियोएक्टिविटी का ख़तरा हमेशा बना हुआ था.

जब कोहली को इस डिवाइस का प्रेसेंटेशन दिया गया तो वो चिंता में पड़ गए. न्यूक्लियर डिवाइस के लिए नहीं. बल्कि डिवाइस के भार के लिए. लगभग 57 किलो का लोड लेकर इतनी ऊंचाई पर चढ़ना लगभग असम्भव था. भारत लौटकर कोहली ने इस बाबत एक चिट्ठी लिखी. मलिक के नाम. लेकिन काओ ने उन्हें रोक दिया. मलिक ना सुनने के आदि नहीं थे, और काओ को ये बात अच्छे से मालूम थी.

नंदा देवी की चढ़ाई

काओ को लेकिन ये समझ आ गया था कि कोहली की बातों में दम था. वो मलिक के पास पहुंचे और सुझाव दिया कि किसी कम ऊंचाई वाली पीक को इस मिशन के लिए चुनना चाहिए. मलिक तैयार हो गए और अंत में नंदा देवी पीक को इस काम के लिए चुना गया.

नंदा देवी का बेस कैम्प (तस्वीर: indiandefence)

लाटा गांव से नंदा देवी तक 125 किलोमीटर की दूरी थी. टीम ने इस दूरी को 7 चरणों में पूरा करने का प्लान बनाया. डिवाइस को ऊपर ले जाने की ज़िम्मेदारी शेरपाओं की थी. जहां पहुंचकर IB और CIA की टीम उसे इंस्टॉल करती.

कोहली अपनी किटाब स्पाई इन द हिमालयाज में बताते हैं,

चूंकि जनरेटर से गर्मी निकलती थी, इसलिए शेरपा उसे एक दिव्य वस्तु की तरह ट्रीट करते. साथ ही ठंड से बचने के लिए समय-समय पर उससे चिपक जाते. CIA टेक्नीशियन के हिसाब से जनरेटर सुरक्षित था. लेकिन फिर भी शेरपाओं की छाती पर एक सफ़ेद बैज लगाया गया था. और उनसे कहा गया था कि अगर वो बैज अपना रंग बदलने लगे तो समझो विकिरण बाहर निकल रहा है. 

नंदा देवी बेस कैम्प से कोहली लगातार काओ और मलिक के सम्पर्क में थे. 24 सितम्बर से अक्टूबर के दूसरे हफ़्ते तक टीम से धीमे-धीमे चढ़ाई जारी रखी. क्लाइंबिंग सीजन जल्द ही खत्म होने वाला था. इसलिए टीम जल्द से जल्द काम निपटा लेना चाहती थी. कोहली के प्लान के अनुसार शेरपाओं को चौथे कैम्प से चोटी तक पहुंचना था. वहां डिवाइस रखकर वो लोग लौट जाते.

इसके बाद दूसरी टीम चढ़ाई शुरू करती. जिसमें दो अमेरिकी और दो भारतीय क्लाइंबर्स होते. और ये लोग डिवाइस को चोटी पर असेंबल कर लौट आते. चौथे कैम्प से पीक तक दूरी 300 मीटर थी. लेकिन 18 अक्टूबर के आसपास वहां बर्फ़ गिरने लगी. विजिबिलेटी कम होती जा रही थी. साथ ही हिमस्खलन का ख़तरा भी बढ़ता जा रहा था. सभी लोग बहुत थक भी गए थे. इसलिए कोहली ने अमेरिकी साथियों से सलाह मशवरा कर लौटने का निर्णय किया. दिल्ली तक ये खबर भिजवाई गई. बेमन से उन्हें इसके लिए राज़ी होना पड़ा. चढ़ाई अब अगले साल मई में दोबारा शुरू की जानी थी.

न्यूक्लियर डिवाइस ग़ायब

कोहली ने तब सोचा कि अगली बार इतना भार दोबारा चढ़ाना वक्त और ताक़त की बर्बादी होगा. इसलिए उन्होंने तय किया कि जनरेटर और बाकी लोग को चौथे कैम्प में ही छोड़ दिया जाए. शेरपाओं से वहीं पर एक चट्टान की दरार ढूंढी और नाइलॉन की रस्सी से बांधकर उसे वहीं छोड़ दिया गया.

मई 1966 में कोहली की टीम दोबारा लौटी तो देखा लोड वहां से ग़ायब था. जिस चट्टान से लोड को बांधा गया था. वो भी ग़ायब हो चुकी थी. साफ़ पता चलता था कि चट्टान और जनरेटर दोनों को कोई हिमस्खलन ले उड़ा था. जब दिल्ली तक ये खबर पहुंची तो IB अधिकारियों के पैरों से ज़मीन खिसक गई. वॉशिंग्टन में भी यही हाल था. अमेरिका के लिए सबसे बड़ा सरदर्द ये था कि जनरेटर का डिज़ाइन टॉप सीक्रेट था. उन्हें उसके विदेशी हाथों में लग जाने की चिंता थी. वहीं भारत के लिए चिंता कहीं और भयावह थी. CIA से IB को खबर मिली कि अगर किसी तरह वो डिवाइस पानी के रास्ते गंगा तक पहुंच गया तो लाखों लोगों की जान चली जाएगी. न्यूक्लियर त्रासदी की इस खबर ने भारत में सबके होश उड़ा दिए.

अगले दो सालों तक CIA और IB ने डिवाइस को ढूंढने के लिए कई बार सर्च टीम भजी. लेकिन डिवाइस कभी नहीं मिल पाया. आशंका है कि वो डिवाइस आज भी नंदा देवी के नीचे कहीं दबा हुआ है. और जब भी समय-समय पर बाढ़ या हिमस्खलन से हिमालय की तराई में तबाही आती है, ये चिंता फिर सर उठाने लगती है कि कहीं ये सब उस न्यूक्लियर डिवाइस के चलते तो नहीं हो रहा.

डिवाइस कभी नहीं मिल पाया. लेकिन CIA ने कोशिश जारी रखी. दो बार और कोशिश करने के बाद एक और डिवाइस नंदा देवी की पीक पर चढ़ाया गया. वो भी चार महीने काम करने के बाद बंद हो गया. अंत में पावर के लिए एक सोलर डिवाइस का उपयोग किया गया. और इस डिवाइस से कई सालों तक CIA ने चीन के परमाणु प्रोग्राम की जासूसी की.

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