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नौसेना का वो ऑपरेशन जिसने 1971 युद्ध में खेल पलट दिया

कहानी उस ऑपरेशन की जिसने 1971 युद्ध की शुरुआत से पहले ही पाकिस्तानी सेना की रीढ़ तोड़ दी थी.

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भारतीय नौसेना ने पूर्वी पाकिस्तान में तैराकों के जरिए एक खुफिया मिशन को अंजाम दिया (तस्वीर: सांकेतिक/Getty)

सन 1969 की बात है. ब्लिट्ज नाम के एक अखबार में एडमिरल SM नंदा का इंटरव्यू छपा. नंदा कहते हैं, कराची को मैं अपनी हथेली की तरह जानता हूं, मौका मिले तो हम कराची बंदरगाह को आग लगा सकते हैं. एडमिरल नंदा नेवी चीफ बनने की लाइन में थे, उनके लिए अख़बार में ऐसा इंटरव्यू देना बड़े रिस्क के बात थी, संभव था इससे उनका प्रमोशन रुक जाता. लेकिन नंदा नौसेना की छवि को किसी भी कीमत पर बदलना चाहते थे. इसका कारण ये था कि 1965 के युद्ध के दौरान नेवी को किनारे से सिर्फ 200 नॉटिकल मील या 370 किलोमीटर जाने की इजाजत मिली थी. तब नौसेना को सिर्फ व्यापारी जहाजों और तटों की रक्षा करने लिए तैनात किया गया था. 

अब इसकी तुलना कीजिए 1971 से. युद्ध की शुरुआत से पहले की बात है. 5 नवंबर के रोज़ अमेरिका में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर के साथ एक मीटिंग में व्यस्त थे. निक्सन की नजर पूर्वी पाकिस्तान में रोज़ बदल रहे हालात पर थी. तब किसिंजर ने निक्सन को बताया, 

“इंदिरा को पूर्वी पाकिस्तान में गुरिल्लों के बारे में कुछ नहीं पता, मुझे ये समझ में नहीं आ रहा कि पाकिस्तान के सैकड़ों जहाजों को बीच समंदर उड़ा दिया जा रहा है. लम्बी ट्रेनिंग के बिना ये संभव नहीं. आखिर गुरिल्लाओं को ये ट्रेनिंग मिली कैसे?”

किसिंजर मुक्तिबाहिनी के ट्रेंड लड़ाकों की बात कर रहे थे. लेकिन ये लोग समंदर में जहाज़ों को कैसे उड़ा रहे थे, और कौन दे रहा था इन लोगों को ट्रेनिंग? 
इसका जवाब है ऑपरेशन एक्स. क्या था ये ऑपरेशन और कैसे भारतीय नौसेना ने 71 के युद्ध से अपनी पहचान बनाई, जानेंगे आगे. साथ ही बताएंगे सोवियत संघ के उस नौसेना अध्यक्ष के बारे में जिसने भारत-सोवियत नौसेना संबंधों की नींव रखी थी.

भारत के सोवियत रूस के पास क्यों जाना पड़ा? 

1965 युद्ध के बाद रक्षा मंत्रालय को अहसास हुआ कि भारतीय नौसेना को मजबूत करने की जरुरत है. दिसंबर महीने में युवा नौसैनिकों का एक जत्था भारत से लंदन की ओर उड़ान भरता है. इनका गंतव्य था, पोर्टस्मथ, जहां HMS डॉलफिन नाम के एक संस्थान में इन लोगों ने ट्रेनिंग लेनी थी. एक साल तक ब्रिटेन की रॉयल नेवी पनडुब्बियों को चलाने की ट्रेनिंग लेने के बाद ये लोग भारत लौटे. और आते ही इन्हें बताया गया कि अगला पड़ाव है, व्लादिवोस्तोक USSR. 

सोवियत रूस से भारत पहुंची पहली पनडुब्बी INS कलवरी (तस्वीर: Indian Navy)

भारत को जरुरत थी आधुनिक पनडुब्बियों की. लेकिन ब्रिटेन भारत को पनडुब्बियां बेचने के लिए तैयार नहीं था. हालांकि तैयार था, लेकिन आधुनिक पनडुब्बी बेचने के लिए नहीं बल्कि 20 साल पुरानी सेकेण्ड हैंड पनडुब्बियां देने के लिए. जब USSR जाने की बात उठी तो भारतीय नौसेना के एडमिरल और अफसर परेशान हुए. इन सबकी ट्रेनिंग इंग्लैंड में हुई थी. लेकिन डिफेन्स मिनिस्टर यशवंतराव चव्हाण ब्रिटेन के लहजे से इतने नाराज थे कि एक बड़ा डेलिगेशन लेकर सीधे मॉस्को पहुंच गए. मॉस्को में भारतीय डेलीडेशन का खुले दिल से ना सिर्फ स्वागत हुआ, बल्कि मॉस्को यहां तक कह रहा था कि वो भारत को हर मदद देने को तैयार है.

USSR में भारतीय डेलीगेशन ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और इस तरह भारत ने सोवियत संघ से 5 पनडुब्बियों सहित फ्रिगेट, लैंडिंग शिप्स, और मिसाइल बोट्स खरीदी. सोवियत संघ की तरफ से इस काम की देखरेख करने वाले शख्स का नाम था एडमिरल गोर्शकोव. सोवियत रूस के लेजेंडरी नौसेना चीफ, जिन्होंने शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ के नौसेना बेड़े को अमेरिका के बराबर लाकर खड़ा कर दिया था. सोवियत-भारत नौसेना समझौते के तहत अगले तीन साल में जहाजों और पनडुब्बियों की डिलीवरी होनी थी. लेकिन फिर 1967 में अरब देशों और इजराइल के बीच जंग छिड़ गई और मिस्र ने स्वेज नहर का रास्ता बंद कर दिया. इसके बाद सोवियत रूस से जहाजी बेड़े को अफ्रीकी महासागर से घूमकर भारत पहुंचाया गया. आज ही की तारीख थी, यानी 5 जुलाई, जब सोवियत रूस से पहली पनडुब्बी, INS कलवरी विशाखापट्टनम पहुंची.

सोवियत नौसेना के एडमिरल - भारतीय नौसेना के पितामह 

इसके बाद साल 1969 में सोवियत नौसेना चीफ गोर्शकोव ने भारत का दौरा किया. इस दौरे में गोर्शकोव ने भारतीय एडमिरल्स को भरोसा दिया कि किसी भी बात के लिए वो उन्हें सीधे लिख सकते हैं, ताकि लाल फीताशाही बीच में ना आ सके. उसी साल गोर्शकोव ने रक्षा मंत्रालय को सलाह दी कि वो नौसैनिक बेड़े में और इजाफा करें. इनके पहुंचने में तीन साल और लगते लेकिन गोर्शकोव ने खुद सुनिश्चित किया कि अगले साल तक भारत का नौसैनिक बेड़ा और मजबूत हो जाए. जल्द ही गोर्शकोव की ये मदद भारत के काम आने वाली थी. 1971 युद्ध की शुरुआत से 20 महीने पहले भारत ने सोवियत संघ से कई छोटी नावें आयत की. बड़ी नावों से पाकिस्तान और अमेरिका के कान खड़े होने का डर था, जबकि छोटी नावों पर न एडमिरल तैनात हो सकते थे, न कोई बड़ा हथियार, इसलिए छोटी नावों की खरीदारी पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया.

सोवियत नेवी को ताकतवर बनाने वाले सर्गे गोर्शकोव (तस्वीर: Getty)

जैसे ही 1971 युद्ध नजदीक आया, SN नंदा, जो अब नौसेना चीफ बन चुके थे, इस बात से चकित थे कि युद्ध की तैयारियों में नौसेना का रोल बड़ा ही सीमित रखा गया था. इसके पीछे कारण दिया गया कि नौसेना के बेड़े को भारतीय तट की रक्षा के लिए तैयार रहना था, जबकि हमले का काम आर्मी और एयरफोर्स के जिम्मे था. ऐसे में नंदा ने एक नए ऑपरेशन का प्रारूप तैयार किया और प्रधानमंत्री इंदिरा के आगे पेश किया. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तुरंत मंजूरी भी दे दी. 

द वीक मैगज़ीन के दिल्ली ब्यूरो चीफ, आर प्रसन्नन लिखते है, कि आर्मी चीफ नंदा ने 71 में उनसे एक बात कही थी. नंदा ने कहा, बॉम्बे तट पर बने रहने का क्या तुक है? नंदा का तर्क था कि पाकिस्तानी नेवी कराची की रक्षा में लगी होगी. और अगर दुश्मन अपनी रक्षा में लगा है तो हम बॉम्बे के लिए क्यों परेशान हों. नंदा की ये बात प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जंची. युद्ध की शुरुआत से पहले ही नंदा ने नौसेना के बेड़े को मुम्बई तट से हटा लिया था. 

 नौसेना ने कराची का बंदरगाह जला डाला 

4 तारीख को जब पाकिस्तान की पनडुब्बियां पहुंची तो उनके हाथ कुछ न लगा. ठीक इसी समय भारत की नावें सौराष्ट्र तट के पास से गुजर रही थीं. 4 दिसम्बर की रात 3 नावें कराची बंदरगाह तक पहुंची, इनकी सुरक्षा के लिए सिर्फ फ्रिगेट नाव साथ चल रही थीं. सिर्फ तीन नावों एक सहारे नेवी ने पूरे कराची पोर्ट को बर्बाद कर डाला .पाकिस्तान के जंगी जहाज़ PNS खैबर सहित कई सारी शिप्स को डुबो दिया गया. इसके अलावा पोर्ट पर मौजूद हथियारों से भरे डीपो और ऑइल टैंकर्स को भी नष्ट कर दिया गया. जब तक ऑपरेशन खत्म हुआ पूरा कराची पोर्ट तबाह हो चुका था. वापसी कार्रवाई के लिए पकिस्तानी एयरफ़ोर्स ने भारतीय नावों का पीछा किया लेकिन इस चक्कर में वो अपना ही एक जहाज़ नष्ट कर बैठे.

आईएनएस निपत, विद्युत श्रेणी की मिसाइल नौकाओं में से एक, जिसने ऑपरेशन ट्राइडेंट और पायथन के दौरान कराची पर हमला किया था। (तस्वीर: भारतीय नौसेना)

 रशियन नेवल चीफ़ गोर्शकोव तक इस ऑपरेशन की सैटेलाइट तस्वीरें पहुंच रहीं थी. उन्होंने कराची में भारतीय नौसेना के ऑपरेशन को देखा तो ख़ुशी से उछल पड़े. नंदा के प्लान का एक और महत्वपूर्ण भाग था ऑपरेशन एक्स, जो आधिकरिक युद्ध का हिस्सा भी नहीं था. ऑपरेशन एक्स की शुरुआत अप्रैल महीने से ही हो चुकी थी. क्या था ये ऑपरेशन? इंडिया टुडे में एग्जीक्यूटिव एडिटर संदीप उन्नीथन और महावीर चक्र से सम्मानित कैप्टन मोहन नारायण सामंत ने इसी ऑपरेशन के ऊपर एक किताब लिखी है. जिसमें उन्होंने ऑपरेशन एक्स का पूरा ब्यौरा दिया है. ऑपरेशन एक्स की जरुरत क्यों पड़ी, पहले ये समझिए, 

अप्रैल 1971 में, जैसे ही पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह तेज़ हुआ, पश्चिमी पाकिस्तान से तेज़ी से मिलट्री सप्लाई और सामान पूर्वी पाकिस्तान तक भेजा जाने लगा. इसके लिए एक ही रास्ता था, समंदर से होकर. पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में बहुत सी नदियां और धाराएं पहुंचती थीं, जिनके तटों पर नावें और जहाज उतारे जाते थे. भारतीय नौसेना ने प्लान बनाया कि इस सप्लाई रुट को ध्वस्त कर दिया जाए. जिससे पाकिस्तान के लिए बड़ी परेशानी खड़ी हो सकती थी. अब ध्यान दीजिए, युद्ध की घोषणा तक इस काम के लिए सीधे नौसेना का उपयोग नहीं किया जा सकता था. इसलिए एक अंडरवाटर गुरिल्ला फोर्स को तैयार किया गया. इनको ट्रेंनिंग देने वाले भी खुद पाकिस्तानी नौसैनिक ही थे.

पाकिस्तानी नौसैनिक पहुंचे भारत के पास 

कहानी कुछ यूं है कि अगस्त 1970 में पाकिस्तानी नौसेना में एक पनडुब्बी शामिल हुई, PMS मेंग्रो. 71 में इस पनडुब्बी के क्रू को ट्रेनिंग के लिए फ़्रांस भेजा गया. इस क्रू में 13 नौसैनिक पूर्वी पाकिस्तान के थे. जैसे ही पूर्वी पाकिस्तान में हालत बिगड़े, इन 13 लोगों ने अंदर ही अंदर एक साजिश की रूपरेखा बनाई. ये लोग सबमरीन को कब्ज़े में लेकर बांग्लादेश ले जाने वाले थे. 1 अप्रैल 1971 को सबमरीन पाकिस्तान लौटने वाली थी, उसी दिन ऑपरेशन को अंजाम दिया जाना था. लेकिन इससे पहले कि ऑपरेशन सफल होता, पाकिस्तानी इंटेलिजेंस को इसकी खबर लग गई. इन 13 लोगों की पाकिस्तानी टुकड़ी से भिड़ंत हुई और इस दौरान 1 नौसैनिक की मौत हो गयी. बचे हुए 12 लोग भागकर जिनेवा के भारतीय दूतावास में शरण लेने पहुंच गए. 

1975 भारतीय नेवी के चीफ सरदारीलाल मथरादास नंदा (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इन्हीं लोगों की मदद से पूर्वी पाकिस्तान में गुरिल्ला तैराकों को प्रशिक्षित किया गया. ये लोग तैराकी गियर पहनकर पानी में उतरते. सीने में एक माइन बंधी होती जिसे मैग्नेट के जरिए नावों की सतह पर चिपकाया जाता और कुछ ही देर में माइन के ब्लास्ट से नांव बर्बाद हो जाती. इसके लिए एक घंटे तक पानी में रहना होता था, और वो भी दुश्मन की आंखों से छुपकर. 

उन्नीथन बताते हैं कि 3 किलो की माइन में एक प्लग लगा होता था, जो 30 मिनट से ज्यादा समय तक पानी में रहने पर घुलने लगता था. और इतना समय नांव तक जाकर वापस लौटने के लिए नाकाफी था. ऐसे में एक रात किसी ने आईडिया दिया कि क्यों न प्लग के ऊपर कंडोम लगा दें ताकि पानी से बच सके. उस दिन तो सब हंसने लगे. लेकिन फिर कुछ दिन बाद यही तरीका अपनाया गया. और तरीका काम भी कर गया. 
उन्नीथन लिखते है कि इस काम के लिए कुल 437 गुरिल्लाओं को प्रशिक्षित किया गया. इन गुरिल्ला तैराकों ने जहाजों और नावों से ले जाया जा रहा पाकिस्तान का लगभग 1 लाख टन सामान नष्ट कर दिया. इस ऑपरेशन ने पूर्वी पाकिस्तान में नौसेना इंफ्रास्ट्रक्चर की रीढ़ तोड़कर रख दी. 

बाद में जब भारतीय नौसेना पूर्वी फ़्रंट पे ऐक्टिव हुई तो ऑपरेशन एक्स ने उनकी सफलता की नींव पहले ही रख दी थी. बाद में इस फ़्रंट पर जब अमेरिका ने अपना जंगी बेड़ा भेजा तो सोवियत संघ एक और बार भारत की मदद के लिए आगे आया. ऑपरेशन एक्स के बारे में और जानना चाहते हैं तो संदीप उन्नीथन और कैप्टन सामंत की लिखी किताब का रुख़ कर सकते हैं. पूरा नाम है, Operation X – The Untold Story of India’s Covert Naval War in East Pakistan 1971. 

वीडियो देखें- कैसे ‘असल उत्तर’ की लड़ाई में पाकिस्तान के टैंक की बखिया उधेड़ी गई?