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अमेरिका का खज़ाना खाली, बाइडन ने दौरा रद्द किया, 70 लाख Jobs जाएंगी?

डेट् सीलिंग क्राइसिस क्या है?

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अमेरिका दीवालिया होने की कगार पर क्यों पहुंच गया?

अमेरिका संकट में है. अगर सरकार और विपक्ष के बीच डील फ़ाइनल नहीं हुई तो मुल्क दीवालिया हो सकता है. नतीजा, सरकारी स्टाफ़्स का वेतन रुक सकता है. पेंशन और मेडिकेयर जैसी सुविधाएं बंद हो सकती है. 70 लाख लोगों की नौकरी जा सकती है. दुनियाभर में मंदी आ सकती है. ये कुछ बड़ी आशंकाएं हैं, जो सामने दिख रही हैं. तबाही का दायरा तो बहुत ही ज़्यादा बड़ा है. ये पूरा घालमेल डेट् सीलिंग यानी क़र्ज़ लेने की सीमा बढ़ाने से जुड़ा है. समस्या इतनी विकराल है कि राष्ट्रपति जो बाइडन को क़्वाड समिट से नाम वापस लेना पड़ा. जिसके कारण इस साल की क़्वाड समिट रद्द कर दी गई है. बाइडन हिरोशिमा में G7 की बैठक में शामिल होने के बाद पापुआ न्यू गिनी और फिर सिडनी जाने वाले थे. वहां उनकी पीएम मोदी से भी मुलाक़ात होनी थी. मगर बाइडन बोले, घर में दिक़्क़त है. मैं नहीं आ पाऊंगा. अब वो हिरोशिमा से सीधे घर वापस लौट जाएंगे. वहां वो डेट् सीलिंग पर होने वाली इमरजेंसी मीटिंग्स में हिस्सा लेंगे. उनके पास 01 जून तक की डेडलाइन है.
तो, आइए जानते हैं,

- डेट् सीलिंग क्राइसिस क्या है?
- अगर 01 जून तक कोई समझौता नहीं हुआ तो क्या होगा?
- और, क्या क़्वाड समिट रद्द होने के बाद भी पीएम मोदी ऑस्ट्रेलिया जाएंगे?

वर्ल्ड बैंक के मुताबिक, अमेरिका दुनिया में सबसे अधिक जीडीपी वाला देश है. जीडीपी बोले तो एक वर्ष में देश में पैदा होने वाले सभी सामानों और सेवाओं की कुल कीमत. इसे क्रिकेट मैच के फ़ाइनल स्कोरकार्ड से भी समझा जा सकता है. अगर सभी खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करें तो टीम मज़बूत दिखेगी. अगर किसी की परफ़ॉर्मेंस ख़राब हुई तो इसका असर टीम की ओवरऑल पोजिशन पर भी पड़ेगा. इसी तरह देश की जीडीपी भी अलग-अलग सेक्टर्स पर निर्भर करती है. अगर जीडीपी की वृद्धि दर कम है तो समझिए, वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कम हो रहा है. अगर वृद्धि दर अच्छी है अधिकतर सेक्टर्स सही दिशा में काम कर रहे हैं.

वर्ल्ड बैंक 

जीडीपी के खेल में अमेरिका की बादशाहत बरसों से बरकरार है. वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में अमेरिका की जीडीपी लगभग 23 ट्रिलियन डॉलर थी. यानी लगभग 1700 लाख करोड़ भारतीय रुपये. मतलब बहुत ज़्यादा पैसा. इसको भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों में बांटा जाए तो हर एक नागरिक को लगभग 10 लाख रुपये मिलेंगे. अमेरिका की जीडीपी इतनी बड़ी है. दूसरे नंबर पर चीन है. उसकी जीडीपी लगभग 15 ट्रिलियन डॉलर की है. दोनों के बीच इतना अंतर है कि इसमें भारत और जापान भी आ जाएं. जबकि चीन की आबादी अमेरिका से चार गुणा ज़्यादा है. इतना ही नहीं, दुनिया की 10 सबसे कीमती कंपनियों में से 08 अमेरिका में हैं.

वर्ल्ड बैंक और इंटरनैशनल मॉनेटरी फ़ंड (IMF) जैसी संस्थाओं पर अमेरिका का एकाधिकार है. अमेरिका की मुद्रा डॉलर दुनिया के अधिकतर देशों में मान्य है. विदेशी व्यापार का एक बड़ा हिस्सा डॉलर से ही होता है. इसके अलावा भी बहुत सारे फ़ैक्टर्स हैं, जो अमेरिका की अर्थव्यवस्था को टिकाऊ और प्रभावशाली बनाते हैं.

ऐसे में सवाल उठता है, जब अमेरिका इतना ताक़तवर है तो उसके ऊपर दीवालियेपन की तलवार क्यों लटकने लगी है? क्यों कहा जा रहा है कि देश चौपट हो सकता है? ऐसा क्या हुआ कि राष्ट्रपति को बेहद ज़रूरी दौरा रद्द करना पड़ा?

इसकी वजह डेट् सीलिंग से जुड़ी है. सरकार ने जनवरी 2023 में बाहर से क़र्ज़ लेने की सीमा छू ली. यानी, वो बाहर से एक आना पैसा भी नहीं ले सकती. लेकिन खर्चा तो अभी बचा ही है. उसे सैलरी देनी है, पेंशन देना है, ब्याज लौटाना है. और भी भतेरे खर्चे हैं. इसके लिए पैसा कहां से आएगा? इसका एक ही रास्ता बचा है. अमेरिका की संसद यानी कांग्रेस डेट् सीलिंग की सीमा को बढ़ा दे. मगर वहां भी झगड़ा है. कांग्रेस में दो सदन हैं. ऊपरी सदन में बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी को बहुमत है. वहां तो बिल आसानी से पास हो जाएगा. लेकिन निचले सदन में डोनाल्ड ट्रंप वाली रिपब्लिकन पार्टी बहुमत में है. उन्हें मनाना मुश्किल हो रहा है. इसी को लेकर पिछले कई दिनों से बाइडन मीटिंग्स कर रहे हैं. 16 मई को निचले सदन के स्पीकर केविन मैक्कार्थी ने बाइडन से मुलाक़ात की. बाद में बोले कि समझौते की उम्मीद है. हालांकि, जानकार कुछ और ही कहानी बयां करते हैं. उनका कहना है, बाइडन सरकार गहरी मुसीबत में है. विपक्ष समझौते के लिए बड़ी कीमत मांग रहा है. उसे मानना मुश्किल होगा. और तो और, बाइडन 14वें संविधान संशोधन का इस्तेमाल करने से भी हिचक रहे हैं. ऐसे में समस्या इतनी आसानी से नहीं सुलझेगी.

14वें संविधान संशोधन और बाइडन की दुविधा को आगे विस्तार से समझेंगे. पहले डेट् सीलिंग के बारे में जान लेते हैं.

ये कानून 1917 में लाया गया था. तब कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर खर्चा पूरा करने के लिए क़र्ज़ लेने की सीमा की थी. ताकि आमदनी और खर्च का अनुपात बरकरार रहे. और, खज़ाना कभी खाली ना हो. अमेरिका में आमदनी और खर्चे का हिसाब देखता है, ट्रेजरी डिपार्टमेंट. इसे भारत के वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक का मिक्स्चर समझिए.
अमेरिका को आमदनी कहां से होती है? टैक्स से, कस्टम ड्यूटी से, सरकारी इमारतों के टिकट से. और भी कई छोटे-मोटे रास्तों से पैसे आते हैं. लेकिन ये पैसा सरकार का खर्च चलाने के लिए काफ़ी नहीं होता. उसे अलग-अलग वेलफ़ेयर प्रोग्राम्स में खर्च करना होता है. सरकारी स्टाफ़्स को सैलरी देनी होती है. सड़क बनवानी होती है. दूसरे देशों को मदद भेजनी होती है. जितने भी सरकारी काम हैं, सब गिन लीजिए.

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन 

जब खर्च आमदनी से ऊपर चला जाता है, तब ट्रेजरी डिपार्टमेंट क़र्ज़ लेता है. इसके लिए बॉन्ड जारी किए जाते हैं. ये एक तरह का दस्तावेज होता है. मान लीजिए, आपने एक हज़ार रुपये का बॉन्ड 30 सालों के लिए खरीदा. उस पर ब्याज मिला 05 प्रतिशत का. ऐसे में आपको अगले 30 सालों तक हर बरस ब्याज के तौर 50-50 रुपये मिलते रहेंगे. 30 बरस के बाद आप उस बॉन्ड को बेचकर अपना मूलधन वापस ले सकते हैं.

ये बॉन्ड अमेरिका और अमेरिका से बाहर के लोगों और देशों ने भी खरीद रखा है. चीन और जापान के इन्वेस्टर्स ने मिलकर 09 प्रतिशत बॉन्ड खरीद रखे हैं. सबसे ज़्यादा बॉन्ड अमेरिका की सरकार के पास है. लगभग 36 प्रतिशत. ये भी दिलचस्प है कि केंद्र सरकार ख़ुद को ही क़र्ज़ देती है.

अमेरिका इसी तरह बॉन्ड बेचकर क़र्ज़ लेता है और अपना खर्च पूरा करता है. लेकिन कितना क़र्ज़ लिया जा सकता है और कितने बॉन्ड बेचे जा सकते हैं, इसकी सीमा पहले से तय है. इसी को डेट् सीलिंग कहते हैं. फिलहाल में ये 31.4 ट्रिलियन डॉलर में है.

अभी क्या बखेड़ा हुआ है?

जनवरी 2023 में अमेरिका का कुल क़र्ज़ और डेट् सीलिंग बराबर हो गए. तब ट्रेजरी डिपार्टमेंट ने इमरजेंसी फ़ंड से सरकार को और पैसे दे दिए. उन्हें लगा कि बाद में देख लिया जाएगा. डेट् सीलिंग पहले भी बढ़ाई जाती रही है. इस बार भी बढ़ा दिया जाएगा. 1960 से अब तक 78 बार डेट् सीलिंग बढ़ाई गई है. ये दोनों पार्टियों की सरकारों में हुआ है.

लेकिन इस बार मामला फंस गया.

ट्रेजरी डिपार्टमेंट पैसे के आने और जाने पर नियंत्रण रखता है. पर वो ये डिसाइड नहीं कर सकता कि किससे कितना टैक्स लेना है और पैसे को कहां खर्च करना है. वो डेट् सीलिंग को भी नहीं घटा-बढ़ा सकता. ये काम कांग्रेस और राष्ट्रपति का है.

ट्रेजरी डिपार्टमेंट में मंत्री जेनेट येलेन ने साफ़-साफ़ चेतावनी जारी कर दी है. कहा, अगर और क़र्ज़ नहीं लिया तो हमारे पास अपनी ज़रूरतों के लिए पैसा नहीं बचेगा. येलेन ने 01 जून की डेडलाइन दी है.

आपके मन में सवाल उठ रहा होगा. सरकार इतना खर्च करती ही क्यों है?

अमेरिका जिन पांच सेक्टर्स में सबसे अधिक खर्च करता है. वे हैं, सोशल सिक्योरिटी, हेल्थ, इनकम सिक्योरिटी, नेशनल डिफ़ेंस और मेडिकेयर. ये डेटा 2022 का है. ट्रेजरी डिपार्टमेंट का.
इन खर्चों में उतार-चढ़ाव की वजह से अमेरिका पर थोड़ा बहुत क़र्ज़ हमेशा से रहा है. 1980 के दशक में इसका ग्राफ़ अचानक ऊपर चला गया था. क्योंकि तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने वोटर्स को लुभाने के लिए टैक्स में कटौती कर दी. इसके चलते सरकार की कमाई कम हो गई. तब उन्हें खर्च पूरा करने के लिए ज़्यादा क़र्ज़ लेना पड़ा. 1990 के दशक की शुरुआत में कोल्ड वॉर खत्म हो गया. मिलिटरी पर होने वाला खर्च घटा. फिर इंटरनेट ने रफ़्तार पकड़ी. इसने क़र्ज़ घटाने में मदद की.

2000 का दशक नई मुसीबतें लेकर आया. अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ में युद्ध छेड़ा. दोनों युद्धों में लगभग 06 ट्रिलियन डॉलर का खर्च आया. 2008 की मंदी ने रही-सही कसर पूरी कर दी. मंदी से उबरने के लिए सरकार को आगे आना पड़ा. इसमें भी ख़ूब खर्चा हुआ. इसका दूरगामी असर हुआ. 2011 में अमेरिका दीवालिया होने की कगार पर पहुंच गया था. तब डेडलाइन से कुछ समय पहले ही डील पूरी हुई. रिपब्लिकन पार्टी अगले 10 सालों तक खर्च में कटौती का वादा मिलने के बाद तैयार हुई थी.

2017 में स्थिति सुधरी तो डोनाल्ड ट्रंप की सरकार ने टैक्स में कटौती कर दी. इसके कारण क़र्ज़ फिर से बढ़ गया. फिर 2020 में कोरोना महामारी आई. बिजनेस ठप पड़े. नौकरियां गईं.  उन्हें पटरी पर लाने के लिए सरकार को अपने खजाने से खर्च करना पड़ा. इन सबका नतीजा हालिया संकट पर साफ़-साफ़ दिख रहा है.

अगर डेट् सीलिंग बढ़ाई या सस्पेंड नहीं की गई तो क्या होगा?

अभी तक के इतिहास में ऐसा नहीं हुआ है. इसी वजह से अंधे कुएं वाली नियति दिख रही है. यानी, कुछ भी हो सकता है.
जो स्थिति समझ में आ रही है, उसके मुताबिक,

- केंद्र सरकार अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाएगी. सोशल सिक्योरिटी और पेंशन का भुगतान भी बंद हो जाएगा. इस पर लाखों लोग निर्भर हैं.
- जिन कंपनियों और संस्थाओं को सरकार से फ़ंड मिलता है, उन्हें भी पैसा नहीं मिलेगा.
- सरकार ब्याज नहीं चुका पाएगी. ऐसे में उसकी साख घट सकती है. आगे उसे बॉन्ड बेचने में परेशानी आ सकती है. अगर ऐसा हुआ तो उसे ज़्यादा ब्याज चुकाना पड़ेगा.
- बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगर ये स्थिति बहुत दिनों तक कायम रही तो शेयर बाज़ार 20 प्रतिशत तक गिर सकता है. अर्थव्यवस्था 04 प्रतिशत तक सिकुड़ सकती है और इसके कारण 70 लाख लोगों की नौकरियां जा सकतीं है.

इससे संकट से बचने का क्या उपाय है?

तीन रास्ते बताए जा रहे हैं. एक-एक कर समझ लेते हैं.

नंबर एक. कांग्रेस की मंज़ूरी.

अमेरिकी संविधान के मुताबिक, डेट् सीलिंग बढ़ाने या सस्पेंड करने की शक्ति कांग्रेस के पास है. इसके लिए बाइडन सरकार को रिपब्लिकन पार्टी का सपोर्ट चाहिए.
इस पार्टी ने सपोर्ट के एवज में एक शर्त रखी थी. कहना ये कि हम अभी तो डेट् सीलिंग बढ़ा देंगे, लेकिन अगले कुछ सालों में खर्च में कटौती करनी होगी.
अगर बाइडन इस पर मान गए तो उनकी सरकार को कई वेलफ़ेयर प्रोग्राम्स बंद करने होंगे. इसका असर उनके वोटबैंक पर पड़ सकता है. इसके कारण देश में अस्थिरता भी आ सकती है.

नंबर दो. इमरजेंसी फ़ंड.

ट्रेजरी डिपार्टमेंट कुछ महीनों तक इमरजेंसी फ़ंड के ज़रिए संकट को टाल सकता है. तब तक सरकार और विपक्ष में समझौता कर ले. हालांकि, ये जुआ ही है. सफ़लता की पूरी गारंटी कतई नहीं.
अगर ऐसी स्थिति आई तो जाहिर तौर पर निवेशकों का भरोसा घटेगा. और, डॉलर की प्रासंगिकता को लेकर भी संशय पैदा है सकता है.

नंबर तीन. 14वां संविधान संशोधन.

ये संशोधन राष्ट्रपति को कांग्रेस को बायपास करने का अधिकार देता है. इसे अमेरिका में चल रहे सिविल वॉर के दौर में लाया गया था. ये कहता है, अमेरिकी जनता के क़र्ज़ की वैधता पर सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता. बाइडन ने इसके इस्तेमाल की तरफ़ इशारा भी किया है. हालांकि, इसको कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. जिससे फ़ैसला अधर में लटक जाएगा. और, संकट का कोई हल नहीं निकलेगा.

आपने अमेरिका में चल रहे आर्थिक बवंडर की कहानी सुनी. इसी संकट से उबरने के लिए बाइडन लगातार बैठकें कर रहे हैं. उन्हें दो हफ़्ते के अंदर इसको ठीक करना है. इसी वजह से उन्होंने पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया का दौरा रद्द करने का फ़ैसला किया. हालांकि, वो जापान के हिरोशिमा में G7 की बैठक में ज़रूर हिस्सा लेंगे. 19 से 21 मई के बीच बाइडन वहीं रहेंगे. G7 दुनिया के सात विकसित और ताक़तवर देशों का समूह है. अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली, जर्मनी, जापान, कनाडा और यूरोपियन यूनियन (EU) इसके सदस्य हैं. एक समय तक रूस भी इस गुट का हिस्सा था. क्रीमिया पर हमले के बाद उसे बाहर निकाल दिया गया था. चूंकि इस बार की समिट का मेज़बान जापान है, वो अपने सहयोगी देशों को विशेष आमंत्रण पर बुला सकता है. पीएम मोदी जापान के विशेष न्यौते पर हिरोशिमा जा रहे हैं. वहां उनकी मुलाक़ात बाइडन से अलग से भी होने वाली है.  बाइडन, मोदी और जापान के प्रधानमंत्री फ़ुमियो किशिदा G7 के बाद सिडनी भी जाने वाले थे. क़्वाड समिट में हिस्सा लेने. लेकिन बाइडन की वापसी के कारण इसे रद्द कर दिया गया है.

हालांकि, पीएम मोदी के शेड्यूल में कोई बदलाव नहीं हुआ है. वो हिरोशिमा के बाद पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया जाएंगे. ऑस्ट्रेलिया के पीएम एंथनी अल्बनीज ने कहा कि क़्वाड समिट को पूरी तरह कैंसिल नहीं किया गया है. हो सकता है कि बाइडन के बदले उनका कोई प्रतिनिधि बैठक में शामिल हो जाए. फिलहाल इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है.

क़्वाड और G7 के बारे में हम दुनियादारी में विस्तार से बता चुके हैं. ऐपिसोड्स के लिंक डिस्क्रिप्शन में मिल जाएंगे. फिलहाल हम समिट रद्द होने के प्रभावों की चर्चा कर लेते हैं.
कहा जा रहा है इससे सबसे ज़्यादा खुशी चीन को हो रही है. क़्वाड की स्थापना चीन को काउंटर करने के मकसद से की गई थी. मौजूदा समय में संगठन के चारों सदस्य चीन से परेशान चल रहे हैं. उनके बीच बेहतर सामंजस्य की दरकार है. बाइडन जापान के बाद पापुआ न्यू गिनी भी जाने वाले थे. वहां भी चीन का दखल बढ़ रहा है. उनके दौरे को बड़े संदेश की तरह देखा जा रहा था. पापुआ के एक ब्लॉगर ने लिखा, हमने एक दिन की पब्लिक छुट्टी का ऐलान भी कर दिया था. अमेरिका अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है. उसकी इस इलाके में दिलचस्पी खत्म हो रही है. चीन को कभी ऐसी समस्या नहीं होती.

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