अदावत, बगावत और सुलह से आगे बढ़ चुकी अशोक गहलोत और सचिन पायलट की सियासी लड़ाई अब कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन गई है. मुख्यमंत्री के लिए पायलट का नाम आने से गहलोत समर्थक 80 से ज्यादा विधायकों ने सामूहिक इस्तीफा देने की बात कही है. उनका कहना है कि मुख्यमंत्री उनकी राय से चुना जाए और 2020 में सरकार से बगावत करने वाले किसी भी विधायक को मुख्यमंत्री ना बनाया जाए.
गहलोत और पायलट के बीच वो बड़े टकराव, जिनसे नौबत यहां तक आ गई
राजस्थान में सियासी संकट बढ़ता जा रहा है. सीएम पद को लेकर गहलोत और पायलट खेमे में एक बार फिर से जंग छिड़ चुकी है.
जाहिर सी बात है, निशाना सचिन पायलट पर ही है. और राजनीति को समझने वाले इस बात को कहने से गुरेज नहीं कर रहे हैं कि ये पूरा खेल गहलोत ने ही रचा है, ताकि पायलट को मुख्यमंत्री बनने से रोका जा सके. लेकिन सवाल ये है कि आखिर गहलोत और पायलट के बीच इस पॉलिटिकल वॉर की वजह क्या है. तो वजह एक नहीं है, पूरी फेहरिस्त है, जिनकी शुरुआत तब हुई थी, तब कांग्रेस राजस्थान में सत्ता में आने की कवायद में जुटी थी.
कहां से शुरू हुआ विवाद?2013 का विधानसभा चुनाव. कांग्रेस सत्ता में थी. सीएम थे अशोक गहलोत. लेकिन नतीजे आने के बाद कांग्रेस बुरी तरह हारी. 200 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस को मात्र 21 सीटें मिलीं. बड़ी मुश्किल से कांग्रेस विपक्षी पार्टी बन पाई. आधिकारिक तौर पर 10 प्रतिशत सीटें जीतने वाली पार्टी को विपक्षी पार्टी का दर्जा मिलता है. कांग्रेस की ये अब तक की सबसे बड़ी हार थी.
इसके बाद ये माना जाने लगा कि अशोक गहलोत का जादू कम होने लगा है. गहलोत राज्य की राजनीति छोड़कर केंद्र में आ गए. लेकिन 2017 में वो फिर से अपना जादू दिखाने में सफल रहे. गुजरात चुनाव. अशोक गहलोत को गुजरात का प्रभारी बनाया गया था. 20-25 साल में पहली बार ऐसा लगा कि कांग्रेस ने गुजरात चुनाव लड़ा. थोड़ी-सी मार्जिन से चूक गए. लेकिन कांग्रेस के चुनाव लड़ने की तारीफ हुई. गहलोत की भी तारीफ हुई. वो राहुल गांधी के और करीब आ गए. तब तक उन्हें सोनिया गांधी का करीबी माना जाता था.
राजस्थान में फिर से एंट्रीफरवरी 2018. राजस्थान में दो लोकसभा सीटों पर और एक विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुए. सत्ता में होने के बावजूद बीजेपी हार गई. अलवर और अजमेर लोकसभा सीट बीजेपी हार गई. दोनों संसदीय क्षेत्र में बीजेपी एक भी विधानसभा सीट पर लीड नहीं ले पाई थी. विधानसभा सीटों के लिहाज से बीजेपी 18 सीटों पर सीधे-सीधे हारी. यहां से सचिन पायलट लीडर के रूप में उभरे.
राजनीति के जानकार कहते हैं कि यहां से सचिन पायलट और अशोक गहलोत में नेतृत्व की लड़ाई शुरू हुई.
कांग्रेस में ये परंपरा रही है कि जो AICC यानी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का सदस्य है, अगर उसके राज्य में चुनाव है, तो वह AICC की टिकट बांटने वाली कमेटी में शामिल नहीं हो सकता. लेकिन अशोक गहलोत ने परंपरा तोड़ दी और टिकट बंटवारे में शामिल हो गए. कहते हैं कि यहीं से दोनों के बीच तनाव शुरू हुआ. जानकार बताते हैं कि 200 में से 80 टिकट अशोक गहलोत के खाते में गए. सचिन पायलट के खाते में 50 के आसपास टिकट आए. बाकी के क्षेत्रीय छत्रपों को टिकट दिया गया. इस तरह से समीकरण साधने की कोशिश की गई.
कहते हैं कि गहलोत ने अपने खेमे के लोगों को निर्दलीय खड़ा कर दिया. दो-तीन को छोड़कर बाकी जीत भी गए. जिस तरह वसुंधरा राजे सरकार के खिलाफ लोगों में नाराजगी थी, उसे देखते हुए कांग्रेस को लगा था कि कम से कम 120 सीटें जीत जाएगी. कहा जा रहा था कि ऐसा होता है, तो गहलोत की जगह सचिन का सीएम बनना तय था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
कांग्रेस 200 सदस्यों वाली विधानसभा में 100 सीटों पर अटक गई. पायलट के कई करीबी चुनाव हार गए. ऐसे में बाजी पलट गई. कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए एक विधायक की जरूरत थी. अशोक गहलोत ने 13 निर्दलीय और राष्ट्रीय लोकदल के विधायक के साथ कांग्रेस आलाकमान को अपनी ताकत दिखाई.
सीएम नहीं बन पाएगहलोत के सीएम बनने पर मुहर लग गई. लेकिन सचिन नहीं मान रहे थे. उनका तर्क था कि उन्होंने पांच साल तक कड़ी मेहनत की है. घर-परिवार दांव पर लगा दिया. अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि सीएम नहीं बनाए जाने पर पायलट ने पार्टी छोड़ने की धमकी दी. कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें कहा कि छोड़ दीजिए. फिर पायलट ने अपने पैर पीछे खींच लिए.
सचिन पायलट ने खूब कोशिश की कि उन्हें सीएम बना दिया जाए. लेकिन राजनीति में चाणक्य माने जाने वाले अशोक गहलोत से हार गए.
सत्ता मिलते ही टकराव शुरू'इंडिया टुडे' के पत्रकार शरत कुमार बताते हैं कि राजस्थान के शपथ ग्रहण समारोह में भी दोनों के बीच मनमुटाव देखने को मिला था. शपथ ग्रहण के दैरान सचिन पायलट ने अपनी कुर्सी राज्यपाल के बगल में लगाने को कहा. कहा जाता है कि अशोक गहलोत ने इसका विरोध किया. कहा कि उपमुख्यमंत्री का पद कोई संवैधानिक पद नहीं है. इसलिए राज्यपाल और मुख्यमंत्री की कुर्सी के बगल में उपमुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं लग सकती. मगर पायलट ने अपनी कुर्सी लगवाई.
सरकार बनी. मंत्रालयों का बंटवारा हुआ. सचिन पायलट को 'मलाईदार' कहा जाने वाला पीडब्ल्यूडी मंत्रालय दिया गया. लेकिन अशोक गहलोत ने उनके पर करत दिए. उन्होंने ये तय कर दिया कि कोई भी बड़ा प्रोजेक्ट बिना सीएमओ के पास नहीं होगा. मंत्री होते हुए भी पायलट बड़े फैसले नहीं ले पा रहे. बाद में तो गहलोत ने पायलट की ऐसी स्थिति और खराब कर दी. पायलट ने कांग्रेस आलाकमान से शिकायत कर दी कि उनके विधानसभा क्षेत्र में भी उनकी नहीं सुनी जाती है.
शरत कुमार बताते हैं कि राजस्थान विधानसभा में मुख्य द्वार से केवल राज्यपाल, विधानसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री आते हैं. पहली बार जब विधानसभा शुरू हुई, तो उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट उसी रास्ते से आए. एक दिन तो वह आ गए, मगर दूसरे दिन जैसे ही आए, विधानसभा के मास्टर ने उन्हें रोक लिया. कहा कि आप विधायकों और मंत्रियों के रास्ते से आइए. सचिन पायलट जिद पर अड़ गए, तो अशोक गहलोत ने उन्हें आगंतुकों के रास्ते से आने का प्रावधान कर दिया. यानी बीच का रास्ता निकाला गया कि न तो मुख्यमंत्री के रास्ते से आएंगे, न मंत्रियों के रास्ते से आएंगे, वह दूसरे रास्ते से ही आएंगे.
आरोप-प्रत्यारोप दोनों तरफ से चला. शरद कुमार बताते हैं कि सरकार बनते ही पहला मौका आया, जब अलवर में गैंगरेप हुआ. सचिन पायलट न केवल उपमुख्यमंत्री थे, बल्कि पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी थे. इसके बावजूद कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर अपनी ही सरकार पर सवाल उठाए. गृह मंत्री होने के नाते अशोक गहलोत पर जवाबदेही तय करने की कोशिश की. जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत राजस्थान क्रिकेट असोसिएशन का चुनाव लड़ रहे थे, तो रामेश्वर डूडी की तरफ से साथ देते हुए सचिन पायलट ने अशोक गहलोत की मंशा पर और पुलिस पर सवाल उठाया था.
कोटा के जे.के. लोन अस्पताल में बच्चों की मौत हुई, तो अशोक गहलोत ने कह दिया कि बीजेपी सरकार के दौरान भी इससे ज्यादा बच्चे मरे थे. इस बात को पकड़कर पायलट ने कहा कि हम सरकार में आ चुके हैं और पिछली सरकार की गलतियों को गिनाकर बच नहीं सकते हैं. पायलट यहीं नहीं रुके. सीधे कोटा अस्पताल पहुंच गए और वहां पर जाकर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सरकार पर सवाल उठाए. नागौर में दलितों की पिटाई का वीडियो वायरल हुआ. पायलट ने प्रदेश कांग्रेस की कमेटी बनाकर जांच के लिए भेज दी. कहा दलित अत्याचार की घटनाएं सरकार में नहीं होनी चाहिए और कानून व्यवस्था के जिम्मेदार लोग इस पर ध्यान दें, यह जानते हुए कि गृह मंत्री खुद अशोक गहलोत हैं.
2020 में सचिन पायलट की बगावतसाल 2020. जून का महीना चल रहा था. उसी साल मार्च में सचिन पायलट के दोस्त ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी का दामन थाम चुके थे. जून में राजस्थान में 3 राज्यसभा सीटों का चुनाव था. अशोक गहलोत को डर था कि कहीं सचिन पायलट खेमा दगाबाजी ना कर जाए. इसलिए 19 जून के चुनाव से पहले 11 जून को ही विधायकों की बाड़ेबंदी कर दी थी. इसमें चुनाव में सब कुछ गहलोत के मुताबिक ही रहा लेकिन अंदरखाने उन्होंने पायलट पर निशाना साधना शुरू कर दिया था. ये झगड़ा जुलाई आते-आते गुप्त रखने की सीमाएं लांघ गया. इसकी वजह है विधायकों की खरीद-फरोख्त मामले में राजस्थान पुलिस के स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप यानी SOG का नोटिस. ये नोटिस कई निर्दलीय विधायकों के साथ ही डिप्टी सीएम सचिन पायलट को भी भेजा गया. बाद में सीएम अशोक गहलोत को भी भेजा गया. इस नोटिस के बाद पायलट और उनके सहयोगी बहुत नाराज हो गए.
अंदरखाने खबर ये थी कि अशोक गहलोत के इशारों पर सचिन पायलट को नोटिस भेजा गया. पायलट ने इसी नोटिस को वजह बताकर बगावत कर दी. जयपुर छोड़कर दिल्ली पहुंच गए. इसके बाद पायलट विधायकों के साथ मानेसर के रिसॉर्ट में शिफ्ट हो गए. बताया जा रहा था कि तब इनके साथ 25 विधायक थे. 12 जुलाई को पायलट ने अशोक गहलोत सरकार के अल्पमत में आ जाने का ऐलान कर दिया. सरकार को गिराने के संकेत देने लगे. पायलट गुस्से में थे और अशोक गहलोत को सबक सिखाना चाहते थे. इंडिया टुडे के साथ एक बातचीत में कह भी दिया था कि चुनाव उन्होंने जीता, लेकिन अशोक गहलोत बिना किसी काम के मुख्यमंत्री बनने का दावा लेकर आ गए. यहां तक कहा जाने लगा कि सचिन पायलट अशोक गहलोत की सरकार गिराएंगे और बीजेपी के साथ मिलकर मुख्यमंत्री बनेंगे.
इसके बाद, किसके साथ कितने विधायक हैं, 13 जुलाई, 2020 को इसी की आजमाइश हुई. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने विधायक दल की बैठक बुलाई. बैठक सीएम आवास पर थी. बैठक का मकसद गहलोत खेमे के विधायकों को एकजुट करने का था. बैठक के दौरान थोड़ी देर के लिए मीडिया को बुलाकर ये भी दिखाया गया कि गहलोत कितने मजबूत हैं. इस दौरान गहलोत खेमे के विधायकों की गितनी 100 से 105 बताई गई. ये गिनती पत्रकारों के द्वारा की हुई थी. कांग्रेस नेताओं ने तो बैठक के बाद कहा कि 115 विधायक आए थे. यानी इस बात को साबित करने की कोशिश की गई कि विधानसभा में बहुमत के लिए जितने विधायकों की जरूरत है उससे कहीं ज्यादा विधायक गहलोत के साथ थे.
गहलोत अपनी सरकार बचाने में कामयाब हो गए और बाद सचिन पायलट को भी पार्टी आलाकमान मनाने में कामयाब हो गया.
वीडियो: सचिन पायलट की बगावत खत्म, अशोक गहलोत और बीजेपी के हाथ क्या लगा?