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रोहिंग्या शरणार्थियों पर केंद्र सरकार ने अपना फैसला क्यों पलटा?

हरदीप पुरी ने ही कहा था "लैंडमार्क डिसीजन है", फिर गृह मंत्रालय ने साफ किया कि ऐसा कोई फैसला नहीं लिया गया है.

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रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर जिस तरह सरकार ने अपने फैसले को घंटों के भीतर पलटा है, उससे सिर्फ नीति के प्रश्न खड़े नहीं होते हैं. शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी के ट्वीट पर सरकार के समर्थकों ने जैसी प्रतिक्रिया दी, उससे शरणार्थियों को लेकर एक देश के रूप में हमारी समझ और संवेदनशीलता का भी अंदाज़ा हो जाता है.

इसीलिए ज़रूरी है कि आज के घटनाक्रम को ''लैंडमार्क'' और ''क्लैरिफिकेशन'' की तुकबंदी वाली शब्दावली से हटकर देखा जाए. उस राजनीति को भी समझा जाए, जो भारत में शरण देने, न देने और नागरिकता के सवाल को लेकर हो रही है.

आपने बटरफ्लाई एफेक्ट के बारे में सुना है? कि किस तरह एक नाज़ुक सी तितली दुनिया के एक कोने में अपने पंख फड़फड़ाकर एक चेन रिएक्शन शुरू कर सकती है, जिसके नतीजे में दुनिया के बिलकुल दूसरे कोने में तूफान आ जाए. कहने का तात्पर्य ये कि दुनिया में सारे तंत्र एक दूसरे में गुंथे हुए हैं और छोटी से छोटी हरकत भी एक बहुत बड़ी घटना रच सकती है. म्यांमार के रोहिंग्या प्रश्न को लेकर भारत की राजनीति में मचा हाहाकार भी बटरफ्लाई एफेक्ट का एक क्लासिक उदाहरण माना जा सकता है. 

ये कहानी अब तक इतने मोड़ ले चुकी है, कि उसे एक लल्लनटॉप शो में सुनाना असंभव है. इसीलिए हम संक्षेप में, कुछ बिंदु आपके सामने रखेंगे, ताकि आप आज के घटनाक्रम का संदर्भ जान सकें. कि आखिर क्यों जो सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को फ्लैट देने जा रही थी, वो कुछ ही घंटों के भीतर उनकी बस्तियों को डिटेंशन सेंटर घोषित करने का ऐलान कर देती है.

रोहिंग्या लोग मुख्यतया म्यांमार के रखाइन इलाके में रहते हैं. रोहिंग्या होना एक नस्लीय पहचान है. जैसे तमिल या नागा होना. रोहिंग्या आबादी में हिंदू और ईसाई धर्मावलंबी भी होते हैं, लेकिन ज़्यादातर रोहिंग्या, इस्लाम को मानते हैं. इनकी अपनी भाषा, खान-पान और संस्कृति है. और यही चीज़ इनके लिए समस्या बन गई है. म्यांमार की बहुसंख्यक बौद्ध आबादी इन्हें म्यांमार का नहीं मानती. इसीलिए दोनों गुटों के बीच टकराव होता रहा. और 1970 के दशक से इनका पलायन शुरू हुआ.

2015 में रोहिंग्या बड़ी संख्या में टूटी फूटी नावों में सवार होकर बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस और थाइलैंड जैसे देशों की तरफ निकले. लेकिन जो तस्कर इन्हें लेकर चले थे, वो कई नावों को बीच समंदर छोड़कर भाग गए. कोई भी देश रोहिंग्या लोगों को अपने यहां नहीं आने देना चाहता था. कितने ही लोग ऐसी नावों पर फंस गए, जो कभी भी डूब सकती थीं. और जब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हंगामा हुआ, तब तक सैंकड़ों लोग डूबकर मर भी गए. इसे 2015 का रोहिंग्या रेफ्यूजी क्राइसिस या रोहिंग्या बोट क्राइसिस कहा जाता है.

इस कहानी का एक दूसरा पक्ष भी है. दमन से सुरक्षा के नाम पर रोहिंग्या समुदाय के बीच उग्रवादी संगठन भी पनप गए थे. इनमें से कुछ संगठनों पर आतंकवादी गतिविधियों का आरोप भी लगा. ऐसा ही एक गुट था 'अराकान रोहिंग्या सैल्वेशन आर्मी'. इसके हमलों का बहाना बनाकर म्यांमार की सेना ने अगस्त 2017 में पूरी रोहिंग्या आबादी के खिलाफ जैसे युद्ध छेड़ दिया. रोहिंग्या लोगों को टॉर्चर किया गया, महिलाओं का सामूहिक बलात्कार हुआ, और गांव-गांव नरसंहार हुए. 2018 में संयुक्त राष्ट्र ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि म्यांमार की सेना ''जेनोसाइडल इंटेट'' के साथ काम कर रही थी. इस बात को लेकर अंतरराष्ट्रीय सहमति है कि म्यांमार के लोग बहुसंख्यकवाद और एक तानाशाही सरकार की सेना द्वारा सिस्टेमैटिक ढंग से कुचले गए हैं. और इसी के नतीजे में इन्होंने पलायन किया.

रोहिंग्या शरणार्थियों की सबसे बड़ी संख्या बांग्लादेश में है. भारत में इनकी संख्या तकरीबन 40 हज़ार बताई जाती है. ये जम्मू, हैदराबाद, नूह और दिल्ली के आसपास बनी झुग्गियों और कैंप्स में रहते हैं. तकरीबन 14 हज़ार के पास  United Nations High Commissioner for Refugees (UNHCR)द्वारा जारी रेफ्यूजी कार्ड हैं, लेकिन ज़्यादातर का कोई रिकॉर्ड नहीं है. ये छोटे-मोटे काम करके अपना घर चलाते हैं.

भारत ने आधिकारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र के 1951 के रेफ्यूजी कंवेशन, या फिर शरणार्थियों पर 1967 के प्रोटोकॉल पर दस्तखत नहीं किये हैं. लेकिन भारत ने ऐतिहासिक रूप से शरणार्थियों के लिए अपने दरवाज़े खुले रखे हैं. और इसकी कई मिसालें हैं -

> तिब्बत से न सिर्फ भारत में शरणार्थी आए, बल्कि उनकी निर्वसित सरकार भी भारत से ही चलती है. राजधानी का काम होता है धर्मशाला से.
> श्रीलंका में गृहयुद्ध खत्म हो चुका है, लेकिन अब भी हज़ारों तमिल शरणार्थी भारत में रहते हैं. तमिल विषय को लेकर तो भारत ने 1987 में श्रीलंका में फौज तक भेज दी थी.
> बीते दशकों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से धार्मिक प्रताड़ना के चलते हज़ारों हिंदू, सिख और बौद्ध परिवार भारत आए हैं. इन्हें कभी देश छोड़कर जाने को नहीं कहा गया. आर्थिक कारणों से बड़ी संख्या में बांग्लादेशी मुसलमान भी भारत आए और बसे.

भारत में आधिकारिक रूप से शरणार्थी नीति नहीं है. जो भी बिना वीज़ा के आता है, तकनीकी रूप से अवैध प्रवासी ही होता है. ऐसे लोग, जो खुद को शरणार्थी बताते हैं, उनके लिए भारत सरकार ने 2011 में स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर बनाया था, जिसका पालन राज्य करते हैं. जब राज्य पाते हैं कि शरणार्थी होने का दावा कर रहे लोग वाकई नस्लीय या धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हो रहे हैं, तब वो केंद्रीय गृहमंत्रालय को एक अनुशंसा भेजता है, जिसके आधार पर एक लॉन्ग टर्म वीज़ा जारी कर दिया जाता है. इस वीज़ा के आधार पर शरणार्थी पढ़ाई और रोज़गार पा सकते हैं.

पूर्वोत्तर और खासकर असम में अवैध प्रवासियों को लेकर ज़रूर ऐतराज़ है, लेकिन इसका आधार नस्लीय पहचान और आर्थिक मौकों से बना है, न कि धार्मिक विद्वेष से. ये बात सही है कि असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न्स बना है. लेकिन NRC को आधार बनाकर किसी को वापस नहीं भेजा गया है. तो ये स्थापित होता है कि भारत शरणार्थियों को लेकर उदार रहा है.

ये उदारता अपनी करवट बदलती है 2019 के नागरिकता संशोधन कानून से. कानून के मुताबिक अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में प्रताड़ित हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसी और ईसाई लोगों को भारत की नागरिकता दी जा सकती है. इसमें से सिर्फ एक बड़े धर्म का नाम गायब है - इस्लाम. इस कानून के लिए नियम अभी तक नहीं बने हैं. लेकिन सरकार लगातार कहती रहती है कि वो नियम बनाएगी और उन्हें लागू करेगी.

तो नियमों के अभाव में भी सरकार की मंशा स्पष्ट है. अब रोहिंग्या न सरकार के बताए छह धर्मों में आते हैं, और न ही तीन देशों में. फिर शरणार्थियों को लेकर होने वाली राजनीति में वो एक बहुत बड़ा कीवर्ड हैं. मामला भले विदेश मंत्रालय का विषय हो, लेकिन इसके आधार पर राज्यों के चुनाव तक में वोट मांगा जाता है.

केंद्र सरकार संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में रोहिंग्या शरणार्थियों को देश की सुरक्षा के लिए खतरा बता चुकी है. सरकार ये आरोप भी लगा चुकी है कि कुछ रोहिंग्या मानव तस्करी, मनी लॉन्ड्रिंग से लेकर पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों तक से जुड़े हुए हैं. वैसे यहां ये दर्ज किया जाना भी ज़रूरी है कि अब तक रोहिंग्या गुटों पर भारत में आतंकी गतिविधी का कोई आरोप साबित नहीं हुआ है. लेकिन रोहिंग्या एक ऐसा विषय तो बन ही गया है, जिसे भारत में धार्मिक प्रताड़ना की जगह अवैध घुसपैठ के संदर्भ में देखा जाता है.

इसीलिए हर किसी को आश्चर्य हुआ, जब आज सुबह केंद्रीय शहरी आवास मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने ये ट्वीट किया. इस ट्वीट में हरदीप ने लिखा,

''भारत ने हमेशा शरणार्थियों का स्वागत किया है. एक ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है, जिसमें रोहिंग्या शरणार्थियों को दिल्ली के बक्करवाला इलाके में बने EWS फ्लैट्स में बसाया जाएगा. इन्हें मूलभूत सुविधाओं के साथ साथ दिल्ली पुलिस की सुरक्षा और UNHCR द्वारा जारी पहचान पत्र दिए जाएंगे."

आगे पुरी ने लिखा,  

“जिन लोगों ने भारत की शरणार्थी नीति को CAA से जोड़कर दिखाया और गलतबयानी करके करियर बना लिया, वो आज निराश होंगे. भारत संयुक्त राष्ट्र के रेफ्यूजी कंवेंशन 1951 का आदर करता है और नस्ल, धर्म या कुल से परे, सभी को अपने यहां शरण देता है.”

पुरी का इतना कहना था कि उन्हें सोशल मीडिया पर बुरी तरह ट्रोल किया जाने लगा. विश्व हिंदू परिषद के केंद्रीय कार्याध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा रोहिंग्या को वापस भेज देना चाहिए. क्या रोहिंग्या वाकई वापस जा सकते हैं? इस सवाल का जवाब आपको हमारी खास पेशकश दुनियादारी की मास्टरक्लास के इस हिस्से में मिल जाएगा.

म्यांमार पर पूरी मास्टर क्लास अगर आप देखना चाहते हैं, तो लिंक हम डिस्क्रिप्शन में दे रहे हैं. ऐसा नहीं है कि भारत से आज तक किसी रोहिंग्या को वापस नहीं भेजा गया. 2012 में 7 रोहिंग्या लोगों को भारत में अवैध तरीके से घुसने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. असम के कछार में इनपर पासपोर्ट एक्ट के तहत मामला चला और इन्हें वापस भेजने के विधिवत आदेश हुए. 2018 के अक्टूबर में इन्हें म्यांमार के हवाले किया गया. लेकिन इस मामले में दो बिंदु अहम थे. ये लोग वापस जाना चाहते थे और म्यांमार भी इन्हें वापस लेना चाहता था. ये बात सभी रोहिंग्या पर लागू नहीं होती. ज़्यादातर लोग वापस जाने से डरते हैं. और म्यांमार भी इन्हें लेने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा है.

फिर लौटते हैं आज के घटनाक्रम पर. पुरी के ट्वीट के कुछ ही घंटों के भीतर बवाल इतना बढ़ गया कि गृहमंत्रालय को स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा. इसमें मंत्रालय ने साफ किया कि रोहिंग्या शरणार्थियों को फ्लैट देने का कोई निर्देश गृहमंत्रालय से जारी नहीं हुआ. दिल्ली सरकार रोहिंग्या लोगों को एक दूसरी जगह पर भेजना चाहती थी. गृहमंत्रालय ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया है कि रोहिंग्या जहां हैं, उन्हें वहीं रखा जाए. इन्हें वापस भेजने के लिए विदेश मंत्रालय के स्तर पर काम हो रहा है. अवैध विदेशी नागरिकों को वापस भेजे जाने तक डिटेंशन सेंटर में रखा जाता है. दिल्ली सरकार ने अब तक रोहिंग्या बस्ती को डिटेंशन सेंटर का दर्जा नहीं दिया है. उन्हें ऐसा करने के आदेश दे दिए गए हैं.

इसे संयोग ही कहा जाएगा कि जब दिल्ली में शरणार्थियों को लेकर ये सब हो रहा था, तभी पूर्वोत्तर में एक बार फिर नागरिकता संशोधन कानून का विरोध शुरू हो गया. North East Students Union (NESO)ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि पूर्वोत्तर की राजधानियों में 17 अगस्त से शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू कर दिया जाएगा.

खबरों की भाषा में कहें, तो अभी इस मुद्ददे को और पकना है. देखना होगा कि ये पककर क्या बनेगा. लेकिन ये घटना कम से कम हमें एक मौका तो देती ही है, कि हम अपने अंदर झांककर देख लें, कि हम किसी के लिए अपना दरवाज़ा खोलने से पहले क्या क्या देखते हैं.

वीडियो: रोहिंग्या शरणार्थियों पर हरदीप पुरी की बातों को गृह मंत्रालय ने क्यों किया खारिज?