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भारत कैसे बना 'SCO समिट' का सदस्य?

उज्बेकिस्तान के समरकंद में आयोजित SCO मीटिंग का आगाज 15 सितंबर से हो गया है. इस दौरान दुनियाभर की नजरें मोदी और रूस के राष्ट्रपति पुतिन के बीच होने वाली द्विपक्षीय वार्ता पर टिकी होंगी.

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SCO की मीटिंग में शामिल होने के लिए उज्बेकिस्तान के समरकंद शहर पहुंचे पीएम मोदी (फोटो: इंडिया टुडे)

आज से तकरीबन ढाई हज़ार साल पहले की बात है. शायद उससे भी पुरानी. माल की ढुलाई के लिए एक सड़क बनी. इसके एक छोर पर चीन था, जहां के रेशम के पीछे दुनिया पागल थी. सो सड़क का नाम पड़ गया सिल्क रोड. इसी सड़क पर एक बड़ा मशहूर पड़ाव था. नाम- समरकंद. यात्रियों ने यहां की बरकत के बारे में जो लिखा, उसे पढ़कर दुनिया भर से विजेता उसकी तरफ खिंचे चले आते. ईसा से चार सदी पहले सिकंदर आया. उसके बाद फारसी आए, तुर्क आए और फिर आया चंगेज़ खान. इसी समरकंद को जब बाबर हार गया, तो पहले काबुल और फिर दिल्ली की तरफ आया. समरकंद की गली-गली का वास्ता कला, संस्कृति और मानव इतिहास से है. यहां इतनी विविध संस्कृतियों का मिलन हुआ है, कि इसका नाम ही पड़ गया है- क्रॉसरोड्स ऑफ कल्चर्स. ये फारसी बोलने वाले ताजीकों का शहर है. और पड़ता है उज़्बेकिस्तान में. लेकिन आज हम समरकंद की बात क्यों कर रहे हैं?

क्योंकि दुनिया के सबसे ताकतवर नेता एक बार फिर समरकंद पहुंच गए हैं. लेकिन संस्कृतियों के चौराहे पर इस बार खून नहीं बहेगा. सब एक जाजम पर बैठेंगे और साथ-साथ आगे बढ़ने के रास्ते खोजेंगे. हम बात कर रहे हैं शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन समिट की, जो इस बरस समरकंद में हो रहा है. दो दिन चलने वाले इस सम्मेलन का आज पहला दिन है. और इसमें शिरकत करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी समरकंद पहुंच गए हैं. और जाते-जाते उन्होंने ये कह दिया है कि वो SCO समिट में शिरकत के साथ साथ कुछ द्विपक्षीय बैठकें भी करने वाले हैं. प्रधानमंत्री के बयान की इस आखिरी लाइन ने भारत में उत्सुकता बढ़ा दी है. क्योंकि समरकंद में वो सब नेता मौजूद हैं, जिन्हें भारत की विदेश नीति के हूज़-हू  कहा जा सकता है. गौर कीजिए-

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग
ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ  

तो आज हम ये समझने की कोशिश करेंगे कि ये SCO है क्या बला. इसमें भारत की सदस्यता के मायने क्या हैं. और प्रधानमंत्री मोदी की संभावित द्विपक्षीय बैठकों से क्या फायदा हो सकता है.

भूगोल की किताब में आपने एक शब्द पढ़ा होगा - मध्य एशिया. ज़मीन के रास्ते आप पूरब से पश्चिम की तरफ जाने के ख्वाहिशमंद हों, तो आपको इस इलाके के लंबे चौड़े सर्द मैदानों से गुज़रना होगा. समरकंद को लेकर हम जिस विविधता और सांस्कृतिक आदान प्रदान की बात कर रहे थे, वो इस पूरे इलाके पर लागू होती है. यहां ताजीक, तुर्क, उज़्बेक, तातार कज़ाक और ऐसी ही कई जातीय पहचान के लोग हज़ारों साल से बसते आए हैं. 

19वीं सदी में ये इलाका बन गया रूसयों की कॉलोनी. और जब रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ बना, तो यहां सोवियत शासन रहा. नाम के लिए यहां भी सोवियत रिपब्लिक्स बनीं - जैसे किर्गिज़िया, तुर्कमेनिया आदि. याद कीजिए, जब 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान रूस ने मध्यस्थता की पेशकश की थी, तब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से मिलने ताशकंद गए थे. ताशकंद तब सोवियत संघ के तहत आने वाले Uzbek Soviet Socialist Republic की राजधानी थी. शास्त्री जी, समझौते पर दस्तखत तो किए, लेकिन उनका ताशकंद में ही देहांत हो गया था. आज भी ताशकंद उज़बेकिस्तान की राजधानी है. और समरकंद दूसरा बड़ा शहर.

खैर, मुद्दे पर लौटते हैं. 1990 का दशक आते-आते सोवियत संघ दरक गया और इस इलाके के रिपब्लिक्स को आज़ादी मिल गई. अब तक सब कुछ मॉस्को से होता आया था. इसीलिए नए-नए आज़ाद हुए मुल्कों को अपने पैरों पर खड़े होने में काफी मुश्किलें आईं. ऊपर से बाहरी आक्रमण का खतरा. क्योंकि ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान और कज़ाक़स्तान में सीमा को लेकर भयंकर आपसी विवाद था. और ये खतरा भी था कि इस विवाद का फायदा पड़ोस की दो शक्तियां - रूस और चीन कभी भी उठा लेंगे. क्योंकि भारत जैसे देशों के विपरीत, रूस और चीन जैसे देश सिद्धांतः विस्तारवाद को गलत नहीं मानते. इसीलिए हर किसी ने अपनी सीमा पर फौज को तैनात कर रखा था. और फौज की इस भारी तैनाती के चलते हर किसी को अनहोनी का डर था.

ऐसे में पांच देशों ने एक ऐतिहासिक कदम उठाया. 1996 में चीन, रूस, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और कज़ाकस्तान के नेता शंघाई में जमा हुए. और Treaty on Deepening Military Trust in Border Regions पर दस्तखत किए. जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, मकसद था सीमावर्ती इलाकों में तैनात सेनाओं के बीच भरोसा स्थापित करना. मौका पाकर लगे हाथ आपसी सहयोग की बातें भी कर ली गईं. इन पांच देशों को कहा गया शंघाई फाइव.

समय के साथ इन पांच देशों में आपसी भरोसा पनपा, तो इन्होंने एक साल बाद सीमा से फौज कम करने के समझौते पर दस्तखत किए. इससे ये स्थापित हुआ कि नियमित बैठकों का आइडिया उतना भी बुरा नहीं है. सो शंघाई 5 के देश हर साल मिलने लगे.

फिर आया साल 2001. 15 जून को पांचों सदस्य देशों के नेता एक बार फिर शंघाई में मिले. और तय किया गया कि अब संगठन को एक रीलॉन्च की ज़रूरत है. क्या-क्या हुआ इस रीलॉन्च में? पहले तो आया नया नाम - शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन SCO. फिर आया एक नया सदस्य - मौजूदा मेज़बान - उज़्बेकिस्तान. और फिर आया एक नया मकसद. बात ये थी कि SCO के देशों ने आपसी सहयोग तो बढ़ा लिया था. लेकिन उनके सामने एक नई चुनौती आ गई थी - आतंकवाद. SCO देशों के बिलकुल बगल में अफगानिस्तान था. जहां की तालिबान सरकार दुनिया भर के आतंकवादियों को बुला-बुलाकर पनाह देती थी. खतरा भांपते हुए SCO ने अपना नया मकसद तय किया - आतंकवाद, अलगाववाद और चरमपंथ से लड़ाई.

2001 से ही हर साल सदस्य देशों के हेड ऑफ़ द स्टेट, हेड ऑफ़ द गवर्नमेंट और फ़ॉरेन मिनिस्टर्स की अलग-अलग बैठक आयोजित होती रही है. भारत के संदर्भ में समझना हो, तो राष्ट्रपतियों की बैठक, प्रधानमंत्रियों की बैठक और विदेश मंत्रियों की बैठक. आप कहेंगे कि भारत का संदर्भ आ ही गया है, तो ये भी बता दो कि भारत की एंट्री इसमें कैसे और क्यों हुई? SCO में तीन तरह के देश होते हैं. पहले स्थायी सदस्य, फिर ऑब्ज़र्वर और फिर डायलॉग पार्टनर. फिलहाल 8 स्थायी सदस्य हैं -

> ताजिकिस्तान
> उज़्बेकिस्तान
> किर्गिस्तान
> कज़ाक़स्तान
> पाकिस्तान
> रूस
> चीन
> भारत
जल्द ही ये संख्या 9 होने वाली है, क्योंकि ईरान 2023 में स्थायी सदस्य बन जाएगा. कागज़ी कार्यवाही लगभग अंतिम चरणों में है. स्वाभाविक ही है कि SCO में सारे बड़े फैसले स्थायी देश लेंगे. लेकिन दूसरे देश भी SCO की गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं. इसके लिए दो कैटेगरी हैं. पहली है ऑब्ज़र्वर स्टेट. जिसमें फिलहाल चार देश आते हैं -

- अफ़ग़ानिस्तान
- मंगोलिया
- बेलारूस
- ईरान  

आपने गौर किया होगा, ईरान ऑब्ज़र्वर स्टेट से स्थायी सदस्यता की तरफ जा रहा है. इस कैटेगरी के देश SCO की बैठकों में बुलाए जाते हैं. ताकि इन्हें SCO के तौर तरीकों का अनुभव होता रहे. एक तरह से ये कोर्टशिप पीरियड होता है. जब संगठन और देश दोनों समझ रहे होते हैं कि बात बन रही है, या नहीं. ऑब्ज़र्वर स्टेट प्रायः ऐसे देश होते हैं, जिन्हें किसी न किसी स्थायी सदस्य का समर्थन मिला हुआ है. लेकिन ऑब्ज़र्वर स्टेट की संज्ञा सभी को नहीं मिलती. प्रायः पहले संबंधित देश को SCO का डायलॉग पार्टनर बनना होता है.

फिलहाल तुर्की, श्रीलंका, कम्बोडिया, नेपाल, अज़रबैजान और आर्मेनिया डॉयलॉग पार्टनर हैं. सऊदी अरब, मिस्र और क़तर डायलॉग पार्टनर बनने वाले हैं. इन सबने हाल के सालों में SCO के साथ मेमोरैंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग MOU पर साइन किए हैं. भारत ने ये सारे चरण 2017 में पूरे कर लिये थे. जैसा कि हमने आपको बताया था, आप SCO की सीढ़ी में तभी ऊपर बढ़ते हैं, जब आपका कोई दोस्त स्थायी सदस्य हो. ये साथ भारत को मिला अपने पुराने दोस्त रूस से, जो शंघाई 5 के ज़माने से स्थायी सदस्य है. जैसा कि लाज़मी था, रूस भारत की तरफ से लामबंद था, तो चीन पाकिस्तान की तरफ से. इसीलिए 2017 में भारत और पाकिस्तान को साथ-साथ सदस्य बनाया गया, ताकि अकारण नाराज़गी का माहौल न बन जाए.

भारत SCO का इसका सदस्य क्यों बना.

याद कीजिए SCO का मकसद क्या है? आपसी सहयोग और आतंकवाद, अलगाववाद और चरमपंथ से लड़ाई. भारत के हिसाब से देखें तो ये राम मिलाई जोड़ी है. हम भी वही चाहते हैं, जो SCO चाहता है. दूसरा कारण है कनेक्टिविटी. हमने आपको कुछ देर पहले बताया था कि पूरब से पश्चिम अगर ज़मीन के रास्ते जाना है, तो मध्य एशिया से होकर ही जाना पड़ेगा. माने SCO के देशों से होकर जाना पड़ेगा. भारत पूर्व में है और दुनिया का इंजन पश्चिम में. फिर मध्य एशिया में तेल और गैस के भंडार भी हैं, जो भारत जैसे विकासशील देश के काम आ सकते हैं. मध्य एशिया पर एक वक्त रूस का प्रभाव था. लेकिन अब चीन तेज़ी से रूस की जगह लेता जा रहा है. चीन की आक्रामकता के मद्देनज़र भारत चाहता है कि मध्य एशिया से उसके संबंध वैसे ही रहें जैसे हज़ारों साल पहले थे - व्यापार और सांस्कृतिक आदान प्रदान बना रहे.

इंडियन एक्सप्रेस के लिए शुभजीत रॉय ने अपने लेख में एक बड़े काम के बिंदु को रेखांकित किया है. वो लिखते हैं कि भारत ताशकंद से चलने वाले Regional Anti Terror Structure (RATS) से जुड़ने का ख्वाहिशमंद है. क्योंकि यहां से भारत को उस आतंकवाद से निपटने में भी मदद मिल सकती है, जो पाकिस्तान के बाहर से संचालित होता है. अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद ये बात अहम हो जाती है.

फिर SCO,नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेशन NATO या वॉरसा पैक्ट की तरह कोई सैनिक गोलबंदी नहीं है, जिससे भारत को परहेज़ रहा है. अमेरिका ज़रूर एक वक्त SCO को लेकर नाक भौं सिकोड़ता था, लेकिन समय के साथ ये साफ होता गया है कि SCO आपसी सहयोग के बारे में है, न कि अमेरिका के खिलाफ एक दूसरा ध्रुव खड़ा करने के बारे में. आज SCO देशों में दुनिया की 40 फीसदी से अधिक आबादी बसती है. और दुनिया भर की जीडीपी का एक तिहाई यहीं से आता है. तो ऐसे संगठन का सदस्य बने रहना विन-विन डील माना जाता है.

अब तक हमने समझ लिया कि SCO कैसे बना और भारत इसका सदस्य क्यों है. अब समझते हैं कि हालिया SCO समिट का महत्व क्या है और प्रधानमंत्री मोदी से देश को क्या अपेक्षाएं हैं.
SCO के सदस्य देशों के बीच इन दिनों सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है. भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर 2019 के पुलवामा आतंकवादी हमले के बाद से बर्फ जमी हुई है. अप्रैल 2020 से भारत और चीन पूर्वी लद्दाख में आमने सामने हैं. रूस और चीन ऊपर ऊपर तो दोस्त हैं, लेकिन जिस रफ्तार से चीन आगे बढ़ा है, रूस का असहज होना लाज़मी है. प्रभुत्व बढ़ाने के मकसद से रूस ने यूक्रेन पर हमला कर एक बहुत बड़ा दांव चला था, जो उलटा पड़ता जा रहा है. चीन कोविड लॉकडाउन से परेशान है. और पूरी दुनिया में ऊर्जा संकट है. ऐसे में इन सभी देशों के राष्ट्राध्यक्ष अगर एक टेबल पर आकर बात कर पाएं, तो समाधान का रास्ता निकलता है. आप पूछेंगे कि प्रतिद्वंद्वी साथ बैठ भी गए तो क्या बात करेंगे. तो इसका जवाब हम एक उदाहरण से देते हैं.

नवंबर 2008 में मुंबई पर 26/11 आतंकी हमला हुआ था. इस हमले के ज़िम्मेदार पाकिस्तान में बैठे थे. दोनों तरफ़ तनाव बढ़ गया था. तब जून 2009 में SCO की बैठक के बहाने ही भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आसिफ अली ज़रदारी की मुलाक़ात हुई थी. रूस के एकातेरिनबर्ग में तब मनमोहन सिंह ने ज़रदारी से कहा था,

''प्रधानमंत्री महोदय, मुझे आपसे मिलकर खुशी हो रही है. लेकिन मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं आपको बता दूं कि पाकिस्तान का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए नहीं होना चाहिए.''

इससे तात्कालिक फायदा भले न मिला हो. लेकिन तनाव और असहजता कम हुई. बातचीत का एक रास्ता खुला. वैसे ही इस बार के SCO समिट के बारे में भी है. शाहबाज़ शरीफ और प्रधानमंत्री मोदी पहली बार आमने सामने मिलने जा रहे हैं. इसी तरह जून 2020 में गलवान घाटी में हुए संघर्ष के बाद ये पहली बार होगा कि प्रधानमंत्री मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग आमने-सामने होंगे. आधिकारिक ऐलान अभी नहीं हुआ, लेकिन संभव है कि दोनों नेताओं या दोनों नेताओं के साथ गए प्रतिनिधिमंडल के बीच बातचीत हो जाए. आधिकारिक न सही, तो अनाधिकारिक बातचीत का रास्ता तो हमेशा खुला रहता है.

इसके अलावा भारत अपने दो और पक्के दोस्तों से मिलेगा. रूस और ईरान. रूस के साथ भारत की दोस्ती पर अलग से प्रवचन देने की ज़रूरत नहीं है. बात ये है कि बीते दिनों भारत जिस तरह पश्चिम के करीब गया है, उसे लेकर रूस थोड़ा असहज है. चाहे वो हथियारों की खरीद हो या फिर QUAD जैसे संगठन. सो रूस की मौजूदगी वाले मंच पर जाकर भारत दो संदेश देना चाहता है - एक तो रूस को, कि भारत उसकी दोस्ती का आदर करता है. और उसके साथ खड़े होने में उसे कोई शर्म नहीं. दूसरा दुनिया को - कि दुनिया का मतलब यूरोप, अमेरिका या पश्चिम बस नहीं हो सकता. भारत अपने हितों के हिसाब से संबंध बनाएगा. और इन संबंधों को बनाते हुए नज़रिया भी भारतीय रखेगा. यूक्रेन युद्ध के चलते रूस बेहिसाब प्रतिबंधों का सामना कर रहा है. ऐसे में वो भारत की तरफ बड़ी उम्मीद से देखता है.

रही बात ईरान की, तो उसके साथ तो हमारे हज़ारों साल पुराने संबंध हैं. वहां से हम तेल आयात किया करते थे. हमने चाबहार में खरबों का निवेश किया था. लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते भारत ने ईरान से कुछ दूरी बना ली. खास तौर पर तेल के आयात के संबंध में. लेकिन जिस तरह यूक्रेन संकट के बाद नई दिल्ली ने रूस से तेल खरीदने को लेकर आत्म विश्वास दिखाया है, ईरान उम्मीद कर रहा है कि उसकी किस्मत भी खुल सकती है. ये भारत के लिए भी फायदे का सौदा हो सकता है क्योंकि प्रतिबंधों वाले माहौल में अगर भारत ईरान के करीब जाता है, तो ईरान भी कोई न कोई छूट ज़रूर देगा. अगर राष्ट्रपति रईसी और प्रधानमंत्री मोदी मिलते हैं, तो इस बाबत बात हो सकती है. इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री मोदी, बाबर के शहर समरकंद गए हैं. 

वीडियो: पुतिन, जिनपिंग और पाकिस्तान से क्या बात करने वाले हैं पीएम मोदी?