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3.उसकी एक बैकस्टोरी भी है. दुख भरी. उसकी एक प्रेमिका/पत्नी है. फिर बाद में एक प्रशंसक (सायेशा - डेब्यूटेंट, सायरा बानो की रिश्तेदार) भी दिखती है. यानी दो हीरोइन.
शिव होने के मायनेअजय इन पंक्तियों को पढ़ते हैं.. ना आदि ना अंत है उसका वो सब का ना इनका उनका वही शून्य है वही इकाय जिसके भीतर बसा शिवाय आंख मूंदकर देख रहा है साथ समय के खेत रहा है महादेव महा एकाकी जिसके लिए जगत है झांकी राम भी उसका रावण उसका जीवन उसका मरण भी उसका तांडव है और ध्यान भी वो है अज्ञानी का ज्ञान भी वो है इसको कांटा लगे न कंकर रण में रूद्र घरों में शंकर अंत यही सारे विघ्नों का इस भोले का वार भयंकर वही शून्य है वही इकाय जिसके भीतर बसा शिवाय वे यहां एक भक्त के रूप में शिव की बात कर रहे हैं या वृहद तौर पर शिव की फिलॉसफी पर ध्यान दे रहे हैं, ज्ञात नहीं हो पाता है. दर्शक स्वयं सोचे. या अजय बाद में बताएं.
बहुत सारा एक्शनट्रेलर में एक्शन ही सबसे ज्यादा है. बर्फीली चोटियों पर, गुफाओं में, पहाड़ों पर, हिमपात के बीच और ट्रेकिंग के उपकरणों से. कई सारे विहंगम स्थलों को इसमें शामिल करने की कोशिश की गई है. उसके अलावा बुल्गारिया के शहरों में भी सड़कों पर, बांधों पर, पुलों पर गाड़ियां दौड़ाते हुए ऐसे स्टंट हैं जो एक्शन डायरेक्टर वीरू देवगन के बेटे अजय की खासियत रहे हैं 1991 में आई उनकी पहली फिल्म फूल और कांटे से ही जिसमें अपने परिचय दृश्य में वे दो बाइक्स पर पैर रखकर आते हैं. ट्रेलर कैसा लग रहा है? इसका जवाब बहुत उत्साह भरा नहीं है. फालूदा और खिचड़ी इन दो शब्दों से समझाया जा सकता है. ये फिल्म अगर दो स्पष्ट धाराओं में से कोई एक होती तो ज्यादा बेहतर होता. या तोइसका नायक कैलाश पर्वत पर रहने वाला आध्यात्मिक/धार्मिक आदमी होता जो जीवन की किसी घटना के बाद वहां चला गया है और जीवन के अर्थ खोज रहा है. वो वहां उसी इलाके में किन्हीं जरूरतमंदों की रक्षा का काम हाथ में लेता. या फिर किसी अपने की मदद के लिए उस शहर लौटता जो उसने छोड़ दिया है तो ये एक सीधी सपाट बॉलीवुड फिल्म होती और दिमाग के लिए इस कहानी का उपभोग करना आसान होता. इसमें धर्म भी आ जाता और एक्शन भी. या फिरइसमें ये होता है कि ये एक पर्वतारोहण या ट्रेकिंग या खोजी मिशन को समर्पित कहानी होती. जैसे, एक उदाहरण पिछले साल प्रदर्शित बाल्तज़र कोर्माकुर द्वारा निर्देशित फिल्मएवरेस्टथी जो मई 1996 में हुई माउंट एवरेस्ट त्रासदी पर आधारित थी जिसमें कई लोग मारे गए थे. इसमें हिमालय पर कमर्शियल एक्टिविटी बढ़ने का मसला भी जुड़ा था. ऐसे ड्रामा न सिर्फ हमें जागरूक करते हैं बल्कि मनोरंजन के लिहाज से भी संपूर्ण होते हैं. इनके कारण आप दुनिया को काल्पनिकता के जरिए से नहीं देख रहे होते, बल्कि स्पष्टता के साथ. शिवाय इन दो में से किसी एक राह पर नहीं खड़ी होती. इसी से सरलता नहीं रहती. सब फालूदा सा लगता है. क्यों आप फिल्म बनाते हुए सबकुछ दर्शक के हिसाब से तय करें? फिर आप इसे आर्ट न समझें. ये तमाशा हो जाता है. और तमाशे में शिव वाली गंभीरता नहीं आ सकती. https://www.youtube.com/watch?v=poLjq0u4_5A