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EWS रिजर्वेशन पर आया SC का फैसला, कानून के इस एक्सपर्ट ने क्यों कहा- ये तो विरोधाभास है?

NALSAR यूनिवर्सिटी के पूर्व VC और कानून के एक्सपर्ट फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने EWS आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अपनी राय रखी है.

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बाएं से दाएं. फ़ैज़ान मुस्तफ़ा और सुप्रीम कोर्ट के जज. (फोटो- दी लल्लनटॉप/आजतक)

सुप्रीम कोर्ट ने EWS आरक्षण की संवैधानिक वैधता पर फ़ैसला सुना दिया है. फ़ैसला एकमत नहीं है. पांच जजों की बेंच थी. जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने आरक्षण के पक्ष में फ़ैसला सुनाया और कहा कि EWS आरक्षण संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है. और, दो जजों ने उनके फ़ैसले से असहमति जताई है. ख़ुद CJI असहमति जताने वालों में थे. फ़ैसले की बॉटमलाइन यही है कि सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग को 10 फ़ीसदी आरक्षण मिलता रहेगा. किसे मिलेगा? सामान्य वर्ग के उन लोगों को, जिनके परिवार की सालाना आय 8 लाख रुपये से कम है.

इस सिलसिले में हमने बात की NALSAR यूनिवर्सिटी के पूर्व VC और लीगल मामलों के एक्सपर्ट फ़ैज़ान मुस्तफ़ा से. मुस्तफ़ा ने हमारे लिए जस्टिस बेला त्रिवेदी की टिप्पणियों को डी-कोड किया. पहले उनकी टिप्पणियां बता देते हैं. 103वें संविधान संशोधन को वैध ठहराते हुए जस्टिस बेला त्रिवेदी ने कहा,

"आज़ादी के 75 साल बाद हमें आरक्षण पर फिर से नज़र डालनी चाहिए. समाज के व्यापक कल्याण को देखते हुए. transformative constitutionalism यानी परिवर्तनकारी संवैधानिकता की दिशा में एक क़दम के रूप में."

ये एक आम तर्क है, जो आता ही रहता है कि आरक्षण के मौजूदा सिस्टम में बुनियादी बदलाव की ज़रूरत है. इसके विपक्ष में जवाब आता है कि क्या आरक्षण का जो मक़सद था, वो पूरा हो गया है? क्या सामाजिक तौर पर कमजोर वर्गों और जातियों को सामाजिक न्याय मिल चुका है? इसपर फ़ैज़ान मुस्तफ़ा ने कहा,

पहले तो उनके कथन में विरोधाभास हैं. जस्टिस बेला त्रिवेदी ने कहा है कि हमें आरक्षण को एक नए नज़रिए से देखना चाहिए. Transformative Constitutionalism की दिशा में.

संविधान में जो ये शब्द इस्तेमाल हुआ था - transformative constitutionalism, वो इसलिए हुआ था कि दलितों को, कुचलों को और पिछड़ों को प्रतिनिधित्व मिले. और, अब कहा जा रहा है कि ट्रांसफॉर्मेटिव कॉन्स्टीट्यूशनलिज़्म का मतलब होगा कि ये जो विशेष प्रावधान हैं, इनको ख़त्म किया जाए. ये एक तरीक़े का विरोधाभास है. देखिए, भारत के समाज में आज भी सामाजिक न्याय नहीं हुआ है. हमारे सैकड़ों गांव अभी भी ऐसे हैं, जिनमें दलित दूल्हा घोड़े पर सवार नहीं हो सकता. मसलन, पिछले साल एक ख़बर भी आई थी राजस्थान से, जहां एक दलित दूल्हा घोड़ी पर चढ़ा था. तो वो न्यूज़ बनी. और, उस न्यूज़ के साथ जो तस्वीर आई, उसमें बराती से ज़्यादा पुलिस वाले थे. ये बहुत तकलीफ़ की बात है. आरक्षण से पिछड़ी जातियों का बेशक उत्थान हुआ, लेकिन आज भी जितनी सीटें उनके लिए आरक्षित हैं, उनका असल प्रतिनिधित्व उससे बहुत कम है. आप देखिए विश्वविद्यालयों में कितने दलित कुलपति हैं? केंद्र सरकार में सेक्रेटरी लेवल पर कितने दलित हैं? बमुश्किल 2-3. तो जो प्रतिशत उनके लिए आरक्षित था, हम उतने तक भी नहीं पहुंचे हैं. और अगर जब तक आप नहीं पहुंचे हैं, मतलब आपके समाज में असमानता है.

अगर आपके समाज में असमानता है, तो जो लोग वंचित हैं, उनके लिए लेवल प्लेयिंग फ़ील्ड कैसे बनेगी?

इसके अलावा भी फ़ैज़ान ने इस फ़ैसले के कुछ ज़रूरी बिंदुओं पर ध्यान खींचा. जैसे, ये एक माइनर मेजॉरिटी है. तीन बनाम दो वाली. और, आमतौर पर चीफ़ जस्टिस का फ़ैसला मेजॉरिटी वर्डिक्ट के साथ जाता है, लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है.

कुल मिलाकर तीनों जजों का वर्डिक्ट मोटे तौर पर इस बात की ओर इशारा करता है कि आरक्षण हमेशा के लिए नहीं रह सकता. कम से कम जिस शक्ल में आज है, वैसा तो नहीं. जैसे आज ही ऐंग्लो-इंडियन्स के आरक्षण ख़त्म होने वाली बात को हाइलाइट किया गया. तो क्या ये कहा जा सकता है कि ये आरक्षण के अंत की शुरुआत है?


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