लाश दफ्न करने से मना किया, बस्तर में शुरू हुआ ईसाई विरोधी आंदोलन: Part 1

07:18 PM Jan 07, 2023 | सिद्धांत मोहन
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छत्तीसगढ़ के बस्तर में नारायणपुर ज़िला है. यहीं पर अबूझमाड़ भी है. ख़बरों में इसे “नक्सलियों की मांद” की उपमा दी जाती है. नारायणपुर आने पर आपको कई जगहों पर रोका जाता है, आपकी पहचान की शिनाख्त की जाती है. अपनी नोटबुक में मैं ‘बंदूकों के साये” जैसा भाषा का एक पिटा हुआ लेकिन सच मुहावरा लिखता हूं.

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यहां एक गांव पड़ता है - भाटपाल. इस गांव में 20 अक्टूबर 2022 की तारीख़ तक एक परिवार रहता था - संतू और जानकी का परिवार. परिवार में 3 संतानें भी थीं. संतू कुछ 35 की उम्र का था, जानकी कुछ 33. 20 अक्टूबर के दिन ये परिवार टूट गया. इस दिन जानकी की मौत हो गई थी. बहुत सालों से तंबाकू चबाते रहने से जानकी को मुंह का कैंसर हो गया था, जो गले तक फैल गया था. मौत के समय जानकी का वजन था महज़ 28 किलो.

33 साल की आदिवासी महिला 28 किलो के वजन के साथ मृत घोषित हुई थी.

तंबाकू, ताड़ी और सल्फ़ी वाले आदिवासियों के बीच कैंसर से हुई मौत कोई बहुत बड़ी बात तो होनी नहीं चाहिए, लेकिन जानकी की मौत है. क्योंकि मौत के बाद जानकी को उसके ही गांव में दफ़नाने की जगह नहीं दी गई थी. गांववालों ने ही कहा कि जानकी का अंतिम संस्कार जैसे करना है, वैसे करिए. लेकिन गांव में नहीं.

अपने ‘समाज’ के लोगों में हमेशा शामिल रहने वाले आदिवासियों के बीच किसी एक मृत्यु पर अलग हो जाना बड़ी घटना थी. ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि संतू और जानकी और उनके छोटे-से परिवार ने कुछेक साल पहले धर्मांतरण करवा लिया था. अब वो ईसाई बन गए थे. इधर इन्हें ‘विश्वासी’ कहते हैं.

जब 20 अक्टूबर को जानकी की लाश गांव में आती है तो मसीही समाज के लोग भी आते हैं. संतू चाहता है कि घर के पीछे के छोटे-से खेत में वो अपनी पत्नी को दफ़ना दे. उसने एक गड्ढा भी खोद दिया है. लेकिन मसीही समाज के लोगों के आते ही, गांव के ही बहुत सारे लोग झुंड बनाकर संतू की झोपड़ी के आगे चले आते हैं. इन लोगों को संतू और जानकी बहुत पहले से जानते हैं. लेकिन इस भीड़ की मंशा एकदम अलग है. ये भीड़ कहती है कि संतू को ईसाई समुदाय और आदिवासी समाज में से किसी एक को ही चुनना होगा. और संतू ने ईसाई होना चुना है, तो आदिवासियों का साथ छोड़ना होगा.

संतू का घर. (सिद्धांत मोहन/ The Lallantop)

मान मनौव्वल का दौर शुरू होता है. संतू असफल रहता है. इस पूरी दिक़्क़त के बीच जानकी की लाश झोपड़ी के आगे वाले कमरे में 3 दिनों तक रखी रहती है. बीच में संतू एक बार अपनी कोशिश के तहत जानकी को दफ़नाने ले जाता है. अपनी पत्नी की 28 किलो की लाश को उठाना उसके लिए आसान था. साथ ही उसने अपने आदिवासी जीवन में बहुत सारी लाशों (ज़िंदा और संभावित भी) का भी सामना किया है. लेकिन खेत में पड़ी क़ब्र के पास से कुछ लोग जानकी की लाश को उठा ले गए. संतू अपनी पत्नी की लाश बरामद करता है.

फिर पुलिस आई. संतू, 3 बच्चों और एक मुर्दा जानकी को लेकर चली गई. वहां जानकी की लाश को दफ़्न कर दिया गया. 6 जनवरी 2023 को मुझसे मुलाक़ात होने तक संतू अपने 3 बच्चों के साथ नारायणपुर के इंडोर स्टडियम में रहता है. वहां उसके अलावा नारायणपुर के सवा सौ परिवार रहते हैं. सभी ईसाई हैं. सभी को उनके गांवों में रहने नहीं दिया जा रहा है.

वो कमरा जहां जानकी की लाश रखी गई थी. (सिद्धांत मोहन/ The Lallantop)

लेकिन संतू के बाप-भाई जैसे कई लोग अभी भी अपने गांव में ही हैं. उनमें और गांववालों में कोई संघर्ष नहीं है. क्यों? क्योंकि अपने ख़ानदान में संतू के 5 लोगों के परिवार ने ईसाई बनना स्वीकार किया था, और किसी ने नहीं.

इस तरह से जानकी की मौत से बस्तर संभाग में एक चेन रीऐक्शन शुरू हुआ. और बीते ढाई महीनों के दरम्यान बारूद के ढेर पर बसे बस्तर में धर्म को लेकर लड़ाई लड़ी जाने लगी. और भीड़ घूम-घूमकर ईसाई लोगों को निशाने पर लेने लगी. उन्हें घर छोड़ने-पीटने पर मजबूर किया गया.

बस्तर के युद्ध में अब धर्म भी दाखिल हो गया है.

हां, युद्ध.

उस युद्ध को संघर्ष मात्र कहने में उस जिजीविषा और खो चुकी लाखों जानों के साथ बेमानी होगी.

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