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कश्मीर का वो कत्ल जिसने 'सरकार' को हटवा दिया, 33 साल बाद पकड़ा गया हत्यारा!

जनाज़ा उठा तो फिर गोलियां चलीं, लाशें बिछीं. भीड़ ने नारा लगाया - ‘’मौलाना का कातिल कौन? जगमोहन!! जगमोहन!!''

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मौलवी फारूक, एक ज़माने में शेख अब्दुल्ला के प्रतिद्वंद्वी रहे थे.

जम्मू-कश्मीर के मीरवाइज रहे मौलवी फारूक की हत्या के मामले में करीब 33 साल बाद दो आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया है. जम्मू कश्मीर पुलिस और राज्य की स्पेशल इन्वेस्टिगेटिंग एजेंसी (SIA) ने इस ऑपरेशन को अंजाम दिया है. पहली बार वो आतंकवादी पुलिस के हाथ आया है, जिसने मीरवाइज़ पर गोली चलाई थी.

मीरवाइज़, (Mirwaiz) कश्मीर में धर्मगुरुओं का एक सिलसिला है. श्रीनगर की जामा मस्जिद के प्रमुख, मीरवाइज़ ही होते हैं. 1968 में Molvi Mohmmad Farooq कश्मीर के मीरवाइज़ बने. 1963 में जब हज़रतबल से ‘मोय ए मुकद्दस’ (पैगंबर मुहम्मद की दाढ़ी का बाल) गायब हो गया था, तब मौलवी फारूक ने मोय-ए-मुकद्दस की वापसी के लिए सेक्रेड रेलिक एक्शन कमेटी (SRAC) बनाई थी. यहां से उनके सार्वजनिक जीवन की विधिवत शुरूआत हुई. 

मीरवाइज़ सिर्फ धार्मिक मामलों तक सीमित नहीं रहे. उन्होंने आवामी एक्शन कमेटी बनाई, जो उन दिनों कश्मीर में एक स्टेकहोल्डर मानी जाती थी. आउटलुक पर 16 मई 2023 को छपे अपने लेख में उबीर नक्शबंदी लिखते हैं,

मौलवी फारूक, शेख अब्दुल्ला के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे. शेख को शेर-ए-कश्मीर कहा जाता था. सो उनके समर्थक खुद को शेर कहते थे. और मौलवी फारूक के समर्थकों को कहा जाता बकरा. शेर-बकरे की लड़ाई इतनी मुखर थी कि दोनों गुटों के बीच श्रीनगर के डाउनटाउन में पत्थरबाज़ी हो जाती थी.

1977 में मौलवी फारूक ने जनता पार्टी का साथ दिया. तब उन्होंने प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को डाउनटाउन में दावत दी थी. कालांतर में मौलवी फारूक शेख अब्दुल्ला के बेटे फारूक अब्दुल्ला के दोस्त हुए. और 1986-87 राजीव गांधी के पाले में आ गए. मौलवी फारूक और फारूक अब्दुल्ला ने चुनावों को लेकर एक आपसी समझ पैदा कर ली थी, जिसे ‘डबल फारूक अकॉर्ड’ कहा जाता था.

1989 में जब जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट JKLF ने रूबिया सईद को अगवा किया, तो मौलवी फारूक ने इसकी आलोचना की. इसके बाद मौलवी फारूक एक किस्म की लेबलिंग के शिकार होने लगे - ‘’प्रो इंडिया/प्रो इस्टैबलिशमेंट''. फिर मीरवाइज़ अपने समकालीन कश्मीरी नेताओं की तुलना में कुछ मध्यमार्गी भी थे. उन्होंने कश्मीरियों पर अत्याचार का मुद्दा तो उठाया, लेकिन कभी खुलकर कश्मीर के भारत से अलग होने की वकालत नहीं की. कश्मीर मामलों के मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस से भी उनके अच्छे संबंध थे. अलगावादी गुटों का मानना था कि मीरवाइज़ कभी मुखर रूप से भारत के खिलाफ नहीं बोलते. और इन्हीं बातों के चलते वो जमात ए इस्लामी जैसे कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर आ गए. सर्वविदित था, कि वो आतंकवादियों की हिट लिस्ट में हैं, लेकिन उन्होंने कभी पुलिस सुरक्षा नहीं ली.  

लगता था सब ठीक होने वाला है, तभी…

इंडिया टुडे मैगज़ीन में 15 जून 1990 को छपी अपनी रिपोर्ट में पंकज पचौरी लिखते हैं,

1990 के मई में घाटी के हालात कुछ सुधरने लगे थे. जम्मू से श्रीनगर के बीच रसद के ट्रकों की आवाजाही बढ़ रही थी. बड़े शहरों में हिंसा में कमी आई थी और दिन का कर्फ्यू उठा लिया गया था. बच्चे स्कूलों में लौट रहे थे.

लेकिन 21 मई की सुबह ने सारे किए कराए पर पानी फेर दिया. सुबह 11 बजे के करीब तीन लोग श्रीनगर के नगीन स्थित मीरवाइज़ के घर ‘मीरवाइज़ मंज़िल’ पहुंचे. मीरवाइज़ के यहां माली, ग़ुलाम कादिर इन तीनों को मीरवाइज़ की स्टडी (दफ्तर) ले गए. पांच मिनट बाद कादिर को गोलियों की आवाज़ सुनाई दी. अंदर मीरवाइज़ खून से लथपथ पड़े थे. कादिर ने हमलावरों का पीछा कर एक को पकड़ा भी, लेकिन अंततः वो भागने में कामयाब रहा.

खून - जनाज़ा - खून

इसके बाद घाटी के हालात इस कदर खराब हुए, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी. जब तक मीरवाइज़ को शौरा मेडिकल इंस्टीट्यूट ले जाया गया, वहां 4 हज़ार लोगों की भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी. साढ़े 12 के करीब जब ये मालूम चला कि मीरवाइज़ अब नहीं रहे, गुस्साई भीड़ ने उनका पार्थिव शरीर हथिया लिया और एक जुलूस की शक्ल में श्रीनगर के डाउनटाउन की ओर बढ़ी, जहां कर्फ्यू लगा हुआ था. इस जुलूस के रास्ते में इस्लामिया कॉलेज भी था, जहां केंद्रीय रिज़र्व पुलिस फोर्स CRPF की 69 बटालियन का मुख्यालय था.

जब जवानों ने उग्र भीड़ अपनी ओर आते देखा, तो घबराहट में गोली चला दी, जिसमें 57 और लोगों की जान चली गई. इस घटना पर CRPF ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि भीड़ के बीच कुछ हथियारबंद उग्रवादी थे, जिन्होंने पहले जवानों पर फायर किया. इसी के बाद CRPF की ओर से गोली चली.

हालात बिगड़ते देख गवर्नर जगमोहन की देखरेख में चल रहे प्रशासन ने पूरे डाउनटाउन से सुरक्षा बलों को हटा लिया. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. अलगाववादियों ने मीरवाइज़ की हत्या के लिए जगमोहन को ज़िम्मेदार ठहरा दिया. अगले दिन ईदगाह में दो लाख की भीड़ जुटी जिसने जमकर नारेबाज़ी की. 

‘’मौलाना का क्या इरशाद? अल जिहाद!! अल जिहाद!!''

‘’मौलाना का कातिल कौन? जगमोहन!! जगमोहन!!''

उग्रवादियों ने हवा में गोलियां दागीं और पुलिस फायरिंग में मारे गए लोगों की कब्र के पास ग्रेनेड दाग कर सैल्यूट किया. इस घटना ने घाटी में आम लोगों और प्रशासन के बीच एक दरार पैदा कर दी. और यही सब देखते हुए वीपी सिंह सरकार ने जगमोहन को जम्मू कश्मीर से वापिस बुला लिया और उनकी जगह पूर्व R&AW चीफ जी सी सक्सेना को राज्यपाल बनाकर भेजा. 

मीरवाइज़ का हत्यारा था कौन?

भारत में खुफिया तंत्र को संदेह था मीरवाइज़ की हत्या इस्लामाबाद के इशारे पर हुई है. लेकिन घाटी में अलगाववादियों ने यही प्रचार किया कि मीरवाइज़ को जगमोहन ने मरवाया. सच सामने लाने के लिए ज़रूरी था कि हत्यारे पुलिस के हाथ लगें. मीरवाइज़ की हत्या पर श्रीनगर के नगीन पुलिस थाने में एफआईआर नं 61/1990 दर्ज हुई. 11 जून 1990 को ये मामला CBI को ट्रांसफर हुआ. एजेंसी ने इस मामले में पांच लोगों को संदिग्ध माना -

1. अब्दुल्ला बांगरू (हिजबुल मुजाहिदीन का सरगना)
2. अब्दुल रहमान शिगन
3. अयूब डार (डाउनटाउन इलाके में हिजबुल का ग्रुप कमांडर)
4. जावेद भट उर्फ अजमल खान (डाउनटाउन इलाके में हिजबुल का एरिया कमांडर)
5. ज़हूर भट उर्फ बिलाल

एजेंसियों ने आरोप लगाया कि जमात ए इस्लामी और हिजबुल मुजाहिदीन मीरवाइज़ मौलवी फारूक को भारत का एजेंट मानते थे. इन्हें डर था कि मौलवी फारूक कश्मीर का राजनैतिक नेतृत्व अपने हाथ में ले लेंगे. इसीलिए अप्रैल 1990 में ही अब्दुल्ला बांगरू, जावेद भट और अयूब डार ने मीरवाइज़ की हत्या की योजना बना ली थी. अब्दुल रहमान शिगन और ज़हूर भट बाद में इस षडयंत्र का हिस्सा बने.  

21 मई की सुबह 11 बजे, अयूब डार, अब्दुल रहमान शिगन और ज़हूर भट मीरवाइज़ मंज़िल पहुंचे. यहां उनकी मुलाकात मीरवाइज़ के निजी सहायक (PA) सईदुर रहमान से हुई. इन तीनों ने रहमान को फर्ज़ी नाम बताए, जो उन्होंने एक पर्ची पर लिखकर मीरवाइज़ के कमरे में भिजवाए. कुछ देर बाद मीरवाइज़ ने तीनों को अंदर बुलाया. तब ज़हूर उर्फ बिलाल मीरवाइज़ के कमरे में दाखिल हुआ बाकी दो हमलावरों ने PA के कमरे में पोज़ीशन ली. कमरे में दाखिल होते ही ज़हूर ने अपनी पिस्टल से मीरवाइज़ पर कई गोलियां दागीं और फिर तीनों तेज़ी से बाहर भागे.

इस बीच माली गुलाम कादिर ने ज़हूर को पकड़ लिया और गुत्थम गुत्था में ज़हूर की आंख के नीचे चोट भी आई. लेकिन वो गोलियां चलाते हुए भाग निकला. तब बचकर निकला ज़हूर अगले 33 सालों तक नहीं मिला.

गिरफ्तारियां, एनकाउंटर और फरार आतंकियों की तलाश

मामले में सबसे पहली गिरफ्तारी हुई अब्दुल रहमान शिगन की. वो जम्मू कश्मीर CID के एक मामले में पहले ही न्यायिक हिरासत में था. मीरवाइज़ की हत्या के आरोप में उसे 20 सितंबर 1990 को गिरफ्तार किया गया.

दूसरी सफलता मिली 6 मई 1991 को, जब अयूब डार दिल्ली पुलिस के हत्थे चढ़ा. आतंकवाद से जुड़े कई दूसरे मामलों में पुलिस को उसकी तलाश थी. 15 जून को CBI ने उनसे मीरवाइज़ की हत्या के मामले में गिरफ्तार किया. अयूब अपना जुर्म कबूल किया, बाकी दो हमलावरों के नाम बताए. साथ ही अब्दुल्ला बांगरू और जावेद भट की भूमिका पर से भी पर्दा उठाया. जब अयूब डार का बयान सामने आया, तो अब्दुल रहमान शिगन ने भी अपना अपराध कबूल कर लिया.

अयूब डार पर टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन (TADA) एक्ट के तहत मामला चला और उसे 2010 में उम्रकैद की सज़ा हुई. उसने सुप्रीम कोर्ट तक राहत के लिए अपील की, जो कि खारिज हो गई. फिलहाल वो श्रीनगर सेंट्रल जेल में बंद है.

16 मई 2023 को जम्मू कश्मीर पुलिस में स्पेशल DG, CID आर आर स्वैन ने बताया कि अब्दुल्ला बांगरू और अब्दुल रहमान शिगन सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में मारे गए. यहां एक जानकारी का अभाव है. कि शिगन, जिसे CID एक बार गिरफ्तार कर चुकी थी, वो किन परिस्थितियों में छूटा और एनकाउंटर में मारा गया?

खैर, अब बचे दो आतंकवादी - जावेद भट और मीरवाइज़ पर गोली चलाने वाला ज़हूर उर्फ बिलाल. स्वैन के मुताबिक ये दोनों पहले पाकिस्तान भागे. फिर काफी दिन नेपाल के पोखरा में छिपे रहे. कुछ सालों पहले ये कश्मीर लौटे और तब से एजेंसियों से बचने के लिए लगातार अपना नाम और पता बदल रहे थे. अब जाकर ये पुलिस के हत्थे चढ़े हैं.

RR स्वेन ने आगे बताया,

"दिल्ली से CBI की टीम इन दोनों के खिलाफ प्रोक्लेम्ड ऑफेंडर्स का नोटिस लेकर आई है. दोनों को उनकी हिरासत में सौंप दिया गया है. इन दोनों पर कोर्ट में मुकदमा चलेगा.'' 

हालांकि जम्मू-कश्मीर पुलिस की तरफ से ये नहीं बताया गया कि ये दोनों आरोपी कश्मीर कब आए थे. और दोनों को कब और कैसे गिरफ्तार किया गया. लेकिन इतना तो है कि कश्मीर की आवाम अब उस शख्स पर मुकदमा चलते देख सकती है, जिसने उनके मीरवाइज़ पर गोलियां दागीं.

मीरवाइज़ मौलवी फारूक के बाद क्या हुआ?

44 साल के मौलवी फारूक की जब हत्या हुई, तब उनके बेटे उमर फारूक की उम्र कुछ 17 साल थी. महीने भर के भीतर उमर फारूक को मीरवाइज़ बनाया गया. वो आज भी इसी ओहदे पर हैं. दिसंबर 1992 में उमर फारूक ने मीरवाइज़ मंज़िल पर एक बैठक बुलाई, जिसके बाद हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का जन्म हुआ. आवामी एक्शन पार्टी, हुर्रियत की सात एग्ज़ीक्यूटिव पार्टियों में से एक बनी. सितंबर 2003 में हुर्रियत भी दोफाड़ हो गई. एक गुट उदारवादी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस-M यानी मीरवाइज कहलाया, जो बातचीत से समाधान का पक्षधर था. दूसरे गुट के नेता थे सैयद अली शाह गिलानी, जो मानते थे कि तब तक बातचीत नहीं हो सकती, जब तक भारत मान न ले कि जम्मू कश्मीर विवादित इलाका है. 2014 में मीरवाइज़ धड़े वाली हुर्रियत में फिर एक बंटवारा हुआ. उमर फारूक, उग्रवाद/आतंकवाद से हमेशा एक सुरक्षित दूरी पर नज़र आते हैं. जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 निष्प्रभावी होने के बाद उनकी लंबी अघोषित नज़रबंदी चर्चा और विवाद का विषय रही है.

मौलवी फारूक की विरासत एक और तरह से ज़िंदा है. हुर्रियत हर साल मौलवी फारूक की बरसी - 21 मई के रोज़ एक मार्च का कॉल देती है. ये मार्च उस कब्रिस्तान तक जाता है, जहां फारूक दफन हैं. ऐसे ही एक मार्च के दौरान 2002 में हुर्रियत नेता अब्दुल गनी लोन की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.

आउटलुक वाले लेख को विराम देते हुए उबीर नक्शबंदी एक बड़ी मार्के की बात से कश्मीर की हिंसक विडंबना हमारे सामने रखते हैं -
मीरवाइज़ मौलवी फारूक और उनका हत्यारा अब्दुल्ला बांगरू, एक ही कब्रिस्तान में दफन हैं, जिसे कश्मीर में शहीदों का कब्रिस्तान कहा जाता है. 

इति.

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