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गोल्ड मेडल चाहने वाला भारत हॉकी देखता क्यों नहीं है?

भारत में हॉकी वर्ल्ड कप शुरू हो चुका है.

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सांकेतिक फोटो (साभार: आजतक)

जीके का एक सवाल है. भारत की मेन्स हॉकी टीम के कप्तान कौन हैं? गूगल नहीं करना है. मालूम हो, तो बताइएगा. क्या आपका जवाब मनदीप था? या श्रीजीश था. या हरमनप्रीत था? चलिए जीके छोड़िये, ये बताइए कि आपने आखिरी बार कब हॉकी का एक पूरा मैच देखा था?

हम अपने दर्शकों के IQ या पसंद-नापसंद पर टिप्पणी नहीं कर रहे हैं. हम बस उस खेल में उनकी दिलचस्पी को भांपना चाहते हैं, जिसमें एक वक्त ये देश सबसे आगे था. क्योंकि ओडिशा में शुरू होने वाले FIH Men's Hockey World Cup 2023 में भारत की संभावनाओं पर बात करते हुए हम अक्सर हॉकी के गोल्डन पीरियड के ''बीत'' जाने के मलाल में डूबे रहते हैं. ऐसा लगता है मानो हॉकी के खिलाड़ियों ने अचानक मन से खेलना बंद कर दिया, और सब खत्म हो गया. लेकिन इस सवाल का ज़िक्र कुछ कम होता है, कि हमारे तंत्र ने हॉकी का कितना साथ दिया? और हॉकी के दर्शक, माने हमने और आपने हॉकी की कितनी सुध ली. जो सवाल पूछे न जाएं, उन्हीं को पूछने का बीड़ा उठाया है दी लल्लनटॉप ने. 

भारत में हॉकी के पास शानदार इतिहास है. सोचिये क्या जलवा होगा उस टीम का, जिसने 1928 से 1956 तक लगातार 6 ओलंपिक गोल्ड मेडल जीते. 1964 और 1980 में एक एक गोल्ड और आया.  बीच में 1975 का साल भी आया था, जब हमने मलेशिया में हुए फाइनल में पाकिस्तान को 2-1 से हराया था. कप्तान अजीत पाल सिंह के हाथों में बड़ी सी ट्रोफी और चहरे पर एक चौड़ी मुस्कान, कौन भूल सकता है! ये रिकॉर्ड आज भी भारत को हॉकी के इतिहास की सबसे कामयाब टीम्स में से एक बनाता है. खासकर ओलंपिक्स की दुनिया में. सबसे कामयाब वाली बात पर आप हमें टोकें, उससे पहले हम बता दें कि आपने जो आंकड़े सुने, वो सिर्फ गोल्ड मेडल्स के हैं. सिल्वर और ब्रोन्ज़ मेडल की गिनती अलग है.

फिर ये कैसे हुआ कि, 1975 से लेकर 2021 के बीच एक पूरी पीढ़ी के दर्शकों ने हमारी टीम को पोडियम पर देखा ही नहीं. अब तक आपने जो सुना, उसी से आपको अंदाज़ा लग गया होगा. कि हम हॉकी में अच्छे थे. फिर नहीं रहे. और अब एक बदलाव की शुरुआत हुई है. संक्षेप में भारतीय हॉकी की कहानी यही है. जब सिक्का चल रहा था, तब की बात बहुत हुई है. इसीलिए हम कहानी के दूसरे हिस्से पर चलेंगे. जहां से भारतीय हॉकी लाइम लाइट से बाहर चला गया. इस विषय पर ESPN के लिए देबायन सेन ने एक बढ़िया पीस लिखा है. देबायन एक बड़ी महत्वपूर्ण बात से अपना लेख शुरू करते हैं - कि भारतीय हॉकी के पतन को सिर्फ एस्ट्रो टर्फ के आने, खिलाड़ियों की फिटनेस, कोच्स की रवानगी और झगड़ों के संदर्भ में देखना सही नहीं है. ये कारण हैं, लेकिन पूरी तरह नहीं.

सबसे पहले टैलेंट पूल छोटा हुआ. आज़ादी के वक्त भारत की हॉकी टीम में लगभग हर प्रांत और समाज से खिलाड़ी आ रहे थे. वीरेन रस्किन्हा के हवाले से देबायन लिखते हैं कि पूर्व में पश्चिम बंगाल, मुंबई, तमिल नाडु, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश से बड़े पैमाने पर खिलाड़ी निकलते थे. मेजर ध्यान चंद को कौन नहीं जानता? वो इलाहाबाद से थे, झांसी में पले-बढ़े, झांसी हीरोज़ के लिए खेले. झांसी के पड़ोस में ही पड़ता है ग्वालियर. यहां का कैप्टन रूप सिंह स्टेडियम, जहां सचिन तेंदुलकर ने 200 का स्कोर बनाया था, वो मेजर ध्यान चंद के भाई के ही नाम पर है. आप भी हॉकी के नामी खिलाड़ी थे. लेकिन समय के साथ हॉकी पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों से आने वाले खिलाड़ियों में सिमटता गया. हम अच्छे खिलाड़ी क्यों तैयार नहीं कर पा रहे?

लेकिन क्या एस्ट्रो टर्फ के आने का कोई रोल नहीं था? दर्शकों की जानकारी के लिए बता दें, कि एस्ट्रो टर्फ घास के मैदान जैसा दिखता तो है, लेकिन उसकी सतह बहुत अलग होती है. घास की तुलना में बहुत सपाट होता है. ऐसे में गेंद बड़ी रफ्तार से एक छोर से दूसरे छोर पर जाती है. भारत और पाकिस्तान जैसी टीमों की खूबी थी गेंद को अपने इशारे पर नचाना. ये काम घास के मैदान पर अच्छे से होता है. लेकिन टर्फ आते ही सारी बात स्पीड और फिटनेस पर आ जाती है. ऐसे में जब पहली बार हमारा सामना टर्फ से हुआ, तब हमारे खेल पर फर्क तो पड़ा, लेकिन ये शुरुआती सालों की ही बात थी. खामी उन तरीकों में थी, जिनसे हमने टर्फ की शक्ल में आए बदलाव को टैकल करने की कोशिश की. National Institute of Sport (NIS), Patiala में घास छीलकर मैदान को गोबर से लीप दिया गया! ये मानकर, कि ये टर्फ का अनुभव देगा. टर्फ वाले अच्छे मैदानों की गिनती भारत जैसे देश में धीमे ही बढ़ सकती थी. और यही हुआ भी. लेकिन बात सिर्फ टर्फ की ही नहीं थी. न हमारे पास जूते थे, और न बदलते वक्त के साथ आई हॉकी स्टिक्स. हम लकड़ी की स्टिक्स अपने साथ लेकर मॉन्ट्रिएल ओलंपिक में खेलने उतरे, जब दुनिया कार्बन और फाइबर ग्लास पर शिफ्ट हो चुकी थी.

एक आरोप लगाया जाता है, कि हम तभी तक अच्छा खेले, जब तक यूरोप के देशों ने हॉकी को प्राथमिकता नहीं बना लिया. एक बार वो पूरे दम से खेल में उतरे, तो हमारे पांव उखड़ने लगे.

हॉकी के पतन की कहानी में देबायन दो और महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिलाते हैं. कि इटरनैशनल हॉकी फेडरेशन FIH ने खेल के नियम भी इस तरह बदले, कि हमारी एडवांटेज पर फर्क पड़ने लगा. 1992 में ऑफ साइड का नियम खत्म हो गया. फिर एक वक्त वो था, जब 11 खिलाड़ियों की टीम पूरे 70  मिनिट खेलती थी. ऐसे में भारत की टीम सामने वाली टीम को पूरे वक्त परेशान करके रखती थी. लेकिन फिर सब्सटिट्यूशन का ज़माना आ गया. कोच बीच खेल में टैक्टिक्स को बदलने लगे. हमारे खिलाड़ियों के हिसाब से अपने खिलाड़ी उतारने लगे. हमारी खामी ये रही कि हम शिकायत करते रहे, बजाय खुद को बदलने के. और हमारे इर्द गिर्द दुनिया हमसे आगे निकलती रही. रही बात हॉकी के प्रशासन में गड़बड़ी की, तो उसपर अलग से ललित निबंध लिखा जा सकता है, जिसके लिए अभी वक्त नहीं है.

अब आते हैं कहानी के तीसरे हिस्से पर. उम्मीद वाले हिस्से पर. जिस हिस्से में हॉकी के अच्छे दिनों की आहट मिलती है. बीते 8 से 10 सालों में हॉकी में कौन से सुधार हुए?

ऐसे ही सुधारों का नतीजा था, कि 2021 के अगस्त में आपने भारतीय हॉकी टीम को टोकयो ओलंपिक्स में ब्रोंज़ मेडल जीतते हुए देखा. सुधार की बात हुई है, तो सुधार के नायकों की बात भी होनी चाहिए. और इसके लिए हम चलेंगे भारतीय हॉकी के नए पते, ओडिशा. जहां 11 जनवरी को कटक के बारामती स्टेडियम में मेन्स हॉकी वर्ल्ड कप की ओपनिंग सेरेमनी हुई. रणवीर सिंह, दिशा पाटनी जैसे बॉलीवुड के कलाकारों की पर्मफॉमेंस के जरिए देश का ध्यान खींचने की कोशिश हुई. 13 जनवरी यानी कल से विश्वकप की शुरूआत हो रही है. कुल 16 टीमें हिस्सा लेने वाली हैं. पहला मैच अर्जेंटीना वर्सेज साउथ अफ्रीका के बीच होगा.
 
लगातार दूसरी बार हिंदुस्तान हॉकी वर्ड कप की मेजबानी कर रहा है और दिलचस्प है कि दोनों ही बार ओडिशा अग्रणी भूमिका में है. जब टीम इंडिया ने ओलंपिक ब्रोंज़ मेडल जीता, तो याद होगा कि खिलाड़ियों के साथ और एक शख्स की तारीफ हो रही थी. वो थे ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक. जिन्होंने अपने सूबे को हॉकी इंडिया का मुख्य स्पांसर बनाया. हॉकी की जिनती मदद हो सकती थी, उतनी राज्य सरकार की तरफ से की गई.

ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में मौजूद राउलकेला में दुनिया का सबसे बड़ा हॉकी स्टेडियम बनाया गया. 20 हजार की क्षमता वाले स्टेडियम को महान क्रांतिकारी और आदिवासियों के देवता कहे जाने वाले बिरसा मुंडा के नाम समर्पित किया. इसके अलावा भुवनेश्वर के कलिंग स्टेडियम में भी वर्ल्ड कप मैच खेले जाएंगे. जिन सारे संसाधनों में कमी ने हॉकी को पीछे धकेला था, वो ओडिशा में हैं. और एक से ज़्यादा जगहों पर हैं.

एक सवाल आपके जहन में हो सकता है कि हॉकी के प्रति ओडिशा और खासकर सीएम नवीन पटनायक का लगाव क्या है? आपमें से कईयों ने दिलीप तिर्की का नाम सुना होगा. फिलवक्त हॉकी इंडिया के प्रेसिडेंट हैं. मगर ये उनका बड़ा ही तात्कालिक परिचय है. हॉकी टीम के लंबे वक्त तक कप्तान रहे, अकेले ऐसे ट्राइबल खिलाड़ी हैं जिन्होंने भारत के लिए तीन ओलंपिक खेले. ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले से ही ताल्लुक रखते हैं. बतौर कप्तान साल 2000 में ओडिशा के नए नवेले मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से इनकी मुलाकात होती है. नवीन पटनायक के करीबी बताते हैं, उस वक्त दिलीप तिर्की ने हॉकी पर विशेष ध्यान देने की अपील की. कहा- अगर आप हॉकी में इन्वेस्ट करते हैं तो ओडिशा भी वर्ल्डमैप पर छा सकता है. वहीं से सिलसिला निकल पड़ा. राज्य सरकार ने हॉकी खिलाड़ियों की ट्रेनिंग पर विशेष ध्यान दिया और इन्फ्रास्ट्रक्चर की दिशा में कदम बढ़ाया. 2014 में IPL के तर्ज पर शुरु हुई हॉकी इंडिया में ओडिशा सरकार ने कलिंगा लांसर की फ्रेंचाइजी ली. 2014 के साल में ही FIH चैपिंयस ट्रॉफी का आयोजन ओडिशा में कराया गया. जिसमें विश्व की टॉप 8 टीमें खेलीं. 2018 के साल में हॉकी विश्व कप आयोजन भी भुवनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम में हुआ. 2021 में जूनियर मेंस वर्ल्डकप भी ओडिशा के खाते में गया. और अब होने जा रहा है मेन्स हॉकी विश्वकप.

260 करोड़ की लागत से राउलकेला में बने बिरसा मुंडा स्टेडियम में विश्व स्तर की फेसलिटी, खिलाड़ियों को प्रोवाइड की जा रही है. ओलंपिक विलेज के तर्ज पर स्टेडियम प्रेमाइसिस में ही 225 कमरे का हॉकी विलेज बनाया गया है, जहां देश-विदेश के खिलाड़ियों के रुकने, रहने और खाने-पीने की व्यवस्था की गई है. एक फाइव स्टार होटल को कैटरिंग का काम दिया गया है. अब तक होता ये था कि यूरोप में भी जब हॉकी विश्वकप होते थे, तब फुटबॉल के स्टेडियम को कुछ दिनों के लिए हॉकी स्टेडियम में तब्दील कर दिया जाता था। लेकिन ओडिशा ने हॉकी को ही फोकस बनाकर सारी सुविधाएं जुटाई हैं. ये हॉकी के इतिहास में बिलकुल अनोखा और नया प्रयोग है. स्टेडियम में राज्य की खूबी दिखाते हुए पेटिंग्स भी बनाई गई हैं.  इसके अलावा राउलकेला में मौजूद एयरस्ट्रिप जो अब तक सिर्फ स्टील प्लांट के लिए इस्तेमाल की जाती थी, उसे भी खिलाड़ियों को लाने, ले जाने वाले चार्टेड प्लेन्स के लिए खोल दिया गया है.

ओडिशा की पटनायक सरकार की तारीफ इसलिए हो रही है, क्योंकि उन्होंने ना सिर्फ राज्य में बल्कि देश की हॉकी टीम की भी मदद की. जैसे हमने पहले भी जिक्र किया. ओडिशा सरकार हॉकी इंडिया की मेंस और वुमेंस दोनों ही टीम की स्पांसर है. बीते ओलंपिक में अच्छे प्रदर्शन के बाद उन्होंने स्पॉन्सरशिप को साल 2033 तक बढ़ा दिया है. इससे पहले ये करार सिर्फ 2024 तक के लिए था.

अब सभी को इंतजार 13 जनवरी का है. जब 20 हजार की क्षमता वाले राउलकेला के स्टेडियम में भारत और स्पेन की टीमें आमने-सामने होंगी. सिर्फ राज्य ही नहीं स्थानीय लोगों की उम्मीदें इससे बहुत ज्यादा है. जब टीम इंडिया शहर में पहुंची तो सड़कों निकल कर लोगों ने उनका इस्तेकबाल किया. ओडिशा का एक आदिवासी जिला सुंदरगढ़, जिसने अब तक दिलीप तिर्की समेत 16 इंटरनेशनल हॉकी खिलाड़ी दिए हैं. वो विश्वस्तर पर देखा जाने वाला है. राज्य सरकार ने हॉकी को गांव-गांव दिखाने के लिए भी विशेष तैयारी कर रखी है. जिसमें जिले की 279 पंचायतों के साथ राज्य की कुल 6 हज़ार 798 पंचायतों में LED स्क्रीन के जरिए लाइव मैच दिखाए जाएंगे.  अंत हम भारतीय मेन्स हॉकी टीम को शुभकामनाएं देते हुए करते हैं. हम ये भी कहते हैं कि ओडिशा में हो रहे मुकाबलों में आई सारी टीमें हॉकी स्पिरिट के साथ खेलें and may the best team win.

वीडियो: दी लल्लनटॉप शो: क्रिकेट प्रेमियों के देश को हॉकी वर्ल्ड कप 2023 कैसे दिखाया जाए