कोई भी भाषा सीखने का एक प्रोसेस होता है. हम सबसे पहले सीखते हैं वर्णमाला यानी अल्फाबेट. इसके बाद सीखते हैं हम शब्द. जैसे- र से राम या A for Apple. और इसके बाद सीखते हैं वाक्य पढ़ना, वाक्य बनाना. अंग्रेजी में इसे सेंटेंस फार्मेशन कहते हैं. अब भाषा हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, जर्मन कुछ भी हो. प्रोसेस यही होता है.
'मम्मी के स्कूटर' और 'पापा की रोटी' में वो है जो इस समाज में होना चाहिए
सीखने सिखाने के क्रम आपने गौर किया होगा कि बच्चों को जो वाक्य सिखाए जाते हैं उनमे कितना जेंडर स्टेरियोटाइप है. जेंडर स्टीरियोटाइप यानी कौन, क्या करेगा या क्या कर सकता है इसका निर्धारण उसके टैलेंट के आधार पर नहीं, बल्कि उसके लिंग के आधार पर किया जाए.
पिछले कुछ दिनों में मुझे एक दो पोस्ट दिखी जिसमें मुझे बदलाव की उम्मीद दिखी और उसी के साथ आई नास्टैल्जिया की वेव जिसने मुझे मेरे बचपन के दिनों की याद दिला दी.
वाक्य पढ़ना या लिखना सिखाते वक़्त शुरुआत एकदम बेसिक शब्दों से होती है, ऐसे शब्द जिनमें बहुत कम मात्राएं होती है.
जैसे- कमल खिलता है. राम स्कूल जाता है. पापा काम पर जाते हैं. रानी सफाई करती है. मां खाना पकाती है. टाइप.
लेकिन इस सीखने सिखाने के क्रम को आपने कभी ओब्सर्व किया होगा तो ये बात ज़रूर नोटिस की होगी कि जो उदहारण दिए जाते हैं या जो वाक्य सिखाए जाते हैं उनमे कितना जेंडर स्टेरियोटाइप है. जेंडर स्टीरियोटाइप यानी कौन, क्या करेगा या क्या कर सकता है इसका निर्धारण उसके टैलेंट के आधार पर नहीं, बल्कि उसके लिंग के आधार पर किया जाए.
हमेशा राम या मनोज ही स्कूल जाते दिखेंगे, पलक या गुनगुन ही सिलाई करते दिखेगी, पापा ही काम पर जाएंगे और हमेशा खाना मां ही बनाएगी या दीदी ही परोसेगी. कभी आपको मनोज सिलाई करता या पापा खाना पकाते नहीं दिखेंगे. कामों को लेकर हमारे दिमाग में जो जेंडर डिवाइड भरता है, उसकी शुरूआत यहीं से होती है. ऐसे ही उदाहरणों से और इतनी ही कच्ची उम्र से.
खैर, अब आते हैं उन दो पोस्ट पर जिसे देखकर मेरी उम्मीद जगी. सबसे पहले आप ये तस्वीर देखिए.
फेसबुक पर ये पोस्ट 5-6 दिन से खूब वायरल है. अब किस क्लास की या कौन से पब्लिशर की किताब है, इसकी पुष्टि तो हम नहीं कर सकते, लेकिन जो लिखा है उसपर ज़रूर बात कर सकते हैं. चैप्टर का टाइटल है- Changing roles of girls and boys. इस चैप्टर में लड़के और लड़कियों के लिए कैसे घर के काम से लेकर खेल तक अलग अलग कर दिए जाते हैं इसपर बात हुई है. साथ ही ये भी बताया गया कि कैसे अब वो रोल्स बदल रहे हैं लड़के और लड़कियों के लिए, जिसे सोसाइटी ने तय किया था और किस तरह लड़का या लड़की होना किसी काम करने के लिए बाधा नहीं है इन सब पर बात हुई है. इसी के साथ एक फोटो भी है. जिसमें एक तरफ बच्चे के बाल रंगे हैं और दूसरी तरफ एक बच्चा फुटबॉल के साथ दर्शाया गया. निचे पूछा गया इसमें लड़का कौन है और लड़की कौन? आगे स्पष्ट किया गया कि बहुत से लोग सोचते हैं बाल रंगना लड़कियों का काम है और फुटबॉल खेलना लड़कों का. क्या आप इस बात से सहमत हैं? अगर हैं या नहीं हैं तो टीचर को बताइए.
बेसिकली ये बच्चे को इंट्रोस्पेक्ट यानी खुद से सवाल करने का मौका दे रहा है, ताकी जो स्टीरियोटाइप उसने सीखे उसे अनलर्न कर सके.
कुछ दिन पहले मुझे एक और ट्वीट दिखा था. आईएएस अवनीश शरेन ने इसे शेयर किया था.
दो कविताएं हैं. पहली का नाम है मम्मी का स्कूटर.
दूसरी कविता का शीर्षक है, पापा की रोटी
दोनों कविताएं जेंडर स्टीरियोटाइप तोड़ती है. लड़कियां भी गाड़ी चला सकती हैं और चलाती हैं. दबंग शब्द उनके लिए भी पॉजिटिव सेंस में इस्तेमाल हो सकता है. पापा भी खाना बनाते हैं और अगर वो सीखते वक़्त कुछ गलतियां कर रहे हैं तो उसका स्पेस देना चाहिए. ये भाव इनमें बताए गए.
छोटे बच्चों को जेंडर सेंसेटिव बनाने की ये पहल देखना कितनी सुखद अनुभूति है. और ऐसे पोस्टर बनाने का,कविताएं और कहानियां लिखने का काम बाल साहित्य छापने वाले कई प्रकाशन समूह कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, जो पोस्टर आपने देखे वो इकतारा इंडिया ने बनाए हैं. इसी तरह बाल साहित्य पर काम कर रहा है एकलव्य फाउंडेशन. जिनकी चकमक मैगज़ीन बच्चों में खूब पॉपुलर हैं. बच्चों क्या, मेरे जैसे बड़ों में भी. उनकी इस पहल को समझने के लिए मैंने बात की एकलव्य की पब्लिकेशन कोर्डिनेटर दीपाली शुक्ला से. मैंने उनसे पूछा कि उनकी नज़र में बाल साहित्य या बाल कथाओं में जेंडर इक्वॉलिटी के मुद्दे क्यों ज़रूरी हैं. उन्होंने बताया,
"बाल साहित्य में जेंडर बहुत ज़रूरी है. जब हम समाज में समानता की बात कर रहे होते हैं, तब उनमे वो भाव लाना ज़रूरी है कि कोई काम कोई भी कर सकता है. बाल कहानी आपको बताती है कि समाज में विविधता है और बच्चे को उससे रूबरू होना चाहिए. अलग अलग किरदार और किस्सों के ज़रिए. zकोई बच्चा अगर लड़का है और वो उस आइडेंटिटी में सहज नहीं है, तो वो बात होनी चाहिए क्यूंकि हमारे आस पास ऐसे बहुत से बच्चे हैं जो अपनी जेंडर आइडेंटिटी के साथ कम्फर्टेबल नहीं हैं. सभी की कहानियां आनी चाहिए, जेंडर रोल्स जो तय किए गए हैं उससे बाहर निकलना चाहिए."
दीपाली जिस आइडेंटिटी इशू का ज़िक्र कर रही थी वो उससे जुड़ा एक पोस्टर मेरी डेस्क पर लगा है.
साइकिल पर बैठी एक बच्ची पूछ रही है,
"मम्मी मैं बड़ी होकर क्या बनूंगी? लड़का या लड़की?"
वैसे तो ये सवाल मासूमियत में बच्ची पूछ रही है. पर ज़रा सोचकर देखिए, कितना गहरा सवाल है. कितने ही बच्चे हैं है जो उस जेंडर में कम्फर्टेबल फील नहीं करते जिसमें वो पैदा हुए. चाहे बात होमोसेक्शुएलिटी (homosexuality) की हो या ट्रांसजेंडर (transgender) की, इनके एक्साम्प्ल या इनकी बातें हमारे बीच कभी नहीं आती. बचपन से हमें सिर्फ दो जेंडर के बारे में बताया गया, मेल और फीमेल. हमें कभी स्कूल ने ये नहीं सिखाया कि सेक्स और जेंडर एक ही चीज है. मगर जेंडर स्टीरियोटाइप ब्रेक करने वाले एक्साम्प्ल बच्चों के करिकुलम में देखकर मुझे उम्मीद जगी की जिस बराबरी और उसके लिए ज़रूरी बदलावों की हम बात करते हैं वो अब सिर्फ कल्पना नहीं है. धीरे-धीरे ही सही, पर बदलाव हो रहे हैं और इसी बदलाव के क्रम में ट्रांसपर्सन और होमोसेक्शुएलिटी के बारे में भी हमें बताया पढ़ाया जाएगा. तो एक अच्छे फ्यूचर की कामना करते हैं. अपनी राय ज़रूर रखें कमेंट बॉक्स में. शुक्रिया.
टिप-टॉप: चेहरे को डबल क्लींज करने की सही तरीके जान लीजिये